उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की “मंगल-ध्वनि बंद” होने के साथ ही,”दरभंगा राज का पतन” प्रारम्भ हो गया…. (भाग-34 क्रमशः)

दरभंगा का लाल किला, शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, उनकी शहनाई, मंगल ध्वनि की समाप्ति और दरभंगा राज का पतन

दरभंगा / पटना / बनारस : आप माने अथवा नहीं। उस दिन भले भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान “भारत रत्न” से अलंकृत नहीं हुए थे, लेकिन उनकी अन्तः आत्मा से निकली आवाज दरभंगा के लाल किले की ईंट को हिला दिया। वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के विद्वानों, विदुषियों के बीच इधर ‘उस्ताद की शहनाई’ और ‘मंगल ध्वनि’ का अपमान हुआ, उधर दरभंगा राज की कुल-देवता ‘रूठ’ गईं। राजा महेश ठाकुर से लेकर महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह तक दरभंगा राज के 20 राजाओं, महाराजाओं द्वारा 410-साल की अर्जित संपत्ति और शोहरत सुपुर्दे ख़ाक की ओर अग्रसर होने लगी। कहाँ भगवान्, कहाँ भगवती, कहाँ पूजा, कहाँ पाठ, कहाँ प्रसाद, कहाँ आरती, कहाँ पंडित, कहाँ पुरोहित – सभी समाप्त हो गए। मंदिर की घंटी की आवाज शांत हो गई। शंखनाद समाप्त हो गया। शायद आप विश्वास नहीं करेंगे – परन्तु सच यही है। अक्षरों के “अधिपति” “प्रथम-पूज्य” और माँ सरस्वती भी परिसर से बाहर निकल गई। कभी फुर्सत हो तो आराम से विचार करेंगे।  

आज से कोई सैंतालीस वर्ष पूर्व सन 1974 में भारत के शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान दरभंगा किले के अंदर अपनी साँसों को रोकते, शहनाई की धुन को कुछ पल ‘वाधित’ करते दरभंगा राज के तत्कालीन सभी ‘धनाढ्यों’ के सम्मुख, वहां उपस्थित मिथिलाञ्चल के तथाकथित ज्ञानी-महात्माओं के सम्मुख बिना किसी भय के कहते हैं: “मैं राजा बहादुर की शादी में शहनाई बजाया, मैं युवराज (राजकुमार जीवेश्वर सिंह) के विवाह में शहनाई से नई बहु का स्वागत किया। आज उसी शहनाई के धुन से युवराज की सबसे बड़ी बेटी की मांग में उसके शौहर द्वारा सुंदर भरते समय सुखमय जीवन का आशीर्वाद देता हूँ। और आज से यह प्रण लेता हूँ कि आज के बाद कभी दरभंगा राज परिसर में, इस लाल किले के अंदर नहीं आऊंगा, कभी शहनाई नहीं बजाऊंगा। आज महाराजाधिराज के लिए, राजाबहादुर के लिए मन ब्याकुल हो रहा है। उनकी अनुपस्थिति खल रही है। आज उनके बिना रोने का मन कर रहा है। आज इस भूमि पर उन दो महारथियों की अनुपस्थिति ने संगीत की दुनिया को अस्तित्वहीन महसूस कर रहा हूँ। आज शहनाई का मंगल ध्वनि बिलख गया है। आज युवराज को देखकर दरभंगा राज का भविष्य देख रहा हूँ। इस लाल किले की दीवारों के ईंटों से सरस्वती जाती दिख रही हैं।  इस दीवार का रंग और भी लाल होना इसका प्रारब्ध है। आज बड़ी महारानी को छोड़कर कोई भी बिस्मिल्लाह खान की शहनाई को देखने वाला, पूछने वाला, समझने वाला नहीं रहा …… और वे फ़ुफ़क फ़ुफ़क कर रोने लगे। उनकी साँसे जिस रफ़्तार से ”रीड” के रास्ते ”पोली” होते हुए ”शहनाई” तक पहुँच रही थी, और जिस प्रकार का धुन निकल रहा था, वह न केवल महाराजाधिराज, राजाबहादुर और युवराज के लिए समर्पण था, बल्कि जीवन में कभी फिर दरभंगा के उस लाल किले में पैर नहीं रखने का वादा भी था। मंगल ध्वनि बजाने वाला वह नायक अपने शब्दों पर जीवन पर्यन्त खड़ा उतरा – कभी पैर नहीं रखा। 

