पटना : दसकों बात आज गाँधी मैदान से मुलाकात हुई। दोनों एक-दूसरे को छलकती आँखों से देखे, गले मिले और दसकों पुरानी बातों में घुल गए। गाँधी मैदान की धरती को बीचो-बीच मेरे पैरों के निशान मुझे जैसे ही देखा, मैं लोटपोट होकर उससे गले मिला। वह भोकार पार कर रोने लगा, कहने लगा “जस्सू भाई जीवन पर्यन्त लोगों ने रौंदा, रौंदते अपने जीवन में अग्रसर हुए, मुझे अपने पैरों से जमीन के अन्दर धकेलते चले गए। कोई भी मनुष्य प्रजाति उस गाँधी मैदान को बीच चीरती रेखाओं के अन्तःमन की भावनाओं को नहीं समझ सकता है – सिवाय वह और मैं। पालथी मारकर उस रेखा के चतुर्दिक बने हरे-भरे साम्राज्य के बीच बैठकर ऐसा लग रहा था हम पांच दसक पूर्व आ गए हैं। दोनों बहुत खुश थे।
सामने बड़ा खिड़की-नुमा मकान अपना बाजार, बगल में रीजेंट सिनेमा, कोने पर सोडा फाउंटेन, आगे एलिफिंस्टन सिनेमा, फिर खली जगह, आगे पेट्रोल पम्प और फिर गुरु गोविन्द सिंह के जन्मस्थान की और जाती सड़क – अशोक राज पथ की एक-एक ईंट-पथ्थर जैसा अपना लग रहा था। दाहिने मुड़ते ही वह सफ़ेद रंग का मस्जिद। फिर एक किताब की दूकान और फिर मफ़तलाल का सुन्दर शो-रूम। मफतलाल के सामने हमारा बी एन कालेज । बी एन कालेज गेट से गाँधी मैदान तक बाएं तरफ वह छोटी-छोटी किताब की दुकाने । ओह सभी जैसे आह्लादित कर रहे थे। जब से होश संभाला था, पटना की सड़कें, खासकर अशोक राजपथ जीवन का मार्गदर्शक बना। एक रिस्ता निभाते चला और हम चलते रहे।
सन 1968 से 1975 तक जब पटना की सड़कों पर अखबार बेचते थे, अशोक राज पथ से रिस्ता “अभिभावक” जैसा था। हो भी क्यों नहीं! सुवह-सुवह कोई तीन बजे जब अपने घर से पैर में चप्पल पहले, कंधे में झोला लटकाये गाँधी मैदान बस अड्डा के लिए निकलते थे; यही अशोक राज पथ मार्गदर्शन करता था, हिम्मत भी देता था, साथ ही, हमारे तरह के ही “असहाय, निरीह, दीन कुत्तों को भी पनाह” देता था।
शुरू में तो पटना के कुत्ते बहुत भौंकते थे, लेकिन समयांतराल अपने ही समाज के एक मानव को नित्य अपने पैरों से सड़क की लम्बाई नापते देख, मित्र हो गए। हालात ऐसा बना, जैसे ही हम सुवह-सुवह पटना मार्केट के पास “चट्ट -चट्ट” करते पहुँचते थे, पटना मार्किट वाले कुत्ते की टोली सब्जीबाग तक छोड़ जाता था। फिर सब्जीबाग से महेन्द्रू घाट मोड़ तक, फिर आगे तीसरी टोली बी एन कालेज तक और क्रमश.ऐसा लगता था हमें सुरक्षा-कवच में घर से अपने गंतब्य तक जा रहे हों। अशोक राज पथ मगध के सम्राट अशोक के नाम पर है।
पटना की लगभग सभी मुहल्लों, सडकों की अपनी-अपनी कहानियां हैं। विगत दिनों “कौन बनेगा करोड़पति के मंच पर जब 50,00,000 रुपये का एक ऐतिहासिक प्रश्न पूछा गया की “फरीद खान जो बाद में शेर शाह सूरी के नाम से प्रसिद्द हुए, उन्हें शेर खान की उपाधि से किसने नबाजा था?” अकस्मात् पटना का लोहानीपुर मोहल्ला याद आ गया। “कौन बनेगा करोड़पति” का यह प्रश्न बहुत कठिन था। यह अमिताभ बच्चन