कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति कहते हैं : “वर्तमान स्थिति दु:खद है” (भाग-26)

महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह और कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ शशिनाथ झा

दरभंगा : दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहुत ही भाग्यशाली व्यक्ति थे जिन्होंने अपनी मृत्यु से महज 29 माह पहले एक अमर-इतिहास की रचना कर दिए – कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के अनुसार दरभंगा में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ-साथ ‘लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद’ को दान-देकर और इसके लिए तत्कालीन शिक्षा मंत्री सत्येंद्र नारायण सिंह को महाराज ने धन्यवाद दिया। भवन अर्पित करने से सम्बंधित आयोजन में महाराज अपनी अश्रुपूरित आंखों से उपस्थित महानुभावों को, देवियों को, सज्जनों को यह भी कहा कि “जिस वस्तुओं को किसी ने अपने बाल्यकाल से ही न केवल प्यार किया हो, बल्कि समादर भी किया हो, उनसे अलग होना सामान्यतः दुःखद होता है।”

अगर इस पुनीत कार्य को अपने हाथों किये बिना महाराजाधिराज अंतिम सांस ले लेते, तो शायद उनके शरीर का पार्थिव होने के साथ ही, उनकी अगली पीढ़ियां, भारत के घुटने कद से लेकर ठेंघुने कद के छुटभैय्ये नेताओं, गली के नुक्कड़ों पर पनपे व्यवसायियों के हाथों कौड़ी के भाव में ‘महाराज के उस बहुमूल्य खजाना’ को बेच दिए होते या फिर भारत के विभिन्न न्यायालयों में उस संपत्ति के विरुद्ध दादी-चाचा-चाची-भाई-भतीजे सभी दावेदारों के रूप में वादी और प्रतिवादी के रूप में खड़े हुए होते। क्योंकि “महाराजाधिराज के खजाने का संवेदनात्मक मूल्य” आज की पीढ़ी नहीं समझी। अगर समझी होती तो शायद दरभंगा राज की किसी भी संपत्ति का “विनाश” नहीं हुआ होता, महाराजाधिराज का ह्रदय आर्यावर्त इंडियन नेशन इस तरह मिट्टी में दफ़न नहीं हुआ होता। 

सन 1960 के 30 मार्च को महाराजाधिराज द्वारा पटना में स्थापित दि इण्डियन नेशन समाचार पत्र में “लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद” को दान-स्वरुप देने के उपलक्ष्य में वहां उपस्थित महामानवों के सम्मुख, सर कामेश्वर सिंह अश्रुपूरित आखों से जो भाषण दिए थे, उस भाषण के शब्द कुछ ऐसे थे : 

डॉ जाकिर हुसैन साहब, बिहार केसरी, महिलाओं और सज्जनों !

“जिस वस्तुओं को किसी ने अपने बाल्यकाल से ही न केवल प्यार किया हो बल्कि समादर भी किया हो, उससे अलग होना सामान्यतः दुःखद होता है, किन्तु राज्यपाल जी ने और मुख्यमंत्री महोदय ने जो संस्कृत विश्वविद्यालय का केंद्र बनाने के लिए उसे ग्रहण करने की कृपा कर, स्वयं यहां पधारने का कष्ट किया है, इससे मुझे प्रसन्नता है। 

