डाक पता-रामबाग पैलेस: जो कल तक “खास” था, आज “आम” हो गया? जमीन बिक रही है, दुकानें खुल रही है (भाग-30)

इस परिसर में कल तक तो 'अनुशासन' अपनी 'पराकाष्ठा' पर थी, रास्ता 'खास' था - आज 'आम' कैसे हो गया?

दरभंगा / पटना : दरभंगा के रामबाग पैलेस के मुख्य द्वार पर दरभंगा राज के पूर्व के 20 महाराजाओं की ‘ना’ ‘सही, महाराजा माधव सिंह के बाद से लेकर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह तक के “सात राजाओं की आत्मा” अवश्य बिलखती होगी, सोचती होगी कि इस परिसर में कल तक तो ‘अनुशासन’ अपनी ‘पराकाष्ठा’ पर थी, रास्ता ‘खास’ था – आज ‘आम’ कैसे हो गया? छोड़िये पीपल के पेड़ को। रहने दें बरगद के बृक्षों को जो दरभंगा के रामबाग किले के चारो तरफ दीवारों में जहाँ-जहाँ छेद दिखा, अपनी जड़ें मजबूत करने में लग गया। यह बात सिर्फ पेड़-पौधों के साथ नहीं, बल्कि दरभंगा के अंतिम महाराजा सर कामेशर सिंह के शरीर को पार्थिव होने के बाद उस चारदीवारी के अंदर या फिर कुछ अपने, कुछ दूर-दराज के सम्बधी, सभी अपना-अपना ठिकाना उन्हीं बृक्षों की भांति रामबाग के छत्रछाया में करने लगे, कुछ जीवन-यात्रा सफल कर लिए, कुछ मसक्कत कर रहे हैं । महाराज की पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद इस परिसर का स्वामित्व जिनके हाथों आया उनसे दरभंगा राज की, महाराज की, संस्कृति की, पुरातत्व की, घरोहर की सुरक्षा और संरक्षित रहने की बात सोचा नहीं जा सकता। शब्द करैले और नीम से भी कड़ुए हैं, लेकिन कागजात यही कहता है। सभी समय की सापेक्षता की ताक में हैं। 

दिनांक 5 जुलाई, 1961 को “दि लास्ट विल एंड टेस्टामेंट” में दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपना वसीयत बनाते समय वसीयत के आठवें पैरा में लिखा है: “I, bequeath the property mentioned in Schedule “A” to my wife Maharani Rajyalakshmi for her life for her residence (and for no other purposes). She shall be entitled to reside in the said house and use the furniture and fittings only without let or hindrance by anybody. After her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshawra Singh absolutely.“ और महारानी राज्यलक्ष्मी अपने पति और दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज की मृत्यु के 16-वर्ष बाद अंतिम सांस ली। दस्तावेज के अनुसार उक्त संपत्ति महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का हो गया “अब्सॉल्युटली” – आगे कुमार शुभेश्वर सिंह भी मृत्यु को प्राप्त किये। स्वाभाविक है यह संपत्ति उनके दो पुत्रों को हस्तगत हुआ होगा। 

साथ ही, महाराजधिराज वसीयत के 11वें पारा में ऐसा क्यों लिखा की उनकी दोनों पत्नियों की मृत्यु के बाद संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा उनके सबसे छोटे भतीजे, राजकुमार शुभेश्वर सिंह के “हिन्दू ब्राह्मण समुदाय” की पत्नी द्वारा उत्पन्न बच्चों का होगा, यह तो महाराजाधिराज की आत्मा ही जानती होगी या फिर पटना उच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायाधीश “न्यायमूर्ति” पंडित लक्ष्मीकांत झा? यह सच है कि वसीयत बनाते समय राजकुमार शुभेश्वर सिंह “नाबालिग” थे। परन्तु, दो बड़े महारथियों के द्वारा शब्दों का चयन, लेखनी और फिर हस्ताक्षर इस बात का गवाह जरूर है कि  महाराजाधिराज को बात का अंदेशा अवश्य था कि उनकी मृत्यु के बाद दरभंगा राज का अस्तित्व खतरे में पड़ेगा। इस बात से भी सशंकित रहे होंगे कि दरभंगा राज परिवार के पुरुष आने वाले समय में अपनी जाति और संप्रदाय से बाहर भी विवाह कर सकता है, विशेषकर तब जब राज परिसर में ‘अभिभावक और अनुशाशन’ की किल्लत हो जाएगी। उस पीढ़ी को बिना किसी मेहनत और मसक्कत से संपत्ति का विशाल पहाड़ मिल जायेगा। महाराजाधिराज ‘लक्ष्मण रेखा’ तो खींचे, परन्तु अगली पीढ़ी में “लक्ष्मणजी” ख़ुद रेखा को लांघ दिए। यानी, दरभंगा राज की संस्कृति का विराम हो गया यहाँ। 

