वे कभी खुद बाहर निकलकर संगीतज्ञों का स्वागत नहीं किये, लेकिन शरीर पार्थिव होने के बाद भी बिस्मिल्लाह खां सुपुर्दे ख़ाक होकर दरभंगा राज के प्रति सम्मान बरकरार रखे (श्रृंखला-79)

भारत रत्न शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खां - पटना में पत्रकारों, छायाकारों के बीच (तस्वीर: आलोक जैन के फाइल से)

दरभंगा/बनारस : सन 1974 के बाद भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने जीवन के अंतिम सांस तक फिर कभी दरभंगा किला के अंदर नहीं आये। वे अन्तःमन से दुखी थे। कसम भी खा रखे थे। संगीत और संगीतज्ञ का अपमान हुआ था। यह भी कहा जाता है कि राजा बहादुर के सबसे छोटे पुत्र यानी कुमार शुभेश्वर सिंह को संगीत-शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। जब कोई संगीतज्ञ उनके ज़माने में भी दरभंगा किला परिसर में आते थे, तो वे निजी तौर पर खुद कभी बाहर निकलकर उनका स्वागत या सम्मान नहीं करते थे। कभी किसी नौकर को भेज दिए तो कभी किसी जी-हुजूरी करने वाले को। लेकिन बिस्मिल्लाह खां और कुमार शुभेश्वर सिंह में एक समानता थी जिसे कभी कोई देखा नहीं, सोचा नहीं। बिस्मिल्लाह खान के 91 वें जन्मदिन के अगले दिन कुमार शुभेश्वर सिंह का हँसता-मुस्कुराता शरीर ‘पार्थिव’ हो गया और उस तारीख के पांचवें महीने में बिस्मिल्लाह खां का शरीर सुपुर्दे ख़ाक हो गया  –  महज तारीख का ही तो अंतर था 22 मार्च और 21 अगस्त, साल तो 2006 ही था। आपने कभी सोचा क्या?

उस दिन बनारस के गदौलिया चौक से सराय हरहा की तंग गलियों की ओर उन्मुख था। साईकिल की ट्रिंग-ट्रिंग, रिक्शे का पों-पों, ऑटो वालों का, स्कूटर वालों का, चार-पहिया पर बैठे मोहतरमाओं और मोहतरमों का हॉर्न और इस बीच में सांढ़ और गाय का बेदखल प्रवेश और निकास – चतुर्दिक बनारस की सड़कों पर आपसी स्नेह-प्रेम-सम्मान अपने-अपने पराकाष्ठा पर दिख रहा था। उस समय तक बनारस में सम्मानित नरेंद्र मोदी जी का अवतरण नहीं हुआ था। मैं एक रिक्शा पर अपने पैर को रिक्शा चालक के बैठने की जगह के पीछे वाले हिस्से में लगे लोहे से सहारा लिए सतर्कता के साथ बैठा था। रिक्शा वाले महोदय मेरे डर को भांप गए थे। रिक्शा वाले महात्मा एक बार पूछ भी बैठे की पहली बार रिक्शा पर बैठे हैं? 

मैं बहुत हिम्मत के साथ कहा की नहीं, चलाया नहीं हूँ पेट भरने के लिए, अन्यथा आपकी जैसे बैठकी पर बैठते-बैठते मेरा पिछवाड़ा भी उसी तरह हो गया है जैसा कुत्तों का होता है। आम तौर पर जानबरों का, जो शहरों की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं में रहने वाले मोहतरमाओं और मोहतरम के गोद में नहीं पलते और जिन्हे जीने के लिए भारत की सड़कों पर, जेद्दोजेहद करना पड़ता है, उन कुत्तों की शारीरिक स्थिति कुछ वैसी ही होती है। मेरी बात सुनकर रिक्शा चालक इतना तो समझ गए कि यह तनिक पढ़ा लिखा व्यक्ति है और जीवन के रहस्य को भी जानता है। तभी घूमकर वह फिर कहता है साहब आपकी मूंछ बहुत बेहतर है, तिलक की तरह। 

