विशेष रिपोर्ट: इस ‘निर्जीव बाथटब’ की याचना : ‘मुझे न्याय दिला दें मिथिलावासी, मैंने महाराजाधिराज का प्राण नहीं लिया…(भाग-42 क्रमशः)

इस बाथटब के ऊपर 'क़त्ल' का आरोप है। आरोप यह है कि दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को इसने मारा। उनका पार्थिव शरीर यहीं मिला था। मृत्यु के बाद परिवार के लोग (महाराज के रक्त के सम्बन्धी तो थे नहीं) किसी ने भी इस निर्जीव की बात नहीं सुने और सभी उनकी सम्पातियों को लूटने में व्यस्त हो गए। साठ वर्ष होने जा रहा है, यह बाथटब आज भी नजरबन्द है। 

दरभंगा / पटना / कलकत्ता : राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 93वें जन्मदिन का जश्न देश अगले 24 घंटे में मनाने वाला था। पूरा राष्ट्र सत्य और अहिंसा की बात कर रहा था। महात्मा गांधी का संदेश जन-जन तक पहुँचाने का उत्तरदायित्व स्वतंत्र भारत का बच्चा-बच्चा अपने सर पर उठा रखा था। “सबको सन्मति दे भगवान्” का नारा बुलंद हो रहा था। लेकिन, विभाजित भारत को मिले कुल 3,287,263 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के अधीन, उत्तर बिहार के गंगा के उस पार, विद्यापति की नगरी में, राजा जनक की नगरी के एक कोने में स्थित दरभंगा जिले के नरगौना पैलेस के अंदर “किसी की तो सन्मति” मारी गयी थी। कोई तो “लोभ के जाल” में फंस गया था। कोई तो दरभंगा के अंतिम ‘संतानहीन’ राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की अंतिम सांस की प्रतीक्षा कर रहा था। कोई तो “मृत्यु का जाल” बिछा दिया था। तभी तो 24 घंटे बीत भी नहीं पाए थे कि दरभंगा के नरगौना पैलेस स्थित शौचालय-स्नानागार के इस बाथटब में पांच फुट आठ+ इंच का महाराजा का शरीर पार्थिव मिला। खबर बिजली जैसी चतुर्दिक फैली। सबों की निगाहें एक-दूसरे के प्रति “शक” से उठी। कुछ बाएं देखें कुछ दाहिने। कुछ नजर से “ओझल” हुए, तो कुछ की नजरें “बोझिल” हुई। कुछ वहाँ उपस्थित थे। कुछ दौड़ कर वहां एकत्रित हुए। कुछ देखते-ही-देखते रफूचक्कर हो गए – परन्तु सभी अपने थे महाराजाधिराज के, लेकिन “उनके रक्त” नहीं थे । अपराधी बेख़ौफ़ वहीं रहा होगा। परंतु यह निर्जीव “बाथटब” बदनाम हो गया। आज तक अपनी बदनामी को “धो” नहीं पाया है। साठ वर्ष बीतने को आ गए और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्मदिन भी दरभंगा के साथ-साथ भारत के लोग 102 वां वर्ष मनाएंगे – परन्तु इस बाथटब को न्याय नहीं मिला अभी तक।

दरभंगा के नरगौना पैलेस के शौचालय-स्नानागार में रखा यह “बाथ-टब” विगत उनसठ वर्षों से नित्य सुबह-शाम, सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक, दरभंगा राज के कुलदेवता से, राज-परिसर में स्थित देवी-देवताओं से, प्रदेश में आने-जाने वाले शीर्षस्थ राजनेताओं से, दर्जनों मुख्यमंत्रियों से, आला-अधिकारियों से, पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठे प्रधानमंत्रियों से करबद्ध प्रार्थना करते आ रहा है, कहता आ रहा है “एक निर्जीव प्राणी” की तरह – मुझे न्याय दिला दे भगवान्…..मुझे न्याय दें मिथिला के लोग।

