खुलकर कहें “दरभंगा एविएशन को, एरोड्रम को, एयरक्राफ्ट्स को बेच दिया गया था, फिर नाम क्यों ? (भाग-22)

खुलकर कहें "दरभंगा एविएशन को, एरोड्रम को, एयरक्राफ्ट्स को बेच दिया गया था,

दरभंगा / पटना / कलकत्ता : महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्तियों के लाभार्थी आजतक यह नहीं बताए कि महाराजा की मृत्यु के तुरंत बाद दरभंगा एविएशन का अस्तित्व कलकत्ता के चौरंगी और दरभंगा में नेश्तोनाबूद हो गया – कुल रकम 28,14,194/- रुपये –  लेकिन कोई “चूं” तक नहीं किये। सम्पूर्ण दरभंगा राज में “चुप-चुप” का वातावरण बरकरार रहा, आज भी । यानी आप जो मर्जी लोगों को बताते रहें, बावजूद इसके कि महाराजाधिराज की मृत्यु के चौदह महीने भी नहीं बीते थे कि दरभंगा एविएशन का नामोनिशान मिट जाता है, दफ्तर बिक गया, हवाई पट्टी और हवाई जहाज के बदले “मूल्य” प्राप्त कर लिया गया  – और जिला के, प्रदेश के और देश के लोगों को बताते रहे कि दरभंगा हवाई अड्डा का नाम दरभंगा के अंतिम राजा के नाम पर क्यों नहीं किया जाए ? इसके लिए आंदोलन क्यों नहीं हो? क्यों भैया? अगर इतना ही है तो “दि 42 कलकत्ता” का नाम दरभंगा के महाराजा पर करा कर उन्हें सम्मानित करें। कलकत्ता के चौरंगी रोड स्थित 42/1, 42A और 42 बी की संपत्ति रुपये 10,40,00,000 /- में बेचा गया था और यहीं दरभंगा एविएशन भी था।  

आज दरभंगा राज परिवार में जो भी 60-वर्ष की आयु में अथवा कम में हैं, असल में महाराजा की सम्पत्तियों का मलाई तो वही खा रहे हैं; लेकिन कभी भी उन लोगों ने दरभंगा एविएशन के बारे में वास्तविक स्थिति का खुलासा नहीं किया। ऐसी बात नहीं है कि वे वास्तविक स्थिति के बारे में जानते नहीं। और दरबवहाँगा के लोगों को ‘वास्तविक स्थिति’ पूछने का कोई मतलब ही नहीं है। क्या महाराजा की तीसरी और अंतिम ‘जीवित रानी’ या महाराजा की सम्पत्तियों के लाभार्थी यह नहीं जानते कि दरभंगा एविएशन नमक संस्था को आज से 58-साल पहले बेच दिया गया था ? क्या वे नहीं जानते कि हवाई-पट्टी के लिए “मूल्य प्राप्त किया गया” था, क्या दो हवाई जहाजों के लिए भी “मूल्य” निर्धारित कर दिया गया था? जानते तो सभी हैं – सिर्फ बताना नहीं चाहते क्योंकि बताने से बात दूर तक जाएगी 

Estate of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh Bahadur of Darbhanga, Bihar (deceased) – Accountable person: Sole Executor Pandit Lakshmi Kant Jha, Ex-Chief Justice, Patna High Court” जो मूलतः दरभंगा राज की ‘चल-अचल सम्पत्तियों’ का एक सम्पूर्ण दस्तावेज है, के पृष्ठ 21 एनेक्चर – एल Business: The Deceased’s share in movable and immovable property as Sole proprietor of M/s Darbhanga Aviation में संस्थान का पता 42, चौरंगी रोड, कलकत्ता लिखा है और यह नन-सिड्यूल चार्टर एयरलाइन्स चलता है। इस दस्तावेज ke “नोट्स” men उद्धृत हैं जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि दरभंगा एविएशन नमक संस्था को आज से 58-साल पहले बेच दिया गया था और उसके एवज में विक्रेता को निर्धारित मूल्य प्राप्त हो गए थे। दस्तावेज में लिखा है:

2. Out of the assets of M/s Darbhanga Aviation a building (3, Middleton Street, Calcutta) has been sold in January 1964 for the gross sum of Rs. 21,25,000/- (including the cost of furniture and approximately 4 kathas of land, holding No. 42/1 Chowringhee Road, belonging to the deceased).

