पटना कॉलेज @ 160 वर्ष : एक तस्वीर जो पटना कॉलेज के प्राचार्य-पुत्र-सहकर्मी-सहपाठियों का अनूठा दृष्टान्त है (14)

पटना कॉलेज @ 160 वर्ष : एक तस्वीर जो पटना कॉलेज के प्राचार्य-पुत्र-सहकर्मी-सहपाठियों का अनूठा दृष्टान्त है

प्रोफ़ेसर चेतकर झा यानी चेतकर बाबा जब तक पटना कॉलेज के प्राचार्य के कार्यालय वाली कुर्सी पर बैठे थे और हमारे मित्र गिरीश के बाबूजी उनकी सेवा में उपस्थित हए थे, तब तक पटना कालेज क्या, बिहार के समस्त विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की शैक्षिक स्थिति, छात्र-छात्राओं की मानसिक स्थिति ‘उबले धान’ जैसा हो गया था। समय बीतने के साथ-साथ पटना के डाक बंगला चौराहे पर ही नहीं, दरभंगा के टाबर चौक पर, मुजफ्फरपुर के सूतापट्टी चौक पर, रांची के बिरसा मुंडा चौक पर छोटका-छोटका सफ़ेद पोश नेतागण कुकुरमुत्तों की तरह पनप रहे थे, जिन्हे शिक्षा से दूर-दूर तक कोई नाता-रिस्ता नहीं था। 

उन विगत वर्षों में प्रदेश में शिक्षा की जो स्थिति हुई, उसका परिणाम आज की पीढ़ी भी कर रही है। सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था को जिस कदर नेताओं ने, अधिकारियों ने, शिक्षकों ने निस्तोनाबूत किया, सरकारी क्षेत्र के शैक्षिक संस्थाओं को ‘अपंग’ बनाया गया, राजनेताओं और आला-अधिकारियों की मिली-भगत से निजी क्षेत्रों में शैक्षिक संस्थाओं को जिस कदर ‘दुधारू गाय’ बनाया गया, शिक्षा के नाम पर प्रदेश के लोगों का शोषण किया गया, किया जा रहा है, यह सर्वविदित है। 

इतना ही नहीं, इसी पटना कॉलेज से शिक्षा प्राप्त किये विद्यार्थी अपने जीवन-काल में भले विश्व-विजेता के अलंकरण से अलंकृत होकर अंतिम सांस लिए हों, आज भले विश्व में अपना नगारा-ढ़ोल पीटते/पिटबाटे हों; पटना कॉलेज के परिसर, कालेज की कक्षाओं, पुस्तकालयों, शैक्षिक वातावरण को देखकर यह अवश्य कहा जा सकता है, लिखा जा सकता है कि ‘उनमें’ और वर्तमान ‘राजनीतिक व्यवस्था’ में प्रदेश की शैक्षिक संस्थाओं के प्रति कोई लगाव नहीं था, है। अगर ऐसा नहीं तो कभी शैक्षिक जगत का ऑक्सफोर्ड कहा जाने वाला आज अपनी बिरानीयत पर नहीं रोता। 

उन दिनों पटना कॉलेज के सामने किताबों की दुकानों की संख्या भले कम थी, पढ़ने-पढ़ाने वालों की तादात, उनकी गुणवत्ता अपने-अपने उत्कर्ष पर था। आज इस कॉलेज के सामने भले किताबों की दुकानों की संख्या सैकड़ों – हज़ारों में पहुँच गई हो, वास्तविकता तो यही है कि आज शैक्षिक गुणवत्ता की कमी के कारण पटना कॉलेज की पहचान बक्सर और मुगलसराय से आगे तक नहीं पहुँच पाती है। बिहार के जो भी छात्र-छात्राएं राष्ट्रीय स्तर पर, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आज पंचम लहरा रहे हैं, वे सभी प्रवासित-पक्षी होते हैं । यह अलग बात है कि उन्हें अब्बल होते ही हम बिहार के लोग ‘बिहारी है – बिहारी है’ का ढ़ोल-नगारा पीटकर अपनी कमी को छिपाते हैं। इतना ही नहीं, आज बाबू नीतीश कुमार के मंत्रिमंडल में, प्रदेश की राजनीतिक व्यवस्था में कई लोग ऐसे हैं जो शिक्षा तो दिल्ली से ग्रहण किये, लेकिन अपनी पहचान बनाने, ‘तथाकथित’ रूप से प्रदेश की सेवा करने पटना प्रवासित हो गए हैं, पुनः मुस्को भवः हो गए हैं, हो रहे हैं – राजनीतिक गलियारे से। 