“मुझे न्याय दिला दें मुख्यमंत्री जी, मुझे न्याय दिला दें प्रधानमंत्री जी। मैं निर्जीव हूँ। बोल नहीं सकता। आप सभी तो सजीव हैं। मेरी भाषा आप समझ सकते हैं। मैंने अपने महाराजाधिराज को नहीं मारा। उनके हँसते-मुस्कुराते-सुडौल शरीर को पार्थिव नहीं बनाया। मैं तो उनके शरीर के मैल को साफ़ करता था। हमारे परिसर के पानी से पूछ लीजिये। वह चश्मदीद गवाह है। वह भी निर्जीव ही है, बोल नहीं सकता। जो बोल सकता है वह खुलेआम घूमता रहा। मुझे 59-वर्षों से बंद कर रखा है हुकुम। मैं विनती करता हूँ कि मेरी अस्तित्व की समाप्ति से पूर्व मुझे न्याय दिला दें ।  मैं अपनी मृत्यु के बाद अपने पार्थिव शरीर के साथ वह कलंक नहीं ले जाना चाहता हूँ कि मैंने मिथिला नरेश, दरभंगा के अंतिम ‘संतानहीन’ राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को मारा है। वे अपने जीवन की अंतिम सांस हमारे इस प्रांगण (बाथटब) में लिए। दया करो हे भगवान्,” यह रोता-बिलखता आवाज इस ‘निर्जीव बाथटब’ का है। इस बाथटब के ऊपर ‘क़त्ल’ का आरोप है।

दरभंगा राज के तत्कालीन लोगबाग, प्रदेश के तत्कालीन राजनेतागण, आला-अधिकारीगण (कुछ को छोड़कर), दिल्ली सल्तनत के राजनेतागण सभी इसके ऊपर लगे आरोपों को स्वीकृत कर शांत हो गए। सबों का ‘जीवित’ शरीर की आत्मा ‘पार्थिव’ हो गई। कोई “चूं” तक नहीं किये। किसी ने आवाज नहीं उठाये आखिर यह निर्जीव बाथटब महाराजाधिराज को कैसे मार सकता है? सभी जानते थे कि महाराजाधिराज का ‘मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक-आर्थिक चरित्र इतना दृढ़ था कि ‘चुल्लू भर पानी में मरने’ वाला मुहबरा नरगौना पैलेस ही नहीं, विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से सातवें स्थान (3,287,263 वर्ग किलोमीटर) पर रहने वाला भारत के किसी भी हिस्से में स्थित पानी में नहीं है। फिर नरगौना पैलेस के इस शौचालय-स्नानागार में रखे इस बाथटब में, जिसमें शायद 42 गैलन पानी आता होगा, कैसे मृत्यु हो सकती हैं? यह बाथटब तो चिल्ला-चिल्ला कर कहता रहा कि महाराज संध्याकाळ के बाद शराब नहीं पीते थे। स्नान करने के बाद सो जाया करते थे। उस शाम भी महाराज स्वस्थ थे जब स्नान करने आये थे। गुनगुना भी रहे थे। फिर “मैं (बाथटब) कैसे आरोपी हो गया कि महाराजाधिराज को मैंने मारा।” लेकिन ‘निर्जीवों’ की बातों को कौन सुनता है – जब धन-दौलत के चकाचौंध में सजीव भी निर्जीव जैसा व्यवहार करने लगे।

काश !!!! दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के शरीर के पार्थिव होने, उसे अग्नि को सुपुर्द करने के बाद से आज तक, उनके ही परिवार के लोग, परिजन, इष्ट-अपेक्षित उनकी सम्पत्तियों पर एकाधिकार करने की जितनी कमरतोड़ कोशिश कर रहे हैं, महाराजा का नाम, उनकी गरिमा का मिट्टी पलीद कर रहे हैं; उसी में से कोई एक भारत सरकार के वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अथवा भारत के गृह मंत्री अमित शाह से यह गुजारिश करते कि “जिस परिस्थिति, वातावरण और सन्देहास्पद स्थिति में महात्मा गाँधी के जन्मदिन से एक दिन पूर्व मिथिलाञ्चल का राजा अपने शौचालय-स्नानागार में मृत पाया गया – उनकी पीढ़ी के लोगों की समाप्ति से पूर्व एक अन्वेषण करने का आदेश निर्गत कर देते।” यह अलग बात है कि तत्कालीन समय के लोगों में बहुत से लोगों का शरीर पार्थिव हो गया है, वे मृत्यु को प्राप्त किये हैं; लेकिन इस बाथटब का कलंक आज तक नहीं साफ़ हो पाया, यह बाथटब दोषी है अथवा निर्दोष, यह लोगों को मालूम नहीं हो पाया, इस बाथ-टब को न्याय नहीं मिल पाया।

