पटना कॉलेज@160: कॉलेज का प्रवेश द्वारा, प्रवेश द्वार के सामने ऐतिहासिक वृक्ष-ब्रह्म तथा घोखेवाज लोगबाग (3)

कॉलेज का प्रवेश द्वारा के सामने ऐतिहासिक ब्रह्मस्थान, क्योंकि ब्रिक्स तो अब रहा नहीं - फोटो राहुल मिश्र

उन कुकुरमुत्तों जैसे राजनेताओं की ‘कहनी-करनी’ में फर्क को बर्दास्त नहीं कर सका वह वृक्ष । मनुष्य तो मनुष्य – क्या गरीब, क्या निरीह, क्या अस्वस्थ, क्या अशिक्षित, क्या नंगे, क्या भिखमंगे समाज के सभी तबकों के लोगों को पिछले कई दसकों पनाह देने वाला वृक्ष नहीं रहा। इस वृक्ष और वृक्ष के नीचे ‘ब्रह्म’ को साक्षी मानकर पाटलिपुत्र के लोगों से कई हज़ार-लाख वादे किये थे, कितने सपने दिखाए थे ये सफेदपोश शुतुरमुर्ग – परन्तु किसी भी वायदे को पूरा नहीं कर सके। अन्ततः यह वृक्ष अपना अस्तित्व मिटा देना ही श्रेयस्कर समझा ।

साठ के दशक के मध्य में जब हाफ़ पैंट और सावा-रुपये गज़ कंट्रोल (सरकारी राशन की दूकान) में बिकने वाला रंग-बिरंगी कपड़ा का सिला बुशर्ट पहने पहली बार पटना आया था, महेन्द्रू घाट से आने वाली रिक्शा इसी मंदिर के बाएं तरफ रुकी थी। यह मंदिर ऐतिहासिक पटना कालेज के मुख्य द्वार के दाहिने हाथ कोई दस कदम पर स्थित है। यह मंदिर विगत सौ और अधिक सालों से एक विशालकाय पीपल-बरगद के वृक्ष से ढंका था। या यूँ कहें की यहाँ स्थापित ब्रह्म को दशकों से उन वृक्षों ने अपनी छाया में पाल रहा था। कुछ दिन पूर्व दोनों वृक्ष वृद्ध हो गए थे और फिर अपने अस्तित्व को अकेले यहीं की जमीन में मिला दिया ।

वैसे भी भारतीय समाज में सैकड़े 10 फीसदी से अधिक वृद्ध मनुष्यों को भी उसके संतान आश्रय नहीं देते (अपवाद छोड़कर) – बसर्ते वह वृद्ध धनाढ्य नहीं हो और अपनी सम्पूर्ण संपत्ति अपने संतानों के नाम नहीं लिख दिया हो। पटना के अशोक राज पथ के बीचो-बीच स्थित उन वृक्षों को भी समय-समय पर पटना कॉलेज और विश्वविद्यालय के युवकों ने ‘विश्वास’ तो दिलाया ‘संरक्षण’ का, परन्तु जैसे-जैसे युवक उन्नति करते गए, शहर से विस्थापित होते गए, उनके मानस पटल पर पटना कालेज के सामने का वह वृक्ष धूमिल होता गया। अगर ऐसा नहीं होता तो शायद वह गगन चुम्बी वृक्ष, जो दशकों से विश्व के अन्य देशों से जाड़े के मौसम में आने वाली पक्षियों को पनाह देता था, मई-जून के महीने में पटना कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्र-छात्रों को छाया देता था, उसके अंतिम संस्कार में उपस्थित अवश्य होते। खैर। आजकल जिस गति से संस्कृति का राजनीतिकरण हो रहा है, उसमें लोगों से मानवीयता की अपेक्षा भी नहीं किया जा सकता। खैर।