मैं समझ गया वह ‘बनारस का लेप’ लगा रहा है। मैं मुस्कुराते कहा कि सब बाबा विश्वनाथ की कृपा है और मैं ‘तिलक’ नहीं, ‘मिट्टी का भस्म’ हूँ। वह मुस्कुरा दिया। अब तक वह समझ गया था की मैं गुस्सा नहीं करता। उसकी रिक्शा बहुत तीव्र तो नहीं थी, लेकिन घीमी भी नहीं थी। बनारस में लोगों की आदत है खुद बचकर निकलना। तभी हम मुख्य सड़क से दाहिने करबट लेने वाले ही थे कि गली के नुक्कड़ पर एक विशाल पत्थर पर लिखा दिखा “भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खां मार्ग” – उस पत्थर और लेखनी को देखते ही आत्मा विकल हो गयी । मन रोने लगा। उसी पत्थर पर चतुर्दिक जूते – चप्पल बेचने वाले अपनी-अपनी दुकानों के सामानों को ग्राहकों को लुभाने के लिए लटका रखे थे, ससम्मान । 

वैसे भी बनारस में ठगों की किल्लत नहीं है, आज भी। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक क्षेत्रों में चतुर्दिक भरे परे हैं। उस रास्ते नाक की सीध में कुछ दूर चलने के बाद बाएं हाथ मुड़ा और दस कदम पर रिक्शा वाले बाबू के हाथों भारतीय मुद्रा देते हुए उन्हें नमस्कार किया। उस दिन तक अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक अमेरिकन डॉलर के लिए 45.31 भारतीय मुद्रा का मोल था। आज जो जो स्थिति है उसे कहने में भी मन दुःखी हो जाता है। फिर भी लिखना तो पड़ेगा ही – एक डॉलर = 75.53 रुपये। हाथ में कड़कड़ एक-टकिया के तीन पत्ते देखकर रिक्शावाला महात्मा अन्तःमन से आशीष दिए। गली के इस नुक्कड़ से आगे पैदल चलता था गली में। पैदल ‘शरीर’ से समझेंगे। क्योंकि इस गली में जिसका निवास था वह शरीर से तनिक कमजोर अवश्य हो गया था, लेकिन उनकी जैसी आत्मा भारत के कुछ सौ लोगों से अधिक में नहीं होगी। उन सौ में मैं खुद एक था क्योंकि मैं मन और आत्मा से पैदल नहीं था। खैर। 

सीधा, बाएं, दाहिने, सीधा, दाहिने, बाएं धूमते हम गली के सामने वाले एक मकान के पास पहुंचे। मकान का दरवाजा हरा रंग में रंगा था। दो दरवाजे थे। सामने वाला दरवाजा बैठकी में प्रवेश देता था, जबकि दाहिने हाथ वाला दूसरा दरवाजा आँगन जैसा विशाल कक्ष के लिए खुलता था । दरवाजे पर लिखा था ‘बिस्मिल्लाह खां’ और उस नाम पट्ट पर अभी हाल में हुए मकान के पोचारे (शहर वाले और खासकर अंग्रेजी के जानकार ‘वाइटवाश’ भी कहते हैं) के कारण नाम का कुछ शब्द सफ़ेद हो गया था। एक नजर में पढ़ने पर ‘अल्लाह’ लिखा दीखता था। यदि देखा जाय तो मेरी नजर में वह ‘अल्लाह’ का ही घर था। माँ सरस्वती और उनके पुत्र बिस्मिल्लाह खां उसी घर में रहते थे।