कहा जाता है कि वर्तमान प्रधान मंत्री और गृह मंत्री “न्याय-प्रेमी” व्यक्ति हैं। अगर देश के वर्तमान प्रधान मंत्री और गृह मंत्री आज भी एक अन्वेषण का आदेश दें, सभी पुराने दस्तावेजों को फिर से खुलबाने का आदेश दें, तो शायद इस बाथटब को न्याय मिल जाय। अगर इस बाथटब को न्याय मिल जाता है तो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के 152 वें जन्मदिन पर मिथिलांचल के लोगों का बहुत बड़ा नमन होगा उस न्याय के पुजारी के प्रति क्योंकि दरभंगा राज परिवार के जीवित लोग, उनकी एक मात्र जीवित पत्नी, उनके पौत्र-पौत्रियां अगर इस दिशा में कदम उठाये तो शायद स्थिति कुछ और होता। परंतु दुर्भाग्य यह रहा कि महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद सम्पत्तियों का अथाह समुद्र सबों के मुख पर ताला लगा दिया – सभी मूक-बधिर हो गए।

कहा जाता है कि आज भी दरभंगा प्रशासन के पास, बिहार सरकार के पास, दरभंगा स्थित तत्कालीन राज दरभंगा के पुस्तकालयों के पास, ‘मिट्टी की परतों में दबी ‘संरक्षित दस्तावेजों’, रिकार्डेड साक्यों में कोई 130 मोहतरमाओं और मोहतरमों की कहानियां (स्टटेटमेंट्स) रखी है जो महाराजाधिराज की मृत्यु से सम्बंधित बातों को अपनी-अपनी जुबानों में उस समय कहे थे । इसके अलावे कई दृश्य और दृष्टान्त आज भी उपलब्ध हैं जो ‘वैज्ञानिक और आधुनिक विश्लेषण से अन्वेषण की दशा और दिशा दोनों निर्धारित कर सकता है। यह भी कहा जाता है कि साठ-वर्ष पहले अन्वेषण के जो साधन प्रशासन और व्यवस्था तथा जांच एजेंसियों के पास उपलब्ध थे; आज उनमें कई लाख गुना का आधुनिकीकरण हो गया है। लोगों और अन्वेषणकर्ताओं की सोच बदल गयी है। ‘धन-दौलत’ का महत्व तो अवश्य बढ़ा है (अगर ऐसा नहीं होता तो महाराजाधिराज की / दरभंगा राज की सम्पत्तियाँ यूँ नहीं लुटती, बिकती, नामोनिशान समाप्त होता), लेकिन नए युग में, नए-नए सोच वाले लोगों का भी अभ्युदय हुआ है जिनके नजर में इतिहास का, पुरातत्वों का बहुत सम्मान है।  उनके नजर में महाराजाधिराज का आज भी महत्व है।  उनके नजर में राज दरभंगा की संपत्ति मिट्टी के बराबर है। दरभंगा के महाराजाधिराज की ‘आकस्मिक मृत्यु’ की तह तक जाकर इस बाथटब को न्याय दिलाने के लिए कृतसंकल्पित हो सकते हैं।

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नरगौना (दरभंगा) स्थित शौचालय-स्नानागार में असली प्रत्यक्षदर्शी ये हैं। आखिर किसने क्या किया, इन्ही निर्जीवों ने देखा था। ये भी बाथटब के साथ नजरबंद हैं सं 1962 से – न्याय चाहते हैं। चाहते हैं कि उनका मित्र ‘बाथटब’ आरोपों से मुक्त हो और असली कातिल पकड़ा जाए, अगर जीवित है तो, यह फिर “बा-इज्जत” इसकी रिहाई हो 