रामबाग पैलेस  द्वार पर धंसा पुल – रख-रखाव की मानसिक किल्लत, आर्थिक तो नहीं है।  

समय का खेल देखिये । महाराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को होती है। उनकी पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी सन 1978 में मृत्यु को प्राप्त कर अपने पति के पास पहुँचती हैं, और 1934  में दरभंगा के लालकिला, यानी रामबाग परिसर के प्रवेश के साथ बाहरी दीवार और किले के अंदर प्रवेश करने के द्वार के बीच बना ऐतिहासिक 86-वर्ष का वृद्ध पुल अपनी रख-रखाव, इस विशाल परिसर के स्वामित्व रखने वाले की उपेक्षा के कारण आंशिक रूप से मृत्यु को प्राप्त करता है, ध्वस्त हो जाता है। कहते हैं  कभी दरभंगा राज परिवार के लोग इसी पुल से एक किले से दूसरे किले जाते थे। यह भी एक धरोहर ही था। ध्वस्त हो भी क्यों नहीं? देखते ही देखते कभी “खास” रास्ता “आम” हो गया। कहते हैं यह पुल तब धंसा जब एक जरूरत-से-अधिक सामानों से लदा ट्रक इस रास्ते से गुजर रही थी। अब आप सोचें – काश !! इतना ही ”ओवरलोडेड”  मानसिक स्थिति होती तो आज महाराजाधिराज का नाम, उनकी संपत्ति इस तरह “ध्वस्त” नहीं होती, नेश्तोनाबूद नहीं होती। खैर, सवाल रामबाग परिसर का था, प्रशासन का हरकत में आना भी स्वाभाविक ही था। विश्वविद्यालय थाना में ट्रक के मालिक पर प्राथमिकी दर्ज किया गया । यह काफी था अख़बारों में कहानियां छपने के लिए, लोग प्रशासन को दोष देने लगे, कहने लगे जिला प्रशासन से कई बार ये मांग की थी कि पुल पर से भारी वाहनों को गुजरने से रोका जाय लेकिन प्रशासन ने इसपर ध्यान नहीं दिया। लेकिन किसी ने रामबाग पैलेस के स्वामी की ओर ऊँगली नहीं उठाया। किसी ने यह नहीं पूछा, जो रास्ता कल तक “खास” था, आज “आम” कैसे हो गया ? कहा जाता है कि इस भव्य किले का निर्माण कोई 240 वर्ष पूर्व राजा प्रताप सिंह के काल में हुआ था। बाद में राजा माधव सिंह के काल-खंड में कुछ पुनर्निर्माण और विस्तार हुआ । 

ये भी पढ़े   क्या 'न्यायमूर्ति' झा नहीं चाहते थे कि महाराज 'वसीयत' में अपने पिता की इकलौती बेटी का नाम लिखकर "इतिहास रचने का श्रीगणेश करें" (भाग-41)

