मामला महत्व का: अगर ‘महाराजा’ जानते कि उनके ‘मरने के 30-वर्ष बाद’ चेरिटेबल ट्रस्ट बनेगा, तो उसकी संपत्ति भी दान कर देते (भाग-45)

राजकीय आयुर्वेद चिकित्सा महाविद्यालय अस्पताल

दरभंगा / पटना : सब तारीख का खेल है। दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु तारीख भारत के लोग नहीं भूल पाएंगे। वजह है : राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के 93 वें जन्मदिवस का जश्न मनाने से कोई चार-पहर पूर्व महात्मा गाँधी, जिन्हे अपना ‘पुत्र-तुल्य’ मानते थे, सम्मान करते थे; “बापू” को छोड़कर दरभंगा के नरगौना पैलेस स्थित एक ‘बाथटब’ के रास्ते मृत्यु को प्राप्त किये। विगत 60 वर्षों में महाराजाधिराज और उनके सभी 19-पूर्वजों द्वारा अर्जित धन-संपत्ति-गौरव-गरिमा धीरे-धीरे मृत्यु के कगार पर आ गई, बस अंतिम सांस लेना बाकी है; परन्तु उस ‘बाथटब’ का ‘कलंक’ किसी ने साफ़ करने की दिशा में कोई पहल नहीं किये। जबकि साल के 365 दिनों में जिस तरह भारत ही नहीं, विश्व में 270 से अधिक तारीखें विभिन्न दिवसों के लिए ‘सुरक्षित’ है; दरभंगा राज के लिए दरभंगा की नीचली अदालत से लेकर देश के कई उच्च न्यायालयों के रास्ते सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज विभिन्न मुकदमें भी तारीखों की याद दिलाती है। महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद किसी ने भी नरगौना पैलेस के मुख्य कमरे से जुड़े उस स्नानागार की ओर मुड़कर नहीं देखे, जहाँ दरभंगा के अंतिम राजा का सुन्दर-सुडौल-हँसता-मुस्कुराता शरीर का ‘पार्थिव स्वरुप’ गिरा पड़ा मिला। यह कहा जाता है कि महाराजाधिराज की मृत्यु को लेकर कोई 130 लोगों ने अपने-अपने “वक्तव्य” दर्ज कराये थे। काश !!! उन दर्ज वक्तव्यों पर जमी धूल को भी कोई साफ़ करता तो एक महत्वपूर्ण तारीख दरभंगा के इतिहास में दर्ज होता। लेकिन…..परन्तु का सवाल है। 

यह सर्वविदित है कि महाराजाधिराज दुर्गा पूजा के अवसर पर अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगौना (दरभंगा) स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। आज नरगौना पैलेस का वह रेलवे पटरी कहीं नहीं दिखेगी जहाँ कोई डेढ़-शताब्दी पूर्व दरभंगा के राजा लक्ष्मेश्वर सिंह ट्रेन का चलन-प्रचलन प्रारम्भ किये थे और जहाँ उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह अपनी मृत्यु से पहले उसी ट्रेन से नरगौना पैलेस के परिसर में उतरे थे। फिर कभी वे वापस नहीं जा सके कलकत्ता और उनका पार्थिव शरीर अपने पूर्वजों के पास पहुँचने के लिए माधवेश्वर में अग्नि को सुपुर्द किया गया। महाराजाधिराज को यहाँ आने के बाद यहाँ की स्थितियां ”सामान्य” दिखी थी अथवा नहीं, यह तो महाराजाधिराज ही जानते थे अथवा उनकी दोनों ‘जीवित’ महारानियाँ – महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुन्दरी। महारानी राज लक्ष्मी जी की मृत्यु महाराजाधिराज की मृत्यु से 14 वर्ष बाद सन 1976 में हुई, जबकि महारानी कामेश्वरी प्रिया की मृत्यु महाराजाधिराज के जीवन काल में सन 1941 में ही हो गयी। सबसे छोटी और तीसरी महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं । महाराजाधिराज का हँसता, मुस्कुराता, मानवीय, दार्शनिक स्वरुप जीवित शरीर पहली अक्टूबर 1962 को आश्विन शुक्ल तृतीया 2019 को नरगौना पैलेस के अपने सूट (तस्वीर देखें) के शौचालय-स्नानागार (तस्वीर देखें) के नहाने के इसी बाथटब (तस्वीर देखें) में मृत पाया गया था।है 

