क्या ‘न्यायमूर्ति’ झा नहीं चाहते थे कि महाराज ‘वसीयत’ में अपने पिता की इकलौती बेटी का नाम लिखकर “इतिहास रचने का श्रीगणेश करें” (भाग-41)

दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह (दाहिना) और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति लक्ष्मी कांत झा (बायां) (दोनों दिवंगत) 

दरभंगा / पटना / कलकत्ता : दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के जीवन पर, उनकी जीवन शैली पर, समाज और राष्ट्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर, समाज के प्रति उनकी आत्मीयता पर, उनके दानशीलता पर, शिक्षा के प्रति उनके लगाव पर, मातृभूमि के प्रति उनके सम्मान पर, दरभंगा ही नहीं बल्कि भारत के विभिन्न राज्यों में लोगों के कल्याणार्थ ‘अविभाजित’ भारत से लेकर ‘दो-फांक’ हुए भारत में उन्होंने जो भी किया, कोई दूसरा नहीं किया। इतिहास के पन्नों से “चाहते हुए भी” उनके कार्यों को कोई “निरस्त” नहीं (देश की राजनीतिक व्यवस्था और उनके ही परिवार की पीढ़ियों को अपवाद में रखें) कर सकता है। उनके ऐसा दानशील व्यक्ति शायद आने वाले समय में मिथिलाञ्चल में जन्म भी नहीं लेगा, उनके वंश में भी नहीं। एक सामाजिक-परिवर्तन के मामले में, महिलाओं को पुरुषों के बराबर अधिकार देने के मामले में, वे बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर के ‘बराबर’ खड़े होते; अगर “उस दिन वसीयत पर हस्ताक्षर करते समय अपनी सगी बहन का नाम लिखने में नहीं चूकते।” दुःर्भाग्य की बात यह थी कि वसीयत पर हस्ताक्षर करते समय पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश “न्यायमूर्ति” लक्ष्मी कान्त झा उनके बगल में खड़े थे, परन्तु उन्होंने भी “इतिहास रचने” के लिए “सुझाव” नहीं दिया।

अगर उस दिन वे “अपनी आत्मा की बात सुनते”, वे “मानवीय नियमों” के तहत ही सही, अपने पिता की एकमात्र बेटी श्रीमती लक्ष्मी देवी का नाम पैतृक संपत्ति के बंटवारे के समय “वसीयत” में उल्लिखित कर देते, तो इतिहास बन जाता । सन 1951 में जिस कार्य की शुरुआत बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर हिन्दू कोड बिल संसद में पेश कर किया था – महिलाओं को पिता की संपत्ति में लड़कों के बराबर अधिकार देने की बात – और सन 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन कर वर्तमान सरकार और न्यायिक व्यवस्था को देश की कुल 662.90 मिलियन (कुल आबादी का 48.04 फीसदी) महिलाओं की दुआएं लेने का अवसर नहीं मिल पाता। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। यह अलग बात है कि महाराजा रामेश्वर सिंह की उस एकमात्र बेटी को, उसके पति को दरभंगा राज से बहुत कुछ मिला। परन्तु महाराजाधिराज ने वह नहीं दिया – “पैतृक संपत्ति के बंटवारे में उसका सम्मान” और वसीयत में उसकी भागीदारी। महाराजाधिराज “संतानहीन” हो सकते हैं, लेकिन अपने जीवन के अंतिम वसीयत में उन्हें “हृदयहीन” देखकर मन दुखी हो गया।

महाराजाधिराज कन्हैया झा के विवाह में बाराती के रूप में (तस्वीर: कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन के सौजन्य से) 