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हमारा आना सुनिश्चित था। अतः बिना किसी अवरोध के हम सीधे तीसरे तल्ले की ओर उन्मुख हुए। ऊपर खां साहब एक छोटे से कमरे में सीढ़ी के विपरीत दिशा में रहते थे। आगे हमारा पुत्र था जो दूसरी कक्षा में पढता था। फिर उसकी माँ थी जो उसे उसके ही विद्यालय में पढ़ाती थी और मैं पीछे-पीछे आ रहा था। बिस्मिल्लाह खां अपने कमरे के सामने हम तीनों को देखकर मुस्कुराये, फिर हाथ से इशारा करते कहते हैं: “अंदर आओ बेटा …. बैठो। और वे मेरे पुत्र के सर को सहलाये पूछते हैं क्या नाम है आपका ? प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता दोनों के उम्र में महज अस्सी वर्ष का फर्क था। फिर मेरी पत्नी जब उन्हें पैर छूकर प्रणाम करने को झुकीं, वे अचानक उनका हाथ पकड़कर कहने लगे: “अरे…नहीं…नहीं। ..आप तो दरभंगा की बेटी हैं, बहु हैं। आप मेरा पैर नहीं छुएं। अल्लाह मुझे माफ़ नहीं करेगा। मैं चुपचाप उस इन्शान का इंसानियत देख रहा था क्योंकि उस आंकने की क्षमता मुझमें नहीं थी। 

फिर दरभंगा की बात होने लगी। महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की बात होने लगी। राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह की बात होने लगी। राजकुमार जीवेश्वर सिंह की बात होने लगी। उन दिनों की बातें उस्ताद कहने लगे, जैसे कल की ही बात हो। हम सभी उनकी बातों को, होठों के सञ्चालन को, शारीरिक भाव-भंगिमा को जो आत्मा से जुड़ा था, देख रहे थे, सुन रहे थे, अनुभव कर रहे थे । उनके शब्दों में दरभंगा के राजाओं के प्रति जो सम्मान था, शायद आज ही नहीं, आने वाली चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं पीढ़ियां भी उस भाव को समझ नहीं पायेगी। वैसे विज्ञानं तो कहता है की महिलाओं में तीसरी पीढ़ी में ही डीएनए बदल जाता है, जबकि पुरुषों में छठी-सातवीं पीढ़ी आते-आते। महाराजाधिराज तो ‘संतानहीन’ ही मृत्यु को प्राप्त किये, राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंह के पुत्र के पुत्र के पुत्र यानी आज चौथी पीढ़ी आ गयी है। शेष तो आप सभी पाठक जानते ही हैं। 

सं 1974 की एक बात बताता हूँ। आप माने अथवा नहीं। उस दिन भले भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान “भारत रत्न” से अलंकृत नहीं हुए थे, लेकिन उनकी अन्तः आत्मा से निकली आवाज दरभंगा के लाल किले की ईंट को हिला दिया। आज मिथिला के लोग साक्षात्व देख रहे हैं और आने वाली पीढ़ियां इससे भी दयनीय स्थिति देखने को सज्ज हैं। वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के विद्वानों, विदुषियों के बीच इधर ‘उस्ताद की शहनाई’ और ‘मंगल ध्वनि’ का अपमान हुआ, उधर दरभंगा राज की कुल-देवता ‘रूठ’ गईं। राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह तक दरभंगा राज के 20 राजाओं, महाराजाओं द्वारा 410-साल की अर्जित संपत्ति और शोहरत सुपुर्दे ख़ाक की ओर अग्रसर होने लगी। कहाँ भगवान्, कहाँ भगवती, कहाँ पूजा, कहाँ पाठ, कहाँ प्रसाद, कहाँ आरती, कहाँ पंडित, कहाँ पुरोहित – सभी समाप्त हो गए। मंदिर की घंटी की आवाज शांत हो गई। शंखनाद समाप्त हो गया। शायद आप विश्वास नहीं करेंगे – परन्तु सच यही है। अक्षरों के “अधिपति” “प्रथम-पूज्य” और माँ सरस्वती भी परिसर से बाहर निकल गई। कभी फुर्सत हो तो आराम से विचार करेंगे।  

कोई 48-वर्ष पहले सन 1974 में भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दरभंगा किले के अंदर अपनी साँसों को रोकते, शहनाई की धुन को कुछ पल ‘वाधित’ करते दरभंगा राज के तत्कालीन सभी ‘धनाढ्यों’ के सम्मुख, वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के तथाकथित ज्ञानी-महात्माओं के सम्मुख बिना किसी भय के कहते हैं: “मैं राजा बहादुर की शादी में शहनाई बजाया। मैं युवराज कुमार जीवेश्वर सिंह के विवाह में शहनाई की धुन से नई बहु का स्वागत किया। आज उसी शहनाई के धुन से युवराज की सबसे बड़ी बेटी की मांग में उसके शौहर द्वारा सुंदर भरते समय सुखमय जीवन का आशीर्वाद देता हूँ।”