यह सर्वविदित है कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह दुर्गा पूजा के अवसर पर अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कलकत्ता से अपने रेलवे सैलून से नरगौना (दरभंगा) स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। आज नरगौना पैलेस का वह रेलवे पटरी कहीं नहीं दिखेगी जहाँ कोई डेढ़-शताब्दी पूर्व दरभंगा के राजा लक्ष्मेश्वर सिंह ट्रेन का चलन-प्रचलन प्रारम्भ किये थे और जहाँ उनके अनुज महाराजा रामेश्वर सिंह के सबसे बड़े पुत्र महाराजा कामेश्वर सिंह अपनी मृत्यु से पहले उसी ट्रेन से नरगौना पैलेस के परिसर में उतरे थे। फिर कभी वे वापस नहीं जा सके कलकत्ता और उनका पार्थिव शरीर अपने पूर्वजों के पास पहुँचने के लिए माधवेश्वर में अग्नि को सुपुर्द किया गया। महाराजाधिराज यहाँ आने के बाद यहाँ की स्थितियां ”सामान्य” दिखी थी अथवा नहीं, यह तो महाराजाधिराज ही जानते थे अथवा उनकी दोनों ‘जीवित’ महारानियाँ – महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुन्दरी। बड़ी महारानी राज लक्ष्मी जी की मृत्यु महाराजाधिराज की मृत्यु से 14 वर्ष बाद सन 1976 में हुई, जबकि मझली महारानी कामेश्वरी प्रिया की मृत्यु महाराजाधिराज के जीवन काल में सन 1941 में ही हो गयी। सबसे छोटी और तीसरी महारानी कामसुन्दरी आज भी जीवित हैं । महाराजाधिराज का हँसता, मुस्कुराता, मानवीय, दार्शनिक स्वरुप जीवित शरीर पहली अक्टूबर 1962 को आश्विन शुक्ल तृतीया 2019 को नरगौना पैलेस के अपने सूट (तस्वीर देखें) के शौचालय-स्नानागार (तस्वीर देखें) के नहाने के इसी बाथटब (तस्वीर देखें) में मृत पाया गया था।

कहा जाता है कि दरभंगा के तत्कालीन एक प्रशासनिक अधिकारी महाराजाधिराज के पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द करने से पूर्व अपनी आँखें लाल किया था। वह शरीर को सुपुर्दे ख़ाक होने से रोकने का प्रयास भी किया था। परन्तु वहां उपस्थित “महिला” और “पुरुषों” के सामने उसकी एक ना चली। बल्कि “दरभंगा महाराज के पार्थिव शरीर को अग्नि को सुपुर्द करने में व्यवधान उत्पन्न करने के कारण उसे दरभंगा सीमा रेखा से बाहर जाना पड़ा। उस समय दूसरे बिहार विधान सभा के गठन के लिए हुए चुनाब में राजमहल विधान सभा चुनाब में जीतकर पण्डित बिनोदानन्द झा प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय में आसीन थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू 15 अगस्त, 1947 से लगातार अपने जीवन के अंतिम सांस तक भारत का प्रधान मंत्री थे। लाल बहादुर शास्त्री स्वतंत्र भारत के छठे गृह मंत्री के रूप में नई दिल्ली के नार्थ ब्लॉक में बैठे थे। डॉ राजेंद्र प्रसाद के बाद सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के दूसरे राष्ट्रपति के रूप में राष्ट्रपति भवन में उपस्थित थे। पटना से दिल्ली तक कोई भी ऐसे राजनेता नहीं थे जो दरभंगा के अंतिम राजा को नहीं जानते थे। कोई भी ऐसे नहीं थे जो महाराजाधिराज के उपकारों के ऋणी नहीं थे। लेकिन पटना के सर्कुलर और सर्पेंटाइन रोड से लेकर दिल्ली के राजपथ और रायसीना हिल तक किसी का हाथ आगे नहीं बढ़ा, किसी के पैर आगे नहीं उठे।

महाराजाधिराज का वसीयत

आनन-फानन में माधवेश्वर में सर कामेश्वर सिंह का दाह संस्कार कर दिया गया। महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुन्दरी अपने-अपने पति को सुपुर्दे ख़ाक होते देख रही थीं। उस समय उनके मन में क्या चल रहा होगा यह बात वही जानती थी। यह भी कहा जाता है कि अपने पति की मृत्यु की सूचना पाकर भी महारानी राजलक्ष्मी नरगौना पैलेस नहीं आकर माधवेश्वर ही पहुंची। आज तक वह उलझन सुलझ नहीं पाया की आखिर महाराजाधिराज के पार्थिव शरीर को जलाने की क्या जल्दबाजी थी? यह नहीं मालूम हो पाया कि आखिर दरभंगा के तत्कालीन अधिकारी को तत्काल प्रभाव से ‘किसके आंखों की इशारे से’ दरभंगा से हटाया गया था ? किसी ने आज तक यह जानने जी जरुरत नहीं किये की आखिर तत्कालीन मुख्य मंत्री इस घटना के बाद शांत कैसे रहे ? यह नहीं जान पाया देश की देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद भी इस घटना के बाद “चूं” तक नहीं किये। महाराजा के पास अपार संपत्ति का होना, तीन-तीन पत्नियों के होते हुए भी संतान न होना, बहुत महंगा पड़ा महाराजाधिराज को । यह भी कहा जाता है कि इनके उतराधिकार को लेकर उनके कुछ प्रिय व्यक्तियों के मन में आशा थी – परन्तु सब कुछ समाप्त हो गया।