डॉ जाकिर हुसैन साहब, मैं आपका अत्यंत कृतज्ञ हूँ, जो स्वयं आपने कृपापूर्वक आज के अपरान्ह में यहाँ पधारने का कष्ट किया। मैं अपने मुख्यमंत्री महोदय का भी आभारी हूँ, जिन्होंने न केवल मेरे अनुरोध को स्वीकार ही किया, बल्कि मिथिला में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना में गहरी दिलचस्पी ली। यदि हमारे शिक्षा मंत्री महोदय का उनके पदभार ग्रहण करने के समय से ही लगातार समर्थन और सहयोग नहीं प्राप्त होता, तो शायद यह स्वप्न साकार नहीं हो पाता। संस्कृत की विद्वता के सम्मान में आज से चार सौ वर्ष पहले हमारे पूर्वज महामहोपाध्याय महाराज महेश ठाकुर को बादशाह अकबर ने तिरहुत का राज्य दिया था। इसलिए यह बिलकुल उचित है कि हमारा संस्कृत पुस्तकालय, जिसको हमारे पूर्वजों ने वंश परंपरा से विगत शताब्दी में संघटित किया है, वह संस्कृत विश्वविद्यालय के पुस्तकालय का केंद्र बने। यह भी उचित है कि लक्ष्मीश्वर विलास प्रसाद जो कि केवल हमलोगों का घर ही नहीं था, बल्कि वह स्थान था, जहाँ अनेक वर्षों तक राज के अनेक प्रकार के उत्सव होते रहे, वह संस्कृत विश्वविद्यालय का स्थान बने। मुझे पूर्ण विश्वास है कि संस्कृत विश्वविद्यालय केवल जीवित ही नहीं रहेगा बल्कि इस प्राचीन भूमि में जो कुछ भी उत्तम तत्व है, उसको प्रोत्साहित करेगा और उसका उद्धार करेगा। इसी विश्वास के साथ मैं आपके हाथों में वह बहुमूल्य खजाना सौंप रहा हूँ, जो मैंने पैतृक संपत्ति के रूप में पाया है, और विश्वास करता हूँ कि आपके छत्र-छाया में संस्कृत शिक्षा की श्री-वृद्धि होगी। संस्कृत सदा मर रहे।” 

यह भाषण महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह कल्याणी फाउंडेशन से मिला है। इस भाषण को पढ़ने के पश्चयात कोई भी व्यक्ति, जिसके ह्रदय में अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान होगा, उनके द्वारा अर्जित सम्पतियों, संरक्षित धरोहरों के प्रति आदर होगा, जरूर अश्रुपूरित होगा। परन्तु, यह भाषण उन लोगों के लिए कतई नहीं है, चाहे महाराजाधिराज की पीढ़ियां ही क्यों न हों, क्योंकि अगर उनमें अपने पूर्वजों की सम्पत्तियों के प्रति, उनके सम्मान के प्रति ‘सम्मान’ होता तो शायद दरभंगा राज की आज जो स्थिति हैं, नहीं होता। 

अपनी मृत्यु से 52-दिन पहले दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपने कलकत्ता निवास से 9 अगस्त, 1962 को बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री श्री सत्येंद्र नारायण सिंह को एक पत्र लिखे थे ।पत्र में महाराजाधिराज सत्येंद्र नारायण सिंह से अनुरोध किये थे कि इस पत्र की कृपया अपने पत्रांक 1945, दिनांक 11 जुलाई, 1962 का निर्देश करें। महाराजाधिराज लिखते हैं: “यह बात अपने कानों तक पहुंची है कि कुछ ऐसे कॉलेजों को जो संस्कृतेतर विषयों के अध्यापन करते हैं और राज्य में कार्य करने वाले क्षेत्रीय विश्वविद्यालय के अधिकार क्षेत्र में उचित रूप से हैं, संस्कृत विश्वविद्यालय के अधिकार क्षेत्र में लाकर इसके रूप में परिवर्तन करने की चेष्टा की जा रही है। मेरी समझ से संस्कृत विश्वविद्यालय का मुख्य उद्देश्य, पाली और प्राकृत के साथ संस्कृत का विशिष्ट ज्ञान देना होना चाहिए जिससे की प्राचीन विद्वता की रक्षा हो और यथा-संभावदयातन बनाया जा सकते। इस विश्वविद्यालय की विशिष्ट स्वरूप में रक्षा अवश्य ही होनी चाहिए। मैंने इस विश्वविद्यालय के लिए  जो दान दिया है वह इसलिए दिया कि मेरे पूज्य पिताजी की इक्षा को इससे पूर्ति होती थी।  “यदि इस विश्वविद्यालय को क्षेत्रीय सामान्य विश्वविद्यालय का रूप दिया जाएगा तो मैं समझूंगा कि मेरा दिया हुआ दान बर्बाद हो गया। ”