फिर कुछ क्षण के लिए बिस्मिल्लाह खां रुके। लम्बी उच्छ्वास लिए। बगल में रखे गमछी से अपनी आखों को पोछते अवरुद्ध गला से कहते हैं: “…….. और आज से यह प्रण लेता हूँ कि आज के बाद कभी दरभंगा राज परिसर में, इस लाल किले के अंदर नहीं आऊंगा, कभी शहनाई नहीं बजाऊंगा। आज महाराजाधिराज के लिए, राजा बहादुर के लिए मन व्याकुल हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति खल रही है। आज उनके बिना रोने का मन कर रहा है। आज इस भूमि पर उन दो महारथियों की अनुपस्थिति ने संगीत की दुनिया को अस्तित्वहीन महसूस कर रहा हूँ। आज शहनाई का मंगल ध्वनि बिलख गया है। आज युवराज को देखकर दरभंगा राज का भविष्य देख रहा हूँ। इस लाल किले की दीवारों के ईंटों से सरस्वती जाती दिख रही हैं।  इस दीवार का रंग और भी लाल होना इसका प्रारब्ध है। आज बड़ी महारानी को छोड़कर कोई भी बिस्मिल्लाह खान की शहनाई को देखने वाला, पूछने वाला, समझने वाला नहीं रहा …… और वे फ़ुफ़क फ़ुफ़क कर रोने लगे।”

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उनकी साँसे जिस रफ़्तार से ”रीड” के रास्ते ”पोली” होते हुए ”शहनाई” तक पहुँच रही थी, और जिस प्रकार का धुन निकल रहा था, वह न केवल महाराजाधिराज, राजाबहादुर और युवराज के लिए समर्पण था, बल्कि जीवन में कभी फिर दरभंगा के उस लाल किले में पैर नहीं रखने का वादा भी था। मंगल ध्वनि बजाने वाला वह नायक अपने शब्दों पर जीवन पर्यन्त खड़ा उतरा – कभी पैर नहीं रखा। बिस्मिल्लाह खान अपनी शहनाई से राजकुमार जीवेश्वर सिंह और उनकी प्रथम पत्नी श्रीमती राजकिशोरी जी की पहली बेटी कात्यायनी देवी का विवाह संस्कार में मङ्गल ध्वनि बजा रहे थे । 

उस घटना के 32 साल बाद सन 2006 का मार्च महीना था और तारीख 21 मार्च। बिस्मिल्लाह खान का 90 वां जन्मदिन मानना था। हमने एक किताब बनाया था “मोनोग्राफ ऑन उस्ताद बिस्मिल्लाह खां” और इस किताब में  उन तमाम बातों को, तथ्यों को समेटने की कोशिश किया था जो बनारस और बिस्मिल्लाह खां को गंगा के तट पर एकीकृत करता था। इस किताब को उस्ताद को खुद लोकार्पित कर भारत के लोगों को समर्पित करना था। 

मार्च महीने में उस तारीख से पूर्व दो बहुत ही दर्दनाक घटनाएं हुई – एक: सात मार्च को संकटमोचन सहित बनारस के अन्य स्थानों पर ब्लास्ट हुआ था, काफी लोग हताहत हुए। और उसके पंद्रह दिन बाद, यानी 22 मार्च को राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह, जिनके विवाह में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां शहनाई की मंगल ध्वनि बजाए थे; उनके सबसे छोटे पुत्र कुमार शुभेश्वर सिंह का इंतकाल हो गया था देश की राजधानी दिल्ली के कैलाश कॉलोनी स्थित एक छोटे से मकान में। 

