दरभंगा राज का पतन का मूल कारण तत्कालीन परिवार की महिलाओं, बच्चों का ‘मनोवैज्ञानिक उपेक्षा’ था, परिणाम सामने है (भाग-23) 

दरभंगा राज के राजा-महाराजा और आज की ढ़हती दीवारें 

दरभंगा / पटना / दिल्ली : मुग़ल शासनकाल हो या ब्रितानिया सरकार का शासन, दरभंगा के राजा-महाराजाओं ने कभी अपने साम्राज्य की भूमि, साम्राज्य में रहले वाले लोग, उनका खेत-खलिहान, राज की संपत्ति, राज का किला आदि के रक्षार्थ ‘युद्ध के लिए सज्ज’ नहीं हुए। कभी शस्त्र नहीं उठाये जनता के सम्मानार्थ, उनके रक्षार्थ । सम्पूर्ण जीवनकाल अपनी धन अर्जित करने, दान देने में  और शोहरत कमाने में मशगूल रह गए। स्वाभाविक है ‘चारदीवारी के अंदर रहने वाला परिवार’, महिलाएं, बच्चे मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से उपेक्षित ही नहीं, बहुत अधिक उपेक्षित होगा। दरभंगा राज के पतन का सबसे बड़ा कारण रहा महाराज द्वारा परिवारों का मनोवैज्ञानिक उपेक्षा।  

भारत में जिस तरह मुग़ल साम्राज्य और ब्रितानिया सरकार का अभ्युदय, उत्कर्ष और पतन हुआ, ‘कुछ अपवाद छोड़कर’ उत्तर बिहार के दरभंगा राज और वहां के राजाओं-महाराजाओं की कथा-व्यथा, अभ्युदय, उत्कर्ष और पतन लगभग वैसे ही है। मुग़ल सल्तनत में जिस तरह अकबर, शाहजहां, जहाँगीर और औरंगजेब का नाम इतिहास के पन्नों से नहीं मिटाया जा सकता है, दरभंगा राज में भी, राजा महिनाथ ठाकुर, राजा राघव सिंह, राजा नरेंद्र सिंह को अपने-अपने साम्राज्यों को बचाने, बढ़ाने के लिए नहीं भुलाया जा सकता। दरभंगा राज के स्थापना काल से इसके पतन तक सिर्फ ये ही तीन राजाओं का नाम उल्लिखित दीखता है, जो अपने प्रान्त को बचाने के लिए, अपने नागरिकों के जान-माल की रक्षा के लिए, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए, आर्थिक, सामाजिक समृद्धि सुरक्षित करने के लिए अपनी “अंतिम साँसों” का परवाह किये, हथियार उठाये, जान की बाजी लगाए, और युद्ध-क्षेत्र में सज्ज हो गए। इन राजाओं के बाद, दरभंगा राज में जितने भी राजा-महाराजा, यहाँ तक की महाराजाधिराज हुए, किन्ही का नाम आधुनिक भारत के इतिहास में “योद्धा” के रूप में उल्लिखित नहीं है, महाराणा प्रताप की तरह। हाँ, मुगलिया शासन के बाद, ब्रितानिया शासन में अपने भी “दानशीलता” को लेकर, सेवा-सुश्रुषा को लेकर ही जाने गए – योद्धा के रूप में नहीं। 

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह और साथ में है जयपुर की महारानी। साथ में, दरभंगा की महारानी को भी उपस्थित रहना चाहिए था, लेकिन 

उससे भी बड़ी बात यह है कि दरभंगा अंतिम तीन राजाओं – महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह, महाराजा रामेश्वर सिंह और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह – जिनका नाम इतिहासकारों ने “स्वर्णाक्षरों” में लिखा है, जहाँ तक देश में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, भौगोलिक, आध्यात्मिक समृद्धि और विकास का प्रश्न है, उनकी दानशीलता का प्रश्न है, उनकी मानवीयता का प्रश्न है। परन्तु महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद आज की पीढ़ी को इस बात की पीड़ा है कि महाराजाधिराज के साथ साथ, उनके भाई राजकुमार विशेश्वर सिंह भी, अपने जीवन-काल में कभी दरभंगा राज के चहारदीवारी के अंदर रहने वाले अपने सम्बन्धियों को, लोगों को, बच्चों को, महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में जुड़ने, जीवन में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने, लोगों से मिलने-जुलने का कभी कोई अवसर नहीं दिए। उन लोगों ने चहारदीवारी के अंदर रहने वाले लोगों के लिए वे सभी सुख-सुविधाएँ तो दिए जो मानव-शरीर को जीवित रहने के लिए आवश्यक था, परन्तु किसी भी सदस्य को वह ‘संवेदनात्मक, भावनात्मक स्पर्श नहीं मिल पाया जो मानव-जीवन को प्रफुल्लित रहने, हंसने-हंसाने, मानसिक विकास के लिए आवश्यक था। यह दुर्भाग्य रहा जिसकी पीड़ा आज की पीढ़ियां भुगत रही है। 