शहनाई सम्राट उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

बिस्मिल्लाह खान अपनी शहनाई से राजकुमार जीवेश्वर सिंह और उनकी प्रथम पत्नी श्रीमती राजकिशोरी जी की पहली बेटी कात्यायनी देवी का विवाह संस्कार में मङ्गल ध्वनि बजा रहे थे । सुश्री कात्यायनी की शादी अरविन्द सुन्दर झा से हो रही थी। वैसे श्रीमती राजकिशोरी जी के जीवन काल में ही कुमार के जीवन में एक और महिला आयी जिनसे पांच बेटियां – नेत्रायणी देवी, चेतना, द्रौपदी, अनीता, सुनीता  – हुई, लेकिन बिस्मिल्लाह खान की शहनाई की मङ्गल ध्वनि नहीं बजी। 

कात्यायनी-अरविन्द के विवाह के कोई बत्तीस वर्ष बाद, सन 2006 के मार्च महीने में, बिस्मिल्लाह खान 90 वां जन्म दिन के अवसर नीना झा का हाथ पकड़कर कहते हैं: “आपको देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया। मैं अपने शेष जीवन का कुछ अनमोल पल एक बार दरभंगा में बिताना चाहता हूँ। महाराजाधिराज, राजाबहादुर, युवराज की मिट्टी में लोट-पोट होना चाहता हूँ। राजा साहेब के पोखर में डुबकी लगाना चाहता हूँ। लाल-किले की दीवारों को छू कर महाराजा को, राजा बहादुर को, युवराज को अपनी श्रद्धांजलि देना चाहता हूँ। आप दरभंगा की बेटी हैं, आप दरभंगा की बहु भी है, आप ही यह काम कर सकती हैं। मैं आपको इस पुनीत कार्य के लिए राजाबहादुर की शादी में मिला सोने का असर्फी दूंगा ….. और फिर बनारस के सराय हरहा स्थित बिस्मिल्लाह खान के मकान के तीसरे तल्ले पर सन्नाटा छा गया। गली-मोहल्ले के लोग भरे थे। बनारस के लगभग सभी पत्रकार उपस्थित थे। सामने 90-किलो का केक रखा था। सभी अपनी अपनी आंखें पोछ रहे थे। कोई अपनी आँचल से आखों की नमी को पोछ रही थीं, तो कोई दुपट्टे से, कोई रुमाल से तो कोई कंधे पर रखे गमछी से। सम्पूर्ण वातावरण भाव-विह्वल हो गया था। लगता था कि दरभंगा के महाराजा सर कामेश्वर सिंह, राजा बहादुर विश्वेश्वर सिंह शहनाई सम्राट भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान को उनके उस कुटिया के एक कोने में खड़े होकर उनका जन्म-दिन मन रहे थे।  उनकी व्यथा को महसूस कर रहे थे  – एक मनुष्य का एक मनुष्य के प्रति सम्मान कैसा होता है, मरणोपरांत भी, अगर आप मानव हैं, तो महसूस कर सकते हैं । 

लेकिन मिथिलांचल में लोगों को “बीच में कुदकने” की आदत बहुत पुरानी है। अगली सुवह शहनाई सम्राट की बातें भारत के अख़बारों में प्रकशित हुआ। स्वाभाविक था दरभंगा से सम्बंधित बातें थी, तो दरभंगा के अख़बारों में भी प्रकाशित होगा ही। जैसे ही मिथिला विश्वविद्यालय के लोगों ने, अधिकारियों ने उक्त समाचार को पढ़ा, बाउंड्री लाईन पर बैठे लोग स्टम्प की ओर दौड़ पड़े । कोई कुलपति महोदय के कार्यालय में गिरे, तो कोई रजिस्ट्रार के कार्यालय में। कोई वित्त अधिकारी के कार्यालय की ओर लपके, तो कोई अपने-अपने घरों में अपना-अपना बैग, मोटा, बक्सा बांधने लगे बनारस की ओर निकलने के लिए। सभी “बीच में कुदके” थे, “खरखाहीं” में, अपने-अपने आला-अधिकारियों को “खुश” करने के लिए, दफ्तर के पैसे से बनारस घूमने के लिए। जब सभी बिस्मिल्लाह खान से मिले तो उन्होंने कहा: “मैं जरूर जाऊंगा लेकिन कितने पैसे दोगे?” बिस्मिल्लाह खान के मुख से इन शब्दों को सुनकर ऐसा लगा सबों को ‘सांप सूंघ’ लिया हो। फिर कुछ बातें हुई और सभी अधिकारी खाली हाथ वापस आये। बिस्मिल्लाह खान उस महिला से यह बात कहे थे जिसने बिस्मिल्लाह खान पर उनके जीवन के अंतिम वसंत में अपने पति के साथ एक किताब लिखी थी । जो बिस्मिल्लाह खान को दिल्ली के इण्डिया गेट पर शहीदों को श्रद्धांजलि हेतु शहनाई वादन करने वाली थी।  शहनाई वादन उस्ताद के जीवन की अंतिम इक्षा थी। मिथिला विश्वविद्यालय के लोग तो यूँ ही बीच में आ गए। आश्चर्य तो यह है कि 2006 के अगस्त महीने के 21 तारीख को जब बिस्मिल्लाह खान की साँसे बंद हुई, उनका पार्थिव शरीर सुपुर्दे ख़ाक हुआ, उनके घरों में चोरियां हुई, उनके बेटों की मौत हुई, उनके घरों की दीवारें दफ़न हुई, घर-परिवार के लोग मदद के लिए बिलखते रहे – मिथिला विश्वविद्यालय ही नहीं, मिथिलाञ्चल के लोग भी, यहाँ तक कि दरभंगा राज के एक व्यक्ति भी, महाराजाधिराज, राजाबहादुर के एक वंशज भी बिस्मिल्लाह खां के सराय हरहा घर के दरवाजे का कुण्डी तक नहीं खटखटाया। खैर। 