साहेब भी मान रहे थे। सामने हॉट सीट पर बैठीं महाराष्ट्र की मोहतरमा के लिए तो कठिन था ही। आम तौर पर महाराष्ट्र के लोग शिवाजी महाराज से आगे निकलते ही नहीं। आप मानेंगे नहीं, लेकिन जब भी मौका मिले, आजमा लीजियेगा। मोहतरमा मंच के चारो तरफ लगे कैमरे को देख रहीं थी। स्वाभाविक भी है। प्रश्न भी पांच रूपये का था नहीं। प्रश्न को फ्लिप करने का विकल्प लिया गया। लेकिन “नियमानुसार” अमिताभ बच्चन साहेब कहते हैं “आपका ऑप्शन लॉक हो गया है। लेकिन हमें जाने से पहले इस प्रश्न का उत्तर दर्शकों को बताना होगा। आप किसी एक विकल्प को चुनें।” मोहतरमा विकल्प चुनतीं हैं और उनका उत्तर गलत होता है। सही उत्तर होता है: मुहम्मद शाह नूहानी ।
पटना के लोग शायद नहीं जानते होंगे की आज का “लोहानीपुर” मोहल्ला कल का “नुहानीपुर” ही था। जिसका नामकरण मुहम्मद शाह नूहानी के नाम पर था। मुहम्मद शाह नुहानी बिहार के तत्कालीन सुलतान थे और यहीं शेरशाह कार्य भी करते थे। इसी लोहानीपुर या नुहानीपुर मोहल्ले में बिहार के दीवान नबाव मीर कासीम का जन्म हुआ था।
शेर शाह का बचपन का नाम फरीद खां था। फरीद खां के पिता हसन खां जौनपुर के एक छोटे जमींदार थे। वैसे शेर शाह का जन्म 1472 में होशियारपुर जिले के बजबाड़ा नामक स्थान हुआ था और राज्याभिषेक दिल्ली में हुआ था। कहा जाता है कि एक बार शिकार पर गये नुहानी के साथ शेरशाह ने तलवार के एक ही वार से एक शेर को मार दिया । उसकी इस बहादुरी से प्रसन्न होकर शाह नृहानी ने उसे ‘शेर खाँ’ की उपाधि प्रदान की। राज्याभिषेक के बाद वे “शेरशाह” की उपाधि को धारित किये। सन 1539 में शेरशाह और हुमायूँ के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ जो “चौसा-युद्ध” के नाम से जाना जाता है।
इन्होने रोहतासगढ़ किले का निर्माण करवाया। सोने, चांदी और ताम्बे के सिक्के चलवाये। कलकत्ता से पेशावर तक सड़क निर्माण कराया जिसे आज ग्रेंड ट्रंक रोड के नाम से जाना जाता है। इन्होने ने ही डाक-प्रथा चलवाई । सन 1541 में मगध की राजधानी “पाटलिपुत्र”, शेरशाह का “पटना” बना। दिल्ली का पुराना किला शेरशाह का ही उपहार है जिसे वे हुमायूँ द्वारा निर्मित दीन पनाह ईमारत को तोड़कर बंबई थे। इनकी मृत्यु 1545 में हुई और आज भी सासाराम में स्थित शेरशाह का मकबरा विश्व का ऐतिहासिक घरोहर है।
वैसे पटना का इतिहास और परंपरा सभ्यता की शुरुआत से ही आरम्भ होती है। पटना का पुराना नाम पाटलिपुत्र या पाटलीपट्टन था जो 600 ईसा पूर्व इतिहास में पाया गया। पटना का नाम समय के साथ परिवर्तित होकर पाटलिग्राम, कुसुमपुर, अजीमाबाद और आधुनिक दौर में पटना नाम से जाना जाता है। चंद्रगुप्त मौर्य ने 4वी. ईसा में यहाँ अपनी राजधानी बनाई। इसके बाद इस नगर का महत्त्व कम होता गया और 16वी ईसा में इसे फिर पहचान मिली जब शेरशाह सूरी का शासन आया। एक अन्य मान्यता के अनुसार पट्टन नाम के एक ग्राम से आज का पटना का जन्म हुआ। कहा