यह कहा जाता है कि आज़ादी के बाद देश की राजनीतिक दशा और दिशा के मद्दे नजर महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह अपनी सभी सम्पत्तियों को दान देकर, बेचकर लन्दन जाने का प्रतिज्ञा कर चुके थे । लन्दन में एक बेहतरीन फार्म और बंगला भी शायद ख़रीदा जा चूका था। शायद उन्हें अपनी मृत्यु का “अंदेशा” था। तभी वे 5 जुलाई, 1961 को कोलकाता में अपनी “अंतिम वसीयत” की थी जिसके एक गवाह पं. द्वारिका नाथ झा।  पंडित झा महाराजा के ममेरे भाई थे और दरभंगा एविएशन, कोलकाता में मैनेजर भी थे। अपनी मृत्यु से कोई पौने-दो साल पहले उन्होंने कामेश्वरसिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए लक्ष्मीश्वर विलास को दान किये थे। उक्त अवसर पर महाराजाधिराज ने कहा था:

“जिस वस्तुओं को किसी ने अपने बाल्यकाल से ही न केवल प्यार किया हो बल्कि समादर भी किया हो, उससे अलग होना सामान्यतः दुःखद होता है, किन्तु राज्यपाल जी ने और मुख्यमंत्री महोदय ने जो संस्कृत विश्वविद्यालय का केंद्र बनाने के लिए उसे ग्रहण करने की कृपा कर, स्वयं यहां पधारने का कष्ट किया है, इससे मुझे प्रसन्नता है। संस्कृत की विद्वता के सम्मान में आज से चार सौ वर्ष पहले हमारे पूर्वज महामहोपाध्याय महाराज महेश ठाकुर को बादशाह अकबर ने तिरहुत का राज्य दिया था। इसलिए यह बिलकुल उचित है कि हमारा संस्कृत पुस्तकालय, जिसको हमारे पूर्वजों ने वंश परंपरा से विगत शताब्दी में संघटित किया है, वह संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का केंद्र बने। यह भी उचित है कि लक्ष्मीश्वर विलास प्रसाद जो कि केवल हमलोगों का घर ही नहीं था, बल्कि वह स्थान था, जहाँ अनेक वर्षों तक राज के अनेक प्रकार के उत्सव होते रहे, वह संस्कृत विश्वविद्यालय का स्थान बने। मुझे पूर्ण विश्वास है कि संस्कृत विश्वविद्यालय केवल जीवित ही नहीं रहेगा बल्कि इस प्राचीन भूमि में जो कुछ भी उत्तम तत्व है, उसको प्रोत्साहित करेगा और उसका उद्धार करेगा। इसी विश्वास के साथ मैं आपके हाथों में वह बहुमूल्य खजाना सौंप रहा हूँ, जो मैंने पैतृक संपत्ति के रूप में पाया है, और विश्वास करता हूँ कि आपके छत्र-छाया में संस्कृत शिक्षा की श्री-वृद्धि होगी। संस्कृत सदा मर रहे।”