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3. Out of the assets of M/s Darbhanga Aviation, the aerodrome together with land, building etc. etc has been acquired by the Government of India for which a total sum of Rs. 3.86,965/66 has been awarded as the value of the acquired properties.

4. The two aircrafts belonging to M/s Darbhanga Aviation have been requisitioned under Section 108 of the Defence of India Rules and price has been determined at Rs. 3,02,229/- by the Central Government so far, which has not yet been received. इन तीनों “नोट्स” को पढ़ने के बाद आप क्या कहेंगे? सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि जिस महाराजाधिराज ने देश में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए, शिक्षा को लोगों के दरवाजे तक पहुँचने के लिए, शिक्षा को भारत के लोगों का मूलभूत अधिकार बनाने के लिए अपने समर्थ से अधिक सम्पत्तियों का दान किया, अपने ही चहारदीवारी के अंदर रहने वाले महिला-पुरुषों को इतना शिक्षित नहीं कर पाए, समय से लड़ने के काबिल नहीं बना पाए, महिलाएं खुद भी शिक्षा-रूपी ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल कर राज दरभंगा की ऊँची दीवारों से बाहर नहीं निकल पाई, जो महाराजाधिराज के वसीयत के ‘सोल एस्क्यूटर’ और पटना उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश “न्यायमूर्ति” लक्ष्मी कांत झा से “सवाल” पूछ पाती। परिणाम जो हुआ वह महज दरभंगा राज के चहारदीवारी के अंदर रहने वाले लोगों के लिए भले “अच्छा” हुआ हो, मिथिलांचल के लोगों के लिए, प्रदेश के लोगों के लिए, देश के लोगों के लिए “सर्वथा अनुचित” हुआ।   

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह और महाराजा कूचबिहार 

बहरहाल, पहली अक्टूबर सं 1962 के बाद, यानि उनकी “आकस्मिक मृत्यु” के बाद क्यों ऐसा हुआ जो दरभंगा राज प्रति सम्मान उत्तरोत्तर कम होता गया। उनका सम्मान उस शिखर जैसा था की भारत के राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद भी, गाँधी भी, सुभाष बोस भी “ससम्मान उनके सामने खड़े होते थे। मानवता का पराकाष्ठा थे दरभंगा महाराज। लेकिन आज जब दरभंगा हवाई अड्डे के नामकरण का प्रश्न आता है तो क्या गृह मंत्रालय, क्या नागर विमानन मंत्रालय, क्या प्रदेश के मुख्य मंत्री मंत्रालय – इन कार्यालयों में कार्य करने वाले चपरासी और अधिकारी भी सीधा-मुंह बात नहीं करता। महत्व नहीं देता। महज कुछ सालों में ऐसा क्यों हुआ जो सम्मान को शिखर से उतार कर जमीन पर ला दिया ? जबकि अन्य प्रदेशों, चाहे राजस्थान हो, मध्य प्रदेश हो, दक्षिण के राजा-महाराजाओं का वर्तमान पीढ़ी हो, वर्तमान व्यवस्था के सामने वे आज भी उतने सम्मानित हैं। खैर। कुछ तो है जो अन्वेषण और शोध का विषय है। 