चाहे महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह हों, चाहे महाराजा रामेश्वर सिंह हों या महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह हों, उनके जीवन काल की शायद ही कोई तस्वीर आज किसी के पास होगी या दरभंगा राज के पुतकालयों में, या पानी-बारिस में सड़ रहे पुराने दस्तावेजों में होगी, शायद ही कोई उसे ‘एक पुरातत्व के रूप में ही सही’, संजोकर रखे होंगे जिसमें महाराजाधिराज  अथवा उनके भ्राता अपनी पत्नियों को, घर के बच्चों को, भतीजे-भतीजियों  सम्बन्धियों को एक पिता के रूप में, परिवार के एक अभिभावक के रूप में, एक पति के रूप में उन सबों को दरभंगा अथवा दरभंगा से बाहर होने वाले किसी भी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में ले गए हों। यह अलग बात है कि ब्रितानिया सरकार के आगमन के बाद या फिर देश में स्वाधीनता संग्राम की बिगुल बजने के बाद महाराजाधिराज और राजबहादुर विशेश्वर सिंह सैकड़ों, हज़ारों कार्यक्रमों में सम्मिलित हुए। इतना ही नहीं, सैकड़ों बार ब्रितानिया सरकार के आला अधिकारी, भारत के तत्कालीन राजनेता दरभंगा पधारे थे। सभी अपने में ही मग्न थे। परिवार और बच्चों को जरूरत का सामान दे देना, भोजन-वस्त्र-आवास-आभूषण की पर्याप्त उपलब्धि करा देना ही उन लोगों के नजर में ‘सर्वोपरि” था। अपनी प्रतिष्ठा को उत्कर्ष पर ले जाने में सभी मग्न थे। धन अर्जित करने में मग्न थे। दानशीलता को बढाकर “वह-वाही”  लूटने में मग्न थे, खुद मुस्कुराने में मग्न थे – परन्तु कभी नहीं सोचे की चारदीवारी के अंदर रहने वाले लोग, रहने वाले बच्चे भी हंसना चाहते हैं।  उनकी भी इक्षा होती है कि वे समाज के दूसरे लोगों को अपने गले लगाकर इस बात को महसूस करें कि समाज के अन्य लोगों के शरीर में, बच्चों में भी नसों में भी रक्त बहते हैं, रक्त के संचार से शरीर में एक स्पंदन भी होता है जिसे अनुभव भी किया जा सकता है और इसके लिए चारदीवारी से बाहर निकलना या फिर बाहर के लोगों को अंदर आने देना, महत्वपूर्ण था। 

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महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह यहां भी दरभंगा की महारानियों की उपेक्षा किये, तस्वीर तो यही कहती है 