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कुमार जीवेश्वर सिंह

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से दरभंगा के राजाबहादुर विश्वेश्वर सिंह के बड़े पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह की सबसे बड़ी बेटी श्रीमती कात्यायनी देवी के पति प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा लम्बी बात किये दरभंगा राज की वर्तमान स्थिति पर, इसके नेश्तोनाबूद होने पर। अरविन्द सुन्दर झा सत्तर के दशक के पटना विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक प्रोफ़ेसर उमानाथ झा के बड़े पुत्र हैं। मुझे गर्व है कि मैं उन दिनों उन्हें उनके कृष्णा घाट स्थित पटना विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर-निवास पर महाराजाधिराज द्वारा स्थापित “आर्यावर्त”, “दि इण्डियन नेशन” और “सर्चलाइट” अखबार दिया करता था। उन दिनों अरविन्द सुन्दर झा पटना विश्वविद्यालय के विज्ञान महाविद्यालय में रसायन शास्त्र विषय में स्नातकोत्तर कर रहे थे। बाद में वे मिथिला विश्वविद्यालय के रसायन शास्त्र विभाग में प्राध्यापक बने। कुछ वर्ष पूर्व वे सेवा से अवकाश प्राप्त किये हैं। 

अरविन्द सुन्दर झा एक विचारवान पुरुष हैं। सत्य बोलते हैं, जो कटु होता है। वे कहते हैं: “आज जितनी ख़ुशी हो रही है मैं कह नहीं सकता। आँखें भींगी हुयी है। मैं कोई साढ़े चार दशक पहले अपने कृष्णा घाट आवास पर बाहर बालकोनी में खड़ा हूँ और आप सुबह-सवेरे अपनी साईकिल रोककर, तीन अख़बारों को बाँध कर ऊपर फेंकते दिख रहे हैं ।  दोनों की नजरें एक होती हैं। दोनों मुस्कुराते हैं। आप साईकिल से आगे निकल जाते हैं और हम खड़े-खड़े अन्तः मन से आपको आशीष देता हूँ – हे ईश्वर इनकी रक्षा करना। आज उन वर्षों के बाद, जब राज दरभंगा के लोगों उन अख़बारों का नामो-निशान मिटा दिए, दफ्तर मिट्टी में मिला दिए; आप उन अख़बारों का नाम पुनः जीवित कर महाराज साहेब को, राजा बहादुर को श्रद्धांजलि दे रहे हैं – जो आपके कोई नहीं थे। आपका कोई रक्त सम्बन्ध नहीं था। और आपको उनकी संपत्ति से भी कोई लोभ, कोई वास्ता नहीं है।”

अरविन्द सुन्दर झा कहते हैं: मेरी शादी में बिस्मिल्लाह खां आये थे। महाराजाधिराज के समय में या उसके पूर्व भी दरभंगा और दरभंगा राज, भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रमुख केंद्रों में से एक था । दरभंगा राज के राजा संगीत, कला और संस्कृति के महान संरक्षक थें। दरभंगा राज से कई प्रसिद्ध संगीतकार जुड़े थे। उनमें प्रमुख थे उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, उस्ताद गौहर जान, पंडित राम चतुर मल्लिक, पंडित रामेश्वर पाठक, पंडित सियाराम तिवारी इत्यादि। दरभंगा राज ध्रुपद के मुख्य संरक्षक थे, जो भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक मुखर शैली थी। ध्रुपद का एक प्रमुख विद्यालय आज दरभंगा घराना के नाम से जाना जाता है। आज भारत में ध्रुपद के तीन प्रमुख घराने हैं: डागर घराना, बेतिया राज (बेतिया घराना) के मिश्र और दरभंगा (दरभंगा घराना) के मिश्र। 