यह जमीन भी उन्ही की थी। हवाई पट्टी भी उन्ही का थी। परन्तु सबसे बड़ी बात यह है कि दरभंगा एविएशन को तो 28,14,194/- रुपये में बेच दिया गया था और यह बात दरभंगा राज के लोग बाग़ लोगों को बताये नहीं। अब आप ऐतिहासिक दस्तावेजों के आधार पर लोगों को जो भी कहें, बताते रहे कि तिरहुत का विमानन इतिहास दरअसल बिहार का विमानन इतिहास था, ठीक है । लेकिन सवाल यह है कि आपके खंडकाल में क्या हुआ? आपने महाराजा के इतिहास को सबल बनाने के लिए कितने पन्ने जोड़े – शायद कुछ नहीं, सिवाय पानों को फाड़ने के अलावे, उनका नामोनिशान मिटने के अलावे। 

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महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह कलकत्ता के डलहौजी में 

बहरहाल, तिरहुत के विमानन इतिहास की शुरुआत तिरहुत सरकार महाराजा रामेश्वर सिंह के कालखंड में ही होती है। तिरहुत सरकार का पहला विमान एफ-4440 था। जो 1917 में प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान भारतीय मूल के सैनिकों के लिए खरीदा गया था। आजकल लोगबाग कहते नहीं थकते कि तिरहुत सरकार का पहला विमान जहां भारतीय फौज के लिए खरीदा गया था, वही दरभंगा एविएशन का आखिरी विमान भी भारतीय वायुसेना को ही उपहार स्‍वरूप दिया गया। यह कहना गलत है। उपहार स्वरुप नही दिया गया था बल्कि Defence of India Rules के तहत उसकी कीमत Rs. 3,02,229/ निर्धारित की गयी थी। यह राशि काउ लिया, आज तक गर्त में ही है। 

तिरहुत सरकार के एक इंजनवाले एफ-4440 विमान में दो लोगों के बैठने की सुविधा थी। 1931 में वासराय के दरभंगा आगमन से पहले तिरहुत सरकार द्वारा एक विमान खरीदने की बात कही जाती है। कहते हैं यह जहाज भी बेहद छोटा था। एक इंजनवाले इस जहाज की कोई तस्वीर अब तक उपलब्ध नहीं हुई है, क्योंकि ये समय पर दरभंगा नहीं आ सका। 1932 में गोलमेज सम्‍मेलन में भाग लेने के लिए जब कामेश्‍वर सिंह लंदन गये तो उस जहाज को भारत लाने की बात हुई, लेकिन नहीं आ पाया। 1934 के भूकंप के बाद इसे अशुभ मान कर लंदन में ही बेच दिया गया। 

तिरहुत में पहला विमान 1933 में उतरा। पूर्णिया के लाल बालू मैदान में माउंट एपरेस्‍ट की चोटी की ऊंचाई नापने और सुगम रास्ता तलाशने के लिए तिरहुत सरकार ने इस मिशन को प्रायोजित किया था। 1940 में तिरहुत सरकार ने अपना दूसरा विमान खरीदा। आठ सीटों वाले इस विमान का पंजीयन VT-AMB के रूप में किया गया। बाद में यह पंजीयन संख्‍या एक गुजराती कंपनी को और 18 मार्च 2009 में कोलकाता की कंपनी ट्रेनस भारत एविएशन, कोलकाता-17 को VT-AMB (tecnam P-92J5) आवंटित कर दिया गया है। यह विमान 1950 तक तिरहुत सरकार का सरकारी विमान था। इसी दौरान तिरहुत सरकार ने तीन बडे एयरपोर्ट दरभंगा, पूर्णिया और कूच बिहार का निर्माण कराया। जबकि मधुबनी समेत कई छोटे रनवे भी विकसित किये। दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद 1950 में अमेरिका ने भारी पैमाने पर वायुसेना के विमानों की निलामी की। दरभंगा ने इस निलामी में भाग लिया और चार डीसी-3 डकोटा विमान खरीदा। 