पटना कॉलेज, ब्रह्म स्थान और यहाँ स्थित उस वृक्ष को मैं न्यूनतम 57-वर्ष से जरूर जानता हूँ। उस बृक्ष की छाया में पला-बड़ा हुआ हूँ। सबसे पहले इस वृक्ष के रूबरू हुआ था अपने बाबूजी के साथ जब वे इसी बृक्ष के छाँह तले “बुक सेन्टर” नामक पुस्तक दूकान में कार्य करते थे। साल कोई सन 1965 था। यह दूकान उस समय दास स्टूडियो के बगल में था। दास स्टूडियो उन दिनों पटना के संभ्रातों के निमित्त था। दास स्टूडियो के दाहिने एक खाली स्थान होता था, जहां बाद में एक साइकिल की दूकान खुली थी। यह साइकिल की दूकान मेरे एक स्कूली मित्र की थी। इस दूकान के बाद पीपुल्स बुक हाउस किताब दूकान हुआ करता था।

पीपुल्स बुक हॉउस के बाहर खड़े होने का अर्थ था – आप कम्युनिस्ट हैं और कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग हैं। समाज में बदलाव लाना चाहते हैं। लेकिन जब विगत पांच दशकों का लेखा-जोखा देखता हूँ तो समाज में विकास या परिवर्तन तो नहीं दीखता, अलबत्ता, जो यहाँ खड़े होते थे वे सभी ‘विकसित’ अवश्य हो गए। निराला वाली पेट-पीठ फैलकर गोलघर अवश्य हो गया। यहाँ नुक्कड़-नाटक अधिक होता था जिसमें इप्टा अथवा बामपंथी विचारधारा वाले संगठनों से जुड़े लोगबाग अपना-अपना विचार कला के माध्यम से दिखते थे। पीपुल्स बुक हॉउस में बिकने वाली प्रत्येक पुस्तकों पर 30-40 फीसदी का डिस्काऊंट भी होता था।

इस दूकान से पहले यहाँ पिंटू होटल होता था जो मूलतः अशोक राजपथ और एनीबेसेन्ट रोड के नुक्कड़ पर स्थित था। आगे दाहिने बढ़ने पर सड़क के कोने पर पहले ग्रैंड स्टोर नामक दूकान थी, जहाँ कॉपी-पेन्सिल के अलावे श्रृंगार-प्रसाधन का सामान मिलता था। ग्रैंड स्टोर के बाद कमाल बाइंडिंग हॉउस, जहाँ रंग-बिरंगे कॉपी, पेन्सिल और लिखने-पढ़ने से सम्बंधित सामान मिलता था। पटना में जब वैशाली उत्तर पुस्तिका का अभ्युदय हुआ था, हम सभी यहीं से खरीदते थे। कमाल बाइंडिंग के बाद राजेद्र पान भंडार, फिर एक किताब की दूकान और उसके बाद वकील टेलरिंग हाउस। टेलरिंग हाउस दूकान के मालिक कद में जितने छोटे थे, मानसिक स्थिति में, व्यवहारिकता में, आत्मीयता में, मानवीयता में उतने ही उत्कृष्ट थे। वकील टेलरिंग हाउस के बाद शांति कैफे हुआ करता था जगदीश बाबू का। वकील टेलरिंग हाउस और शांति कैफे के बीच के हिस्से पर एक चाय की दूकान होती थी। शांति कैफे के पूर्वी दीवार से लगी एक गली अंदर जाती थी। यह गली पटना कालेज, पटना विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र आन्दोलनों का एकलौता गवाह है। खैर।

बुक सेंटर के बायीं ओर एक और किताब की दूकान थी। फिर एक साइंटिफिक वस्तुओं की दूकान, फिर खाली स्थान और उसके बाद टी के घोष एकेडमी। उस दिन मुझे तनिक भी एहसास नहीं हुआ की आज जिस बृक्ष के नीचे खड़ा हूँ, यह सभी दृष्टिकोण से मुझे अपने शरण में ले लिया है। तभी तो मैं अपने जीवन का बहुमूल्य समय इस बृक्ष के सानिग्ध में बिताया, टी के घोष एकेडमी शिक्षा प्राप्त किया। इसके जड़ से कोई 200-कदम पर लिफ्ट चलाया नोवेल्टी एंड कंपनी में, इसी सड़क पर वर्षों अखबार बेचा। जब भी मन में कोई कौतुहल, बेचैनी होता था, इस विशाल पीपल के बृक्ष के नीचे बने एक छोटे से बरामदे पर बैठकर बजरंगबली से, ब्रह्म से अन्तःमन से बातचीत जरूर करता था। समय सभी घाव को भर देता है, ब्रह्म और बजरंगबली भी हमेशा मेरे जीवन के सभी बिघ्न-बाधाओं को हरते गए।