जाता है कि आजादशत्रु ने पाटलिपुत्र बनाई। प्राचीन ग्राम पाटली के साथ पट्टन जुड़ कर पाटलिपुत्र बना। ग्रीक इतिहास में पाटलीबोथरा शब्द आता है जो शायद पाटलिपुत्र ही था। आजादशत्रु ने इस नगर के लिय कई सुरक्षा इन्तेजाम कराया ताकि लिक्छवियों के लगातार आक्रमण से इसे बचाया जा सके। उसने पाया की यह नगर तीन दिशाओ से नदियों से घिरा था जो इसे नदियों के किला की सुरक्षा प्रदान करती थी। आजादशत्रु का पुत्र अपनी राजधानी राजगृह से पटना ले आया और यह स्थिति मौर्य और गुप्त काल में भी यथावत रही। सम्राट अशोक ने यहीं से अपना शासन किया।
चंद्रगुप्त मौर्य और समुद्रगुप्त जैसे पराक्रमी शासको की यह राजधानी रही। यहीं से चन्द्रगुप्त ने अपने सेना पश्चिमी सीमा पर ग्रीको से लोहा लेने भेजा था और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने शक और हूणों को वापस धकेला था। चन्द्रगुप्त काल में यही पर ग्रीक दूत मेगास्थनीज आ कर रहा था। प्रसिद्ध यात्री फाहियान 3वी. ईसा में और व्हेनसान 7वी. ईसा यहाँ की यात्रा कि और उस काल कि रहन सहन और शासन पद्धति पर विस्तार से लिखा। कौटिल्य जैसे विद्वान यहाँ रहे और अर्थशास्त्र जैसी रचना लिखी। यह नगर प्राचीन काल से ही ज्ञान और विद्वत्ता के स्रोत्र के रूप में प्रसिद्धी पाई। औरंगजेब का पोता शहजादा अजिमुशान को 1703 ई. में पटना का गवर्नर बनाया गया। इसके पहले शेरशाह ने अपनी राजधानी बिहारशरीफ से पटना बनाया। शहजादा अजिमुशान ने पटना को आधुनिक और सुन्दर शहर का रूप देने का प्रयास किया और इसका नाम अजीमाबाद रखा।
सन 1975 में जब पटना से प्रकाशित आर्यावर्त-इण्डियन नेशन अखबार में नौकरी मिली, उस समय मैं महज माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण किया था और बी एन कालेज में प्रवेश लिया था – विज्ञानं संकाय में। लेकिन नौकरी मिलने के कारण नित्य कॉलेज नहीं जा पाता था। एक दिन कालेज के प्राचार्य डॉ एस के बोस बुलाये और “कम-उपस्थिति” का कारण पूछे। श्री बोस साहेब को मैं कोई छः वर्ष पहले से अखबार देते आ रहा था। वे मेरे बहुत ही बेहतरीन ग्राहक थे। जब मैं उन्हें बताया की मुझे नौकरी मिली है, तो वे तक्षण पीठ थपथपाये, आशीर्वाद दिए और कहे: “झाजी, आप कला संकाय में आ जाएँ। नौकरी के साथ विज्ञानं नहीं पढ़ पाएंगे। वे सही थे।”
सं 1975 में पटना में जब ऐतिहासिक बाद आयी थी, गाँधी मैदान का बॉउंड्री वाल, लोहे का यह रेलिंग हमारा एक-मात्र सहायक था, जब तक कार्यालय पूर्ण-रूपेण बंद नहीं हो गया था। प्रकाशन कार्य प्रारम्भ होने के बाद भी (पुस्तक भण्डार से) गाँधी मैदान का यह रेलिंग ही एक मात्र सहायक था घर से दफ्तर पहुँचने के लिए। उन दिनों हम पटना कालेज के सामने रहते थे और बाढ़ का पानी बी एन कालेज के आगे तक पहुँच गया था।