क्या दरभंगा के महाराजा, राजाबहादुर ‘कुत्ता’ पालने से पूर्व अपने ‘ग्रह-नक्षत्रों’ को आकें थे? शायद नहीं (भाग-37) 

राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंह अपने जर्मन शेफर्ड के साथ। तस्वीर रमन दत्त झा के सौजन्य से 

दरभंगा / बनारस : आप माने अथवा नहीं। दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह और उनके अनुज राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह की मृत्यु “असामयिक” हुई। भारत के लोग ऐसी मृत्यु को “अकाल मृत्यु” भी कहते हैं। क्योंकि 54 और 58 वर्ष की आयु “मृत्यु” की नहीं होती है। महाराजाधिराज और राजबहादुर के समय काल में दरभंगा राज में “श्वान” को बिना किसी वास्तु शास्त्र या ज्योतिष शास्त्र या तत्कालीन महामहिमोपाध्यायों, ज्ञानियों, आचार्यों, विद्वानों की राय जाने बिना दरभंगा राज की चारदीवारी के अंदर प्रवेश मिला था। विस्तृत विवरण तो विद्वान और विदुषी देंगे, शास्त्रार्थ करेंगे, लेकिन इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि महाराजाधिराज और राजा बहादुर के जीवन के ग्रह-नक्षत्रों-राशियों-रेखाओं के साथ “श्वान” की उपस्थिति सम्बन्धी रेखाओं का मेल-जोल नहीं हुआ। कहते हैं कि “श्वान” की उपस्थिति पालन कर्ता की ग्रह-नक्षत्रों-राशियों-रेखाओं के साथ ‘सकारात्मक’ होना नितांत आवश्यक है। यह भी सत्य है कि राजा बहादुर “श्वान” के शौक़ीन थे।  

यह अलग बात थी कि सन 1960-1965 के दौरान औसत भारतीयों की जीवन प्रत्याशा (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) 51.14 था। लेकिन विज्ञान से तनिक अलग होकर तत्कालीन मिथिला समाज के पंडितों, आचार्यों, महामहिमोपाध्यायों, वास्तु और ग्रह-नक्षत्रों की विद्या में विशारद प्राप्त महात्मनों को उस समय भी साहस कर आगे आना चाहिए था। महाराजाधिराज को बताना चाहिए था, ताकि वे अपने जीवन काल में अपने छोटे भाई को सुपुर्दे ख़ाक होते नहीं देखें। वैसे दरभंगा ही नहीं, मिथिलाञ्चल ही नहीं, सम्पूर्ण भारत के लोग “वास्तु” और “ज्योतिष” को उन दिनों भी मानते थे, आज तो मानते ही हैं। मिथिलांचल में ज्योतिषों की किल्लत नहीं है, खासकर जिनके पिता साक्षात् माँ कामाख्या के अनन्य भक्त हों, समर्पित हों। दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह के दो पुत्र हुए – कामेश्वर सिंह और विश्वेश्वर सिंह। कामेश्वर सिंह का जन्म 1907 में हुआ और 54 वर्ष की अवस्था में 1962 को वे मृत्यु को प्राप्त हुए। जबकि उनके अनुज विश्वेश्वर सिंह का जन्म 1908 में हुआ और वे सन 1958 में 50 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त किये। 

