‘मेमोरेंडम ऑफ़ अग्रीमेंट एंड सेटलमेंट’ पर हस्ताक्षर, निदेशक का नजरबंदी : ‘फुल सर्किल’ का गोलमाल (भाग-4)

उन दिनों मधुबनी-राजनगर में राज दरभंगा का हाल, वर्तमान हाल-चाल मिथिला के लोगबाग कहेंगे  

दरभंगा / पटना : सन 1977 में बिहार के फुलपरास विधानसभा क्षेत्र से जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीत कर आये थे कर्पूरी ठाकुर। तारीख था 24 जून, 1977 जब फुलपरास के यह विधायक दूसरी बार बिहार का मुख्य मंत्री बने। इससे पहले कर्पूरी ठाकुर सोसलिस्ट पार्टी के टिकट पर ताजपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर विधानसभा आये थे और 22 दिसंबर, 1970 को मुख्यमंत्री पद का शपथ लिए थे। इस खंडकाल में वे कुल 163 दिनों के लिए मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आसीन रहे, जबकि 1977 में कुल 666 दिनों तक कुर्सी पर विराजमान रहे। 

सन 1977 में ही, मुख्य मंत्री का पदभार ग्रहण करने के बाद कर्पूरी ठाकुर आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर समाचार पत्र समूह के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह से मिलने की इक्षा जाहिर किये। उस समय ही नहीं, आज भी अगर प्रदेश का मुखिया, किसी समाचार पत्र समूह के मालिक से मिलना चाहता है तो यह ‘आधुनिक पत्रकारिता’ में बहुत बड़ी बात होती है। कारण यह है कि आज के युग में शायद ही ऐसे कोई महानुभाव होंगे, जो “इतने ऊँचे चरित्र का मालिक होंगे,” आज तो मुख्य मंत्री क्या, मुखिया से मिलने के लिए भारतीय पत्रकारिता जगत के लोगबाग खुद समय मांगते हैं, पैदल चलकर जाते हैं। 

कुमार शुभेश्वर सिंह का शैक्षणिक योग्यता बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के लगभग बराबर ही था।

कर्पूरी ठाकुर स्वतंत्र भारत में अपने गाँव के एक विद्यालय में शिक्षक थे। आप अंदाजा खुद लगाएं की आज़ादी के पूर्व और उसके बाद भी, उत्तर बिहार के समस्तीपुर जिला के पितौझिया गाँव के आसपास किस तरह का शैक्षणिक वातावरण रहा होगा अथवा आज भी है ? आप आज की वर्तमान शैक्षणिक दशा को देखकर भी तत्कालीन शैक्षणिक व्यवस्था को माप सकते हैं। सन 1952 में कर्पूरी ठाकुर का पदार्पण बिहार की राजनीति में होता है और वे 1952 विधानसभा चुनाव में जीतकर विधायक हो जाते हैं। वे “विशुद्ध” हिंदी के पक्षधर थे। अंग्रेजी में उनका दोनों हाथ और मुंह तंग था।  जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तब माध्यमिक कक्षा के पाठ्यक्रम से अंग्रेजी विषय की “अनिवार्यता” को समाप्त कर दिया। खैर, बिहार की राजनीति और राजनेता किस तरह से आर्यावर्त – इण्डियन नेशन – मिथिला मिहिर को समाप्त किये, यह तो आगे लिखेंगे ही। लेकिन यहाँ एक बात अवश्य लिखना चाहूँगा की कर्पूरी ठाकुर का दरभंगा राज के प्रति, महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के प्रति, राजबहादुर के प्रति, राजकुमारों के प्रति हिमालय की चोटी से भी ऊँचा सम्मान था । 

कुमार शुभेश्वर सिंह उन दिनों जब भी दरभंगा से पटना प्रवास पर आते थे, फ़्रेज़र रोड स्थिर होटल रिपब्लिक में रहते थे। उसी होटल में एक कार्यालय नुमा स्थान भी बन जाता था, जहाँ कार्यालय के लोगबाग भी मिलने आते थे, समस्याओं पर बातचीत करने आते थे। कर्पूरी ठाकुर की गाड़ी भी मुख्य मंत्री कार्यालय से होटल रिपब्लिक के लिए रवाना हो गयी थी । चतुर्दिक सुरक्षा-व्यवस्था, ट्रैफिक इत्यादि स्थानीय प्रशासन के नियंत्रण में थी। सड़कों पर, नुक्कड़ों पर लाल टोपीधारी डंडा लिए खड़ी थी। उन दिनों पुलिस के हाथ में बंदूकें बहुत काम दिखती थी। डंडा से ही काम चलता था। लोगों का चरित्र – चाहे मानसिक हो, आर्थिक हो, व्यावसायिक हो, राजनीतिक  हो, धार्मिक हो – में गिरावट प्रारम्भ हो गया था, परन्तु सहमे होते थे। 