राजनगर का किला और उसका अवशेष 

कहा जाता है कि महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह एक अच्छे सितार वादक थें। इतना ही नहीं, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान कई वर्षों तक दरभंगा राज के दरबारी संगीतकार भी रहे। उन्होंने अपना बचपन दरभंगा में बिताया। महाराजा और राजा बहादुर के अलावे मेरे ससुर भी उनके बचपन के मित्र थे। दरभंगा राज ने ग्वालियर के नन्हे खान के भाई मुराद अली खान का समर्थन किया। मुराद अली खान अपने समय के सबसे महान सरोद वादकों में से एक थें। मुराद अली खान को अपने सरोद पर धातु के तार और धातु के तख्ती प्लेटों का उपयोग करने वाले पहले व्यक्ति होने का श्रेय दिया जाता है, जो आज मानक बन गया है। इतना ही नहीं, कुंदन लाल सहगल महाराजा कामेश्वर सिंह के छोटे भाई राजा विश्वेश्वर सिंह के मित्र थे। जब भी दोनों दरभंगा के बेला पैलेस में मिले, गजल और ठुमरी की बातचीत और गायन के लंबे सत्र देखे गए। कुंदन लाल सहगल ने राजा बहादुर की शादी में भाग लिया, और शादी में अपना हारमोनियम निकाला और “बाबुल मोरा नैहर छुरी में जाए” गाया। 

कहा जाता है कि दरभंगा राज का अपना सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा और पुलिस बैंड था। मनोकामना मंदिर के सामने एक गोलाकार संरचना थी, जिसे बैंड स्टैंड के नाम से जाना जाता था। बैंड शाम को वहाँ संगीत बजाता था। आज बैंडस्टैंड का फर्श अभी भी एकमात्र हिस्सा है। लेकिन आज ही नहीं, मेरी शादी के समय में भी बड़ी महारानी को छोड़कर, या फिर मेरे ससुर (राजकुमार जीवेश्वर सिंह) को छोड़कर दरभंगा राज में संगीत को समझने वाला, सुनने वाला कोई नहीं था।  बिस्मिल्लाह खान उन दिनों मल्लिक जी के घर पर रहे थे। आज क्या संगीत, क्या घराना – आज तो राज दरभंगा में कुछ और ही संगीत बज रहा है – संपत्ति का, दौलत एकत्रित करने का। संस्कृति और संस्कार अब नहीं है। सबसे बड़ी बात, छोटा कुमार, यानी कुमार शुभेश्वर सिंह को संगीत-शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। कहा जाता है कि जब कोई संगीतज्ञ उनके ज़माने में भी रामबाग परिसर आते थे, तो वे निजी तौर पर खुद कभी बाहर निकलकर उनका स्वागत या सम्मान नहीं करते थे। कभी किसी नौकर को भेज दिए तो कभी किसी जी-हुजूरी करने वाले को। जबकि महाराजाधिराज या राजबहादुर या फिर बड़ी महारानी के समयकाल में संगीतज्ञ, विद्वानों की बात छोड़िये, कोई भी साधारण मनुष्य उनके सामने बहुत सम्मानित होता था। आज “सम्मान” शब्द का महत्व दरभंगा राज परिसर में नहीं है। 

जब हमने पूछा कि दरभंगा राज का इतनी तीव्रता के साथ पतन का क्या कारण है, प्रोफ़ेसर झा एक शिक्षक के तरह कुछ सांस रुके, फिर लम्बी उछ्वास लेते कहते हैं: “शिक्षा का पतन” मूल कारण है। शिक्षा एक तरफ़ा रहा। महाराजाधिराज, राजबहादुर तक दरभंगा राज में शिक्षा “कुछ पुरुषों” तक ही सीमित रहा। यह अलग बात है कि उस समय भी “पर्दा-प्रथा” का प्रचलन था, लेकिन देश के अन्य भागों के राजा-महाराजाओं के परिवार, उनके बाल-बच्चों, महिलाओं की तुलना में दरभंगा राज में शिक्षा को जीवन का मूल-मन्त्र नहीं समझा गया। महिलाओं में शिक्षा की तो बात ही नहीं करें। पुरुषों में भी कुमार जीवेश्वर सिंह की शिक्षा कुछ अलग थी, कुछ आधुनिक भी थी। उनके अनुज को अपने जीवन के प्रारंभिक अवस्था से ही शिक्षा का महत्व नहीं रहा। घर-परिवार के लोग भी शिक्षा को कभी महत्व नहीं दिए। यहाँ तक सबसे छोटे कुमार यानी कुमार शुभेश्वर सिंह पढ़े-लिखे थे भी या नहीं, यह कहना बहुत कठिन है। मेरी जानकारी में वे अधिक पढ़े नहीं थे। हो सकता है स्कूली शिक्षा भी पूरी नहीं किये हों । 