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इस ऐतिहासिक अशोक राज पथ को पटना के दक्षिण इलाके को जोड़ने वाली बहुत ही महत्वपूर्ण सड़क है उस महिला के नाम पर है जो न केवल थियोसोफिकल सोसायटी ऑफ़ इंडिया की अध्यक्ष थी, बल्कि सं 1916 में होम रूल लीग की स्थापना की और भारत में स्वशासन की मांग भी कीं। ये न केवल कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष थीं, बल्कि एक प्रसिद्ध थिओसोफिस्ट, समाज सुधारक, राजनैतिक मार्गदर्शक, लेखिका और प्रवक्ता थीं। नाम था – एनी बेसेन्ट। थिओसोफिकल सोसाईटी भवन के सामने दसकों-दसक पुराना छापाखाना था “वैशाली प्रिंटिंग प्रेस” – यह पटना के प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता नोवेल्टी एण्ड कम्पनी का ही एक हिस्सा था।

आज़ादी के दिनों में और बाद में भी, जन लोकनायक जयप्रकाश नारायण सम्पूर्ण क्रांति की शुरुआत किये थे, कितने करोड़ पोस्टर्स, पप्लेट्स यहाँ छपे थे, किसी के पास कोई गिनती नहीं होगी। हाँ, बाहर फेके गए कूड़े-कचड़े को हम सभी बच्चे उठा-उठाकर बेचते जरूर थे। जो पैसा होता था, उससे कुछ-न-कुछ खाने का सामान जरूर हो जाता था – जैसे पूड़ी-कचौड़ी-जलेबी-गुलाब जामुन इत्यादि। नोवेल्टी यंद कंपनी तथा अजंता प्रिंटिंग प्रेस का पटना कॉलेज से वैसा ही रिस्ता है जैसे एक बच्चे का एमिकल कॉर्ड से, जहाँ तक बिहार में शिक्षा और शैक्षिक वातावरण का सवाल है, खासकर जिगर के टुकड़ों और कर्पूरी जी की शिक्षा के ज़माने से पहले ।

आम तौर पर एनी बेसेंट के नाम से विद्यालय अथवा छात्रावास इसलिए है भारत में क्योंकि जब वह केवल पांच साल की थीं तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। परिवार के पालन-पोषण के लिए एनी की मां ने हैरो में लड़कों के लिए एक छात्रावास खोला। वे पूरे भारत का भ्रमण की जिसके कारण उन्हें भारत और मध्यम वर्गीय भारतियों के बारे में जानकारी प्राप्त हुई जो कि ब्रिटिश शासन और इसकी शिक्षा की व्यवस्था से काफी पीड़ित थे। शिक्षा में उनकी लंबे समय से रूचि के फलस्वरूप ही बनारस के केंद्रीय हिन्दू विद्यापीठ की स्थापना हुई (1898)।

बाद में वे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी शामिल हुईं और वर्ष 1916 में ‘होम रूल लीग’ जिसका उद्देश्य भारतियों द्वारा स्वशासन की मांग था। सन 1917 में वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं। इस पद को ग्रहण करने वाली वह प्रथम महिला थीं। उन्होंने “न्यू इंडिया” नामक समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसमे उन्होंने ब्रिटिश शासन की आलोचना की और इस विद्रोह के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। गांधी जी के भारतीय राष्ट्रीय मंच पर आने के पश्चात, महात्मा गांधी और एनी बेसेंट के बीच मतभेद पैदा हुए जिस वजह से वह धीरे-धीरे राजनीति से अलग हो गईं। 20 सितम्बर 1933 को अड्यार (मद्रास) में एनी बेसेंट का देहांत हो गया । उनकी इच्छा के अनुसार उनकी अस्थियों को बनारस में गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