हम लोगों के ज़माने में पटना कालेज के छः ऐसे प्राचार्य हुए जो सम्भवतः कालेज प्रांगण के छात्र-छात्राओं को तो जानते ही थे, कॉलेज परिसर के बाहर सड़क पार की गलियों में रहने वाले गरीब-गुरबों के बच्चों को, चाहे रिक्शा चलाने वाले का बच्चा हो या दुकानदार का – जो कॉलेज परिसर में हुरदंग मचाते थे; नाम से ही नहीं, बाप के नाम से भी जानते थे। हम बच्चों की ही नहीं, हमारे माता-पिता की भी मानसिक और अनुशासनिक क्षमता नहीं होती थी कि वे उन प्राचार्यों के सामने नजर मिलाकर, नजर उठाकर बात कर सकें। उनकी नजरें हमेशा जमीन की ओर ही होती थी, फिर हम बच्चों की क्या औकात।

उन प्राचार्यों में सबसे पहले थे प्रोफ़ेसर परमेश्वर दयाल, प्रोफ़ेसर महेन्द्र प्रताप, प्रोफ़ेसर के पी अम्बष्ठा, प्रोफ़ेसर दामोदर ठाकुर, प्रोफ़ेसर केदार नाथ प्रसाद, और प्रोफ़ेसर चेतकर झा प्रमुख थे। इन सभी प्राचार्यों में एक चीज बहुत ही ‘सामान्य’ था – सबों की शारीरिक ऊंचाई पांच फीट आठ इंच से अधिक नहीं थी – लेकिन मानसिक ऊंचाई में कौन किससे अधिक है, तुलना करना कठिन ही नहीं, नामुमकिन भी था। 

प्रोफ़ेसर परमेश्वर दयाल सन 1971 के मई महीने में पटना कालेज के प्राचार्य बने और सन 1973 के जुलाई महीने तक रहे। प्रोफ़ेसर दयाल साहब का विभाग ‘भूगोल’ था जो हम लोगों के घर से 20 कदम पर था। भूगोल विभाग पटना कालेज के मुख्य प्रवेश द्वार के दाहिने हाथ पर था। वहां बाहर बगीचे में फूल-पौधों में पानी देने हेतु नल भी था। हम मोहल्ले के बच्चे उस नल का उपयोग स्वयं नहाने में भी करते थे और घर में पीने के लिए भी। प्रोफ़ेसर दयाल साहब कई मर्तबा हम लोगों को देखते थे, लेकिन कभी डांटते-फटकारते नहीं थे। देखकर मुस्कुरा अवश्य देते थे। उनके पास एक आसमानी रंग का अम्बेसेडर कार था। उन दिनों पटना कालेज ही नहीं, बिहार के सभी कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों में पांच फीसदी लोगों के पास चार-पहिया वाहन नहीं था। जिन महानुभावों के पास चार-पहिया होता था, वे कॉलेज परिसर के ही नहीं, समाज के संभ्रांतों में उनकी गिनती होती थी। उन दिनों क्या व्याख्याता, क्या प्राध्यापक और क्या प्राचार्य – रिक्शा का भरपूर प्रयोग करते थे।  

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प्रोफ़ेसर परमेश्वर दयाल, प्रोफ़ेसर महेन्द्र प्रताप, प्रोफ़ेसर के पी अम्बष्ठा, प्रोफ़ेसर दामोदर ठाकुर, प्रोफ़ेसर केदार नाथ प्रसाद और प्रोफ़ेसर चेतकर झा – इन पांच प्राचार्यों के कार्यकाल में हम सभी बच्चे सात वर्ष की उम्र से 27 वर्ष की उम्र के हो गए थे। स्कूली शिक्षा से प्रारम्भ कर कॉलेज की शिक्षा के साथ-साथ विश्वविद्यालय की शिक्षा भी समाप्त कर अपने-अपने जीवन लक्ष्य को प्राप्त करने के दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर दिए थे। इनमें प्रोफ़ेसर पी दयाल साहेब और प्रोफ़ेसर महेंद्र प्रताप साहेब को छोड़कर, मेरी माँ को सभी प्राचार्य महोदय, उनकी पत्नियां, उनके बच्चे व्यक्तिगत रूप से भी जानते थे। 