दस्तावेजों के आधार पर 5 जुलाई, 1961 को महाराजधिराज द्वारा वसीयतनामे पर हस्ताक्षर किये। वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो गई और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर” बनते हैं । साथ ही, 26 सितम्बर, 1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट” करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति झा को प्राप्त होता है । वसीयत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवास होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सों में बांटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह जो स्वर्गवासी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह , राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था । दोनों महारानी को रहने के लिए  एक – एक महल, जेवर – कार और कुछ संपत्ति मात्र उपभोग के लिए और दरभंगा राज से प्रतिमाह कुछ हजार रुपए माहवारी खर्च देने का प्रावधान था।

कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट का स्थापना 

महाराजाधिराज को कोई संतान नहीं था। वसीयत लिखे जाने के समय इन तीनों भाइयों में राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और उनका विवाह श्रीमती राज किशोरी जी के साथ संपन्न हो गया था। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। समयांतराल, राजकुमार जीवेश्वर सिंह प्रथम पत्नी के होते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के दोनों पत्नियों से सात बेटियां – कात्यायनी देवी, दिब्यायानी देवी, नेत्रायणी देवी, चेतना दाई, द्रौपदी दाई, अनीता दाई, सुनीता दाई – हुई । जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक विद्वान थे, काफी शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। कुमार यज्ञेश्वर सिंह के तीन बेटे थे – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई थी। 

महाराजाधिराज की मृत्यु के कोई नौ साल बाद सितम्बर 17, 1971 को महारानी के सम्मानार्थ, उनके नाम पर एक आयुर्वेदिक चिकित्सा संस्थान बनाने के लिए, लोगों को आयुर्वेदिक चिकित्सा सुविधा समय पर और प्रचुर मात्रा में मिले, 9 बीधा चार कठ्ठा और 9 धूर जमीन दान स्वरुप दिया गया। कुछ वर्ष बाद, संभवतः 1978-79 महात्मा गाँधी के जन्मदिन के अवसर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर 2 अक्टूबर को इस राजकीय महारानी रामेश्वरी भारतीय चिकित्सा विज्ञान संस्थान यानी दरभंगा आयुर्वेद कॉलेज का उद्घाटन भी किया। यह संस्थान मोहनपुर में स्थित है। अभी तक सब सामान्य था। समय निकलता जा रहा था।महाराजा की मृत्यु के बाद ‘वसीयत’ के “प्रोबेट” होने के बाद न्यायमूर्ति झा ‘सोल एस्क्यूटर” (निर्णय: कलकत्ता उच्च न्यायालय दिनांक 26 सितम्बर, 1963) बने। उस ‘वसीयत’ में महाराजा ने तीन ट्रस्टियों – पंडित लक्ष्मी कांत झा, गिरीन्द्र मोहन मिश्र और श्री ओझा मुकुंद झा – का नाम लिखे थे जिन्हे दरभंगा राज रेसिडुअरी एस्टेट का देख-रेख का जवाबदेही भी सौंपा था। महाराजा यह भी लिख कर गए थे कि “एस्क्यूटर” अपना कार्य निष्पादित करने के बाद ट्रस्ट का समस्त कार्य ट्रस्टियों को सुपुर्द कर देंगे। 