महाराजाधिराज आगे लिखते हैं: यदि सरकार मिथिला में एक क्षेत्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करे तो मैं इसकव स्वागत करूँगा किन्तु उसे संस्कृत विश्वविद्यालय के साथ किसी भी रूप में मिलाना नहीं चाहिए जो कि एक निश्चित उद्देश्य और निश्चित विचार से स्थापित किया गया है। वह विश्वविद्यालय इससे सर्वथा पृथक रहना चाहिए। इतना ही नहीं, सम्भवतः जिस लिफ़ाफ़े में महाराजाधिराज को पत्र-प्रेषित किया गया था, अथवा पत्र में सावधान किया गया था, उसमें “श्व” के स्थान पर “स्व” लिखा था। यह महाराजाधिराज को अच्छा नहीं लगा। इसलिए शिक्षा मंत्री के जवाबी पत्र में उन्होंने बहुत ही “शालीनता” के साथ लिखे: “मेरे नाम का शुद्ध विवरण ‘कामेश्वर सिंह’ है न कि ‘कामेस्वर सिंह।” मेरे पास भेजे गए विधेयक के प्रारूप पर मुझे सामान्यतः कोई टिप्पणी नहीं करनी है। किन्तु यदि इसमें कोई परिवर्तन हुआ तो स्थिति भिन्न हो जाएंगी – भवदीय, कामेश्वर सिंह। 

कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ शशिनाथ झा

आर्यावर्तइण्डियननेशन(डॉट)कॉम से बात करते हुए कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के 41 वें कुलपति के रूप में योगदान दिए डॉ शशिनाथ झा कहते हैं: “आज जो भी देख रहा हूँ, अन्तःमन से दुखी हो जाता हूँ। महाराजा-काल में दरभंगा में जो शानो-शौकत था, जो तेवर थे, जो खुशियां थी, जो रौनक था – आज वीरान हो गया है। उन दिनों दरभंगा के चौरंगी पर सड़कों की स्थिति को देखकर लोट-पोट करने की इक्षा होती थी। उस दृश्य का वर्णन नहीं किया जा सकता है। उस ज़माने में जो अनुशासन था, लोगों में जो स्नेह-प्रेम था, आज लुप्त हो गया है। मैं सन 1963 में तीसरे बार दरभंगा आया था प्रथम की परीक्षा देने, दृष्ट देखकर रोने लगा। अन्तःमन बिलख गया। उससे पहले जब आये थे, महाराज जीवित थे, दरभंगा राज के प्रवेश द्वार ही नहीं, सम्पूर्ण परिसर में सैकड़ों सुरक्षाकर्मी, सजधज कर बैठे दिखाई दिए थे। सबों के चेहरों पर तेज था, चमक था। परन्तु इस परीक्षा-यात्रा के समय दृश्य देखकर मन विह्वल हो गया। आत्मा रोने लगी। महज कुछ महीने में ही सम्पूर्ण दृश्य अधोगति की ओर उन्मुख हो गया, जो न केवल दरभंगा राज के लिए, बल्कि मिथिलांचल के लिए शुभ संकेत नहीं था। आज जब देखता हूँ तो लगता है साठ-वर्ष [पहले जो एहसास हुआ था, गलत नहीं था।”

डॉ शशिनाथ झा आगे कहते हैं: “हम 12-वर्ष के थे जब पहली बार महाराजाधिराज को दूर से देखा था। हम अपने ननुभाई के साथ दरभंगा आये थे। महाराजाधिराज के साढ़ू थे जिन्हे लोग स्नेह से ‘लोल बाबू’ कहते थे। हम उनके साथ ही दरभंगा आये थे। उन दिनों दरभंगा आने का ही अर्थ ही महत्वपूर्ण होता था। यहाँ महाराजाधिराज रहते थे। महल में सार्वजनिक प्रवेश नहीं था। फिर भी एक क्षण महाराजाधिराज को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। बच्चा था, लेकिन उनकी भव्यता को देखकर मन प्रफुल्लित हो गया। फिर सन 1960 में जब एक वे दरभंगा में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए वे अपने पूर्वजों को, अपने कलेजे के टुकड़े को, जहाँ वे अपना बचपन गुजारे थे, खेले-कूदे थे, अनेकानेक उत्सव हुए उस महल में; “लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद” को दान दे रहे थे, मैं भी उनके भाषण को सुना रहा था। वे अश्रुपूरित थे। उनका कंठ बार-बार अवरुद्ध हो रहा था। लेकिन वे भारत में संस्कृत-विद्या के भविष्य को सुरक्षित और संरक्षित रखने के लिए अपने कलेजे के टुकड़े को दान दे रहे थे। वे खुश थे।  आज उनकी मृत्यु के महज साठ साल बाद दरभंगा का वह रौनक, वह तेज, वह प्रकाश समाप्त हो गया।”