प्रोफ़ेसर अम्बष्ठा साहेब पटना कालेज के सामने एनी बेसेंट रोड में, जहाँ हम सभी किराये के मकान में रहते थे, मेरे मकान से तीन घर बाद उनका घर था – एकदम कुटिया नुमा, लाल रंग का। उनसे पहले ट्रेड यूनियन नेता-सह-अधिवक्ता अशोक त्रिवेदी जी रहते थे। अशोक त्रिवेदी @अशोक भैया के छोटे भाई त्रिवेदी अंबरीश यानी सुग्गन भैया आर्यावर्त अखबार के संवाददाता  भी थे। इसी सड़क के आगे नुक्कड़ पर टी के घोष अकादमी के हिंदी के शिक्षक का ‘साइंस एकेडमी’ और मकान के पीछे बहुत बड़ा खेत, जो पीछे पुरन्दरपुर मोहल्ला से जुड़ता था, था । लकड़ी का दरवाजा सीधा सड़क पर खुलता था। उन दिनों सड़क के दोनों तरफ खुली नालियाँ बहती थी। 

अम्बष्ठा साहेब के पांच बेटे थे – प्रेम कुमार, कृष्ण कुमार, अशोक कुमार, शशी शेखर और ज्योति शेखर । हम बच्चों का लगाब बड़े (प्रेम कुमार), बीच में शशि बाबू और छोटे (ज्योति शेखर) से ही था। प्रेम बाबू और ज्योति शेखर दोनों पटना विश्वविद्यालय में व्याख्याता ही थे। ज्योति शेखर को जिस दिन नौकरी हुई थी लवन चूस भी खिलाये थे मोहल्ले के बच्चों को। उन दिनों जब भी अम्बष्ठा साहेब से मिलने जाते थे, प्रायः सुबह में, वे अखबार लेकर बैठे होते थे और सम्पूर्ण अखबार को लाल-रंग में रंगे होते थे। कभी-कभार प्रोफ़ेसर प्रेम कुमार, यानि उनके बड़े पुत्र भी, एक छात्र जैसा अपने शिक्षक के सम्मुख खड़े मिलते थे। सेव-जैसा लाल चेहरा। 

प्रोफ़ेसर पी दयाल के बाद कोई 13 महीने के लिए प्रोफ़ेसर एस एम  सदरुद्दीन पटना कालेज के प्राचार्य बने। वे सं 1973 के अगस्त महीने में पहली तारीख को प्राचार्य कार्यालय में अपनी उपस्थिति दर्ज किये और एक वर्ष, यानी सन 1974 के सितम्बर महीने में कार्यालय को नमस्कार कर दिए। प्रोफ़ेसर सदरुद्दीन के बाद आये प्रोफ़ेसर दामोदर ठाकुर।  प्रोफ़ेसर ठाकुर महज तीन माह के लिए सितम्बर 9, 1974 से दिसंबर 21, 1974 तक प्राचार्य कार्यालय में रहे। प्रोफ़ेसर ठाकुर के बाद आये प्रोफ़ेसर चंद्रकांत पांडेय जी। प्रोफ़ेसर पांडेय का कार्यकाल भी महज तीन महीने का रहा। वे दिसम्बर 22, 1974 को प्राचार्य बने और अगले वर्ष मार्च 19, 1975 को प्राचार्य की सेवा से मुक्त हो गए। उन दिनों, खासकर प्रोफ़ेसर केदार नाथ प्रसाद के प्राचार्य बनने से पूर्व तक, पटना कालेज प्राचार्य कार्यालय में ‘आया-राम-गया राम’ जैसे स्थिति थी। प्राचार्यों का इस कदर आना और जाना प्रत्यक्ष रूप में कालेज परिसर के शैक्षिक वातावरण को गिराबट की ओर ले जा रहा था। 