अनेकानेक अनुत्तर-प्रश्न आज भी उस चारदीवारी के अंदर मुद्दत से भ्रमण कर रही है। लोग बोलना चाहते हैं, लेकिन बोल नहीं पाते। भावनात्मक और संवेदनात्मक रूप से पूछने वालों की घोर किल्लत है। जिस तरह भवनों, किलों की दीवारें मुद्दत से सुख गयी हैं, रंगों के लिए तरस गयी है, चतुर्दिक उनके आस-पास कहीं पीपल तो कहीं बरगदों के पौधे बृक्षों का रूप ले लिए हैं, जो इस बात का गवाह है कि उस चारदीवारी के अंदर न सौ-साल पहले कोई आत्मीयता थी, और ना आज है। महाराजा का शरीर जब तक पार्थिव नहीं हुआ था, वे अपने नाम,शोहरत अर्जित करने में मशगूल थे, परिवार, बच्चे उपेक्षित रहे। उनके शरीर को पार्थिव होने के बाद उनकी सम्पत्तियाँ उस चारदीवारी के अंदर मानवता को पुनः स्थापित नहीं कर सकी। ऐसा लगता है कि मानवीयता, सामाजिकता, अपनापन, स्नेह, उदगार, मुस्कान, ख़ुशी सभी के “स्तन सुख गए हों” – महाराजा की सम्पत्तियों के लाभार्थी औसतन अन्य लाभार्थियों से (सभी खून का सम्बन्ध है) एक तो मिलते नहीं, बातचीत भी मुद्दत में ही होती है – अगर कभी “ईद का चाँद दिख गया, गले में आवाज भी आ गयी, तो सबों की उपस्थिति ऐसी होती है जैसे कोई किसी को जानता नहीं। सभी एक दूसरे को महाराजा के वसीयत में लिखे गए शब्दों को देखने लगते हैं, एक दूसरे को मिली सम्पत्तियों को आंकने लगते हैं। अब उन्हें कैसे कहा जाय, समझाया जाय की न तो महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह, न तो महाराजा रामेश्वर सिंह और ना ही महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अपनी अर्जित सम्पत्तियों को अपने साथ ले गए – मानसिक पतन का पराकाष्ठा। 

राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक सबों ने मिथिलांचल की गरिमा को बढ़ाने में, मिथिला का नाम रोशन करने में चाहे जो भी भूमिका निभाए हों; इस सत्यता से भी इंकार नहीं नहीं किया जा सकता है कि दरभंगा के राजा-महाराजाओं ने अपने ही घर में महिलाओं को छोड़िये, पुरुषों को भी तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक मुख्या धाराओं में कभी पैर रखने नहीं दिया। उन्हें तत्कालीन परिस्थितियों से स्वयं को अवगत भी होने नहीं दिया। घर के चारदीवारी के बीच, घर के लोगों के बीच रहना ही उनका प्रारब्ध रहा। इस राजनीति के पीछे परिवार का अनुशासन तो कोई नहीं हो सका। हाँ, इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि तत्कालीन राजा-महाराजा सभी एक भय के वातावरण में जी रहे थे – मुगलों की तरह कहीं घर का ही कोई संतान ‘राजगद्दी के लिए’ हथियार न उठा ले, राज-सत्ता पर धाबा नहीं बोल दे। हो तो कुछ भी सकता था। कहीं इसी भय से “राजा-महाराजा” के अलावे “परिवार के अन्य महिला-पुरुषों को समाज की मुख्यधारा में जुड़ने का, आधुनिकता और समय के अनुसार स्वयं को सज्ज करने का, तत्कालीन वातावरण को समझने का मौका ही नहीं दिया गया। जो कुंठित मानसिकता का एक जीता-जागता उद्धरण है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज दरभंगा राज, राज की वर्तमान पीढ़ी का यह हश्र भी नहीं होता। 

वैसे, दरभंगा राज का इतिहास राजा महेश ठाकुर से प्रारम्भ होता है। राजा महेश ठाकुर की राजधानी मधुबनी जिला के भउर ग्राम में थी। साल था 1556 और वे कुल 13 वर्ष तक, यानी 1569 तक राजगद्दी पर विराजमान रहे। भारत में मुगलों का इतिहास भी बाबर से ही प्रारम्भ होता है और साल रहता है 1526 । बाबर को जब मध्य एशिया से अपने पैतृक प्रान्त से बाहर निकाल दिया जाता है तब वह भारत की ओर उन्मुख होता है। काबुल में अपना ठिकाना बनाता है और फिर आगे बढ़ने के लिए तैयारी करता है। पानीपत की पहली लड़ाई में वह इब्राहिम लोदी को हारता है। वैसे लोदी का साम्राज्य उस समय तक कमजोर हो गया होता है। लेकिन वह युद्ध भारत के लिए ऐतिहासिक होता है और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का नींव उत्तर भारत में रखा जाता है। बाबर, काबुल से अपनी राजधानी हटाकर आगरा आ जाता है। मुग़ल साम्राज्य बाबर के साम्राज्य से भारत में प्रारम्भ होता है और कोई 300 साल तक, यानी अंग्रेजों के आने तक भारत में राज करता है।  