साठ के दसक के उत्तरार्ध और सत्तर के दसक के आधे तक जब सुवह-सुवह अपनी साईकिल पर सैकड़ों अखबार को बांधे अपने ग्राहकों को देने ब्रह्म के नीचे अपना सर झुकाये आगे बढ़ते थे, तो ऐसा लगता था “ब्रह्म मुझे ऊपर से आशीर्वाद दे रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो पटना के अशोक राजपथ पर अखबार बेचने वाला एक बालक (मेरे ऐसा लाखों-लाख आज भी हैं) दिल्ली के राजपथ पर पत्रकारिता में अपना झंडा कैसे स्थापित करता। आज अखबार वाले, टीवी वाले जिनके लिखे/दिखाए समाचारों को मुद्दत तक बेचा था, मेरे और मेरे कार्यों के बारे में क्यों लिखते !! बिहार ही नहीं, विश्व के किसी कोने में अगर कोई भी व्यक्ति रहते होंगे और वे पटना कालेज या पटना विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राएं रहे होंगे; इस ब्रह्म-स्थान को देखे ही होंगे।

कोई 160 वर्ष पूर्व सन 1863 में स्थापित पटना कालेज का मुख्य द्वार अशोक राज पथ पर खुलता है तो दाहिने हाथ, करीब 20-कदम पर सड़क के बीचोबीच यह पीपल का बृक्ष था जिसके नीचे ब्रह्म थे। जब तक यहाँ वृक्ष था, पेड़ की एक टहनी भी तोड़ने/काटने की हिम्मत नहीं किये। 865 के बाद पटना काॅलेज ने सैकड़ों विद्वान प्रशासक, देशभक्त, अधिकारी, वकील, जज, पत्रकार और लेखक पैदा किया। देखते-देखते, ऐसी स्थिति हो गई कि बिहार का लगभग प्रत्येक बड़ा आदमी पटना कॉलेज का छात्र रहा। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायण, महान कवि और साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर, अनुग्रह नारायण सिंह, डॉ सच्चिदानन्द सिन्हा, सर सुल्तान अहमद, प्रसिद्ध इतिहासकार रामशरण शर्मा, सैयद हसन अस्करी, योगेन्द्र मिश्र, जगदीश चन्द्र झा, विष्णु अनुग्रह नारायण, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गोरखनाथ सिंह, केदारनाथ प्रसाद, आदि पटना कॉलेज के छात्र रहे। पटना काॅलेज में पंडित राम अवतार शर्मा (संस्कृत), डाॅ अजीमुद्दीन अहमद (अरबी और फारसी), सर यदुनाथ सरकार (इतिहास), डाॅ सुविमल चन्द्र सरकार (इतिहास), डाॅ डी०एम० दत्त (दर्शन शास्त्र), डाॅ ज्ञानचन्द्र (अर्थशास्त्र), डाॅ एस०एम० मोहसिन (मनोविज्ञान), एस०सी० चटर्जी (भूगोल), परमेश्वर दयाल (भूगोल), विश्वनाथ प्रसाद (हिन्दी), नलिन विलोचन शर्मा (हिन्दी) जैसे राष्ट्र प्रसिद्ध शिक्षक थे।

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पटना कालेज में संविधान सभा के प्रथम अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा, राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह, दूसरे मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिन्हा, हिंदी साहित्यकार रामधारी सिंह दिनकर, प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार, सीबीआई के पूर्व निदेशक त्रिनाथ मिश्रा जैसे होनहार छात्र पटना कॉलेज से निकले हैं। अपने ज़माने में यह कॉलेज शिक्षा का लाइटहाउस था। यह ब्रेन कैपिटल था। पड़ोसी राज्यों से ही नहीं बल्कि हिमालयी क्षेत्रों से भी लोग उस समय यहां पढ़ने आते थे। बात सत्तर की दसक की है, यानि सन 1974 का आंदोलन ।