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सं 1963 के बाद सं 1978 तक न्यायमूर्ति झा के समय काल में क्या हुआ, क्या नहीं हुआ यह तो “दरभंगा राज की वर्तमान स्थिति ही गवाह” है। इस बीच 3 मार्च, 1978 को न्यायमूर्ति झा की मृत्यु हो गयी। फिर कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा दो अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों – न्यायमूर्ति एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी – की नियुक्ति हुई दरभंगा राज के प्रशासक के रूप में। फिर ‘एसेट्स और लायबिलिटी’ का ‘इन्वेंटरी’ बना और फिर कागजात तत्कालीन ट्रस्टियों – श्री द्वारकानाथ झा, श्री मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा – को 26 मई, 1979 को सुपुर्द किया गया। महाराजा के वसीयतनामे में इस बात पर बल दिया गया था कि ट्रस्टियों की मृत्यु अथवा त्यागपत्र के बाद, दूसरे ट्रस्टी द्वारा रिक्तता को भरा जायेगा और वर्तमान ट्रस्ट उक्त दस्तावेज में उल्लिखित नियमों के अधीन ही नियुक्त किये जायेंगे।

तारीख, सप्ताह, महीना, साल बीतता जा रहा था और महाराजाधिराज के मरणोपरांत दरभंगा के लाल किले के अंदर रहने वाले लोग, जो महाराजा की मृत्यु के समय ‘नाबालिग’ थे, बालिग जो गए। जो अविवाहित थे,  वे विवाहित हो गए – महिला, पुरुष दोनों । महाराजा का ‘वसीयत’ अपना कार्य धीरे-धीरे कर रहा था। सबों के मन में आशा और निराशा का द्वन्द समास चल रहा था। जो ‘स्थिर’ विचारधारा के थे, वे ‘दरकिनार’ हो रहे थे। जो ‘समय के अनुसार’ स्वयं को ‘शरीर से स्वस्थ’ और ‘मन से चालाक’ समझ रहे थे, वे किसी भी मौके को हाथ से निकलने नहीं देना चाहते थे। न्यायमूर्ति पंडित झा की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी (अवकाश प्राप्त) को दरभंगा राज के “प्रशासक” के रूप में नियुक्त किया गया । इसके बाद तत्कालीन न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी अपने आदेश, दिनांक 16 मई, 1979 के द्वारा उपरोक्त “प्रशासकों” को “इन्वेंटरी ऑफ़ द एसेट्स’ और ‘लायबिलिटीज ऑफ़ द इस्टेट’ बनाने का आदेश दिया थे ताकि वह दरभंगा राज के ट्रस्टियों को सौंपा जा  सके । उक्त दस्तावेज के प्रस्तुति की तारीख के अनुसार तत्कालीन ट्रस्टियों ने महाराजाधिराज दरभंगा के रेसिडुअरी इस्टेट का कार्यभार 26 मई, 1979 को ग्रहण किया। कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेशानुसार, महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी (यानी परिवार के सदस्य) इस ट्रस्ट के ट्रस्टीज बने । कहते हैं ‘संपत्ति क्या नहीं करती है’ – संपत्ति के कारण ही महाराज के कई पारिवारिक सदस्यों ने कई मुकदमें किये देश के अदालतों में। अंततः मामला माननीय उच्चतम न्यायालय पहुंचा और 5 अक्टूबर 1987 को फॅमिली सेटलमेंट हुआ ।

संपत्ति के लिए ‘पारिवारिक जंग’ का इससे बेहतर दृष्टान्त और क्या हो सकता है स्वतंत्र भारत में। उस भारत में जहाँ स्वतंत्रता की लड़ाई को मजबूत बनाने के लिए दरभंगा के राजाओं ने क्या-क्या नहीं किये थे । लेकिन देश के सर्वोच्च न्यायालय का छः पन्ने का दस्तावेज में जिस बात का उल्लेख प्राथमिकता से किया गया, वह लाल-किले के सभी “अपनों” को, महाराजा की सम्पत्तियों के लाभार्थियों के सामने कोई “विकल्प” नहीं छोड़ा: “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एक मात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और  महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। फेमिली सेटेलमेंट का दस्तावेज मार्च 27, 1987 को लिखा गया। विभिन्न आकार-प्रकार के हस्ताक्षरों के साथ, गजब की एकता फेमिली सेट्लमेंट के छः पन्नों पर दिखता है। शायद 27 मार्च, 1987 के बाद इस तरह की एकता दरभंगा राज के परिवार के लोग, रामबाग का चारदीवारी कभी नहीं देखा गया होगा। 