प्रोफ़ेसर केदारनाथ प्रसाद 20 मार्च, 1975 को पटना कालेज के प्राचार्य बने। केदार बाबू के साथ मेरा निजी सम्बन्ध उनके प्राचार्य बनने से कोई पांच वर्ष पूर्व से था। उन दिनों जब हम सभी पटना कॉलेज के अंदर के रास्ते से पटना सांइस कालेज की ओर बढ़ते थे, तो साइंस कालेज के केमेस्ट्री ब्लॉक के पीछे सड़क के बायें तरफ दूसरा बंगला उनका ही था। बंगला के आउट हाउस में पटना विश्वविद्यालय के एक छात्र रहता था। आउट हाउस में छात्रों को रहने/रखने की परंपरा उन दिनों बहुत थी। मैं वर्षों से प्रोफ़ेसर केदार बाबू को पटना से प्रकाशित आर्यावर्त, इण्डियन नेशन, सर्चलाइट, प्रदीप अख़बारों के अलावे दिल्ली से प्रकाशित टाईम्स ऑफ़ इण्डिया भी देता था। उन दिनों टाईम्स ऑफ़ इण्डिया की कमर 40 नए पैसे थे। जब मैं 18 मार्च, 1975 को इण्डियन नेशन अख़बार में पत्रकारिता की सबसे नीचली सीढ़ी ‘कॉपी-होल्डर’ की नौकरी की शुरुआत की; केदार बाबू बहुत खुश हुए। इण्डियन नेशन अखबार के तत्कालीन संपादल दीनानाथ झा उनके अभिन्न मित्रों में एक थे। केदार बाबू सुबह-सवेरे उठने वालों में एक थे। वे प्रातः-भ्रमण-सम्मेलन में बहुत विश्वास रखते थे। इस कारण कॉलेज परिसर में जो भी कोई उनके प्रातः भ्रमण काल में सोया दिख जाता था, उसे बिना जगाये वे अपना कदम आगे नहीं करते थे। गजब का आत्मीय रिश्ता था एक प्राचार्य और कॉलेज परिसर में रहने वाले लोगों के बीच।   

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वैसे जब प्रोफ़ेसर चेतकर झा पटना कॉलेज के प्राचार्य बने (फरबरी, 1979-1985) हम इनके पूर्व के प्राचार्य डॉ केदार नाथ प्रसाद, जो पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र स्नातकोत्तर विभाग के अध्यक्ष भी थे; के विभाग में प्रवेश ले लिए थे और एम ए में थे।प्रोफ़ेसर चेतकर बाबू तो सम्पूर्ण पटना विश्वविद्यालय के “बाबा” थे। साथ ही, क्या शैक्षिक, क्या गैर-शैक्षिक कर्मचारीगण, क्या छात्र, क्या छात्राएं सभी अपनी-अपनी बातों, समस्याओं का समाधान “बाबा” के पास आकर ढूंढते थे। पटना कॉलेज के सामने बनारसी पानवाला और उसके बगल में ननकू जी होटल वाले तो उन्हें हनुमान चालीसा के चौपाई से भी सम्बोधित करते थे। वे दोनों कहते थे: “को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो।”

पटना कॉलेज प्रांगण में स्थित प्राचार्य-निवास में आने से पहले ‘बाबा’ पटना विधि महाविद्यालय से भी आगे गंगा के किनारे रानी घाट स्थित प्रोफ़ेसर निवास में रहते थे। उनका निवास एक पंक्ति में पांच दो-तल्ला के मकानों में सबसे पहले वाले मकान में नीचले तल्ले पर था, दाहिने तरफ। इनके बाएं तरफ का आवास प्रोफ़ेसर दिवाकर झा का था। पटका कॉलेज के इतिहास में शहीद यह पहली घटना थी जब प्रोफ़ेसर सी झा और प्रोफ़ेसर डी झा आमने-सामने रहते थे और दोनों के पुत्र का नाम प्रभाकर था और दोनों खेलकूद में बहुत अभिरूच रखते थे। इसी श्रृंखला के अंतिम दो मंजिले मकान में अंतिम निवास पटना कालेज के मैथिली विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर आनन्द मिश्र का था। इन पांच आवासों में मैं अखबार दिया करता था उन दिनों। अंतिम अखबार प्रोफ़ेसर आनन्द मिश्र के घर फेकता था। वे