महाराजाधिराज का कोई संतान नहीं था। उनके भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के तीन पुत्र थे – (1) राजकुमार जीवेश्वर सिंह, (2) राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह। वसीयत लिखे जाने के समय इन तीनों भाइयों में राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और उनका विवाह श्रीमती राज किशोरी जी के साथ संपन्न हो गया था। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। समयांतराल, राजकुमार जीवेश्वर सिंह प्रथम पत्नी के होते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के दोनों पत्नियों से सात बेटियां – कात्यायनी देवी, दिब्यायानी देवी, नेत्रायणी देवी, चेतना दाई, द्रौपदी दाई, अनीता दाई, सुनीता दाई – हुई । जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक विद्वान थे, काफी शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। कुमार यज्ञेश्वर सिंह के तीन बेटे थे – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई थी। लगता है भारत के अंतिम बादशाह बहादुरशाह ज़फर की तरह दरभंगा के अंतिम महाराजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने राज का भविष्य रामबाग पैलेस के मुख्य द्वार पर खड़े-खड़े अपने जीवन के अंतिम वसंत में देख रहे थे, साल था 1961 क्योंकि सन 1962 का वंसत तो महाराजा साहेब देखे ही नहीं। 

महाराजाधिराज दिल्ली के लाल किले के तर्ज पर अपने 85 एकड़ की जमीन पर एक किला बनाना प्रारम्भ किये थे जिसका प्रारम्भ 1934 के ऐतिहासिक भूकंप के बाद प्रारम्भ हुआ था। इस किले के निर्माण के लिए ब्रिटिश फर्म के ठेकेदार बैग कैगटीम को जिम्मेदारी दी गई थी। किले के तीन तरफ लगभग 90 फ़ीट ऊंची यह दीवार तैयार की गयी। तीन तरफ तो दीवार बन गई, चौथी तरफ, यानी, पश्चिम इलाके में यह दीवार नहीं बन सका । कुछ लोग कहते हैं कि तीन तरफ दीवार बनते-बनते देश आज़ाद हो गया, जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई, इसलिए पश्चिमी दीवार अछूता रह गया। जबकि कुछ लोगों का कहना है कि इस किले के पश्चिम इलाके में रहने वाले लोगों शिकायत की कि इस दीवार से उनके घरों में आने वाली रोशनी अवरुद्ध हो गयी है। सभी न्यायालय से न्याय मांगे और और फिर अदालत ने निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। खैर।इस किले में लाल ईंटों का प्रयोग किया गया | इसका डिज़ाइन फतेहपुर, सिकरी के बुलंद दरवाज़ा से प्रेरित है | इस किले के अंदर दो महल हैं। ऐसा माना जाता है कि राज परिवार की “कुल देवता” यहीं हैं । विगत कई भूकम्पों के दौरान महल नष्ट हो गया। लालकिला कई जगहों से दरक गया। लेकिन तब इसकी मरम्मत का कोई काम नहीं हुआ। फिर 2015 के तेज भूकंप में कई जगहों पर न सिर्फ छतिग्रस्त हुआ बल्कि किले के ऊपरी हिस्से का मलबा सड़को पर भी गिर था। किले की मरम्मत नहीं होने से किला लगातार जर्जर हाल होता जा रहा है। जगह-जगह.दीवाल पर बड़े-बड़े पेड़ निकल आए हैं। कई जगहों पर 10 से 20 फ़ीट तक ऊंची दीवारों में दरार साफ दिखाई दे रही है। दीवार के दक्षिण इलाके में 90 फ़ीट की दीवार घट कर 20-25 फ़ीट ही रह गई है। 

ये भी पढ़े   लोग हँसते हैं जब पढ़ते-सुनते हैं कि खेलों में दरभंगा के पुराने गौरव को वापस लाने की बात कर रहे हैं (भाग-25)