“श्वान” के बारे में यह माना जाता है कि यह एक रहस्यमयी प्राणी है। श्वान को हर व्यक्ति अपने घरों में, चारदीवारी के अंदर पनाह नहीं दे सकता है। वह उसका भरण-पोषण नहीं कर सकता है, बशर्ते पालनकर्ता के जन्म-कुंडली में, ग्रह-नक्षत्रों में, ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ‘सकारात्मक’ उत्तर मिलता हो । कहते हैं जिस भी घर में “श्वान” होता है वह घर या तो “नेस्तनाबूद” हो जाता है या फिर उस घर की तरक्की दिन दूनी और रात चौगुनी होती है – दरभंगा राज के साथ दूसरा नहीं, पहली बात शत-प्रतिशत सत्य निकली । दरभंगा राज के बारे में, खासकर महाराजाधिराज और राजाबहादुर के काल-खंड के दौरान दरभंगा राज के चारदीवारी के अंदर ‘कुत्ते की उपस्थिति’, ‘महाराजाधिराज-राजाबहादुर का ग्रह-नक्षत्र’ और तत्कालीन राज-काल को विद्वान और विदुषी आज भी आंक सकते हैं। इस बात को झुठलाया नहीं जा सकता है कि कुत्ता पालने के संबंध में धर्म भले कुछ नहीं कहता हो, लेकिन ज्योतिष में कुत्ता पालने और उसकी सेवा करने का उल्लेख मिलता है। 

राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंह का राजनगर – आप आकें कल की बात 

कहते हैं दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह भारत वर्ष के जाने-माने “डॉग लवर्स” (कुत्ता-प्रेमी) थे। साथी ही, परतंत्र भारत में बने “जर्मन शेपर्ड डॉग क्लब ऑफ इंडिया” के सदस्य भी थे। क्यों न हो, आखिर कोई 6200 किलोमीटर क्षेत्रफल भाग के मालिक थे, जमींदार थे। वैसे भी “डॉग-क्लब” का सदस्य न तो सडकों का आवारा कुत्ता हो सकता है और न ही भारत की सड़कों के किनारे अपनी खून और पसीने को बहाकर दो वक्त की रोटी का बंदोबस्त, खुद के लिए और परिवार तथा परिजनों के लिए जो करता हो। तत्कालीन भारत ही नहीं, आज के भारत की 99 फीसदी आवाम को “मानव क्लब” में कोई पूछता नहीं, सिवाय चुनाव के समय, चाहे “आम चुनाव” हो या “खास चुनाव” । सब संपत्ति का खेला था। क्लब को अधिक से अधिक दान दीजिये, जर्मन शेफर्ड क्या बंगाल टाइगर्स क्लब का सदस्य कोई भी बन सकता है। वह भी आज़ादी से पहले के दिनों में जहाँ आम भारतीयों की तुलना कुत्तों से की जाती थी।
एक रिपोर्ट के अनुसार “राजबहादुर कुत्ते के वफफ़दारी और अज्ञानकारिता के लिए जर्मन शिफर्ड नस्ल के कुत्ता को पसंद करते थे और शिकार में इसे साथ रखते थे। ऐसा सुनने में आता है कि जर्मनी के हिटलर के कुत्ते का एक पप्पी राजबहादुर के पास था। उसका नाम “रोज” था। हिटलर के पास जर्मन शेफर्ड नस्ल का दो कुत्ता था – एक का नाम ब्लोंडी था जिसका जन्म 1941 में था और उसकी मृत्यु हिटलर के मृत्यु से ठीक एक दिन पहले हुई थी। यह भी कहा जाता है कि हिटलर ने साइनाइड के कैप्सूल की क्षमता के जांच ब्लोंडी पर की जिससे उसकी मृत्यु हो गयी उसके ठीक दूसरे दिन हिटलर ने अपनी पिस्टल से आत्महत्या कर ली और उसकी पत्नी ने साइनाइड खाकर आत्महत्या कर ली थी। सन् 1945 में ब्लोंडी ने पांच बच्चे को जन्म दी थी जिसमे एक को हिटलर खुद प्रशिक्षित करता था , एक पप्पी हिटलर की पत्नी की बहन के लिए सुरक्षित था।”