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महाराजाधिराज का वसीयत

दिनांक 30-03-1960 को बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री के नाम लिखे गए पत्र में महाराजाधिराज ने लिखा कि दरभंगा नगर में अवस्थित ‘लक्ष्मीश्वर – विलास’ नामक अपना प्रसाद उसके आस-पास की सम्बद्ध भूमि के साथ ‘संस्कृत विश्वविद्यालय’ के लिए दान स्वीकार किया है बशर्ते कि वह विश्वविद्यालय दरभंगे में स्थापित और अवस्थित किया जाए और चूँकि बिहार विधान सभा द्वारा दरभंगे में  इस तरह के एक विश्वविद्यालय को स्थापित करने के लिए एक अधिनियम पारित किया जा चुका है, जिसको बिहार के राज्यपाल की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है  और चूँकि बिहार राज्यपाल ने दरभंगे में इस प्रकार का एक विश्वविद्यालय अगले सत्र से स्थापित करने का प्रस्ताव किया है और चूँकि सम्बद्ध भूमि के साथ अपने उपर्युक्त भवन को दरभंगे में “संस्कृत विश्वविद्यालय के उपयोग के लिए” दान देने के इच्छुक हैं, और चूंकि दान-ग्रहीता उपर्युक्त दान को स्वीकार करने के इच्छुक हैं और चुंकि एक उचित दान पात्र लिख देना आवश्यक है, अतः यह दान-पात्र प्रमाणित करता है कि :

दरभंगा नगर में अवस्थित लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद” नामक भवन, उससे सम्बद्ध भूमि जिसका सम्पूर्ण विवरण परिशिष्ट ‘ए’ में दिया गया है तथा भूमि के नक़्शे में जिसे लाल और पीले रंगों में पृथक कर दिया गया है और जिसे ‘बी’ से चिन्हित किया गया है और जो इस दान पत्र का अंग है, उसे कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के उपबंधों के अनुसार स्थापित संस्कृत विश्वविद्यालय के उपयोग के लिए डाटा इसके दान ग्रहीता को हस्तान्तरित और पत्यर्पित करते हैं। दान ग्रहीता इस दान को स्वीकार करते हैं और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के अनुसार स्थापित संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए दान-पत्र के द्वारा प्रदत भवन और भूमि का उपयोग करने को सहमत होते हैं।

दाता को नरगौना स्थित अपने आवासीय प्रसाद में आने जाने के मार्ग के उपयोग को अधिकार रहेगा जो मार्ग लक्ष्मीश्वर विलास-प्रसाद के सटे पूर्व से निकलता है और जिसे “बी” चिन्हित नक़्शे में पीले रामनग से पृथक दिखया गया है और उनके यातायात के अधिकार का उपयोग दाता और उनके कार्यकर्त्ता नरगौना प्रसाद में जाने-आने में कर सकते हैं। लक्ष्मीश्वर विलास प्रसाद के सटे पश्चिम में अवस्थित तलाबन के सटे दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर जाने वाली सड़क, जिसे पृथक कृत तथा बी चिन्हित नक़्शे में हरे रंग में दिखलाया गया है, विश्वविद्यालय में आने जाने वाले लोगों के उपयोग में आयेगी, किन्तु सामान्य जनता या अन्य कार्य के लिए खुली नहीं रहेगी। लक्ष्मीश्वर विलास प्रासाद के सटे पूर्व से जाने वाली सड़क पर, जहाँ दान में दी गयी भूमि का  अंत होता है, दाता एक फाटक बनवा सकते हैं। जिनके प्रमाण के रूप में यह दान पात्र लिख दिया है और दान ग्रहीता ने दान स्वीकार करने के प्रमाण में अपना हस्ताक्षर कर दिया है।

बहरहाल, दस्तावेजों के आधार पर 5 जुलाई, 1961 को महाराजधिराज सर कामेश्वर सिंह द्वारा वसीयतनामे पर हस्ताक्षर किये । वसीयतनामे पर हस्ताक्षर करने के 453 वें दिन महाराजाधिराज की मृत्यु हो गई और पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा “सोल एस्क्यूटर” बन गए। साथ ही, 26 सितम्बर, 1963 को कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा उक्त वसीयतनामे को “प्रोबेट” करने का एकमात्र अधिकार न्यायमूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत झा को प्राप्त हुआ।वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवास होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बांटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवासी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह , राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था । दोनों महारानी को रहने के लिए  एक – एक महल ,जेवर –कार और कुछ संपत्ति मात्र उपभोग के लिए और दरभंगा राज से प्रतिमाह कुछ हजार रुपए माहवारी खर्च देने का प्रावधान था।