तदनुसार, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 1 के अनुसार, सिड्यूल II में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी सिड्यूल II में उल्लिखित सभी सम्पत्तियों की स्वामी बन गयी। स्वाभाविक है, उन सम्पत्तियों पर उनका एकल अधिकार हो गया। इसी तरह, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 2 के अनुसार, कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र, यानी राजेश्वर सिंह, जो उस समय बालिग हो गए थे, और उनके छोटे भाई, कपिलेश्वर सिंह, जो उस समय नाबालिग थे, सिड्यूल III में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते सिड्यूल III में उल्लिखित सम्पत्तियों के मालिक हो गए। आगे इसी तरह, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 3 के अंतर्गत सिड्यूल IV में वर्णित सभी नियमों के अनुरूप में सभी सिड्यूल IV में उल्लिखित सम्पत्तियों का मालिक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज हो गए। 

कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट का स्थापना 

फैमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के तहत, पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज को यह अधिकार दिया गया कि वे शेड्यूल I में वर्णित ‘लायबिलिटीज’ को समाप्त करने के लिए, सिड्यूल VI में उल्लिखित सम्पत्तियों को बेचकर धन एकत्रित कर सकते हैं, साथ ही, परिवार के लोगों में फैमिली सेटेलमेंट के अनुरूप शेयर रखने का अधिकार दिया गया। साथ ही, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के अनुसार, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी और राजकुमार शुभेश्वर सिंह या उनके नॉमिनी (दूसरे क्षेत्र के लाभान्वित लोगों के प्रतिनिधि) द्वारा बनी एक कमेटी लिखित रूप से सम्पत्तियों की बिक्री, शेयरों का वितरण आदि से संबंधित निर्णयों को लिखित रूप में ट्रस्टीज को देंगे जहाँ तक व्यावहारिक हो, परन्तु किसी भी हालत में पांच वर्ष से अधिक नहीं या फिर न्यायालय द्वारा जो भी समय सीमा निर्धारित हो। 

फैमली सेटेलमेंट के तहत,  महाराजाधिराज के उस सम्पूर्ण संपत्ति स्वरुप सिक्के को जिन चार भागों में विभक्त किया गया उसमें एक – चौथाई भाग महाराजाधिराज पत्नी महारानी कामसुन्दरी को मिला। एक – चौथाई हिस्सा राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह को मिला।  एक – चौथाई हिस्सा राजकुमार जीवेश्वर सिंह और यज्ञेश्वरा सिंह को मिला और अंतिम एक – चौथाई टुकड़ा चेरिटेबल ट्रस्ट के हिस्से आया। सेटेलमेंट के क्लॉज 11 के तहत, यह बात स्पष्ट किया गया कि ‘समय आने पर ट्रस्ट का निर्माण’ किया जायेगा जिसका नाम ‘कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट’ होगा और इस ट्रस्ट के सभी सदस्यों का चयन, रखरखाव आदि-आदि नियमानुसार होगा। आगे, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 14 के अधीन न्यायालय के आदेश केदिनांक 15 अक्टूबर, 1987 से  पांच साल के अंदर इस सेटेलमेंट को लागू करना था। बाद में, दिनांक 7 मई, 1993 को न्यायलय ने सेटेलमेंट को दिनांक 15 अक्टूबर, 1995 तक बढ़ा दिया। 