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बहरहाल, आज़ादी से पहले भारत के धनाढ्यों को, जमींदारों को या फिर तत्कालीन ब्रितानिया सरकार के आला-अधिकारीयों को जर्मन नश्ल के कुत्तों पर प्यार आने लगा। कहा जाता है कि इस नश्ल के कुत्ते को घर में रखने से “सामाजिक प्रतिष्ठा” बढ़ती थी। कुछ लोग आ भी इसे प्रतिष्ठा मानते हैं। इस सामाजिक प्रतिष्ठा को तनिक और “प्रतिष्ठित” बनाने के लिए भारत में सबसे पहले सन 1910 के आस-पास एच ट्राइफ्लिक ने जर्मन नश्ल के कुत्तों का आयात करना प्रारम्भ किये। उस ज़माने में इस नश्ल के कुत्तों को “अलसिसिअन कुत्ता” कहा जाता था। सन 1919 में, उधर देश में मातृभूमि की आज़ादी के लिए देश के क्रान्तिकारी एकजुट हो रहे थे, जल्लिआंवाला बाग़ में ऐतिहासिक मानव-हत्या घाट गयी थी, सम्पूर्ण देश में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ नफरत की आग भड़क रही थी; उधर कैप्टन पी बनर्जी “फॉक” नमक कुत्ता को भारत आयात किये और उसे “इण्डियन कीनल एसोसिएशन” में निबंधित किये। यह पहला अवसर था जब सन 1921 में 14 वां प्रदर्शनी समारोह में कलकत्ता में “जर्मन शेफर्ड” को देखा गया था। फिर क्या था। क्या राजा, क्या महाराजा, क्या हुकूमत के लोग, क्या धनाढ्य सभी जर्मन शेफर्ड के दीवाने हो गए और अगले कुछ वर्षों में जर्मनी से, यूके से, अमेरिका से और अन्य पश्चिमी देशों से विदेशी कुत्तों का नश्ल, खासकर जर्मन शेफर्ड भारत की धरित्य पर अवतरित होते हैं। कुछ लोग कुत्ता आयातित, किये तो कुछ व्यवसाय को मद्दे नजर, “कुतिया” आयात किये और इस तरह देश में जर्मन शेफर्डस की संख्या बढ़ने लगी। तत्कालीन कई महान हस्तियां – चाहे देशी हो या विदेशी – जर्मन शेफर्ड का व्यावसायिक भविष्य भारत में बहुत सुंदर देखा। फिर क्या था एक अलसिसिअन क्लब की स्थापना हो गई और फिर जर्मन शेफर्ड कुत्तों की जिंदगी बन गयी। 

एक दृष्टान्त : मेरठ क्रांति के बाद जब क्रांतिकारी दिल्ली की ओर कूच किए तो रास्ते में “धौलाना” गाँव में एक पुलिस स्टेशन को आग लगा दिए। कई पुलिस कर्मी का शरीर कुछ ही घंटों में राख में बदल गया। अस्त्र-शस्त्र की लूट हुई। क्रान्तिकारी “आम भारतीय है” और उनका तत्कालीन भारत के धनाढ्य समाज, जमींदार-समाज, राजनेताओं से कुछ भी लेना-देना नहीं था। मेरठ और गाजियाबाद के तत्कालीन अंग्रेजी पुलिस अधिकारी धौलाना गाँव को चारो तरफ से घेर लिया। अपराधियों की खोज होने लगी। क्या पुरुष, क्या महिला, क्या बूढ़े, क्या बच्चे सभी अंग्रेजी हुकूमत के भारतीय पुलिसकर्मियों के हथ्थे चढ़ रहे थे। यहाँ तक की गर्भवती महिलाओं को भी नंगा कर गाँव में घुमाया जाने लगा था। भय और त्रादसी दोनों सम्पूर्ण इलाके को ग्रसित कर लिया था । कोई 12 क्रांतिकारियों को पुलिस ने दबोचा और गाँव के बीचो-बीच एक पीपल के पेड़ से लटकाकर हत्या कर दी। इतना ही नहीं, 12 कुत्तों को भी गोली मारा गया और प्रत्येक क्रांतिकारियों के पार्थिव शरीर के पास रख दिया गया और यह कहा गया भारतीय “कुत्ते” होते हैं। धौलाना गाँव में सं सत्तावन की घटना आज भी लोगों के मुख पर है। गाज़ियाबाद-मेरठ को जोड़ने वाली सड़क के दाहिने तरफ गाँव की ओर जाने वाली सड़क (पहले पगडण्डी) आज भी उस इतिहास को अपने आँचल में समेटे बैठी है। दूर खेतों के बीच, जहाँ पुलिस स्टेशन को सुपुर्दे ख़ाक किया गया था, आज भी है। वह पीपल का पेड़ आज भी है अपनी सुखी टहनियों के साथ। सबों का नाम आज भी पथ्थर के एक शिलापट्ट पर लिखा है। आने जाने वाले श्रद्धा के साथ उन क्रांतिकारियों को नमन करते हैं, साथ ही, उस “स्वांग” को भी बनमान करते हैं जो भारतीय क्रांतिकारियों के साथ अपना जान कुर्बान किये।