कर्पूरी ठाकुर की आने की सूचना आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर समाचार पत्र समूह के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह को मिल गयी थी। उनके सम्मानार्थ सभी प्रकार की सुविधाओं के लिए आदेश निर्गत हो गए थे। अपने प्रवास के दौरान कुमार शुभेश्वर सिंह अपने सम्पूर्ण परिवार को औसतन – समय साथ लेकर चलते थे जिनमें पत्नी और दोनों बच्चे – राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह – भी शामिल होते थे। बच्चे अक्सरहां, कौतुहलवश आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अख़बारों के दफ्तर भी आया करते थे। यह भी देखा करते थे कि आखिर अखबार क्या वस्तु है!  उनके दादाजी, यानी महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ऐसी कौन सी वस्तु का प्रकाशन प्रारम्भ किया होने जीवन-काल में जो उन्हें समाज के नजर में उत्कर्ष पर ले गया। उन बच्चों को देखने के लिए राज दरभंगा के, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर समाचार पत्र समूह के “कर्मचारी” हमेशा तत्पर रहते थे चारों पहर, बारहो महीना। 

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उस दिन बिहार के मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर की गाड़ी जैसे ही होटल रिपब्लिक के सामने रुकी, राजनीतिक चमचे, कलछुल, बेलनों की लम्बी कतार फ़्रेज़र रोड पर एकत्रित थी। बाहर जय-जयकार का नारा लग रहा था। नारा लगना भी स्वाभाविक था क्योंकि कुछ माह पूर्व ही सम्पूर्ण राष्ट्र तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी  द्वारा लगाए गए “आपातकाल” से निकला ही था। इंदिरा गांधी 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक आपातकाल लगायी थीं। आपातकाल के बाद बिहार का पहला मुख्यमंत्री मिला था जो “सवर्ण” नहीं था और बिहार के मतदाता जिसकी “ईमानदारी” पर फक्र करता था, कसमें खाता था। खैर। 

कर्पूरी जी जैसे ही होटल के आवासीय क्षेत्र की ओर प्रवेश लिए, आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर समाचार पत्र समूह के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक कुमार शुभेश्वर सिंह सफ़ेद वस्त्र (बेलबॉटम और प्रे बांह का सफ़ेद कमीज) पहने लम्बे-लम्बे बाल, घनी दाढ़ी के साथ उनके स्वागत हेतु सामने दिखे।  कुमार शुभेश्वर सिंह के अलावे दफ्तर के कुछ और लोग उपस्थित थे वहां। कक्ष में प्रवेश के साथ कुमार शुभेश्वर सिंह अपने प्रदेश के मुख्य मंत्री को बैठने के लिए कुर्सी आगे किये और उन्हें स्थान ग्रहण करने हेतु कहते हैं । प्रदेश का मुख्य मंत्री अपने पैरों को जमीन से चिपका रखे थे। अनेक बार कहने के बाद भी कर्पूरी ठाकुर स्थान ग्रहण नहीं किये, कुर्सी पर नहीं बैठे। 

कर्पूरजी जी सामने खड़े कुमार शुभेश्वर सिंह से कहते हैं: “हुज़ूर, मैं राजनीतिक पद पर प्रदेश का मुख्य मंत्री अवश्य बना हूँ, राजनीति में अवश्य हूँ, परन्तु आपके कर्पूरी ठाकुर की इतनी क्षमता, इतनी औकात नहीं है कि वह आपके सामने कुर्सी पर बैठे।” कक्ष में प्रवेश से पूर्व दरवाजे पर कर्पूरी ठाकुर अपने काले रंग का “हाफ-शू” खोल रखे थे। उनके साथ के कुछ अधिकारी, सुरक्षाकर्मी, जो उस गलियारे के दूसरे छोड़ पर खड़े थे, कर्पूरी ठाकुर को जूता खोलते देख आश्चर्यचकित थे। समय बदल गया था।  अधिकारी, सुरक्षाकर्मी “आधुनिक समाज के उपज” थे।   