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बहरहाल, आप विश्वास नहीं करेंगे लेकिन सत्य यही है कि महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना 25 मार्च, 1992 को हुई। यानी महाराजा की मृत्यु के 30-वर्ष बाद हुई। इस चेरिटेबल ट्रस्ट के तीन ट्रस्टी थे – द्वारकानाथ झा, मदन मोहन झा और काम नाथ झा – ये तीनों हस्ताक्षर कर्ता मृत्यु को प्राप्त किये। प्रारंभिक अवस्था में 3000 /- रुपये डोनेशन के साथ कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट की स्थापना हुई। महाराजाधिराज नहीं जानते थे कि उन्हें उस ट्रस्ट के लिए उद्देश्य और ऑब्जेक्टिव भी लिख कर जाना चाहिए, उन्हें विशिष्ट दिशा निर्देश भी शब्दबद्ध कर देना चाहिए था। क्योंकि उनके मरने के तीन-दशक बाद ट्रस्ट का बनना ही इसकी “अहमियत” को बताता है। वह तो “संपत्ति” की बात नहीं होती, वसीयत के अनुसार यह ट्रस्ट भी धनाढ्य नहीं होता, तो शायद ट्रस्ट भी नहीं बनता। शायद महाराज चाहते थे कि उनके साम्राज्य में किसी भी व्यक्ति को, गाँव के किसान से लेकर, गरीब-गुरबा से लेकर विद्वान-विदुषी तक, यह चेरिटेबल ट्रस्ट काम आये।  चाहे उनकी शिक्षा की बात हो, स्वस्स्थ की बात हो, ज्ञान-विज्ञान की बात हो, उनके विकास की बात हो। किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाय। 

खैर, तीन-दशक बाद ही सही, ट्रस्ट बनाते समय समाज की जितनी भी आशाओं और आकांक्षाओं से जुड़े शब्द और कार्य थे, इस ट्रस्ट के कागज पर शब्दबद्ध कर दिए गए। बहुत ही तबज्जो दिया गया जैसे हॉस्पिटल, चेरिटेबल  डिस्पेंसरी, मेटरनिटी होम, महिलाओं के लिए अस्पताल, बाल कल्याण केंद्र की स्थापना, अस्पतालों में पर्याप्त बिस्तरों की व्यवस्था, अस्पताल की स्थापना जिससे लोगों को लाभ प्राप्त हो सके। इस बात का भी उल्लेख किया गया कि किसी भी विद्यालय को आर्थिक मदद देना, विद्यालयों को बढ़ावा देना, देख भाल करना, किसी भी संस्थान, कॉलेज, विश्वविद्यालय, टेक्निकल कालेज, फिजिकल कालेज, मेंन्टल कालेज की स्थापना, शोध कार्यों को प्रमुखता देना, शोध करवाना, संस्कृति और कला को बढ़ाव देना, विज्ञानं को बढ़ावा देना, बेहतर स्वास्थ्य की व्यवस्था करना, गरीब गुरबा को मदद इत्यादि – इत्यादि। ट्रस्ट के निर्माण के समय यह उल्लेख किया गया कि ट्रस्ट की सम्पूर्ण शक्ति बोर्ड ऑफ़ ट्रस्टी में निहित होगी। इस ट्रस्ट में न्यूनतम 3 और अधिकतम 9 ट्रस्टीज होंगे। इस तारीख को आते-आते महाराजाधिराज के काल-खंड के लगभग सभी गणमान्य महानुभाव मृत्यु को प्राप्त हुए, सिवाय राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के मझले पुत्र और पुत्र-वधु के – ईश्वर दोनों को बेहतर स्वास्थ्य और लम्बी आयु दें। आज इस ट्रस्ट की क्या स्थिति है, दरभंगा के लोग पूछते भी नहीं। 