मैं इसी ब्रह्म स्थान के सामने ननकूजी के होटल के ऊपर गली के कोने पर रहता था। उस ज़माने में अखबार बेचता था और दसवीं कक्षा का परीक्षार्थी भी था। कलाई पर घड़ी नहीं थी, इसलिए सुवह-सुवह अशोक राजपथ पर इस ब्रह्म स्थान के नीचे से जाने वाला बैलगाड़ी बैल की घंटी की आवाज से उठ जाया करता था। उस सुबह भी घंटी की आवाज से उठा। कुछ देर बाद साइकिल से गांधी मैदान स्थित बस अड्डे के तरफ निकला अखबार लिए – बांटने के लिए। साइकिल पर बैठा ही था, इस बृक्ष के नीचे पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन सभी छात्र नेता जो जय प्रकाश नारायण के आंदोलन में सक्रीय थे, खड़े दिखाई दिए। बहुतों के पैर में चप्पल था, पैजामा – कुर्ता, बेलबॉटम पहने थे। क्रांति की तैयारी हो रही थी। मैं कुछ पल रुका। सबों ने हाल-चाल पूछा। फिर मैं आगे निकल पड़ा। इस बृक्ष के नीचे दाहिने फुटपाथ पर एनीबेसेन्ट रोड के कोने पीपुल्स बुक हॉउस, चाय वाला, दास स्टूडियो इत्यादि दूकानों पर उस सुवह जो भी लोग बाग़ खड़े दिखे थे, वे बिहार सरकार में आज मुख्य मंत्री हैं, उप-मुख्य मंत्री हैं, कई मन्त्री हैं, कई तो मंत्री के चमचे हैं, कई केंद्रीय मंत्रिमंडल में शोभा बढ़ा रहे हैं – लेकिन सत्ता पर आसीन होने के बाद तो तो कभी मुड़कर पीपल वह वह वृद्ध होता बृक्ष को देखे न ही ब्रह्म को। वे सभी आपसे नजर नहीं मिला सकते। आखिर नजर मिलाएं तो कैसे – घोखा के अलावे न तो पीपल बृक्ष को कुछ दिया इन लोगों ने और न ही ब्रह्म को।

कहते हैं, जय प्रकाश नारायण के “सम्पूर्ण क्रान्ति” के गर्भाधान से बिहार में कुकुरमुत्तों के तरह राजनेता पैदा लिए, मन्त्री बने, मुख्य मंत्री बने। पटना के सर्पेन्टाइन रोड से दिल्ली के राजपथ तक लोगों ने बिहार के लोगों को बरगलाया। बिहार की जनता को बरगलाते हुए, कोई खेतीहर मजदूर से बिहार की सम्पूर्ण जमीनों का मालिक बन बैठे, तो कोई किसी सरकारी आउट-हॉउस से दिल्ली-कलकत्ता-मुंबई-चेन्नई-कानपूर-नागपुर जैसे शहरों में सैकड़ों व्यावसायिक संस्थानों का/मॉलों का मालिक बने। कोई हाथ में एक पतली सी अभ्यास-पुस्तिका लिए, पैर में हवाई-चप्पल पहने प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने का सपना दिखाकर सरकारी संस्थाओं को गंगा की बाढ़ में प्रत्येक वर्ष बहाते रहे और स्वयं तथा अपने परिवार-परिजनों की कमाई के लिए दर्जनों “निजी शैक्षणिक संस्थाएं” खोले। सबों ने इस वृक्ष के नीचे छाँह को “गलत मन से इस्तेमाल किये” – वह उन दगाबाजों, मुनाफाखोरों, अमानवीय लोगों के बीच अब वह वृक्ष नहीं रहा।