महाराजाधिराज के बारे में अनेकों लोगों ने लिखा है अब तक। कई किताबें अब तक लिखी जा चुकी हैं। महाराजाधिराज के कार्यों को समाज के कोने-कोने तक पहुंचाने के लिए उनकी सबसे छोटी पत्नी “महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन” भी स्थापित की। महाराजाधिराज ना केवल सिर्फ एक बड़े जमींदार और उधोगपति (मृत्यु के बाद सभी उद्योगों को उनकी अगली पीढ़ी समाप्त कर दी) थे, बल्कि मिथिला और देश में चतुर्दिक विकास के लिए एक उपयुक्त व्यक्ति भी थे। यह सर्वविदित है कि उन्होंने शिक्षा के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, बिहार विश्वविद्यालय, और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, मिथिला रिसर्च इंस्टिट्यूट, दरभंगा मेडिकल कॉलेज आदि के निर्माण में बहुत बड़ी राशि दान दिए। देश की राजनीतिक पार्टियों और स्वयमसेवी संस्थानों के उन्नयन में उसका हाथ पकडे। द्वितीय विश्वयुद्ध में वायुसेना को तीन लड़ाकू विमान दिए। उनके द्वारा लाभार्थी व्यक्तियों में डा0 राजेंद्र प्रसाद, मौलाना अबूल कलाम आजाद, सुभाष चन्द्र बोस, महत्मा गाँधी, महाराजा ऑफ़ जयपुर, रामपुर के नवाब, और दक्षिण अफ्रीका के स्वामी दयाल सन्यासी शामिल हैं। इतिहास गवाह है कि महाराजाधिराज सन 1933-1946 तक, 1947-1952 तक देश के संविधान सभा के सदस्य भी रहे। उन्हें 1 जनवरी 1933 को भारतीय साम्राज्य के सबसे प्रतिष्ठित आदेश का नाइट कमांडर बनाया गया।  यह अलग बात थी कि उनके समय-काल में ही देश आज़ाद हुआ और भारत में जमींदारी प्रथा की समाप्ति भी हुयी। यह भी अलग बात है कि जिस राजनेताओं और तत्कालीन व्यवस्थापकों को अपने समय काल में उन्होंने भरपूर आर्थिक मदद की थी, जमींदारी प्रथा की समाप्ति के विरुद्ध भारत के न्यायालयों में दायक किसी भी मुकदमों में वे सभी साथ नहीं दिए।

इतना ही नहीं, एक रिपोर्ट के अनुसार स्वतंत्रता सेनानी और बिहार विधान सभा के सदस्य जानकी नंदन सिंह के अनुसार: “एक बार जब महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद जी के साथ दान लेने के लिए दरभंगा आये तो उन्होंने महाराजाधिराज से एक लाख रुपये दान की अपेक्षा की थी। लेकिन उस समय वो हतप्रभ रह गए जब उन्हें सात लाख का चेक मिला। वो लोग भी महाराजाधिराज के दान देने के प्रवृति के कायल हो गए।” महाराजाधिराज भारत के राजनीतिक क्षितिज पर अपने जीवन के अंतिम सांस तक छाए रहे। भारत के सभी राजा-महाराजाओं में उनका एक विशेष स्थान था। वे भारत धर्म महामंडल के अध्यक्ष भी रहे। वे बिहार में जमीन एसोसिएशन के आजीवन अध्यक्ष और अखिल भारतीय भूमिधारी की एसोसिएशन और बंगाल जमीन एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में भी कार्य किया । वे संविधान सभा के सदस्य रहे।

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राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह और दरभंगा राज के तत्कालीन मैनेजर जी पी दंबी (तस्वीर: कामेश्वर सिंह कल्याणी फॉउंडेशन के सौजन्य से)

सन् 1931 में लंदन में हुए गोलमेज सम्मेलन के सबसे कम उम्र के प्रतिनिधि थे। वे सबसे अधिक तब चर्चित हुए जब चर्चिल की भतीजी से महात्मा गांधी की पहली प्रतिमा बनवाएं और फिर प्रदर्शन के लिए भारत की वायसराय के समक्ष प्रस्तुत 1940 में प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं,  दक्षिण अफ्रीका में स्वामी भवानी दयाल संन्यासी को रंगभेद के खिलाफ संघर्ष में काफी मदद किये। भूदान आन्दोलन में  विनोबा भावे को 1,15,000 एकड़ भूमि दान किये। लेकिन “वसीयत के निर्माण के समय वे नहीं किए जो उन्हें अपने पिता की इकलौती बेटी के लिए करनी चाहिए – संपत्ति के बंटवारे वाले दस्तावेज पर उसका नाम उद्धृत करना, उसे भी आधिकारिक रूप से संपत्ति में हिस्सा देना।” यह अलग बात थी कि उस समय के कानून में पैतृक संपत्ति में बेटी का वह महत्व नहीं था, जो सन 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन के बाद मिला। इस कहानी को लिखते समय यह सोचता हूँ कि अगर महाराजाधिराज अपनी अपनी पैतृक संपत्ति के बंटवारे से सम्बंधित वसीयत में अपने पिता की इकलौती बेटी को आधिकारिक रूप से सम्मान के साथ स्थान दिए होते तो शायद हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में जो संशोधन 2005 में हुआ, उसकी बुनियाद 5 जुलाई, 1961 को रखा गया होता। आश्चर्य की बात तो यह है कि मिथिलांचल में विद्वानों और विदुषियों की बाढ़ होने के वाबजूद किसी ने महाराजाधिराज को सलाह नहीं दिए।