ज्ञातव्य हो कि भारत में शिक्षा के क्षेत्र के विकास में दरभंगा के महाराजाओं, महाराजाधिराज की भूमिका अक्षुण है। यह बात कल भी लोग मानते थे, आज भी स्वीकार करते हैं और आने वाले समय में भी मानने पर विवश होंगे। लेकिन एक बात पर अगर विचार करेंगे तो शायद देश के लोगों की आँखें अश्रुपूरित हो जाएगी और फिर महाराजाधिराज की ओर, उनके परिवारों के तरफ एक विपरीत निगाहों से देखेंगे, सोचने पर विवश हो जायेंगे। सच तो यही है की दरभंगा राज के चहारदीवारी के बाहर महाराजाधिराज चाहे शिक्षा के क्षेत्र में जो भी भूचाल लाये हों, जितने भी महत्वपूर्ण कार्य किये हों; चहारदीवारी के भीतर अपने ही परिवार की महिलाओं को आधुनिक शिक्षा, आधुनिक सोच से वंचित रखे। इसे पर्दा प्रथा नहीं माना जायेगा। यह आधुनिकता से बहुत पीछे होने का संकेत था।  फिर भी कोई सचेत नहीं हुए। कभी यह महसूस नहीं किया गया कि महिलाओं में भी शिक्षा का विकास होना चाहिए। आज दरभंगा राज की स्थिति ऐसी इसलिए है की सोच ‘शिक्षित’ नहीं है, ‘सोच मानवीय’ नहीं है, ‘सोच सामाजिक कल्याणार्थ’ नहीं है – महाराज की मृत्यु के बाद तो संपत्ति को लेकर आतंरिक युद्ध होता ही रहा, हो ही रहा है; लेकिन अगर घर के सभी को बहुत शिक्षित होते, बहुत विचारवान होते तो शायद वसीयत के अनुसार बंटवारे के बाद भी दरभंगा राज का गौरव बरकरार रहता। आज जो स्थिति है, हम, आप सभी देख रहे हैं। आज समय भी ऐसा नहीं है कि ‘वेबजह’ आप किसी को ज्ञान दें। मैं तो नहीं देता हूँ। क्या पता उस सलाह का प्रतिउत्तर क्या मिले?

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प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा

प्रोफ़ेसर झा पटना विश्वविद्यालय के विज्ञान महाविद्यालय से रसायन शास्त्र विषय में स्नातकोत्तर किये। वर्ष सत्तर के दशक का मध्य था। उनके पिताजी प्रोफ़ेसर उमानाथ झा उस समय पटना विश्वविद्यालय में ही अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक थे। बाद में वे मिथिला विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में विभागाध्यक्ष बने और प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा सी एम कालेज में रसायन शास्त्र विभाग में प्राध्यापक बने। प्रोफ़ेसर झा को दो पुत्र और एक पुत्री हैं। 

शिक्षा के क्षेत्र में प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा की बातों को सुनकर हमें “आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बारों का पतन याद आ गया। वैसे समयांतराल, जीवेश्वर सिंह की अन्य पुत्रियां शिक्षा प्राप्त की अपने जीवन को सुचारु-रूप से चलने के लिए, परन्तु तब तक बहुत देर हो गयी थी। अगर दरभंगा राज की महिला महिलाएं “शिक्षा के महत्व” को “महत्वहीन” नहीं समझी होती, अगर उनकी नजरों में महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के आगे शिक्षा का महत्व हुआ होता, शब्दों का तबज्जो उनकी नज़रों में हुआ होता, महाराजाधिराज जैसी शैक्षिक-सोच का महत्व वे समझी होती, तो शायद वे सभी अपने वजूद को, दरभंगा के महाराजाधिराज की आवाज आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर को बंद नहीं होने देती । और अगर यह अखबार आज जीवित होता, उनके नियंत्रण में संचालित और सम्पादित होता, तो आज दरभंगा राज की वे सभी महिला लाभार्थी, जो महाराजाधिराज की मृत्यु के साथ ही उनकी सम्पत्तियों की हिस्सेदार बनी; भारत का एक विशाल पुरुष समूह उन महिलाओं के सामने अपने घुटने पर बैठा होता – जहाँ तक आधुनिक पत्रकारिता का सवाल है। उन अख़बारों के सञ्चालन और संपादन के कारण वे सभी भारत ही नहीं, विश्व में महाराजाधिराज जैसी ही विख्यात होती । परन्तु ऐसा नहीं हुआ। यह दरभंगा राज के पतन का एक महत्वपूर्ण कारण है। 