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जर्मन शेफर्ड – कुत्ता पालने से पहले एक बार अपनी कुंडली जरूर दिखा लें 

परन्तु, दरभंगा के राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह का कुत्तों से प्रेम या फिर कुत्तों वाले क्लब का अहम् सदस्य होना न तो दरभंगा के लोगों को, न मिथिला के लोगों को, यहाँ तक कि राज दरभंगा के चारदीवारी पले-बढे उनके बाल-बच्चों की अगली पीढ़ियों को भी मालुम नहीं है। वे सुनना भी नहीं चाहते । बहरहाल, ज्योतिष, घर्म और योग इत्यादि विषयों के लेखक अनिरुद्ध जोशी का मानना है कि कुत्ता केतु की शुभता के लिए पाला जाता है, लेकिन वह भी कुंडली का विश्लेषण करने के बाद। सवाल यह है कि क्या दरभंगा के महाराजाधिराज या उनके अनुज राजा बहादुर के कुंडली के साथ कुत्ता का पालना शुभ था ? 

विशेषज्ञों का मानना है की “श्वान” का  पालना खतरनाक भी हो सकता है और फायदेमंद भी इसलिए इसे पालने से पहले  पहले किसी ज्योतिष या विशेषज्ञ से सलाह जरूर ले लें। कुत्ता एक मनुष्य को राजा से रंक और रंक से राजा बना सकता है।इस्लाम धर्म के अनुसार जिस घर में कुत्ता होता है वहां फरिश्ते नहीं जाते, जबकि हिन्दू धर्म के पुराणों में कुत्ते को यम का दूत कहा गया है। ऋग्वेद में एक स्थान पर जघन्य शब्द करने वाले श्वानों का उल्लेख मिलता है, जो विनाश के लिए आते हैं।श्वान को हिन्दू देवता भैरव महाराज का सेवक माना जाता है। श्वान को भोजन देने से भैरव महाराज प्रसन्न होते हैं और हर तरह के आकस्मिक संकटों से वे भक्त की रक्षा करते हैं। मान्यता है कि श्वान को प्रसन्न रखने से वह आपके आसपास यमदूत को भी नहीं फटकने देता है। कुत्ते को देखकर हर तरह की आत्माएं दूर भागने लगती हैं।

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दरअसल कुत्ता एक ऐसा प्राणी है, जो भविष्य में होने वाली घटनाओं और ईथर माध्यम (सूक्ष्म जगत) की आत्माओं को देखने की क्षमता रखता है। कुत्ता कई किलोमीटर दूर तक की गंध सूंघ सकता है। कुत्ते को हिन्दू धर्म में एक रहस्यमय प्राणी माना गया है। कुत्ता एक वफादार प्राणी होता है, जो हर तरह के खतरे को पहले ही भांप लेता है। प्राचीन और मध्यकाल में पहले लोग कुत्ता अपने साथ इसलिए रखते थे ताकि वे जंगली जानवरों, लुटेरों और भूतादि से बच सके। कहा जाता है कि राजा बहादुर भी शिकार के समय अपने “श्वान” को साथ ले जाया करते थे। बंजारा जाति और आदिवासी लोग कुत्ते को पालते थे ताकि वे हर तरह के खतरे से पहले ही सतर्क हो जाएं। भारत में जंगल में रहने वाले साधु-संत भी कुत्ता इसलिए पालते थे ताकि कुत्ता उनको खतरे के प्रति सतर्क कर दे। 