महाराजाधिराज का वसीयत

महाराजाधिराज का कोई संतान नहीं था। उनके भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के तीन पुत्र थे – (1) राजकुमार जीवेश्वर सिंह, (2) राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह। वसीयत लिखे जाने के समय इन तीनों भाइयों में राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और उनका विवाह श्रीमती राज किशोरी जी के साथ संपन्न हो गया था। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। समयांतराल, राजकुमार जीवेश्वर सिंह प्रथम पत्नी के होते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के दोनों पत्नियों से सात बेटियां – कात्यायनी देवी, दिब्यायानी देवी, नेत्रायणी देवी, चेतना दाई, द्रौपदी दाई, अनीता दाई, सुनीता दाई – हुई । जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक विद्वान थे, काफी शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। कुमार यज्ञेश्वर सिंह के तीन बेटे थे – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई थी। लगता है भारत के अंतिम बादशाह बहादुरशाह ज़फर की तरह दरभंगा के अंतिम महाराजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने राज का भविष्य रामबाग पैलेस के मुख्य द्वार पर खड़े-खड़े अपने जीवन के अंतिम वसंत में देख रहे थे, साल था 1961 क्योंकि सन 1962 का वंसत तो महाराजा साहेब देखे ही नहीं।

और फिर प्रारम्भ होता है “पारिवारिक जंग” – लेकिन एक छः पन्ने के दस्तावेज में इस बात को बहुत ही प्राथमिकता थे स्थान दिया गया है “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एक मात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों, के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और  महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। फेमिली सेटेलमेंट का दस्तावेज मार्च 27, 1987 को लिखा गया।

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महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद Memorandum of Family Settlement of Estate of the late Maharajadhiraaj Sir Kameshwar Singh of Darbhanga के ये शब्द भी इस बात का गवाह है कि दिल्ली वाली लाल किले जैसी बानी दरभंगा वाली लाल किले के अंदर के लोगों की मानसिक ऊंचाई भी बरक़रार कहा रही? अगर मानसिक ऊंचाई स्थिर होती, महाराजाधिराज की तरह, तो शायद फेमिली सेटेलमेंट के मेमोरेण्डम के छठे पैरा में ऐसा नहीं लिखा होता: “That after the filing of petition for recording of the compromise on the basis of the family settlement before the Supreme Court the parties will take steps immediately to withdraw the suit/suits, appeal/appeals, petitions or proceedings filed by any of them against the other/others and after their withdrawal steps will be taken by the Trustees to …. of the properties mentioned in Schedule VI for raising funds for paying and liquidating all the liabilities and also putting the parties in possession of the charge as per this settlement as far as practicable.” 

ज्ञातव्य हो कि महाराजा की मृत्यु के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने महाराजा की सम्पत्तियों के लाभार्थियों को स्पष्ट रूप से कहा था कि दरभंगा राज के सम्मानार्थ, महाराजाधिराज के सम्मानार्थ, उनकी गरिमा की रक्षा के लिए, पारिवारिक सुलह से बेहतर कोई रास्ता नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था: “Efforts for bringing  settlement should be made by the parties and with a view to save themselves from prolonged, protracted and ruinous litigations and for the sake of peace, preservation of honour and dignity of the family and to carry out the wishes of the late Maharajadhiraj Dr Sir Kameshwar Singh Bahadur of Darbhanga……”

महाराजाधिराज का वसीयत

उस छः पन्ने के फैमिली सेटेलमेंट दस्तावेज में इस बात को बहुत ही प्राथमिकता थे स्थान दिया गया है “And Whereas now there is a genuine feeling among the parties that in all probability the whole estate will be liquidated for paying taxes and other legal dues and expenses on litigations even during the lifetime of the first party (Maharani Adhirani Kamsundari, wife of Maharajadhiraj Sir Kameshwar Singh) and hardly anything will remain for the beneficiaries and public charity if the present state of affairs is allowed to continue…..” स्वाभाविक है ‘फॅमिली सेटेलमेंट” ही एकमात्र उपाय रह गया जिससे सभी लाभार्थियों के लाभों, के साथ-साथ ‘पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट’ की रक्षा हो सकती है और  महाराजाधिराज द्वारा लिखे गए अपनी वसीयत के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। वैसे विभिन्न आकार-प्रकार के हस्ताक्षरों के साथ, गजब की एकता फेमिली सेट्लमेंट के छः पन्नों पर दिखता है। शायद 27 मार्च, 1987 के बाद इस तरह की एकता दरभंगा राज के परिवार के लोग, रामबाग का चारदीवारी कभी नहीं देखा गया होगा।