सत्तर-वर्षीय डॉ शशिनाथ झा कहते हैं: “दरभंगा राज की आज की पीढ़ियों में वो बात नहीं है जो महाराजा में था। उनकी मानसिकता और तत्कालीन महाराजों की मानसिकता की कोई तुलना नहीं की जा सकती है। डॉ शशिनाथ झा एक उद्धरण देते कहते हैं कि “इसका अंदाजा आप इस बात से ही लगा सकते हैं कि महाराजाधिराज के समय काल में विद्वानों को, समाज के प्रतिष्ठित लोगों को, अध्यापकों को, प्राध्यापकों को जो सम्मान मिलता था, जो आदर उन्हें दिया जाता था, उसका उल्लेख नहीं किया जा सकता हैं। लेकिन आज, दरभंगा राज की पीढ़ियों में वह बात नहीं है। पिछले दिन महाराजाधिराज के परिवार के एक दिवंगत सदस्य के लिए व्याख्यान होना था। कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय परिसर में ही आयोजन था। आयोजक में राज दरभंगा का ही परिवार था, परन्तु दुःख उस समय हुआ, जब व्याख्यानमाला में भाषण देने के लिए ‘वे स्वयं नहीं”, बल्कि “किसी के माध्यम से आमंत्रित प्रेषित किये। यह दुखद है। कष्टकारक है। यह गिरती, लुढ़कती मानसिकता का चरमोत्कर्ष है।” 

डॉ शशिनाथ झा कहते हैं: “आज रामबाग परिसर में भवनों की उपेक्षा देखकर, दीवारों पर पीपल-बरगद के बड़े-बड़े बृक्ष देखकर, रामबाग परिसर में बिकती जमीनों को देखकर, रामबाग परिसर में निजी लोगों के नए-नए भवनों को देखकर, आम-आवक-जावक रास्ता देखकर ह्रदय विह्वल हो उठता है, आँखें अश्रुपूरित हो जाती है। मन रोने को करता हैं। क्या था क्या हो गया। दरभंगा राज की दीवारें, ईंटें, ढ़हती दीवारें, दीवारों के रंग, उस पर मुद्दत से लगी काई, चतुर्दिक बड़े-बड़े घास सभी वर्तमान पीढ़ी की उपेक्षा की कहानी कहता है। दरभंगा राज में आज कोई नायक नहीं है। महाराजाधिराज की मृत्यु भी ‘आकस्मिक’ हुई। कोई उत्तराधिकारी नहीं हो पाया। कुछ दिन पूर्व पुरातत्व विभाग के कुछ लोग आये थे। इस विषय पर चर्चा भी हुई। लेकिन उन लोगों का कहना भी सार्थक ही था कि जब उन सम्पत्तियों पर उनका कोई अधिकार नहीं है, तो फिर वे उसके रखरखाव कैसे कर सकते हैं ?”    