जर्मन शेफर्ड – कुत्ता पालने से पहले एक बार अपनी कुंडली जरूर दिखा लें 

अनिरुद्ध जोशी है कि कुत्ते को धर्म ग्रंथों के अलावा ज्योतिषशास्त्र में एक महत्वपूर्ण पशु के लिए रूप में बताया गया है। माना जाता है कि काला कुत्ता जहां होता है वहां नकारात्मक ऊर्जा नहीं ठहरती है। इसका कारण यह है कि काले कुत्ते पर एक साथ दो शक्तिशाली ग्रह शनि और केतु के प्रभाव होता है। शनि को प्रसन्न करने के लिए बताए गए खास उपायों में से एक उपाय है घर में काला कुत्ता पालना। जो लोग कुत्ते को खाना खिलाते हैं उनसे शनि अति प्रसन्न होते हैं। कुत्ते को तेल से चुपड़ी रोटी खिलाने से शनि के साथ ही राहु-केतु से संबंधित दोषों का भी निवारण हो जाता है। राहु-केतु के योग कालसर्प योग से पीड़ित व्यक्तियों को यह उपाय लाभ पहुंचाता है। इस बात का ध्यान रखें कि उस कुत्ते के नाखून की संख्या 22 या इससे ज्यादा होनी चाहिए। इतने नाखून वाला कुत्ता केतु का रूप माना जाता है। ऐसा कुत्ता ही आपकी किस्मत बदल सकता है। शकुन शास्त्र में कुत्ते को शकुन रत्न माना जाता है क्योंकि कुत्ता इंसान से भी अधिक वफादार, भविष्य वक्ता और अपनी हरकतों से शुभ-अशुभ का भी ज्ञात करवाता है। काला कुत्ता पालने से आपका रुका हुआ पैसा वापस आने लग जाता है। अचानक आने वाले संकट से मुक्ति मिलती है। आर्थिक तंगी दूर हो जाती है। 

इसी तरह, कुत्ते के भौंकने और रोने को अपशकुन माना जाता है। कुत्ते के भौंकने के कई कारण होते हैं उसी तरह उसके रोने के भी कई कारण होते हैं, लेकिन अधिकतर लोग भौंकने या रोने का कारण नकारात्मक ही लेते हैं।अपशकुन शास्त्र के अनुसार श्वान का गृह के चारों ओर घूमते हुए क्रंदन करना अपशकुन या अद्भुत घटना कहा गया है और इसे इन्द्र से संबंधित भय माना गया है। सूत्र-ग्रंथों में भी श्वान को अपवित्र माना गया है। इसके स्पर्श व दृष्टि से भोजन अपवित्र हो जाता है। इस धारणा का कारण भी श्वान का यम से संबंधित होना है। शुभ कार्य के समय यदि कुत्ता मार्ग रोकता है तो विषमता तथा अनिश्चय प्रकट होते हैं। कुत्ते को प्रतिदिन भोजन देने से जहां दुश्मनों का भय मिट जाता है वहीं व्यक्ति निडर हो जाता है। कुत्ते के बारे में एक बात और वह यह कि कुत्ता पालने से लक्ष्मी आती है और कुत्ता घर के रोगी सदस्य की बीमारी अपने ऊपर ले लेता है। यदि संतान की प्राप्ति नहीं हो रही हो तो काले कुत्ते को पालने से संतान की प्राप्ति होती है। विचार जरूर करें ……….क्रमशः 

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