साठ और सत्तर के दशक में जब चार आने सेर (उन दिनों किलो की प्रथा दुकानों में नहीं के बराबर थी) आटा खरीदने की स्थिति में मेरी मां नहीं रहती थी, चेतकर बाबू की पत्नी किसी न किसी बहाने, चाहे पर्व का बहाना हो या उनके घर में किसी की प्रोन्नति के बहाने; मेरे घर में खाने की किल्लत न रहे, हम बच्चे भूखे नहीं सोएं, अपना हाथ कभी पीछे नहीं करती थीं। न कभी ऐसा महसूस होने देती थीं कि उनके परिवार-परिजनों के तुलना में हम सभी कनिष्ठ हैं। जब ‘बाबा’ पटना कालेज परिसर वाले प्राचार्य भवन में आने के बाद तो वह घर जैसे “बपौती” लगता था। अक्सरहां, हम अपने माँ के साथ वहां पहुँचते थे। पहली मंजिल पर पोर्टिको के ऊपर एक बेहतरीन छत/बैठकी था। सदी के मौसम में वहां बैठा करते थे।

इस परिसर में अमरुद का बेहतरीन पेड़ था। इस परिसर पश्चिमी दीवार से सटा पटना कॉलेज के शिक्षकेत्तर कर्मचारियों का आवास भी था। उस परिसर में भी अमरुद और आम के काफी पेड़ थे। मेरा एक मित्र गिरीश भी इसी शिक्षकेत्तर कर्मचारियों वाले आवास में रहता था। उन दिनों साग का समय होता था, बातचीत होती थी। लेकिन कभी भी किसी के बारे में नकारात्मक बातें नहीं सुना। सबों का अच्छा हो, यही कहती थीं। महीने-दो महोनों में पटना के बेहतरीन महिलाओं, जैसे इण्डियन नेशन अख़बार के संपादक श्री दीनानाथ झा की पत्नी, प्रोफ़ेसर मित्रनंदन झा की पत्नी, नोवेल्टी एण्ड कम्पनी के मालिक श्री तारबाबू की पत्नी, बहु, या अन्य गणमान्य लोगों का परिवारों का जम घट होता था। ओह !! क्या दिन थे।

सत्तर के दसक में ही एक घटना घटी। मैं बचपन से नोवेल्टी से जुड़ा हूँ, आज भी। उस दिन नोवेल्टी के मालिक श्री तारा बाबू, जिनका प्रोफ़ेसर चेतकर बाबू से दांत-काटी-रोटी वाला प्रेम था, मुझे एक किताब का प्रूफ हाथ में देकर कहे की सामने श्री चेतकर बाबू के विभाग में चले जाओ। इसे उन्हें दे देना और कहना की एक बार सरसरी निगाहों से देख लें। वह प्रूफ एक किताब का था। नोवेल्टी से उनके विभाग पांच मिनट की दूरी पर था। आज भी शायद राजनीती शास्त्र विभाग वहीँ होगा । सामने सड़क पार करते ही प्रोफ़ेसर जगदीश झा (एन्सिएंट हिस्ट्री विभाग और आज के बॉली वुड के प्रख्यात फिल्म समीक्षक श्री आभाष के झा और विश्वबैंक के अधिकारी सुभाष के झा के पिता) के विभाग को लांघते अंग्रेजी विभाग के पीछे वाले हिस्से में पहुँच गया। 

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विभाग में चेतकर बाबू नहीं थे और कुर्सी पर प्रोफ़ेसर मित्रनन्दन झा बैठे थे। मुझे देखकर आह्लादित करते कहते हैं “बैस जाऊ” (बैठ जाओ) – वे कुछ कार्य कर रहे थे। इतने में पांच-छह लड़कियाँ कमरे में प्रवेश ली। प्रवेश करते ही सभी पूछी : “सर !! चेतकर बाबू कहाँ हैं?” प्रोफ़ेसर मित्रनन्दन जी बिना अपना सर उठाये, आलमीरा खोले, ड्रावर खोले, पर्दा के पीछे देखे, टेबुल के नीचे देखे फिर लड़कियों के तरफ देखते कहते हैं: “चेतकर बाबू तो यहाँ नहीं हैं” – आप स्थिति का अंदाजा स्वयं लगाएं, क्या हुआ होगा !