ज्ञातब्य हो कि 27 मार्च, 1987 को सम्बद्ध लोगों के बीच हुए फेमिली सेटेलमेंट को लेकर दायर अपील को सर्वोच्च न्यायालय दिनांक 15 अक्टूबर, 1987 को “डिक्री” देते हुए ख़ारिज कर दिया। तदनुसार, फेमिली सेटेलेमनट के क्लॉज 1 के अनुसार, सिड्यूल II में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी सिड्यूल II में उल्लिखित सभी सम्पत्तियों की स्वामी बन गयी। स्वाभाविक है, उन सम्पत्तियों पर उनका एकल अधिकार हो गया। इसी तरह, फॅमिली सेटलमेंट के क्लॉज 2 के अनुसार, कुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र, यानी राजेश्वर सिंह, जो उस समय बालिग हो गए थे, और उनके छोटे भाई, कपिलेश्वर सिंह, जो उस समय नाबालिग थे, शेड्यूल III में वर्णित शर्तों को मद्दे नजर रखते शेड्यूल III में उल्लिखित संपत्तियों के मालिक हो गए। आगे इसी तरह, फैमिली सेटलमेंट के क्लॉज 3 के अंतर्गत शेड्यूल IV में वर्णित सभी नियमों के अनुरूप में सभी सिड्यूल IV में उल्लिखित सम्पत्तियों का मालिक पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज हो गए। फेमिली  सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के अधीन, श्रीमती कात्यायनी देवी, श्रीमती दिव्यायानी देवी, श्रीमती नेत्रयानी देवी (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी बालिग पुत्रियां) और सुश्री चेतना दाई, सुश्री दौपदी दाई, सुश्री अनीता दाई (कुमार जीवेश्वर सिंह के सभी नबालिग पुत्रियां), श्री रत्नेश्वर सिंह, श्री रश्मेश्वर सिंह (उस समय मृत), श्री राजनेश्वर सिंह शेड्यूल V में उनके नामों के सामने उल्लिखित, साथ ही, उसी सिड्यूल में उल्लिखित शर्तों के अनुरूप, सम्पत्तियों के मालिक होंगे।

फैमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 5 के तहत, पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीज को यह अधिकार दिया गया कि वे शेड्यूल I में वर्णित ‘लायबिलिटी’ को समाप्त करने के लिए, शेड्यूल VI में उल्लिखित सम्पत्तियों को बेचकर धन एकत्रित कर सकते हैं, साथ ही, परिवार के लोगों में फेमिली सेटेलमेंट के अनुरूप शेयर रखने का अधिकार दिया गया। साथ ही, फेमिली सेटेलमेंट के क्लॉज 6 के अनुसार, महारानी अधिरानी कामसुन्दरी और राज कुमार शुभेश्वर सिंह या उनके नॉमिनी (दूसरे क्षेत्र के लाभान्वित लोगों के प्रतिनिधि) द्वारा बनी एक कमिटी लिखित रूप से सम्पत्तियों की बिक्री, शेयरों का वितरण आदि से सम्बंधित निर्णयों को लिखित रूप में ट्रस्टीज को देंगे जहाँ तक व्यावहारिक हो, परन्तु किसी भी हालत में पांच वर्ष से अधिक नहीं या फिर न्यायालय द्वारा जो भी समय सीमा निर्धारित हो।

ज्ञातव्य हो कि मिथिलाञ्चल अथवा राज दरभंगा के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी जब 84-वर्षीय, 72-वर्षीय और 69-वर्षीय वृद्ध न्यायालय का दरवाजा खटखटाकर उससे विनती किया हो कि उन्हें कार्य मुक्त होने का मार्ग प्रशस्त किया जाए, कार्यमुक्त किया जाय । याचिका में लिखा है: “It is submitted that the applicants are being harassed unnecessarily  by the various quarters having vested interest. They are also being confronted with various problems. The applicants further submitted that due to their old age, falling health and other difficulties they are not in a position to continue to function as Trustees. It is the sincere desire of the applicants that they may be relieved of the responsibilities of the office of the Trustees of the Residuary Estate of Maharaja of Darbhanga and also of the Charitable Trust.”…. क्रमशः 

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