क्योंकि, दस्तावेजों के अनुसार, महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय की देख-रेख में जो भी फेमिली सेटेलमेंट हुआ, उसमें आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर पत्र-पत्रिका के प्रकाशक कंपनी दि न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन लिमिटेड के शेयरों के लाभार्थियों में महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट को अगर हटा दें, तो महारानी अधिराणी कामसुन्दरी साहब के अलावे, सात महिला लाभार्थी थी। पुरुष लाभार्थियों की संख्या महिलाओं की तुलना में कम थी। इसी फैमिली सेटलमेंट के शेड्यूल iv के अनुसार न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के 100 रुपये का 5000 शेयर दरभंगा राज के रेसिडुअरी एस्टेट चैरिटेबल कार्यों के लिए अपने पास रखा। कोई 20,000 शेयर अन्य लाभान्वित होने वाले लोगों द्वारा रखा गया – मसलन: 100 रुपये मूल्य का 7000 शेयर (रुपये 7,00,000 मूल्य का) महरानीअधिरानी कामसुन्दरी साहेबा को मिला।  राजेश्वर सिंह और कपिलेशर सिंह (पुत्र: कुमार शुभेश्वर सिंह) को 7000 शेयर, यानी रुपये 7,00,000 मूल्य का इन्हे मिला। महाराजा कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट को 5000 शेयर, यानी रुपये 5,00,000 का मिला। श्रीमती कात्यायनी देवी को 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। इसी तरह श्रीमती दिब्यायानी देवी को भी 100 रुपये मूल्य का 600 शेयर, यानि 60000 मूल्य का मिला। रत्नेश्वर सिंह, रामेश्वर सिंह और राजनेश्वर सिंह को 100 रुपये मूल्य का 1800 शेयर, यानि 180000 मूल्य का मिला। जबकि नेत्रायणि देवी, चेतानी देवी, अनीता देवी और सुनीता देवी को 100 रुपये मूल्य का 3000 शेयर, यानि 3,00,000 मूल्य का मिला। यह सभी शेयर उन्हें इस शर्त पर दिया गया कि वे किसी भी परिस्थिति में अपने-अपने शेयर को किसी और के हाथ नहीं हस्तांतरित करेंगे, सिवाय फैमिली सेटलमेंट के लोगों के। दस्तावेज के अनुसार पुरुषों की कुल शेयरों की संख्या 8800 थी (मूल्य: 880000 रुपये) जबकि महिलाओं की कुल शेयरों की संख्या 11200 जिसका मूल्य 11200000 था। निर्णय पाठकगण करें। 

श्रीमती कात्यायनी देवी, राजकुमार जीवेश्वर सिंह की सबसे बड़ी बेटी और प्रोफ़ेसर अरविन्द सुन्दर झा की पत्नी

ज्ञातव्य हो कि आज़ादी के आन्दोलन में, भारत का इतिहास के निर्माण में देश की अनपढ़, अशिक्षित, गरीब, महिलाओं ने अपने पति के सम्मानार्थ जो भी की, आज इतिहास में दर्ज है। भारत का इतिहास उन महिलाओं के नामों के साथ कभी छेड़-छाड़ नहीं कर सकता है। लेकिन दरभंगा राज के मामले, महाराजाधिराज के घर की महिलाएं उन्हें वो सम्मान नहीं दे सकी, जिसके वे हकदार थे। अगर वे महिलाएं खुद आगे कदम बढ़ाई होती तो शायद आज राज दरभंगा नेश्तोनाबूद नहीं होता। और यही कारण है कि उस ज़माने में भी अनपढ़, अशिक्षित, अज्ञानी महिलाएं अपने पति के लिए, अपने परिवार के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए चट्टान की तरह खड़ी होती थी, अंतिम सांस तक लड़ती थी, योद्धा कहलाती थी – नहीं तो आज भी भारत के इतिहास में विधवा रानी लक्ष्मी बाई, अरुणा असफ अली, सरोजनी नायडू, मैडम बीकाजी कामा, एनी बेसेंट, कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, मूलमती, कित्तूर वरणी चेनम्मा, झलकारी बाई, कस्तूरबा गाँधी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, बेगम हज़रात महल, सावित्री बाई फुले, नीली सेनगुप्ता, उमाबाई कुंडापुर, उदा देवी, जम्मू स्वामीनाथन, मातंगिनी हज़रा, सुचेता कृपलानी आदि जैसी सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं भारत के इतिहास में – पति के जीवित रहते अथवा विधवा जीवन में भी अपने पति के सम्मानार्थ उनके पीछे खड़ी होने के लिए –  अमर नहीं होती। आज स्वतंत्र भारत के इतिहास में, बिहार के इतिहास में, मिथिलांचल के इतिहास में और दरभंगा के इतिहास में महाराजा सर कामेश्वर सिंह की तीनो पत्नियों को या फिर उन सात महिला लाभार्थियों को कौन जानता है ? आने वाली पीढ़ी को मिथिला के लोग क्या कहेंगे?