पहली अक्टूबर, 1962 से कई दशक बीत गए और इस ट्रस्ट को बने हुए भी कई वर्ष बीत गए। तभी अचानक पटना उच्च न्यायालय में एक मुकदमा दायर हुआ और एक तारीख मुक़र्रर हुआ। इस मुक़दमे में कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट के प्रबंध समिति (ट्रस्टी  कपिलेश्वर सिंह के माध्यम से) और कुमार शुभेश्वर सिंह के पुत्र कपिलेश्वर सिंह ने सचिव-सह-आयुक्त, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, निदेशक (इंडिजिनस मेडिसिन), आयुक्त, दरभंगा प्रमंडल, जिलाधिकारी दरभंगा, रजिस्ट्रार के माध्यम से कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, प्राचार्य-सह-प्रशासनिक पदाधिकारी, एम आर इंस्टीच्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंस और प्रमुख सचिव, स्वास्थ्य विभाग, बिहार सरकार, सबों को प्रतिवादी बनाया। याचिका दायर करने वाले वादी का कहना था की “The Hospital was not part of the Institute and hence it was not taken over by the said take over notification whereas the stand of the respondent -State is that by the said notification (Annexure-20) the Institute along with the Hospital attached to it was taken over by the State Government.” 

कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट का स्थापना 

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट के में प्रबंध समिति ने अपनी याचिका में दरभंगा जिला मुख्यालय में स्थित महाराजा कामेश्वर सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल यानी राज अस्पताल पर अपना अधिकार का दावा किया। दरभंगा राज की संपत्ति को स्वर्गीय रामेश्वरी देवी की स्मृति में आयुर्वेदिक अस्पताल और अनुसंधान केंद्र स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किया गया था, जो दान में दिया गया था। सं 1978-79 में महारानी रामेश्वरी भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, मोहनपुर, दरभंगा की स्थापना और उद्घाटन किया गया था। संस्थान से जुड़ी संपत्ति एक अस्पताल थी। उक्त संस्थान तब चलता रहा जब अधिसूचना दिनांक 12.01.1985 के तहत इसे राज्य सरकार द्वारा एक अध्यादेश के तहत सभी संपत्तियों के साथ लिया गया जो बाद में एक अधिनियम बन गया। याचिकाकर्ता का दावा है कि अस्पताल संस्थान का हिस्सा नहीं था और इसलिए इसे उक्त अधिग्रहण अधिसूचना द्वारा नहीं लिया गया था, जबकि प्रतिवादी का रुख यह था कि उक्त अधिसूचना द्वारा संस्थान के साथ इससे जुड़े अस्पताल के साथ राज्य सरकार ने अधिग्रहण कर लिया था। 

इस मुद्दे को 2008 के सीडब्ल्यूजेसी नंबर 13207 में इस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। इस न्यायालय की एक बेंच ने आदेश दिनांक 8.5.2012 द्वारा इस मुद्दे को हल करने में कठिनाई को देखते हुए याचिकाकर्ता को प्राधिकरण के समक्ष एक अभ्यावेदन दायर करने की अनुमति दी थी। स्वर्गीय महाराजा की वसीयत से संबंधित एक प्रोबेट कार्यवाही के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय में पक्षों के बीच हुए समझौते सहित सभी प्रासंगिक तथ्यों को रिकॉर्ड में लाना, जिसे पटना उच्च न्यायालय सीडब्ल्यूजेसी द्वारा विचार और निपटाने के लिए निर्देशित किया गया था। इसके आलोक में, याचिकाकर्ता द्वारा दायर अभ्यावेदन पर सरकार के स्वास्थ्य विभाग में प्रधान सचिव द्वारा विचार किया गया और आदेश दिनांक 07.02.2013 द्वारा खारिज कर दिया गया। 

न्यायालय ने कहा: “मैंने रिट आवेदन के समर्थन में श्री एस.एस. द्विवेदी, विद्वान वरिष्ठ अधिवक्ता, राज्य के लिए श्री किंकर कुमार एससी-9 और प्रतिवादी संख्या 6 की ओर से श्री हिमांशु कुमार अकेला को सुना है। पार्टियों ने दलीलों का आदान-प्रदान किया है।याचिकाकर्ता (ओं) के अनुसार, महाराजा के दामाद ने 17.09.1971 को 9 बीघा, 4 कथा और 9 धुर के एक क्षेत्र की भूमि के एक टुकड़े के संबंध में एक उपहार दिया था, जहाँ महारानी के नाम पर एक संस्थान का निर्माण किया गया जो 1978-79 में कार्यात्मक बन गया। संस्थान के बेहतर प्रबंधन के लिए राज्य सरकार ने अधिसूचना दिनांक 12-01-1985 के तहत संस्थान से जुड़ी सभी संपत्तियों और संपत्तियों के साथ संस्थान को अपने कब्जे में ले लिया। 