महाराजाधिराज की दो बातें आज की पीढ़ी के लोग शायद स्वीकार नहीं करेंगे – उन्होंने भले सम्पूर्ण भारत में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किये हों, अनेकानेक दान दिए हों भारत के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना में; लेकिन शिक्षा का प्रकाश अपने परिवार की महिलाओं तक नहीं आने दिए। और दूसरा: अपने पिता महाराजा रामेश्वर सिंह की इकलौती बेटी और दो भाइयों में अकेली बहन (स्वाभाविक है संपत्ति उनकी पिता महाराजा रामेश्वर सिंह, उनके भाई महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह और पूर्व की पीढ़ियों से आ रही थी) श्रीमती लक्ष्मी देवी का नाम उल्लिखित नहीं किया । यह सत्य था कि तत्कालीन समाज में हिंदू उत्तराधिकार कानून, 1956 के तहत बेटियों को पिता की सम्पत्तियों में हिस्सा नहीं मिलता था। और यह भी सत्य है कि श्रीमती लक्ष्मी देवी के पति ओझा मुकुंद झा यह फिर उनके संतान कन्हैया झा को “दूसरे तरह से” दरभंगा राज की सम्पत्तियों में हिस्सा मिला, लेकिन “दस्तावेज” पर उद्धृत नहीं होना, आधिकारिक दृष्टि से महाराजधिराज की सोच को “तनिक छोटा” कर देता है। इतनी “छोटी सोच” कैसे हो सकती है जो तत्कालीन समाज सुधारक महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का ? ओझा मुकुंद झा और लक्ष्मी देवी की मृत्यु कैंसर से सं 1970 के आस-पास होती है। जबकि कन्हैया झा, जिन्होंने महाराजाधिराज को मुखाग्नि भी दिए थे, की मृत्यु सन 1972 में हुई ।

बहरहाल, कलकत्ता उच्च न्यायालय के एक दस्तावेज में लिखा दिखा: “Maharajadhiraj Rameshwar Singh had died leaving behind two sons and one daughter, namely Kameshwar Singh, Visheshwar Singh and Laxmi Devi. After the death of Maharajadhiraj Rameshwar Singh, his elder son namely Maharajadhiraj Kameshwar Singh succeeded by law of primogeniture of the impartible estate „Gaddi‟ of late Maharajadhiraj Rameshwar Singh. The younger brother of Maharajadhiraj was given the property at Raj Nagar. Maharajadhiraj had three wives. His second wife Maharani Kameshwari Priya died during his lifetime prior to 1956. His younger brother also died during the lifetime of his brother Kameshwar Singh.”

वसीयत

ज्ञातब्य हो कि अपनी मृत्यु से पूर्व 5 जुलाई 1961 को कोलकाता में उन्होंने अपनी अंतिम वसीयत की थी। महाराजाधिराज अपनी मृत्यु से पहले अपनी पत्नियों, परिवार के लोगों के लिए “अपेक्षित” धन-दौलत बाँट दिए। शेष दरभंगा के लोगों के लिए दे दिए ट्रस्ट के अधीन जो मानव कल्याण के लिए निमित्त बनाये। कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर 1963 को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा, अधिवक्ता, माननीय उच्चतम न्यायालय, वसीयत के एकमात्र एक्सकुटर बने और एक्सेकुटर के सचिव बने पंडित द्वारिकानाथ झा । वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवाशी होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बाँटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवाशी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह , राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था ।

महाराजाधिराज द्वारा बनाये गए दस्तावेज के अनुसार : “I bequeath the property mentioned in Schedule ‘A’ to my wife Maharani Rajlakshmi for her life for her residence only. She shall be entitled to reside in the said house and use the furniture and fittings solely without let or hindrance by anybody. After her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshwara Singh absolutely.” और क्या चाहिए ? महारानी राज्यलक्ष्मी जी का देहावसान हो गया। दस्तावेज के अनुसार उक्त संपत्ति महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का हो गया “अब्सॉल्युटली” – आगे कुमार शुभेश्वर सिंह भी मृत्यु को प्राप्त किये। स्वाभाविक है यह संपत्ति उनके दो पुत्रों को हस्तगत हुआ होगा। उसी तरह, दस्तावेज में आगे लिखा है: “Similarly, I bequeath the property mentioned in Schedule ‘B’ to my wife maharani Kamsundari for her life for her residence only (and for no other purpose) and at her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshwar Singh absolutely.” यहाँ, महारानी कामसुंदरी जी, अपने जीवन का करीब 90-बसंत देखी हैं, स्वस्थ हैं और उनके अच्छे स्वास्थ्य की कामना मिथिलांचल का लोग करते हैं। लेकिन, महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का देहांत हो गया। स्वाभाविक है, महारानी कामसुंदरी जी के नाम की संपत्ति उनके जीते-जी अभी दूसरों को हस्तगत नहीं हो सकती है।