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राजा महेश ठाकुर (1556-1569) राजा गोपाल ठाकुर (1569-1581) राजा परमानन्द ठाकुर, राजा शुभंकर ठाकुर, राजा पुरुषोत्तम ठाकुर (1617-1641) के समय में भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी का आगमन हो चुका था और उस समय तक मुग़ल शासक जहाँगीर गद्दी पर बैठ जाता है । जहांगीर ने कंपनी राज को भारत में व्यापार करने के लिए आमंन्त्रित कर चूका था। जहांगीर के बाद शाहजहाँ पाँचवे मुग़ल बादशाह  (1628-1658) बने । शाहजहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभव विलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। उनके शासनकाल को मुग़ल शासन का स्वर्ण युग और भारतीय सभ्यता का सबसे समृद्ध काल बुलाया गया है।शाहजहां के बाद इधर मुग़ल सिंघासन पर औरंगजेब सत्ता पर आसीन हुआ (1658-1707) और शाहजहां को जीवन पर्यन्त उनकी मृत्यु तक कैद रखा। उनकी मृत्यु 1666 में हुयी। 

औरंगजेब के समय में भारत में अनेकानेक राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक  उथल पुथल हुए, लेकिन मुग़ल साम्राज्य का विस्तार भी इसी के समय में हुआ। सन 1707 में औरंगजेब की मृत्त्यु के बाद भारत के अनेकानेक राजाओं ने मुग़ल शासन के विरुद्ध बिगुल बजा दिए। औरंगजेब के शासनकाल में दरभंगा के चार राजा रहे – राजा सुन्दर ठाकुर (1641-1668), राजा महिनाथ ठाकुर (1668-1690), राजा नरपति ठाकुर (1690-1700), राजा राघव सिंह (1700-1739) – औरंगजेब के बाद भारत में एक और जहाँ अंग्रेजी हुकुमार का बोल बाला होने लगा, मुग़ल सल्तनत का पतन भी स्वाभाविक था। मुग़ल सल्तनत में बहादुर शाह – 1 राज गद्दी पर बैठे और अनेकानेक प्रशासनिक सुधार लाने की बात किये।  परन्तु 1712 में उनकी मृत्यु हो गई। मुग़ल साम्राज्य भी जिस गति से ऊपर आया था, उसी गति से नीचे गिरा भी। सन 1712 और 1719 के बीच चार राजा गद्दी पर आये और चले गए। उस समय दरभंगा के राजा थे राजा राघव सिंह। 

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह यहां भी दरभंगा की महारानियों की उपेक्षा किये, तस्वीर तो यही कहती है 

सं 1719-1748 के बीच मुग़ल का कमान मुहम्मद शाह के हाथों था। लेकिन अब तक मुग़ल साम्राज्य में कमजोर राजा के कारण साम्राज्य का क्षेत्र सीमित होने लगा था। मध्य भारत के अनेकानेक राजा और उनका साम्राज्य मुग़ल से मराठा के हाथों ख़िसक रहा था । दरभंगा राज के राजा राघव सिंह (1700-1739), राजा बिष्नु सिंह (1739-1743), राजा नरेंद्र सिंह (1743-1770) थे उस समय । कहा जाता है कि राजा नरेंद्र सिंह के दत्‍तक पुत्र प्रताप सिंह भी नि:संतान थे और उन्‍होंने माधव सिंह को दत्‍तक पुत्र बनाकर तिरहुत का युवराज घोषित किया था। राजा नरेंद्र सिंह की रानी पद्मावती प्रताप सिंह के इस फैसले से नाराज हुई और उन्होंने माधव सिंह को तत्कालीन राजधानी भौडागढी में प्रवेश प्रतिबंध लगा दिया। कहा जाता है कि माधव सिंह की हत्या की साजिश भी रची गयी और माधव सिंह इस दौरान बनैली राज घराने में पनाह पाये थे। अपने दत्‍तक पुत्र माधव सिंह के लिए प्रताप सिंह ने तिरहुत की राजधानी भौडा गढी से दरभंगा स्थानांतरित किया। रामबाग स्थित परिसर को नूतन राजधानी क्षेत्र के रूप में विकसित किया। सिंहासन संभालने के बाद माधव सिंह ने न केवल राज्य की सीमा का विस्तार किया, बल्कि खजाना भी बडा किया। रानी पद्मावती के निधन के बाद भोडा गढी से राज खजाना दरभंगा स्थानांतरित हुआ, लेकिन खजाने के लिए ढांचागत आधारभूत संरचना महाराजा छत्र सिंह के कार्यकाल में ही बन पाया। महाराजा छत्र सिंह डच वास्‍तुशिल्‍प से अपने लिए छत्र निवास पैलेस, एक तहखाना और 14 सौ घूर सैनिकों के लिए एक अस्‍तबल का निर्माण कराया। यानी दरभंगा राज के स्थापना काल से रानी पद्मावती तक राजा महिनाथ ठाकुर, राजा राघव सिंह और राजा नरेंद्र सिंह को ही अपने-अपने साम्राज्यों को बचाने, बढ़ने के लिए तत्कालीन अन्य प्रान्त के राजाओं से युद्ध करना पड़ा और विजय भी हुए। यानी अब तक के बारह राजाओं में महज तीन राजा अपने अपने साम्राज्य की सुरक्षा-विस्तार के लिए युद्ध क्षेत्र में गए, शेष नौ को कभी युद्ध की परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। 