बहरहाल, दिनांक 30-03-1960 को बिहार के तत्कालीन शिक्षा मंत्री के नाम लिखे गए पत्र में महाराजाधिराज ने लिखा कि दरभंगा नगर में अवस्थित ‘लक्ष्मीश्वर – विलास’ नामक अपना प्रसाद उसके आस-पास की सम्बद्ध भूमि के साथ ‘संस्कृत विश्वविद्यालय’ के लिए दान स्वीकार किया है बशर्ते कि वह विश्वविद्यालय दरभंगे में स्थापित और अवस्थित किया जाय और चूँकि बिहार विधान सभा द्वारा दरभंगे में  इस तरह के एक विश्वविद्यालय को स्थापित करने के लिए एक अधिनियम पारित किया जा चुका है, जिसको बिहार के राज्यपाल की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है  और चूँकि बिहार राज्यपाल ने दरभंगे में इस प्रकार का एक विश्वविद्यालय अगले सत्र से स्थापित करने का प्रस्ताव किया है और चूँकि सम्बद्ध भूमि के साथ अपने उपर्युक्त भवन को दरभंगे में “संस्कृत विश्वविद्यालय के उपयोग के लिए” दान देने को इच्छुक हैं, और चूंकि दान-ग्रहीता उपर्युक्त दान को स्वीकार करने को इच्छुक हैं और चुंकि एक उचित दान पात्र लिख देना आवश्यक है, अतः यह दान-पात्र प्रमाणित करता है कि :

दरभंगा नगर में अवस्थित लक्ष्मी-वर-विलास-प्रसाद” नामक भवन, उससे सम्बद्ध भूमि जिसका सम्पूर्ण विवरण परिशिष्ट ‘ए’ में दिया गया है तथा भूमि के नक़्शे में जिसे लाल और पीले रंगों में पृथक कर दिया गया है और जिसे ‘बी’ से चिन्हित किया गया है और जो इस दान पत्र का अंग है, उसे कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के उपबंधों के अनुसार स्थापित संस्कृत विश्वविद्यालय के उपयोग के लिए डाटा इसके दान ग्रहीता को हस्तान्तरित और पत्यर्पित करते हैं। दान ग्रहीता इस दान को स्वीकार करते हैं और कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय अधिनियम, 1960 के अनुसार स्थापित संस्कृत विश्वविद्यालय के लिए दान-पत्र के द्वारा प्रदत भवन और भूमि का उपयोग करने को सहमत होते हैं। 

दाता को नरगौना स्थित अपने आवासीय प्रसाद में आने जाने के मार्ग के उपयोग को अधिकार रहेगा जो मार्ग लक्ष्मीश्वर विलास-प्रसाद के सटे पूर्व से निकलता है और जिसे “बी” चिन्हित नक़्शे में पीले रामनग से पृथक दिखया गया है और उनके यातायात के अधिकार का उपयोग दाता और उनके कार्यकर्त्ता नरगौना प्रसाद में जाने-आने में कर सकते हैं। लक्ष्मीश्वर विलास प्रसाद के सटे पश्चिम में अवस्थित तलाबन के सटे दक्षिण में पश्चिम से पूर्व की ओर जाने वाली सड़क, जिसे पृथक कृत तथा बी चिन्हित नक़्शे में हरे रंग में दिखलाया गया है, विश्वविद्यालय में आने जाने वाले लोगों के उपयोग में आयेगी, किन्तु सामान्य जनता या अन्य कार्य के लिए खुली नहीं रहेगी। लक्ष्मीश्वर विलास प्रासाद के सटे पूर्व से जाने वाली सड़क पर, जहाँ दान में दी गयी भूमि का  अंत होता है, दाता एक फाटक बनवा सकते हैं। जिनके प्रमाण के रूप में यह दान पात्र लिख दिया है और दान ग्रहीता ने दान स्वीकार करने के प्रमाण में अपना हस्ताक्षर कर दिया है। 

ज्ञातब्य हो कि महाराजाधिराज द्वारा उनकी दोनों पत्नियों को दी गयी संपत्ति, रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और चेरिटेबल ट्रस्ट को देखने वाले जो भी ट्रस्टीज थे, सभी मृत्यु को प्राप्त किये। उन शृंखला में अब महज महारानी अधिरानी कामसुन्दरी जीवित हैं।  वे भी कोई नब्बे की आयु में हैं। स्वाभाविक है राजा-रानी की सम्पत्तियों का “मानसिक” देखभाल करने वालों की किल्लत होना, क्योंकि “आर्थिक” लाभ के लिए तो सभी “सजग” हैं ही । अगर “मानसिक” रूप से कोई होते तो सम्पत्तियों के विशाल अम्बार के बाबजूद रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा की दीवारें, ईंटें, खम्भे, छत हतास होकर अपने परिवार के लोगों की ओर नहीं देखता !! बहुत दुःखद वृतांत हैं। समय मिले तो महाराजाधिराज दरभंगा के किसी भी भवन के सामने खड़े होकर भवन से बात करें, उससे पूछें कैसे हो तुम? विश्वास करें वह भोकार पारकर, चीत्कार मारकर, हिचकी लेकर अगर अपनी व्यथा नहीं कहे तो महाराजा द्वारा स्थापित अख़बारों के नामों को – आर्यावर्त – दि इण्डियन नेशन –  किसी “निर्जीव” का नाम दे देंगे। 