उन कुकुरमुत्तों जैसे राजनेताओं की ”कहनी-करनी” में फर्क को बर्दास्त नहीं कर सका वह बृक्ष। मनुष्य तो मनुष्य – क्या गरीब, क्या निरीह, क्या अस्वस्थ, क्या अशिक्षित, क्या नंगे, क्या भिखमंगे समाज के सभी तबकों के लोगों को पिछले कई दसकों ये राजनेतागण दोखा देते आ रहे है, यह बृक्ष बर्दास्त नहीं कर सका उन असहाय लोगों की पीड़ा। इस बृक्ष और बृक्ष के नीचे “ब्रह्म” को साक्षी मानकर पाटलिपुत्र के लोगों से कई हज़ार-लाख वादे किये थे ये नेतागण, कितने सपने दिखाए थे ये सफेदपोश शुतुरमुर्ग – परन्तु किसी भी वायदे को पूरा नहीं कर सके। अन्ततः यह वृक्ष अपना अस्तित्व मिटा देना ही श्रेयस्कर समझा। कल तक लोगों की इक्षाएं-आकांक्षाएं पूरा होते देखने की आस को जमीन से कोई 100-फीट ऊंचाई से अपनी नजर से दसकों से देखता रहा; विगत दिन स्वयं को जमीन पर लाना श्रेयस्कर समझा – आज की पीढ़ी इस वृक्ष के दर्द को नहीं महसूस कर सकता है।

बहरहाल, उन दिनों, यानि साठ के दसक में और उससे पूर्व, उत्तर बिहार जाने के लिए दो ही रास्ते थे – या तो महेन्द्रू घाट में बच्चा बाबू के जहाज पर सवार हो जाइये और गंगा माय को प्रणाम करते पहलेजा घाट पहुंचकर छोटी-लाईन वाली ट्रेन में बैठकर सोनपुर-हाजीपुर-समस्तीपुर के रास्ते निकल चलिए, या फिर, सड़क मार्ग से बाढ़-बख्तियारपुर-मोकामा के रास्ते राजेंद्र पुल से बरौनी पहुंचे और अपने-अपने गंतब्य स्थान की ओर छोटी लाईन वाली ट्रेन से छुक-छुक करते चले जाइये। पटना या मगध में रहने वाले उत्तर बिहार के लोग-बाग़ बच्चा बाबू का जहाज अधिक पसंद करते थे। गंगा माय का दर्शन भी हो जाता था और बच्चों के लिए मनोरंजन भी। काहे की जे है से की उन दिनों जी-वर्ल्ड का जन्म नहीं हुआ था (वैकल्पिक पानी का व्यापार) – न मालिक का और न ही कंपनी का।

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बाढ़ के समय यात्रियों की संख्या और सामानों का वजन को प्राथमिकता दी जाती थी ताकि इलाहाबाद – बनारस के रास्ते बिहार में प्रवेश करने के बाद गंगा माय मूलतः काली-माय जैसी हो जाती हैं, क्योंकि उनकी बहनें जो सालभर उनकी प्रतीक्षा की होती हैं, जिसमें गंडक, बागमती, कोशी, काली, सोन, करमनासा और पुनपुन नदियाँ प्रमुख हैं; स्वयं को सुपुर्द कर गंगामय हो जाती हैं। अनेकों बार ऐसी घटनाएं हुयी थीं उन दिनों जब पहलेजाघाट से आने वाला जहाज मेहन्दू घाट के सामने आकर भी एक-दो किलोमीटर दूर दरभंगा हॉउस तक चली जाती थी। वैसी स्थिति में जहाज पर किसी कोने से हर-हर गंगे गूंजता था, तो कहीं हनुमान चालीसा, तो कहीं ॐ नमःचण्डिकायै – कहीं हर-हर महादेव – बुढ़ी औरतें-जवान औरतें सभी अपने-अपने इष्टों को मनेर की बुंदीवाली लड्डू, खस्सी चढ़ाने का वचन देने लगती थीं। आखिर मौत से डर किसे नहीं लगता ?