सम्भवतः महाराजाधिराज और राजा बहादुर के बाद “प्रोफ़ेसर” अरविन्द सुन्दर झा दरभंगा राज परिवार में “एकलौता” व्यक्ति हैं, तो “प्राध्यापक” थे, यानी अन्य शोध-कार्यों, विशेष अध्ययनों की डिग्रियों के अलावे ‘रसायन शास्त्र विषय में स्नातकोत्तर की उपाधि”, वह भी “पटना विश्वविद्यालय” से अलंकृत हैं। वे कहते हैं: “छोटे कुमार (कुमार शुभेश्वर सिंह) का बड़ा पुत्र राजेश्वर भी रसायन शास्त्र से ही स्नातकोत्तर किया था। आज शायद कंप्यूटर के क्षेत्र में कार्य कर रहा है और विदेश में रहता है। विगत 15 वर्षों और अधिक समय से उसके साथ कोई संपर्क नहीं है। प्रोफ़ेसर झा आगे कहते हैं: “छोटे कुमार का राज के क्रिया-कलापों में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप होता था। जब विशालकाय पुस्तकालय को दान दे दिए, तभी यह अंदाजा लग गया कि उनकी नजर में शिक्षा का क्या महत्व है। कई लोगों का सलाह था कि विश्वविद्यालय के सीनेट में दरभंगा राज की सदस्यता हो। संख्या भी अधिक रहे ताकि विश्वविद्यालय के शैक्षिक क्रिया-कलापों पर सीनेट के माध्यम से अंकुश रखा जा सके। परन्तु इसे बहुत अधिक तबज्जो नहीं मिला। पटना विश्वविद्यालय की स्थापना में भी तत्कालीन महाराजा का योगदान है, परन्तु आज भी पटना विश्वविद्यालय के सीनेट में दरभंगा राज का स्थान है। हम सभी चुनाव करते थे।  विश्वविद्यालय के शैक्षिक वातावरण को स्वस्थ रखने के लिए अंकुश भी रखते थे। लेकिन क्या कहा जाय। मन दुःखी हो जाता है। सवाल यह है कि जो शिक्षित होगा वही शिक्षा का महत्व समझेगा  । 

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महाराजाधिराज दिनांक 1 अक्टूबर, 1962 को मृत्यु को प्राप्त हुए। वे दुर्गापूजा के अवसर पर कलकत्ता से अपने राज दरभंगा आये थे। वे अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। सभी बातें सामान्य थी उस सुवह, लेकिन क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ जैसे अनेकानेक कारणों के बीच  पहली अक्टूबर, १९६२ को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में उनका जीवंत शरीर “पार्थिव” पाए गया । सर कामेश्वर सिंह की तीन पत्नियां थीं – महारानी राज लक्ष्मी, महारानी कामेश्वरी प्रिया और महारानी कामसुंदरी। महारानी कामेश्वरी प्रिय की मृत्यु आज़ाद भारत से पूर्व और अंग्रेज भारत छोड़ो आंदोलन के समय सं 1942 में हुई। महाराजाधिराज बहुत दुःखी थे उनकी मृत्यु के बाद, जैसा लोग कहते हैं। जिस सुबह महाराजाधिराज अंतिम सांस लिए, उसके बाद उनकी दोनों पत्नियां – महारानी राजलक्षी और महारानी कामसुन्दरी दाह संस्कार में उपस्थित थी, यह भी लोग कहते हैं। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानि महाराजा की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई और महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं महाराजा के विधवा के रूप में। 