कहा जाता है कि दरभंगा राज लगभग 2410 वर्ग मील में फैला था, जिसमें कोई 4495 गाँव थे, बिहार और बंगाल के कोई 18 सर्किल सम्मिलित थे। दरभंगा राज में लगभग 7500 कर्मचारी कार्य करते थे। आज़ादी के बाद जब भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुआ, उस समय यह देश का सबसे बड़ा जमींदार थे। इसे सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। लोक-चित्रकला, संगीत, अनेकानेक विद्याएं या क्षेत्र की पूंजी थी। लोगों का कहना है कि वर्त्तमान स्थिति के मद्दी नजर, दरभंगा राज के सभी लोगों की निगाह दरभंगा राज फोर्ट यानी करीब 85 एकड़ भूमि के बीचोबीच स्थित रामबाग का विशाल भवन है। आज भवन की कीमत जो भी आँका जाय, इस सम्पूर्ण क्षेत्र यानी दरभंगा के ह्रदय में स्थित 85 एकड़ भूमि की व्यावसायिक कीमत क्या होगी, यह आम आदमी नहीं सोच सकता है। वजह भी है : सरकारी आंकड़े के अनुसार “दरभंगा के लोगों का प्रतिव्यक्ति आय 15, 870/- रूपया आँका गया है और इतनी आय वाले लोग लाख, करोड़, अरब, खरब रुपयों के बारे में सोच भी नहीं सकते। वह जीवन पर्यन्त उस राशि पर कितने “शून्य” होंगे, सोचते जीवन समाप्त कर लेगा। परन्तु सोच नहीं पायेगा। 

ज्ञातव्य हो कि कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय देश का महत्वपूर्ण संस्कृत विश्वविद्यालय है और इसका पुस्तकालय बेहद बेहतरीन हैं। इसके अतिरिक्त देश में संस्कृत भाषा और साहित्य को बढ़ाने, सुरक्षित रखने के लिए अनेकानेक शैक्षणिक संस्थाएं हैं।  इनमें कुक्ह बेहद पुराने हैं और कुछ नए खोले गए हैं।  लालबहादुर शास्त्री नेशनल संस्कृत यूनिवर्सिटी, जिसका पहले नाम श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ था एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय भारत की राजधानी नई दिल्ली में स्थित है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना 8 अक्टूबर 1962 को हुई थी। यदि देखा जाए तो उसी वर्ष, उसी माह, महज एक दिन पूर्व महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह का शरीर पार्थिव हुआ था। इसके अतिरिक्त देश में दूसरा संस्कृत विश्वविद्यालय है ‘राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ’, जो  एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और आंध्र प्रदेश के तिरुपति स्थित है।  इस विश्वविद्यालय की स्थापना भारत सरकार द्वारा गठित केंद्रीय संस्कृत आयोग की अनुशंसा पर 1956 में किया गया लेकिन इसका शिलान्यास का शिलान्यास 4 जनवरी 1962 को तत्कालीन उप-राष्ट्रपति डॉ॰ एस॰ राधाकृष्णन ने किया। राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ का औपचारिक रूप से उद्घाटन 26 अगस्त 1989 को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री आर वेंकटरमन के द्वारा किया गया। यव विश्वविद्यालय, बाद में 1991-92 से एक मानित विश्वविद्यालय के रूप में काम करना शुरू किया। संस्कृत के विकास के लिए ‘मद्रास संस्कृत कालेज’ का नाम भी सर्वोपरि है। इसकी स्थापना सन 1906 में एक प्रख्यात न्यायविद और परोपकारी वी. कृष्णस्वामी अय्यर ने की थी। इसी तरह, पश्चिम बंगाल के कोलकाता में ‘संस्कृत कॉलेज और यूनिवर्सिटी’ है, जिसकी स्थापना 1 जनवरी 1824 को करीब 197 साल पहले एक संस्कृत कॉलेज के रूप में हुई थी बाद में चलकर सन 2016 में इसे एक यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया गया। पुणे का ‘पूना संस्कृत कॉलेज या डेकन कॉलेज’ भी एक प्रसिद्ध शिक्षण संस्थान है। मौजूदा समय में इसका नाम डेक्कन कॉलेज परास्नातक एवं अनुसंधान संस्थान है। यह कॉलेज  प्रमुख रूप से पुरातत्व एवं भाषाविज्ञान के शिक्षण के लिये मशहूर है। भारत में आधुनिक शिक्षा के सबसे पुराने संस्थानों में से एक है। यह एक डीम्ड विश्वविद्यालय है जिसकी स्थापना 6 अक्टूबर सन 1821 को हिन्दू कालेज नाम से हुई थी।