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न्यायालय ने यह कहा कि: “महाराजा द्वारा एक वसीयत निष्पादित की गई थी जिसके लिए कोलकाता उच्च न्यायालय में एक प्रोबेट कार्यवाही दायर की गई थी। मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय तक गया। दिवंगत महाराजा की वसीयत के अनुसार दरभंगा राज की संपत्ति के संबंध में पार्टियों के बीच पटना उच्च न्यायालय सीडब्ल्यूजेसी संख्या 7950 2013 दिनांक 17-09-2016 के बीच एक पारिवारिक समझौता हुआ था, माननीय द्वारा स्वीकार कर लिया गया था।”  

कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट का स्थापना 

न्यायालय के अनुसार:  According to this settlement, a charitable trust was to be constituted in the name and style as Maharajadhiraj Kameshwar Singh Charitable Trust which shall manage the properties of the Trust. Few other communication(s) made by the Minister, Department of Health of the Government have been also referred to in this regard by the petitioner(s) in order to show that the Hospital was not the property or asset of the Institute when the same was taken over. Finding some inherent lacunae in those communications of the Hon’ble Minister issued in his personal capacity, it is found that they do not throw much light on the controversy. The petitioner(s) have also relied on a communication (Annexure-15) made by Raj Darbhanga to the Chief Executive Officer with respect to creation of municipal holding of the Hospital and realization of the holding tax.   

इस समझौते के अनुसार, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट के नाम और शैली में एक धर्मार्थ ट्रस्ट का गठन किया जाना था जो ट्रस्ट की संपत्तियों का प्रबंधन करेगा। सरकार के स्वास्थ्य विभाग के मंत्री द्वारा किए गए कुछ अन्य संचारों को भी याचिकाकर्ता (ओं) द्वारा इस संबंध में संदर्भित किया गया है ताकि यह दिखाया जा सके कि अस्पताल संस्थान की संपत्ति या संपत्ति नहीं था जब यह था लिया गया तह । माननीय मंत्री जी द्वारा अपनी व्यक्तिगत हैसियत से जारी किए गए उन पत्रों में कुछ अंतर्निहित कमियां पाते हुए, यह पाया जाता है कि वे विवाद पर अधिक प्रकाश नहीं डालते हैं। याचिकाकर्ता (ओं) ने अस्पताल के नगर पालिका होल्डिंग के निर्माण और होल्डिंग टैक्स की वसूली के संबंध में राज दरभंगा द्वारा मुख्य कार्यकारी अधिकारी को किए गए संचार पर भी भरोसा किया है। निर्विवाद रूप से, याचिकाकर्ताओं के अनुसार चैरिटेबल ट्रस्ट का गठन 26.03.1992 को किया गया था यानी संस्थान के अधिग्रहण आदेश / अधिसूचना के साथ-साथ इसकी संपत्तियों और 2013 की पटना उच्च न्यायालय सीडब्ल्यूजेसी संख्या 7950 दिनांक 17-09-2016 संपत्ति 12.01.1985 को जारी किया गया था।न्यायालय के अनुसार: “Indisputably, the charitable trust, according to the petitioners was constituted on 26.03.1992 i.e. much after the take over order/notification of the Institute along with its properties and Patna High Court CWJC No.7950 of 2013 dt.17-09-2016 assets was issued on 12.01.1985.”
 