राजनगर का किला और उसका अवशेष 

बहरहाल, नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति विशेश्वर नाथ खरे और अन्य न्यायमूर्तियों के समक्ष दायर दस्तावेजों के आधार पर 5 जुलाई, 1961 को महाराजधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा वसीयतनामे पर हस्ताक्षर किये थे । वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो गयी और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर” बन गए । फिर 26 सितम्बर, 1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट” करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा को दिया गया।  उस दिन बिहार में भी पटना उच्च न्यायालय था और पंडित लक्ष्मीकांत झा उसी न्यायालय के न्यायमूर्ति भी थे। लेकिन अरबो-खरबों का प्रश्न अनुत्तर रह गया कि “आखिर पंडित झा संपत्ति की सीमा-क्षेत्र को छोड़कर, दूसरे राज्य के उच्च न्यायालय में वसीयतनामा को लेकर क्यों गए? खैर, न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा, सन 1978 साल के मार्च महीने के 3 तारीख को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा की मृत्यु के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय न्यायमूर्ति (अवकाश प्राप्त) एस ए मसूद और न्यायमूर्ति शिशिर कुमार मुखर्जी (अवकाश प्राप्त) को दरभंगा राज के “प्रशासक” के रूप में नियुक्त किया जाता है । इसके बाद तत्कालीन न्यायमूर्ति सब्यसाची मुखर्जी अपने आदेश, दिनांक 16 मई, 1979 के द्वारा उपरोक्त “प्रशासकों” को “इन्वेंटरी ऑफ़ द एसेट्स’ और ‘लायबिलिटीज ऑफ़ द इस्टेट’ बनाने का आदेश देते हैं ताकि वह दरभंगा राज के ट्रस्टियों को सौंपा जा। उक्त दस्तावेज के प्रस्तुति की तारीख के अनुसार तत्कालीन ट्रस्टियों ने महाराजाधिराज दरभंगा के रेसिडुअरी इस्टेट का कार्यभार 26 मई, 1979 को ग्रहण किया, साथ ही, महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के सभी लाभार्थी (यानी परिवार के सदस्य) इस ट्रस्ट के ट्रस्टीज बने। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति  विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत होता है। यह याचिका सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयत नामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन प्रस्तुत किया जाता है। प्रस्तुतकर्ता होते हैं द्वारका नाथ झा, मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा। याचिकाकर्ताओं ने न्यायालय से अनुरोध की कि ढलती उम्र और गिरती स्वास्थ्य के कारण वे सभी अब इस अवस्था में नहीं हैं की इस पद पर कार्य कर सकें। स्वाभाविक है कि इन ट्रस्टियों ने न्यायालय से अनुरोध किये कि उन्हें रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभनगा और चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टी के पदों से मुक्त कर दिया जाय। याचिका दायर करने के दिन द्वारकानाथ झा की आयु 72 वर्ष थी, जबकि मदन मोहन मिश्र और कामनाथ झा क्रमशः 84 और 69 वर्ष के थे। याचिका में इस बात का उल्लेख किया गया कि द्वारकानाथ झा एक बार ह्रदय रोग से पीड़ित हो चुके हैं। साथ ही, मदन मोहन झा भी शरीर से अधिक अस्वस्थ रहते हैं और प्रबंधन का कार्य नियमित रूप से नहीं कर सकते हैं। जहाँ तक कि उनकी शारीरिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे याचिका पर अपना हस्ताक्षर भी कर सकें । लेकिन सच यह भी है कि दरभंगा राज का पटना उन तीनों ट्रस्टियों के समय से प्रारम्भ हुआ और बहुत तेजी के साथ अपने उत्कर्ष पर भी पहुंचा।

प्रोफ़ेसर झा कहते हैं कि “दरभंगा राज अपनी पतन के रास्ते बहुत आगे निकल गया था। परन्तु, आज भी जो हो रहा है और आने वाले दिनों में जो होने की सम्भावना है, वह किसी भी तरह से शुभ संकेत नहीं है। वैसे कुछ ‘अवशेष संपत्ति’ के अलावे राज दरभंगा में बचा ही क्या है। आज सबसे बड़ी जरुरत है राज की गरिमा को बचाना, महाराज के परिवार को बांधना, परिवार और परिजनों को संवेदनात्मक सूत्रों में बांधना, सबों को भावनात्मक रूप से गले लगाना। परन्तु किसी को किसी से कोई मतलब नहीं है। सब अपने में चूर हैं। सबों को पैसा चाहिए, संपत्ति चाहिए – किसी भी कीमत पर, चाहे गैर-क़ानूनी रूप से क्यों न हो। यह दुखद है ………क्रमशः 

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