बहरहाल, दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को अपने अनुज राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के तीनों पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र राजकुमार शुभेश्वर सिंह से अधिक स्नेह, प्रेम, लगाव था। हो भी क्यों नहीं। महाराजाधिराज के जीवन काल में उनके राज दरभंगा का सबसे छोटा संतान थे वे, अतः स्वाभाविक है। राजा बहादुर के सबसे बड़े पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह बेहद शिक्षित थे, सम्मानित थे, खूबसूरत थे। समयांतराल उन्होंने एक दूसरी शादी भी कर ली। उनसे जो छोटे भाई यज्ञेश्वर सिंह को, जैसा कहा जाता है, राज-पाट से बहुत लगाव नहीं था। इसलिए महाराजाधिराज का राजकुमार शुभेश्वर सिंह, जो नाबालिग थे उस समय, के प्रति झुकाव होना स्वाभाविक था। कहा जाता है कि महाराजाधिराज उन्हें इतना अधिक स्नेह करते थे, उनकी कमजोरी हो गए थे, कि वे कुमार शुभेश्वर सिंह को दरभंगा से बाहर जहां शिक्षा ग्रहण कर रहे थे वे,  शैक्षिक कार्य को बीच में ही रोककर वापस दरभंगा ले आये थे और उम्मीद किये थे की स्थानीय विद्वानों के बीच वे शिक्षा प्राप्त कर लेंगे। 

राज दरभंगा के बहुत करीबी सूत्र का कहना है कि कुमार शुभेश्वर सिंह के पास प्राक-विश्वविद्यालयीय योग्यता भी नहीं थी,  परन्तु मानवीयता अपने उत्कर्ष पर था। यह भी कहा जाता है कि “वे कभी नहीं चाहते थे कि उनके राज के अधीन, या उनके आर्यावर्त-इण्डियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र/पत्रिका में काम करने वाले कामगारों को, उनके परिवारों को, बाल-बच्चों को उनके रहते कभी कोई तकलीफ नहीं हो।” परन्तु, प्रारब्ध को कौन जानता है। वे नहीं जानते थे की भविष्य में उनके चतुर्दिक जो भी दो-पाया जीव होगा, दरभंगा से लेकर पटना के रास्ते, दिल्ली-कलकत्ता तक, जो भी लोगबाग उनके समीप आएंगे, वे सभी “लोभी”, “अवसरवादी” “स्वयंभू” “छल – प्रपंची”, “चक्रव्यूह रचनाकार” जैसे “आधुनिक सामाजिक गुणों से सज्ज” होंगे। वे कभी भी, किसी भी समय अपने हित में उन्हें छल करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। लोग, अथवा आज का उनका परिवार इस बात को स्वीकार करे अथवा नहीं, लेकिन यह सच है की उनके इर्द-गिर्द रहने वालों में 90 फीसदी लोग उनके “हितैषी” नहीं थे। खैर। 

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दस्तावेज भी गवाह है की महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की नजर में राजकुमार शुभेश्वर सिंह का क्या महत्व था। दस्तावेजों को उद्धृत करते सूत्र का कहना है कि “जब महाराजाधिराज के सबसे बड़े भतीजे दूसरी शादी कर लिए, महाराजाधिराज तनिक सचेत हो गए। इसलिए महाराजाधिराज अपने मृत्यु से पूर्व जब वसीयतनामा बनाये या बनबाये, उस वसीयतनामे में सम्पत्तियों के प्रारंभिक बंटबारे के साथ साथ, इस बात का विशेष ध्यान रखे की उनकी पत्नियों को जीते-जी किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हो, यहाँ तक सम्पत्तियों का प्रश्न है। 

हाँ, उनकी महारानियों की मृत्यु के पश्चात महारानियों की सम्पत्तियों (वसीयतनामे का सिड्यूल ए और सिड्यूल बी) पर उनके सबसे छोटे भतीजे, यानी कुमार शुभेश्वर सिंह का आधिपत्य होगा। साथ ही, उनकी महारानियों की मृत्यु के बाद सम्पूर्ण सम्पत्तियों का एक-तिहाई हिस्सा राजकुमार शुभेश्वर सिंह के बच्चों का होगा, बशर्ते राज कुमार शुभेश्वर सिंह अपनी शादी अपने ब्राह्मण समुदाय में करें और बच्चे उसी ब्राह्मण समुदाय की पत्नी से जन्म ले। और एक-तिहाई हिस्सा अन्य भतीजों के संतानों को मिलेगा।” ध्यान रहे कि अन्य भतीजों के संतानों के बारे में महाराजाधिराज ने कोई भी ऐसी शर्त नहीं रखे की बच्चे की माँ ब्राह्मण समुदाय की ही हो।  राजकुमार शुभेश्वर सिंह की मृत्यु सन 2004 में हुई जबकि उनकी पत्नी उनसे पहले महादेव के शरण में अपनी उपस्थिति लगा दी थी। 