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि पटना का ऐतिहासिक बोरिंग रोड का नाम इस इलाके में हुए “पहली बोरिंग” के कारण पड़ा। आप शायद जानते भी होंगे कि जब हम बिहार और उड़ीसा के प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर सर स्टुअर्ट कॉल्विन बेले के नाम पर बनी सड़क (बेली रोड) (अब नेहरू पथ) से पटना उच्चन्यायालय के सामने पटना वीमेंस कॉलेज के दीवार के साथ दाहिने बोरिंग रोड नमक सड़क पर चलते हैं, तो सड़क पर ही अनुग्रह नारायण सिंह के नाम वाले कालेज के पास पहली बोरिंग हुई थी। यही कारण है कि इस सड़क का नाम बोरिंग रोड हो गया। इतना ही नहीं, बोरिंग रोड चौराहे से जो रास्ता राजापुर होते मुख्य सड़क से मिलती है और जिसके नीचे बहुत चौड़ा पाईप बिछा है शहर के पानी को गंगा में फेंकने के लिए; बोरिंग केनाल रोड के नाम से विख्यात हुआ।
बेली रोड का निर्माण और नामकरण सन 1912 के आस-पास ही है जब बंगाल प्रोविंस अलग हुआ था और पटना बिहार और ओड़िसा की राजधानी बानी। उस समय बिहार और उड़ीसा के प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर सर स्टुअर्ट कॉल्विन बेले थे। “बेले” ही बिहारी-स्टाईल में अप्भ्रन्सित होकर “बेली” हो गए और सड़क बेली रोड। बेली रोड की शुरुआत डाकबंगला चौराहे से प्रारम्भ होता है। इस चौराहे को बीच से एक सड़क फाड़ती है जिसका एक छोड़ पटना रेलवे स्टेशन जाता है और दूसरा ऐतिहासिक गांधी मैदान। इस सड़क को फ्रेजर रोड के नाम से जाना जाता है, जिसका नामकरण बंगाल के लेफ्टिनेंट गर्वनर सर ए एच एल फ्रेजर के नाम पर वर्ष 1906 में हुआ।
गाँधी मैदान से पटना गुलजारबाग के रास्ते गुरु गोविन्द सिंह के जन्म स्थान पटना सिटी (अब पटना साहेब) की ओर जाने वाली ऐतिहासिक सड़क “अशोक राज पथ” सम्राट अशोक के नाम से दर्ज है। गुलजारबाग अपने क्षेत्र के बगीचों के कारण प्रसिद्धि पाया और नाम भी। पटना सिटी के दक्षिण -पूर्व स्थित बड़ी और छोटी पहाड़ी का नामाकरण अशोक मौर्य ने करवाया था। बौद्ध स्तूपों के कारण इनका नाम बड़ी एवं छोटी पहाड़ी पड़ा। इसी तरह पटना सिटी स्थित त्रिपोलिया जहां तीन पोल या तीन प्रकार के फाटक हुआ करते थे। मुगलकाल में एक ऐसा बाजार था जिसमें आने-जाने के लिए तीन बड़े द्वार या रास्ते थे। वही त्रिपोलिया अस्पताल के पास मुगलकाल में चिडिय़ा मारने वाले लोग रहा करते थे। जिस कारण मोहल्ले का नाम मीर शिकार टोह पड़ा।
यहीं पटना सिटी में ही जहाँ चुंगीकर कार्यालय है “मालसलामी” के नाम से विख्यात हुआ। इसका वजह यह था कि यहाँ “सलामी” या टैक्स के रूप में व्यापारियों की अपने माल के बदले एक निश्चित रकम देना पड़ता था। मालसलामी मुहल्ला के दक्षिण नगला या नगरा मोहल्ला नगरम से बना है। अजातशत्रु ने सर्वप्रथम यहां चारदीवारी वाला नगर बसाया था। पटना साइंस कॉलेज के इलाका जो बादशाही गंज के नाम से मशहूर हुआ। इस क्षेत्र में औरंगजेब का पोता फर्रुखसियर आया था जिसे खुश करने के लिए मोहल्ले का नाम बादशाही गंज रखा गया। बाद में इसी मोहल्ले में ठठेरों की बस्ती विकसित हुई जिसे ठठेरी बाजार कहा जाने लगा। अब आइये “दरियापुर” मोहल्ला। कहा जाता है कि अफगानों के शासनकाल में बिहार का तत्कालीन गर्वनर दरियाखां नूहानो के नाम पर मोहल्ले का नाम दरियापुर पड़ा।