इसी तरह सं 1984 में जब बाबा पटना कालेज के प्राचार्य थे हम अपने बचपन के मित्र गिरीश के साथ पटना कॉलेज कार्यालय के पूर्वी बरामदे पर गप कर रहे थे। गिरीश और उसके पिता पटना कालेज में चपरासी थे। यह बरामदा प्राचार्य-कक्ष के साथ साथ कॉलेज कार्यालय से भी जुड़ा हथा, आज भी होगा। इस बरामदे का एक छोड़ मुख्य मैदान की ओर जाता है, जबकि दूसरा छोड़ ऐतिहासिक “विल्सन गार्डेन” के तरफ। विल्सन गार्डन उस ज़माने में गुलाबों के फूल के लिए विख्यात था। किसी का मजाल है कि उस गार्डन से एक भी फूल तोड़ लें। इस बगीचे पर पूर्ण नियंत्रण होता था भोला जी और रामाशीष जी का। दोनों माली जी थे और चेतकर बाबू के चहेते।

तभी स्नातक कक्षा के कुछ लम्बे-चौड़े छात्र ऊपर के तल्ले से वर्ग समाप्त कर इस बरामदे के रास्ते निकल रहे थे। उनमे पांच-छः छात्र रुककर ऊँची आवाज़ में चिल्ला रहे थे। सभी अपने में मस्त थे। हम और गिरीश कोने में खड़े तमाशा देख रहे थे। तभी पांच फीट सात इंच का एक व्यक्ति, अपनी चश्मा को आखों पर सँभालते अचानक बरामदे पर आ गए। फिर क्या था। सन्नाटा। लेकिन सन्नाटा चीरते बाबा कहते हैं: “तुम लोगों के देह (शरीर) में घोरन (लाल रंग की चींटी जो आम के पेड़ पर होती है) का छत्ता (पत्तों से बना घोसला) बाँध कर मारूंगा। किसी का माँ-बाप कॉलेज आकर शिकायत भी नहीं करेंगे। अनुशासन नाम का चीज नहीं है। पढ़ने के स्थान पर हल्ला करते हो। जब जीवन में बोलने का समय आएगा तो मुंह से आवाज नहीं निकलेगा।” उनके सभी शब्द “आत्मीय” थे। श्री चेतकर बाबा काँप रहे थे और सभी छात्र पथ्थर बने खड़े थे। फिर गिरीश को देखते ही कहते हैं: गिरीश रजिस्टर लाओ। सबों के नाम के सामने लाल निशान लगा देते हैं।”

कुछ क्षण में बरामदा खाली हो गया। उनके जीते-जी उन्हें इतना गुस्सा कभी नहीं देखा था। शाम में सफेद धोती, बुशर्ट पहने, मुंह में पान दबाए नोवेल्टी के सामने बाबा रिक्शा से उतरते दिखे, मुस्कुराते हुए। 

यह तस्वीर कोई पांच दशक पुरानी है। इस तस्वीर को देखकर मुझे उम्मीद है कि जो पटना कालेज के छात्र अथवा छात्रा रहे होंगे, इस स्थान से वाकिफ होंगे जहाँ उन दिनों के ऐतिहासिक छायाकार सन्नी स्टूडियो वाला तस्वीर खींचे थे। कुछ याद आया ? प्रशासनिक भवन के दाहिने हाथ वाला फुलबारी जो विल्सन गार्डन के सामने था। इस तस्वीर की उससे भी बड़ी विशेषता यह है कि इस तस्वीर में तत्कालीन प्राचार्य प्रोफ़ेसर चेतकर झा (बीच में) तो हैं ही, इसमें उनके इकलौते पुत्र प्रभाकर झा, तत्कालीन क्रिकेट के अनमोल रत्न अजय नारायण शर्मा, रणधीर प्रसाद वर्मा, उदय सिंह (लड्डू भैय्या), वीरेंद्र मोहन, प्रोफ़ेसर जे एन तिवारी, ज्योति शेखर और अन्य लोग भी हैं। इस तस्वीर में बहुत महानुभाव आज शरीर से जीवित नहीं है। उनका पार्थिव शरीर अग्नि के रास्ते महादेव के पास पहुँचने के लिए अनंत यात्रा पर निकल गयी है; लेकिन पटना कॉलेज परिसर में आज भी वे जीवित हैं, उनकी आत्मा आज भी जीवित है। आप सबों को नमन। 

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