महाराजा का किला दरभंगा में 

अब सवाल यह है कि  दिनांक 31 मार्च, 2002 में दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के तरफ से पाटलिपुत्रा बिल्डर्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा प्रेषित “मेमोरेंडम ऑफ़ अग्रीमेंट एंड सेटलमेंट” पर जो भी लोग हस्ताक्षर किये, उसमें उक्त संस्थान का मालिक कहाँ  था? हस्ताक्षर कर्ताओं में जिनका नाम उल्लिखित था वे थे: श्री एस एन दास, जो उस दिन निदेशक थे कंपनी के, श्री दिनेश्वर झा, मैनेजर; एम एम आचार्य, एक्टिंग सेक्रेटरी; श्री सी एस झा, एकाउंट्स ऑफिसर। सब समय है। जबकि क्रेता पाटलिपुत्रा बिल्डर्स के तरफ से कंपनी के निदेशक श्री अनिल कुमार (स्वयं) और उनके एक प्रतिनिधि श्री आनंद शर्मा। दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमटेड के कर्मचारी यूनियन के तरफ से थे श्री गिरीश चंद्र झा (अध्यक्ष), दिग्विजय कुमार सिन्हा (जेनेरल सेक्रेटरी), श्री एस एन विश्वकर्मा, जॉइंट सेक्रेटरी, श्री रमेश चंद्र झा, जॉइंट सेक्रेटरी और बिहार वर्किंग जर्नलिस्ट्स यूनियन के तरफ से हस्ताक्षर करता थे श्री शिवेंद्र नारायण सिंह (प्रेसिडेंट), श्री मिथिलेश मिश्रा (एग्जीक्यूटिव) । 

राजकुमार शुभेश्वर सिंह की मृत्यु से दो वर्ष पहले उस “मेमोरेंडम ऑफ़ अग्रीमेंट एंड सेटलमेंट” पर हस्ताक्षर हुआ था। उस समय कुमार शुभेश्वर सिंह, जो दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के मालिक भी थे, उस भूमि के स्वामी भी थे, जहाँ वह अखबार का दफ्तर था और वे ही लम्बे समय तक अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक भी थे। फिर, अचानक अनिल नंदन सिंह ‘दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशन्स लिमिटेड के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक’ कैसे हो गए?  

उस समय शायद चार-सदस्यीय ही बोर्ड था जिसमें अनिल नंदन सिंह के अलावे प्रकाश मिश्र (मुद्दत से शुभेश्वर सिंह के साथ रहते थे, अब दिवंगत), एस एन दास और संभवतः शुभेश्वर सिंह के बड़े पुत्र भी थे । अनिल नंदन सिंह शुभंकरपुर ड्योढ़ी के थे और शुभेश्वर सिंह के रिस्तेदार भी थे। लेकिन इस बात को स्पष्ट करने में अक्षम रहे ही आखिर उस चार सदस्यीय निदेशक-मंडल में एक मालिक होने के बाद भी, एस एन दास को “उस करारनामे पर हस्ताक्षर करने को क्यों कहा गया जिस करारनामे में कर्मचारियों के बाकी-बकियौता के बारे में, सैकड़ों कर्मचारियों के तनखाह के बारे में, भविष्यनिधि बकाये के बारे में या अन्य बकाये राशियों के बारे में एक शब्द भी उद्धृत नहीं था।” दास साहेब अड़ियल घोड़े जैसा हस्ताक्षर करने के विरुद्ध खड़ा हो गया।  समय अर्धरात्रि का था और स्थान मेसर्स पाटलिपुत्रा बिल्डर्स का दफ्तर जो होटल रिपब्लिक के बगल में था। 