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उधर 1757 में पलासी का युद्ध, 1764 में बक्सर का युद्ध से कंपनी की शक्ति मजबूत हुई। और शाह आलम की नियुक्ति बंगाल का राजस्व कलेक्टर, बिहार और उड़ीसा। यानी कंपनी राज गंगा के तटवर्ती इलाकों पर अपना झंडा गाड़ दिया।  फिर समयांतराल  दक्षिण भारत के बड़े क्षेत्रों के नियंत्रण स्थापित कर लिया। रानी पद्मावती के बाद, दरभंगा राज का कमान राजा प्रताप सिंह (1778-1785), राजा माधव सिंह (1785-1807), महाराजा छत्र सिंह (1807-1839), महाराजा रूद्र सिंह (1839-1850), महाराजा महेश्वर सिंह (1850-1860) इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय देते थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे।  फिर आये महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह (1880-1898) महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह (1898-1929) इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ का अन्य उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाए तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर का अवशेष भवन और सूखता पोखर गवाह है उन दिनों का। नौलखा भवन 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था।  कहा जाता है कि राज की राजधानी दरभंगा से राजनगर लाने का प्रस्ताव था,  लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ये माँ काली के भक्त थे और तंत्र विद्या के ज्ञाता भी थे। जून 1929 में इनकी मृत्यु हो गयी। 

पंडित जवाहरलाल नेहरू की तरह महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह भी फोटोग्राफी के इतिहास में अमर होना चाहते थे , माऊंट बेटेन और उनकी पत्नी के तस्वीर और एक बार फिर दरभंगा की महारानियों की उपेक्षा किये, तस्वीर तो यही कहती है

और अंत में, महाराजा रामेश्वर सिंह के बाद  महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह दरभंगा राज के  गद्दी पर बैठे। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। वे अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि दी थी। वे अनेकानेक कंपनियों की शुरुआत किये थे जिससे प्रान्त का विकास हो, लोगों को रोजगार मिले, शिक्षा मिले। आय के नये स्रोत बने। प्रदेश में इन्होने दो अख़बारों का प्रकाशन प्रारम्भ किये – आर्यावर्त और इण्डियन नेशन तथा मैथिलि के विकास के लिए मिथिला मिहिर नमक पत्रिका। वे संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद वे कांग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से उनके घनिष्ठ संबंध थे। सन् 1892 में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेशन करना चाहती थी, पर अंग्रेज शासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराजा ने वहां एक महल ही खरीद लिया। उसी महल के ग्राउंड पर कांग्रेस का अधिवेशन हुआ।

सब हुआ, लेकिन जो होना चाहिये था वह नहीं हुआ – चारदीवारी के अंदर बढ़ने वाले बच्चों में, महिलाओं में, अन्य सदस्यों में वह गुण नहीं पनप पाया, संरक्षित हो पाया जिससे राजा बहादुर विशेश्वर सिंह या महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का नाम, उनकी अर्जित संपत्ति का संरक्षण हो पाता, दरभंगा राज की बुनियाद, उसकी नींव हिल नहीं पता – क्योंकि उन लोगों ने चारदीवारी के अंदर बढ़ते बच्चों पर, महिलाओं पर कभी कोई ध्यान नहीं दिए, उन लोगों के मनःस्थिति, मनोविज्ञान को कभी समझने की जरुरत नहीं समझे – परिणाम सामने हैं ।

……क्रमशः

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