बुक सेंटर के बाद बाबूजी उन दिनों पटना के अशोक राज पथ स्थित प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता नोवेल्टी एंड कंपनी में कोई 45/- रुपये मासिक वेतन पर छोटे मुलाजिम के रूप में काम करते थे । उस ज़माने में पटना में कुकुरमुत्तों की तरह प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता नहीं पनपे थे – कुञ्जिका नहीं छपता था, गेस-पेपर, टेस्ट-पेपर इत्यादि का बोल-बाला नहीं था। चाहे स्कूली छात्र-छात्राएं हो या कालेज के, विश्वविद्यालय के – मूल किताब पढ़ते थे और अधिक सहारा पुस्तकालय का होता था। उत्तर बिहार के प्रमुख शहरों जैसे – अररिया, बेगूसराय, खगरिया, मधेपुरा, समस्तीपुर, दरभंगा, सिवान, सुपौल, सहरसा, मुजफ्फरपुर, मधुबनी, मुंगेर, हाजीपुर इत्यादि शहरों के पुस्तक-विक्रेताओं की मांग को पूरा करने के लिए पटना के बड़े-बड़े प्रकाशक और पुस्तक विक्रेतागण (मसलन: नोवेल्टी, पुस्तक भण्डार, भारती भवन, लक्ष्मी पुस्तकालय, मगध राजधानी प्रकाशन, साइंटिफिक बुक कंपनी, मोतीलाल बनारसी दास, राजकमल प्रकाशन, स्टूडेंट्स फ्रेंड्स, एस चाँद एंड कंपनी) किताबों को भेजा करते थे – लेकिन मार्ग यही था।

बाबूजी नित्य अपरान्ह काल 4 बजे किताबों का बण्डल लेकर महेन्द्रू घाट के लिए रवाना होते थे। बहुत अधिक बण्डल होने पर, या अधिक वजन होने पर तो रिक्शा लेते थे, चवन्नी से अठन्नी किराया तक, नहीं तो कंधे पर रखकर कोई 2 किलोमीटर का रास्ता पैदल तय करते थे। मैं टेनिया जैसा, कंधे में अपनी लम्बाई का कपड़े का एक झोला लिए, बाबूजी का कभी बाएं तो कभी दाहिने तरफ कमीज पकड़े, कदम ताल करते बाबूजी के पद चिन्हों पर चला करता था। यह क्रिया औसतन सप्ताह में चार दिन अवश्य हो जाता था। उन दिनों माँ गाँव में रहती थी। बाबूजी जब शाम में दिन-भर के खर्च का हिसाब मालिक के सामने रखते थे, तो उसमें “रिक्शा किराया” जुड़ा होता था और एक श्रेणी था “अन्य खर्च” जिसमें चाय और मेरे लिए बिस्कुट, लवणच्युस सम्मिलित होता था। उस समय नोवेल्टी दो-मंजिला मकान में था और वर्तमान का पांच-मंजिला मकान के बारे में चर्चा शुरू भी नहीं हुई थी ।

बाबूजी कहते थे: “किताब का वजन बहुत भारी नहीं होता। वसर्ते तुम किताब को भारी नहीं समझो । यह सिद्धांत किताबों की खरीद-बिक्री से अधिक किताबों को पढ़ने-पढ़ाने में लागु होता है। तुम जैसे ही किताब को अपने जीवन से, अपने भविष्य से भारी मान लोगे; वैसे ही तुम उन अनन्त-लोगों की लम्बी कतार में स्वयं को खड़े पाओगे, जहाँ तुम्हे अपनी परछाई भी नहीं दिखेगी। तुम्हारी अपनी ही परछाई लोगों की परछाई के साथ गुम हो जाएगी। मैं इस किताब के बण्डल को अपने कंधे पर लेकर तुम्हारे साथ इसलिए नित्य चलता हूँ ताकि तुम्हे किताब का वजन मालूम हो सके, किताब का महत्व मालूम हो सके। इसलिए किताबों को सूंघने की आदत डालो, कागज़ का गंध एक बार अगर नाक के रास्ते मष्तिष्क में जगह बना लिया, मैं समझूंगा मेरे साथ तुम्हारा आना सार्थक हो गया। मैं उस दिन तक शायद रहूँगा नहीं, लेकिन तुम्हारे किताबों के प्रत्येक पन्नों में स्वयं को पाउँगा। मुझे ख़ुशी होगी।”

मेरे बाबूजी संस्कृत के तो ज्ञानी थे, मन्त्र-तंत्र विद्या में महारथ थे, हिन्दी साहित्य के ज्ञाता थे – लेकिन अंग्रेजी भाषा से अनभिज्ञ थे और वे जानते थे की आने वाले समय में भाषाओँ की लड़ाई बहुत कठिन होने वाली है। बाबूजी इस पृथ्वी पर अपना शरीर 23 जून, सन 1992 को त्यागे थे

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