अब लोगों को कैसे बताया जाय कि महाराजाधिराज के इस ऐतिहासिक किले का क्षेत्रफल में उत्तरोत्तर कमी हो रही है। किले की दक्षिण दीवार की ऊंचाई में भी क्रमशः कम हो रही है। महाराजा कामेश्वर सिंह की जब मृत्यु हुई उसके बाद, उनके उत्तराधिकारियों ने कई महलों के भूखंड को  बेचना शुरू कर दिया था । उन प्लॉटों को खरीदने वाले लोगों ने कॉलोनियों और घरों का निर्माण किया। तो कही,होटल, रेस्तरां और दुकानों को खोला गया |  महाराजाधिराज के वसीयत के शिड्यूल ‘A’ और ‘B’ में उद्धृत सम्पत्तियाँ, यानी महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुंदरी को जीवन पर्यन्त रहने के लिए जिन भवनों को महाराज बहुत “स्नेह” और “प्रेम” से लिखा था, ताकि उन्हें महाराज के बिना भी, अपनी अंतिम सांस तक “तकलीफ” नहीं हो; महाराजा की मृत्यु के बाद विगत छः दशकों से उन महलों की दीवारें, महलों की ईंट, बरामदे, खम्भे, छत, परिसर सभी टकटकी निगाहों से सूर्य की रोशनी में प्रत्येक आवक-जावक जीव को देखता आ रहा है, सोचता आ रहा है – कोई उसका भी हाल पूछे !! बारिस में बादलों की गर्जन के साथ भवनों के एक-एक ईंटों के रूह काँप जाते हैं। सभी डर से थर-थर कांपते हैं। परन्तु कोई नहीं आता, कोई नहीं पूछता। चतुर्दिक ‘उपेक्षाओं के पेड़-पौधे, घास-फूस कुकुरमुत्तों जैसा फ़ैल गया है। सूर्य की किरण फटते भवनों के छत-खंभे-दीवारें आपस में गुफ्तगू करना प्रारम्भ कर देते हैं, दुःख-दर्द बांटते हैं और सूर्यास्त होने के साथ ही, सभी एक-दूसरे को हताश निगाहों से देखते पृथक हो जाते हैं। उन्हें तो यह भी ज्ञात नहीं होता कि अगले दिन वे एक-दूसरे से मिल पाएंगे अथवा नहीं ? वे सोचते रहते हैं कहीं महाराजाधिराज की तरह “आकस्मिक रूप से” वे भी अपनी भव्यता को सुबह-सवेरे जमीन पर असहाय और पार्थिव अवस्था में तो पड़ा नहीं पाएंगे ।  

सवाल यह है कि रामबाग परिसर में पैसे के लिए जमीन बिकेगी, भवन निर्माण होगा तो जमीन के क्रेता/भवन निर्माण कर्ता तो भवन निर्माण सामग्री लाएंगे ही। दूकान ही खोल दिए। पिछले कुछ सालों में एक बड़ी आबादी बस गई है। आप कुछ कर सकते नहीं। बेचारे महाराजाधिराज की आत्मा भी रामबाग परिसर में कराहती होगी। 

शिड्यूल ‘A’ में रामबाग यानि दरभंगा राज फोर्ट के अंदर वाला विशालकाय भवन है। यानि महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद यह संपत्ति राजकुमार शुभेश्वर सिंह की हो जाएगी। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानी महाराजाधिराज की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई। शिड्यूल ‘’B’ में नरगौना पैलेस, इससे लगे गार्डन जिसके उत्तर में कंपाउंड वाल है, दक्षिण में सड़क है जो महाबीर मार्बल मंदिर के तरफ जाती है। महाराजाधिराज और महारानी राजलक्ष्मी की तरह, कुमार शुभेश्वर सिंह भी अब इस दुनिया में नहीं रहे। महाराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को हुई और कुमार शुभेश्वर सिंह उनके हिस्से आई आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों की अंतिम सांस लेने के कोई दो वर्ष बाद 2004 में हुयी। महाराज द्वारा नियुक्त तीनो ट्रस्टीगण भी मृत्यु को प्राप्त किये। आपको याद भी होगा कि नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति  विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयत नामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन एक याचिका से निवेदन किए थे कि उन्हें  रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीशिप से “मुक्त” किया जाय। लक्ष्मी कांत झा उक्त कार्य को सम्पन्न करते हुए 3 मार्च, 1978 को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने 1977-78 में इस किले का सर्वेक्षण भी कराया था , तब , इसकी ऐतिहासिक महत्वता को स्वीकार करते हुए किले की तुलना दिल्ली के लाल किले से की थी | किले के अन्दर रामबाग पैलेस स्थित होने के कारण इसे ‘ राम बाग़ का किला’ भी कहा जाता है | किले के निर्माण से काफी पूर्व यह इलाका इस्लामपुर नामक गाँव का एक हिस्सा था जो की मुर्शिमाबाद राज्य के नबाब , अलिबर्दी खान , के नियंत्रण में था | नबाब अलिबर्दी खान ने दरभंगा के आखिरी महाराजा श्री कामेश्वर सिंह के पूर्वजों यह गाँव दे दिया था | इसके उपरांत सन 1930 ई० में जब महाराजा कामेश्वर सिंह ने भारत के अन्य किलों की भांति यहाँ भी एक किला बनाने का निश्चय किया तो यहाँ की मुस्लिम बहुल जनसँख्या को जमीन के मुआवजे के साथ शिवधारा, अलीनगर, लहेरियासराय, चकदोहरा आदि जगहों पर बसाया। किले की दीवार काफी मोटी है। 