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महाराजा साहेब अपने वसीयत में अपनी दोनों पत्नियों के नाम संपत्ति तो कर दिए, लेकिन वसीयत में आगे यह भी लिख दिए कि: “Subject to the disposition and bequeath mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees, consisting of persons named and described in Schedule ‘C’ who will hold the property in trust for my two wives and the children of my aforesaid three nephews.” यानी महाराजाधिराज अपनी दोनों पत्नियों को जो भी सम्पत्तियाँ दिए, उसकी सम्पूर्ण देखरेख के लिए “ट्रस्ट” बना दिए।  यानी महारानियों को उनके जीते-जी उन संपत्तियों पर प्रत्यक्ष रूप से कोई “अधिकार” नहीं रहा। ट्रस्ट को अधिकृत किया गया कि वह “कैपिटल एसेट्स” से महारानी राजलक्ष्मी को आठ लाख रुपये और छोटी महारानी कामसुन्दरी को 12 लाख रुपये देगा, साथ ही, यह भी अधिकृत किया की “भवनों से सम्बंधित जितनी भी सम्पत्तियाँ हैं उसका सम्पूर्णता के साथ मरम्मत, रखरखाव हो।

वसीयत

दस्तावेज में आगे लिखा है, जैसा की वादी ने न्यायालय को भी बताये कि “Subject to the dispositions and bequeath mentioned above my entire residue of my estate shall vest in a Board of Trustees consisting of persons named and described in Schedule “C” who hold the property in trust for my two wives and the children of my aforesaid three nephews (sons of my deceased brother). The Trustees shall pay out capital assets Rs. 8 (eight) lacs to Maharani Rajyalakshmi and Rs. 12(twelve) lacs to Maharani Kamsundari, and keep the properties, particularly the house properties in proper repairs. On the demise of my two wives, one-third of the properties shall vest in the children of my youngest nephew Rajkumar Subheshwara Singh born of a wife of his own Brahman Community, and one-third will be divided between the children of my other two nephews, Rajkumar Jeeveshwara Singh and Rajkumar Yajneshwara Singh and one-third will remain in Trust for public charitable purposes.

वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो गई और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर” बनते हैं, साथ ही, 26 सितम्बर, 1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट” करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा को प्राप्त होता है और फिर प्रारम्भ होता है “पारिवारिक जंग” – लेकिन एक छः पन्ने के दस्तावेज में इस बात को बहुत ही प्राथमिकता थे स्थान दिया गया है “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एक मात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों, के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। फेमिली सेटेलमेंट का दस्तावेज मार्च 27, 1987 को लिखा गया।

वसीयत

महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा महेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र थे। महाराजा महेश्वर सिंह दरभंगा राज के 16 वें महाराजा थे, जिनके समय काल आते-आते दरभंगा राज तत्कालीन भारत के मानचित्र पर अपनी अमिट स्थान बना लिया था। कहा जाता है कि जब महाराजा महेश्वर सिंह की मृत्यु हुई उस समय लक्ष्मेश्वर सिंह महज दो वर्ष के थे। महाराजा महेश्वर सिंह सं 1850 से 1860 तक दरभंगा के महाराजा रहे। महाराजा महेश्वर सिंह की मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह सं 1880 से 1898 तक कुल 18 वर्ष राजगद्दी पर आसीन रहे। कहा जाता है कि दरभंगा के महाराजा के रूप में ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय देते थे। अपने शासनकाल में इन्होंने स्वयं को सम्पूर्णता के साथ सार्वजनिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिए ।