गांधी मैदान के पश्चिम दक्षिण स्थित छज्जूबाग मोहल्ले का नाम छज्जू माली के नाम पर पड़ा। जो विशाल बाग-बगीचे का देखभाल किया करते थे। इस बगीचे के प्रमुख आम अलीवर्दी और सिराजुद्दौला को भेजा जाता था। इस मोहल्ले में छज्जू शाह का मकबरा आज भी है। पटना मेडिकल कालेज अस्पताल के पास एक मोड़ पर कुआं हुआ करता था जहां पर एक व्यक्ति प्रतिदिन आकर मक्खन बेचा करता था। आने वाले दिनों इस जगह का नाम मखानियां कुआं हो गया। पटना कॉलेज और खुदाबख्स लाइब्रेरी के बीच उत्तर की ओर जाने वाली सड़क खजांची रोड से जानी जाती है। 19 वीं सदी के अंत और 20 वीं सदी के प्रथम चरण में सरकार को ब्याज पर कर देने वाले धनी व्यक्ति रहा करते थे जिन्हें खजांची बाबू भी कहा जाता था। इन्हीं लोगो के कारण इस मोहल्ले का नाम खजांची रोड पड़ा। यह खजांची रोड ही है जहाँ पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्य मंत्री डॉ विधान चंद्र रॉय का जन्म हुआ था, जहाँ अपनी माता के नाम पर एक विद्यालय खुला था – अधोर शिशु विद्या मंदिर ।
पटना कॉलेज के दक्षिण निचली सड़क पर स्थित भिखना पहाड़ी बौद्ध भिक्षुओं का गढ़ हुआ करता था। मौर्य काल में यहां बौद्ध मठ थे जिसमें बौद्ध भिक्षु रहा करते थे। इसके अलावा भिखना कुआं देवी एवं भिखना कुंवर नामक एक संत रहा करते थे। जिसके बाद इस मोहल्ले का नाम भिखना पहाड़ी रखा गया। इसी तरह, बौद्ध भिक्षु हरे-भरे बाग में टहला करते थे जिसे रमण के नाम से भी जानते थे। इस क्षेत्र को अंग्रेजों ने मनीसरूल्ला नामक नबाव को दिया जो शाह आलम द्वितीय से दीवानी अधिकार प्राप्त किया। आर्य कुमार रोड से सटे मछुआरों की बस्ती वाला मोहल्ला मछुआ टोली के नाम से विख्यात हुआ। इस मोहल्ले के लोग गंगा नदी और दरियापुर गोला से बरसात के मौसम में मछली पकड़ लाकर बेचा करते थे। मछुआ टोली के सटे मोहल्ले जहां बरसात के दिनों में पानी लग जाता था। जिसके कारण लंगर वाले नाव चला करता था। जिसके कारण इस मोहल्ले का नाम लंगरटोली पड़ा।
इसी तरह, जहांगीर कालीन बिहार के गर्वनर मिर्जा रूस्तम सफवी के पुत्र मिर्जा मुराद 17 वीं सदी में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हुआ करते थे। उन्हीं के नाम पर मोहल्ले का नाम मुरादपुर पड़ा। पीरबहोर मोहल्ला का नाम संत दाता पीरबहोर के नाम पर पड़ा। जिनका मजार आज भी दाता मार्केट से सटे है। संत दाता पीरबहोर शाह अरजान के समकालीन थे। पटना के दक्षिण एरिया में स्थित शहर का विशाल मोहल्ला कंकड़बाग बना है। कंकड़बाग का इलाका बादशाह अकबर द्वारा ईरान के शाह तहमरूप के पुत्र को जागीर के रूप में प्रदान किया गया था। लाल बालू, मिट्टी, कंकड़ और झाडिय़ों के कारण यह इलाका कंकड़बाग से मशहूर हुआ।