ये भी पढ़े   उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की "मंगल-ध्वनि बंद" होने के साथ ही,"दरभंगा राज का पतन" प्रारम्भ हो गया.... (भाग-34 क्रमशः)

बहरहाल, कोई सात सात पहले, बिहार सरकार द्वारा बिहार के एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स के अधीन दरभंगा के रामबाग पैलेस को एन्सिएंट मोन्यूमेंट की श्रेणी में रखने से पूर्व लोगों से उनका विचार, ऑब्जेक्शन मांगी थी। जैसे ही लोगों से आपत्ति मांगने से संबंधित सूचना के प्रकाशन के साथ ही दरभंगा राज फोर्ट में रहने वाले लोगों में खलबली मच गई। कोर्ट-मुकदमा हो गया। कला, संस्कृति और युवा विभाग, बिहार सरकार के सचिव, विभाग के उप-सचिव, पुरातत्व विभाग के निदेशक, अधीक्षक (पटना अंचल), दरभंगा के जिला मजिस्ट्रेट, सब-डिविजनल अधिकारी और अंचल अधिकारी प्रतिवादी बन गए।  महाराजाधिराज के भतीजे दिवंगत कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – पटना उच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि बिहार सरकार के डिप्टी सेक्रेटरी, आर्ट, कल्चर और यूथ डिपार्टमेंट द्वारा दिनांक 17 अगस्त, 2010 को जारी एक अधिसूचना, जिसमें उपरोक्त अधिकारी ने ‘आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1976 के अधीन लोगों से ‘ऑब्जेक्शन’ मांगे थे की दरभंगा स्थित महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के दरभंगा राज फोर्ट को क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय, निरस्त कर दिया जाय। 

बहरहाल, वादी का कहना था कि नियमानुसार उसी स्थान / भवनों को उक्त नियमों के तहत ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है जो न्यूनतम 100-वर्ष पूरे नहीं किये हों। और नियमानुसार, दरभंगा राज फोर्ट 100 वर्ष की आयु के नहीं हैं, अतः नियमनुसार यह ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता। नियमों के अनुसार, कोई भी ऐसी चीज जो 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। इस ऐतिहासिक निर्णय का श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के एंटीक्वटीज एंड आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1972 को जाता है। यह कानून 1976 से लागू हुआ। इसका मकसद भारतीय सांस्कृतिक विरासत की बहुमूल्य वस्तुओं की लूट और उन्हें गैर-कानूनी माध्यमों से देश से बाहर भेजने पर रोक लगाना था। वैसे, इसके सिर्फ नकारात्मक और अनपेक्षित परिणामों का अतिरेक ही सामने आया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यह कानून इतने कड़े और अभावग्रस्त नियमों से भरा हुआ है कि बेईमान ‘कला के सौदागर’ सरकारी अधिकारियों और कस्टम अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर अपना रास्ता निकाल ही लेते है।  

……….क्रमशः

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here