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सं 1898 में महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके अनुज रामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजा बने। इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि से अलंकृत किया गया। महाराज रामेश्वर सिंह भी अपने अग्रज की भाँति विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार नरेन्द्र थे। महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह को दरभंगा राज की राजगद्दी पर बैठने के बाद रामेश्वर सिंह को दरभंगा राज का बछोर परगना दी गयी और रामेश्वर सिंह ने अपना मुख्यालय राजनगर को बनाया l उनकी अभिरुचि भारतीय संस्कृति और धर्म में था। महाराजा रामेश्वर सिंह ने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाये तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। महाराजा रामेश्वर सिंह अपने मृत्यु के पीछे दो पुत्र – कामेश्वर सिंह और दूसरे विशेश्वर सिंह – तथा एक बेटी –  लक्ष्मी देवी – छोड़ गए। महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनके बड़े पुत्र कामेश्वर सिंह दरभंगा राज की गद्दी पर बैठे। जबकि छोटे भाई विश्वेश्वर सिंह को राज नगर की संपत्ति दी गई।महाराजा रामेश्वर सिंह की मृत्यु (3 July 1929) के बाद कामेश्वर सिंह दरभंगा के महाराजाधिराज बने और उनके छोटे भाई विशेश्वर सिंह महाराजकुमार  बने। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह दरभंगा के अंतिम महाराजा अपनी अंतिम सांस तक बने रहे।

वसीयत

महाराजाधिराज तीन पत्नियों के बावजूद “संतानहीन” थे। जबकि विश्वेश्वर सिंह के तीन पुत्र थे – राजकुमार जीवेश्वर सिंह, यज्ञेश्वर सिंह और शुभेश्वर सिंह और श्रीमती लक्ष्मी देवी की पीढ़ियां आज भी हैं (विस्तार से आगे लिखूंगा) । कुमार जीवेश्वर सिंह को कोई पुत्र नहीं, बल्कि दो विवाहों में साथ बेटियां हुई। कुमार यज्ञेश्वर सिंह को तीन पुत्र – रत्नेश्वर सिंह, रष्मेश्वर सिंह (दिवंगत) और रितेश्वर सिंह हुए। रत्नेश्वर सिंह को कोई संतान नहीं है। जबकि रितेश्वर सिंह को एक पुत्र है। इसी तरह शुभेश्वर सिंह को दो पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह हुए।राजेश्वर सिंह को दो पुत्र और कपिलेश्वर सिंह को एक पुत्र हुआ। 

बहरहाल, लड़कियों के हित के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन किया गया। संशोधित नियम के तहत, बेटियों को पैतृक संपत्ति में बराबरी का हिस्सा देने की बात कही गई।  बेटी अपने मायके की संपत्ति में अपने भाई के बराबर की हिस्सेदार होगी। लेकिन इसके साथ ही कुछ शर्तें भी जोड़ी गई। केवल कुछ परिस्थितियों में ही बेटी को हिस्सा मिल सकता था। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में बताया गया है कि अगर वसीयत बनाने से पहले ही किसी हिन्दू व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उस व्यक्ति की सम्पत्ति को उसके उत्तराधिकारियों, परिजनों या सम्बन्धियों में कानूनी रूप से किस तरह बांटा जाना है। अगर मरने वाले के परिवार में बेटे और बेटियां है, ऐसे में बेटों द्वारा अपना हिस्सा चुनने के बाद ही बेटियों को हिस्सा मिलेगा। हालांकि अगर बेटी अविवाहित, विधवा या पति द्वारा छोड़ दी गई है तो कोई भी उसके घर में रहने का अधिकार नहीं छीन सकता। वहीं विवाहित महिला को इस प्रावधान का अधिकार नहीं मिलता। साल 2005 में 9 सितंबर को हिंदू उत्तराधिकार कानून 1956 में बदलाव किया गया। अब पैतृक संपत्ति में बेटियों को बराबर का हिस्सा होगा। चाहे बेटी शादीशुदा हो, विधवा हो, अविवाहित हो या पति द्वारा छोड़ी गई हो। विरासत में मिली संपत्ति में बेटी का जन्म से ही हिस्सा बन जाता है। जबकि पिता की खुद खरीदी हुई संपत्ति वसीयत के अनुसार बांटी जाती है। साल 2020 में सुप्रीम कोर्ट के फैसला सुनाते हुए यह स्पष्ट किया था कि अगर किसी के पिता की मौत 9 सितंबर 2005 के पहले भी हुई हो,तब भी बेटी का अपने पैतिृक संपत्ति पर पूरा हक होगा।

ज्ञातव्य हो कि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने साल 1951 में हिन्दू कोड बिल संसद में पेश किया था. जिसके अनुसार पुरुषों के एक से ज्यादा शादी करने पर रोक लगाने, महिलाओं को तलाक लेने का अधिकार देने और महिलाओं को पिता की संपत्ति में लड़कों के बराबर अधिकार देने की बात कही गई थी। महिलाओं के लिए संसद में पेश किए गए इस बिल का जमकर विरोध हुआ था। हिन्दू महासभा ने इसे हिन्दू धर्म के लिए खतरा कहा था ……….क्रमशः 

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