इनमें दो C-47A-DL और दो C-47A-DK मॉडल के विमान थे। आजाद भारत में यह एक साथ खरीदा गया सबसे बडा निजी विमानन बेडा था। इन्ही चार जहाजों को लेकर दरभंगा के पूर्व महाराजा कामेश्वर सिंह ने दरभंगा एविएशन नाम से अपनी 14वीं कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी का मुख्यालय काेलकाता रखा गया। इसके निदेेशक बनाये गये द्वारिका नाथ झा। दरभंगा एविएशन मुख्य रूप से कोलकाता और ढाका के बीच काग्रो सेवा प्रदान करती थी। भारत सरकार में इन चारों विमानों को क्रमश: VT-DEM,VT-AYG, VT-AXZ VT-CME के नाम से पंजीयन कराया गया था। VT-DEM,VT-AYG, VT-AXZ नंबर का विमान जहां आम लोगों के लिए उपलब्‍ध था, वहीं,VT-CME को कामेश्वर सिंह ने खास अपने लिए विशेष तौर पर तैयार करवाया था। यह भारत का पहला लग्जरी विमान था, इसमें कई खूबियां थी। 

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यह विमान कर्नाटक के बलगाम में अभी संरक्षित कर के रखा हुआ है। 1950 में स्थापित दरभंगा एविएशन को पहला धक्‍का 1954 में लगा। 01 मार्च 1954 को कंपनी का विमान VT-DEM कलकत्ता एयरपोर्ट से उडने के तत्काल बाद गिर गया। इस हादसे के बाद कंपनी कमजोर हो गयी। कंपनी को बेहतर करने के लिए यदुदत्‍त कमेटी का गठन किया गया, लेकिन कमेटी का प्रस्ताव देखकर कामेश्‍वर सिंह निराश हो गये। कामेश्वर सिंह ने कंपनी को नये सिरे से शुरु करने का फैसला किया और नये विमान खरीदने का फैसला लिया गया। कंपनी ने 1955 में अपना एक पुराना विमान VT-AXZ कलिंगा एयरलाइंस को लीज पर दे दिया। कलिंगा एयरलाइंस ने उस विमान के परिचालन में घोर लापरवाही की, जिसका नतीजा रहा कि उसी साल 30 अगस्त 1955 को वो विमान नेपाल के सिमरा में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। 

दरभंगा एविएशन का तीसरा विमान 1962 में दुर्घटना का शिकार हो गया। VT-AYG नंबर का यह विमान बांग्‍लादेश में दुर्घटना का शिकार हो गया। इस विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद दरभंगा एविएशन की काग्रो सेवा नये विमान की आपूर्ति तक बंद कर दी गयी, जो फिर कभी शुरू न हो सकी। कंपनी के पास एक विमान बचा था, जो महाराजा कामेश्वर सिंह का निजी विमान था। VT-CME नंबर का यह विमान कामेश्वर सिंह के निधन तक उनके साथ रहा। इसी विमान ने तिरहुत को पहला पायलट दिया। बेशक इस विमान के पायलट आइएन बुदरी थे, लेकिन 1960 में मधुबनी के लोहा गांव के सुरेंद्र चौधरी इस जहाज के सहायक पायलट के रूप में नियुक्त होनेवाले तिरहुत के पहले पायलट बने। श्री चौधरी 1963 तक इस विमान के सहायक पायलट थे। 01 अक्‍टूबर 1962 को कामेश्‍वर सिंह की मौत के बाद भारत सरकार ने इस विमान का निबंधन रद्द कर लिया। 

चीन युद्ध के बाद दरभंगा की संपत्ति देखनेवाले न्यासी ने दरभंगा, पूर्णिया और कूचबिहार एयरपोर्ट के साथ-साथ इस लग्जरी विमान को भी भारत सरकार को सौंप दिया, और ये तीनों एयरपोर्ट जहां आज भारतीय वायुसेना के एयरबेस बन चुके हैं और वहीं इस विमान VT-CME C‑47A‑DL 20276 LGB ex 43‑15810 को भारतीय वायुसेना के लिए नया नंबर BJ1045 दे दिया गया। 

क्रमशः 

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