दूसरी ओर, राज्य के वकील ने प्रस्तुत किया है कि संस्थान (अनुलग्नक -20) को लेने की अधिसूचना के अवलोकन पर ऐसा प्रतीत होता है कि संस्थान से जुड़े अस्पताल के साथ राज्य सरकार द्वारा कब्जा कर लिया गया था उक्त अधिसूचना द्वारा। प्रतिवादी संख्या के काउंटर हलफनामे का जिक्र करते हुए यह कहा गया है कि राज्य सरकार स्वर्गीय महाराजा की वसीयत के संबंध में परिवार के सदस्यों के बीच हुए समझौते के लिए एक पक्ष नहीं थी, जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रखा गया था और अनुमोदित किया गया था। उन्होंने दरभंगा राज के सहायक प्रबंधक के पत्र का भी उल्लेख किया है जिसमें प्रतिवादी राज्य को अस्पताल के संबंध में कोई आपत्ति नहीं दी गई थी।   

प्रतिवादी- प्रमुख सचिव, इस तथ्यात्मक पृष्ठभूमि में, याचिकाकर्ता (ओं) के दावे की उनके द्वारा उनके दावे के समर्थन में रखी गई सामग्री के संदर्भ में विस्तार से जांच की। उन्होंने पाया कि प्रोबेट मामले में समझौता/निपटान परिवार के सदस्यों के बीच हुआ था जिसे माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने २२.३.१९८७ को स्वीकार कर लिया था अर्थात १९८५ में राज्य सरकार द्वारा संस्थान के अधिग्रहण के काफी बाद। उन्होंने यह भी कहा कि चिकित्सा परिषद अधिनियम के प्रासंगिक प्रावधानों के तहत, संस्थान उचित कामकाज और मान्यता के उद्देश्य से एक अलग अस्पताल से जुड़ा होने का हकदार था। 

कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट का स्थापना 

इस न्यायालय के निर्देश पर सरकार द्वारा पारित 2013 दिनांक 17-09-2016 दिनांक 23.06.2005 के पटना उच्च न्यायालय सीडब्ल्यूजेसी संख्या 7950 के एक अन्य आदेश से ऐसा प्रतीत होता है कि जब इसे लिया गया था तब अस्पताल को संस्थान से जोड़ा गया था। दिवंगत महाराजा के परिवार के सदस्यों के बीच समझौता उस संस्थान के अधिग्रहण के बाद हुआ था जिसमें राज्य एक पक्ष नहीं था। विभिन्न दावेदारों के बीच माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष हुआ उक्त पारिवारिक समझौता इस प्रकार विवाद पर निर्णायक राय दर्ज करने के लिए प्रासंगिक नहीं होगा। पक्षकारों से यह अपेक्षा की गई थी कि वे माननीय उच्चतम न्यायालय के संज्ञान में उस अधिसूचना को लाएँ जिसके द्वारा संस्थान से सम्बद्ध अस्पताल और अन्य संपत्तियों को जनवरी, 1985 में राज्य सरकार द्वारा पहले ही अधिग्रहित कर लिया गया था। 

पक्षों के तर्क की सराहना करते हुए और दोनों पक्षों द्वारा आक्षेपित आदेश के तहत प्रतिवादी प्रधान सचिव द्वारा रिकॉर्ड पर रखी गई सामग्री के अवलोकन पर, पाया गया कि अस्पताल संस्थान का हिस्सा था जब इसे 1985 में लिया। न्यायालय ने कहा: Upon hearing both sides and in the light of discussions made hereinabove, this Court is unable to find any patent illegality in the order under challenge meriting interference. The writ application fails and is dismissed. The order present shall, however, not preclude the petitioners to agitate the grievance before the appropriate forum in accordance with law.”

बहरहाल, दरभंगा के लोगों का कहना है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रयासरत हैं कि मोहनपुर स्थित इस आयुर्वेदिक संस्थान को प्रदेश ही नहीं देश का अव्वल संस्थान बनाया जाए ताकि आयुर्वेद शिक्षा और चिकित्सा में प्रदेश का नाम रोशन हो सके। शेष तो दरभंगा के लोग जानते ही हैं कि अब राज दरभंगा का क्या हाल है। ….. क्रमशः   

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