संस्कृत शिक्षा के प्रचार-प्रसार में ‘सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय’  बनारस का नाम भी अद्वितीय है। यह एक संस्कृत विश्वविद्यालय है और यह संस्कृत से सम्बन्धित सभी विषयों के लिए उच्च शिक्षा का केन्द्र है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1791 में की गई थी। इसका तात्कालिक नाम वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय था। बाद में 22 मार्च 1958 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ सम्पूर्णानन्द ने इसे विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान कर दिया। बाद चलकर सन् 1974 में इसका नाम बदलकर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय रख दिया गया। इसी तरह, ‘श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय’  की स्थापना 1981 में संस्कृत भाषा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से की गई थी। फिर ‘श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय’, की स्थापना कोच्चि के नजदीक कलाडी (केरल), 1993 में की गई, का नाम महान ऋषि और दार्शनिक आदि शंकराचार्य के नाम पर रखा गया है। महाराष्ट्र के रामटेक में ‘कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय’ है जिसकी स्थापना 18 सितंबर 1997 को महान कवि कालिदास के नाम पर की गई। यह विश्वविद्यालय नवीन शैक्षणिक पाठ्यक्रम के साथ साथ पारंपरिक संस्कृति को संरक्षित करता है इसके अलावा यह विश्वविद्यालय प्राचीन भारतीय संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन पर भी जोर देता है। इसी तरह, ‘जगद्गुरु रामानंदाचार्य राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय’  राजस्थान के मदाऊ में स्थित है, जिसकी स्थापना 6 फरवरी 2001 को की गई। पहले इस विश्वविद्यालय का नाम राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय था। उत्तराखंड में भी ‘उत्तराखंड संस्कृत विश्वविद्यालय’ है।  सं 2005 में ही ‘श्री सोमनाथ संस्कृत विश्वविद्यालय’ की स्थापना  गुजरात के वेरावल की गई, जिसका मुख्य उद्देश्य सांस्कृतिक और भाषा के विरासत को संरक्षित रखना है। 

‘श्री वेंकटेश्वर वैदिक विश्वविद्यालय की स्थापना 2006 में तिरुपति, चित्तूर जिले में हुई। यह एक राज्य विश्वविद्यालय है जो वैदिक अध्ययनों पर केंद्रित है। इसी तरह, ‘महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय’ मध्यप्रदेश के उज्जैन में है। फिर  संस्कृत भाषा के विकास के लिए ‘कर्नाटक संस्कृत विश्वविद्यालय’ की स्थापना बेंगलोर में की गई। इसी तरह सं 2011 में ‘कुमार भास्कर वर्मा संस्कृत और प्राचीन अध्ययन विश्वविद्यालय’ की स्थापना असम में हुई और फिर हरियाणा के कैथल में ‘महर्षि वाल्मीकि संस्कृत विश्वविद्यालय’ की स्थापना 2018 में किया गया। 

क्रमशः

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