कुमार शुभेश्वर सिंह सम्भवतः दरभंगा राज परिवार के तीसरे व्यक्ति थे जिनका देहांत दरभंगा से बाहर तो हुआ ही, उनका दाह-संस्कार हेतु ऐतिहासिक माधवेश्वर में चिता नहीं सजी, जबकि माधवेश्वर में उनके माता-पिता की आत्माएं अपने पुत्र को स्नेह स्वरुप गले लगाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे । कुमार शुभेश्वर सिंह के पूर्व महाराजा माधव सिंह का देहांत दरभंगा में नहीं हुआ था। साथ ही, महाराजा माधव सिंह के पुत्र महाराजा छत्र सिंह का देहांत बनारस में हुआ था। करीब 51 एकड़ में माधवेश्वर परिसर का निर्माण  महाराजा माधव सिंह ने 1806 में करवाए थे । स्थानीय लोगों का कहना है कि चूँकि महाराजा माधव सिंह का निधन दरभंगा में नहीं हुआ, इसलिए उनकी चिता भूमि इस परिसर में नहीं है। लेकिन उनका अस्थि कलश महादेव मंदिर के आगे रखा हुआ है। राज परिवार के पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार से पूर्व इस कलश के पास रखने की परंपरा है। माधव सिंह के पुत्र महाराजा छत्र सिंह का निधन भी काशी में हुआ, इसलिए उनकी चिता भी यहां नहीं है। 

दरभंगा के हस्ताक्षरों का कहना है कि महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह की इष्ट ‘तारा’ थीं, अतः उनकी चिता भूमि पर माता तारा की प्रतिमा स्थापित की गयी। इनके समीप  मां रामेश्वरी श्यामा का स्थान है । यह महाराजा रामेश्वर सिंह की चिता भूमि पर स्थित है। कामेश्वरी श्यामा मंदिर में माँ श्यामा की प्रतिमा दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की चिता पर है। महारानी राजलक्ष्मी अपने पति के सम्मानार्थ इस मंदिर का निर्माण की थी। इसी स्थान पर महारानी राजलक्ष्मी की चिता स्थान जहाँ उनके पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द किया गया था। यह इस तथ्य को भी स्पष्ट करता है कि महाराजाधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद दरभंगा राज में “संस्कारों” का, “गरिमाओं” का पतन किस तरह हुआ। वैसे अगर गिनती करें तो इस परिसर में सात चिता-स्थलों पर ही मंदिर है और आठवें पर निर्माणाधीन। ऐसा क्यों हुआ यह तो शोध का विषय है, लेकिन दरभंगा राज के अन्य लोगों के चितास्थलों पर पीपल-बरगद के पेड़ फल-फूल रहे हैं। वैसे यह परिसर महाराजा कामेश्वर सिंह न्यास के तहत है, लेकिन सवाल यह है कि जब राजा ही नहीं रहा, फिर……… । 

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बहरहाल, फिर अपनी आखों को पोछते उस्ताद बिस्मिल्लाह खां कहते हैं: “आप दरभंगा की बेटी हैं।  आप दरभंगा की बहू हैं।आपको देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। मैं अपने शेष जीवन का कुछ अनमोल पल एक बार दरभंगा में बिताना चाहता हूँ। महाराजाधिराज, राजा बहादुर, युवराज की मिट्टी में लोट-पोट होना चाहता हूँ। राजा साहेब के पोखर में डुबकी लगाना चाहता हूँ। लाल-किले की दीवारों को छू कर महाराजा को, राजा बहादुर को, युवराज को अपनी श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ। आप ही यह काम कर सकती हैं। मैं आपको इस पुनीत कार्य के लिए राजा बहादुर की शादी में मिला सोने का असर्फी दूंगा ….. ”

और फिर बनारस के सराय हरहा स्थित बिस्मिल्लाह खान के मकान के तीसरे तल्ले पर सन्नाटा छा गया।सम्पूर्ण वातावरण भाव-विह्वल हो गया था। लगता था कि दरभंगा के महाराजा सर कामेश्वर सिंह, राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह शहनाई सम्राट भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को उनके उस कुटिया के एक कोने में खड़े होकर उन्हें देख रहे हैं। उनकी उनकी व्यथा को महसूस कर रहे थे  – एक मनुष्य का एक मनुष्य के प्रति सम्मान कैसा होता है, मरणोपरांत भी, अगर आप मानव हैं, तो महसूस कर सकते हैं । लेकिन बिस्मिल्लाह खां को नहीं मालूम था कि दरभंगा राज और दरभंगा किले की मिट्टी में अब वह  मानवता नहीं जिसका वे चश्मदीद गवाह थे। आज वहां कुछ और पल रहे हैं, फल-फूल रहे हैं। 