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प्रारब्ध देखिये, उस रात से कोई 20-वर्ष पहले जिस होटल के कक्ष में प्रदेश के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर आर्यावर्त-इंडियन नेशन-मिथिला मिहिर पत्र समूह के मालिक के सामने कुर्सी पर बैठने की हिम्मत नहीं जुटा पाए थे,  उस रात “उसी समाचार पत्र समूह के हस्ताक्षर के लिए अधिकृत निदेशक को एक कमरे में बंद कर दिया जाता है और अपने कार्यालय के ही नहीं, कर्मचारी यूनियन के प्रतिनिधि ही नहीं, अनेकानेक अन्य व्यक्ति, जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दोनों पक्ष से जुड़े थे, हस्ताक्षर के लिए दास साहेब को मजबूर कर रहे थे।”  इस कष्टदायक रात में उस “संस्थान का कोई भी मालिक भौतिक रूप से” दास साहेब के समक्ष नहीं था। इस सम्पूर्ण घटना की सूचना कुमार शुभेश्वर सिंह को प्राप्त होता है “टेलीफोनीकल्ली” और जब उन्हें “हस्ताक्षर नहीं करने का कारण बताया जाता है”, तब वे कुछ देर रुक कर, दास साहेब की बातों को करारनामे में सम्मिलित करने की बात पर डट जाते हैं।  

करारनामे में कर्मचारियों के बाकी-बकियौते के भुगतान के बारे में, उनके भविष्य निधि के भुगतान के बारे में, उनके ग्रेच्युटी के भुगतान के बारे में, लंबित मासिक वेतन के भुगतान के बारे में पैराग्राफ जोड़ा जाता है। फिर दास साहेब हस्ताक्षर करते हैं और तदनुसार 31 मार्च, 2002 से सम्पूर्ण सम्पत्ति मेसर्स पाटलिपुत्रा बिल्डर्स का हो जाया है इस विश्वास के साथ कि इस करारनामे में लिख शब्दों का, हस्ताक्षर करने वालों के विश्वास के साथ वह क्रूर मजाक नहीं करेगा और कर्मचारियों को, भूस्वामी को तदनुसार सभी प्रकार के कर्ज और बकाये से मुक्ति दिलाएगा। 

यह गुथ्थी आज तक सुलझ नहीं सका है कि आखिर किसके मन में क्या चल रहा था उस करारनामे को लेकर। कौन था जो कर्मचारियों के हितों के खिलाफ था? करारनामे की सम्पूर्ण बातें हस्ताक्षर कराने की स्थिति से पूर्व कुमार शुभेश्वर सिंह को अथवा बोर्ड के अन्य सदस्यों को – मसलन दी न्यूज पेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमिटेड के अध्यक्ष-सह-प्रबंध निदेशक अनिल नंदन सिंह को, प्रकाश मिश्र को, दास साहेब को अथवा चौथे सदस्य को – क्यों नहीं दिखाया गया? 

इस सम्भावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि शुभेश्वर सिंह, प्रकाश मिश्र, अनिल नंदन सिंह, कर्मचारी यूनियन, पत्रकार यूनियन के सभी लोग इस बात से वाकिफ थे की इस करारनामे में कर्मचारियों के हितों के रक्षार्थ एक भी शब्दों का उल्लेख नहीं है। सभी इस उम्मीद में थे कि कुमार शुभेश्वर सिंह के आदेश को (हस्ताक्षर करने के आदेश को) बोर्ड के सदस्यों द्वारा  “इंकार” नहीं किया जा सकता । क्यों सर्वप्रथम दास साहेब से हस्ताक्षर के लिए सभी गोलबंद हो गए थे – वजह बहुत ठोस था, वे प्रबंधन द्वारा अधिकृत थे। 

अब सवाल यह है कि विगत 19 सालों में वह कार्य  संपन्न नहीं हो सका जो अधिकतम दो साल में हो जाना चाहिए था, जहाँ तक कर्मचारियों के बाकी-बकियौते का भुगतान का सवाल है। आज 19 साल बाद भी कर्मचारी कुहर रहे हैं और उस भूखंड के स्वामी शांत हो गए हैं। यह तय करना, समझना बहुत मुश्किल है कि कुमार शुभेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद (उनकी मृत्यु 2004 में होती है) उनकी अगली पीढ़ी को, जो स्वतः अपने पिता की सम्पूर्ण सम्पत्तियों का उत्तराधिकारी है, वारिस है – पाटलिपुत्रा बिल्डर्स अफने रिश्ते को बरकरार रखने के लिए भुगतान कर दिया हो। फ़्रेज़र रोड स्थित उस विशालकाय कॉम्प्लेक्स में कर्मचारियों के हिट के लिए सुरक्षित 45 फीसदी क्षेत्र पर सम्पूर्ण अधिकार दे दिया हो ……….. क्रमशः 

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