महाराजाधिराज के समय में या उसके पूर्व भी दरभंगा और दरभंगा राज, भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रमुख केंद्रों में से एक था । दरभंगा राज के राजा संगीत, कला और संस्कृति के महान संरक्षक थें। दरभंगा राज से कई प्रसिद्ध संगीतकार जुड़े थे। उनमें प्रमुख थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, उस्ताद गौहर जान, पंडित राम चतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक, पंडित सियाराम तिवारी इत्यादि। दरभंगा राज ध्रुपद के मुख्य संरक्षक थे, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक मुखर शैली थी। ध्रुपद का एक प्रमुख विद्यालय आज दरभंगा घराना के नाम से जाना जाता है। आज भारत में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं: डागर घराना, बेतिया राज (बेतिया घराना) के मिश्र और दरभंगा (दरभंगा घराना) के मिश्र। 

कहा जाता है कि महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह एक अच्छे सितार वादक थें। इतना ही नहीं, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कई वर्षों तक दरभंगा राज के दरबारी संगीतकार भी रहे। उन्होंने अपना बचपन दरभंगा में बिताया। महाराजा और राजा बहादुर के अलावे मेरे ससुर भी उनके बचपन के मित्र थे। दरभंगा राज ने ग्वालियर के नन्हे खान के भाई मुराद अली खान का समर्थन किया। मुराद अली खान अपने समय के सबसे महान सरोद वादकों में से एक थें। मुराद अली खान को अपने सरोद पर धातु के तार और धातु के तख्ती प्लेटों का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति होने का श्रेय दिया जाता है, जो आज मानक बन गया है। इतना ही नहीं, कुंदन लाल सहगल महाराजा कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा विश्वेश्वर सिंह के मित्र थे। जब भी दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिले, गजल और ठुमरी की बातचीत और गायन के लंबे सत्र देखे गए। कुंदन लाल सहगल ने राजा बहादुर की शादी में भाग लिया, और शादी में अपना हारमोनियम निकाला और “बाबुल मोरा नैहर छुरी में जाए” गाया। 

यह भी कहा जाता है कि दरभंगा राज का अपना सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और पुलिस बैंड था। मनोकामना मंदिर के सामने एक गोलाकार संरचना थी, जिसे बैंड स्टैंड के नाम से जाना जाता था। बैंड शाम को वहाँ संगीत बजाता था। आज बैंडस्टैंड का फर्श अभी भी एकमात्र हिस्सा है। लेकिन आज दरभंगा राज में संगीत को समझने वाला, सुनने वाला कोई नहीं है ।  बिस्मिल्लाह खान उन दिनों मल्लिक जी के घर पर रहे थे। आज क्या संगीत, क्या घराना – आज तो राज दरभंगा में कुछ और ही संगीत बज रहा है – संपत्ति का, दौलत एकत्रित करने का। संस्कृति और संस्कार अब नहीं है। सबसे बड़ी बात, छोटा कुमार, यानी कुमार शुभेश्वर सिंह को संगीत-शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। कहा जाता है कि जब कोई संगीतज्ञ उनके ज़माने में भी रामबाग परिसर आते थे, तो वे निजी तौर पर खुद कभी बाहर निकलकर उनका स्वागत या सम्मान नहीं करते थे। कभी किसी नौकर को भेज दिए तो कभी किसी जी-हुजूरी करने वाले को। जबकि महाराजाधिराज या राजबहादुर या फिर बड़ी महारानी के समयकाल में संगीतज्ञ, विद्वानों की बात छोड़िये, कोई भी साधारण मनुष्य उनके सामने बहुत सम्मानित होता था। आज “सम्मान” शब्द का महत्व दरभंगा राज परिसर में नहीं है। 

खैर ……… खान साहब, कुमार साहब आप सबों को श्रद्धांजलि। 

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