अविभाजित भारत या अविभाजित बिहार या फिर करीब चार करोड़ मैथिल समुदाय के लोग या विश्व के करोड़ो-करोड़ पर्यटक शायद यह नहीं जानते होंगे कि कामाख्या हिल पर स्थित भुनेश्वरी मंदिर महाराजा दरभंगा का है? और यह भारत ही नहीं, विश्व का एक बबेहतरीन पर्यटक स्थल बन सकता है – लेकिन “का पर करू श्रृंगार पिया मोर आन्हर !!”
ऐसा इसलिए नहीं कि भारत अथवा विश्व के लोगों को, पर्यटकों को, इतिहासकारों को, शोधकर्ताओं को इस विषय से कोई दिलचस्पी नहीं होगी। या वे देश के उत्कृठ महाराजाओं की गरिमा, उनकी गाथाओं को, तत्कालीन समाज के प्रति उनकी प्रतिबद्धता जानने के लिए वे इक्षुक नहीं होंगे; अलबत्ता, यह जानकारी सम्पूर्ण विश्व को, विश्व के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित भी करेगा। लेकिन बिडम्बना यह है कि आज कामाख्या हिल (भुनेश्वरी) के स्वामी को ही लोग नहीं जानते। पढ़ने-सुनने में “कर्ण-प्रिय” नहीं लगता, लेकिन सत्य यही है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दसकों पूर्व जब दरभंगा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की “अपार-सम्पत्तियों” का बँटवारा उनके परिवार के सदस्यों में हुआ, असम राज्य के ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर बसा गौहाटी शहर के पास नीलांचल पर्वत पर स्थित कामाख्या शक्तिपीठ के ऊपर स्थित भुनेश्वरी मन्दिर महाराजाधिराज के भतीजे दिवंगत माननीय शुभेश्वर सिंह के दो पुत्र – श्री राजेश्वर सिंह और श्री कपिलेश्वर सिंह – को मिला। यह ऐतिहासिक स्थान महाराजा के अन्य ऐतिहासिक “इममोबेबुल सम्पत्तियों” में एक था । इतना ही नहीं, बनारस के ऐतिहासिक “मीरघाट”, “सिमथ” और मणिकर्णिका घाट के समीप पानी में स्थित भूभाग भी उन्हें के हिस्से मिला, जो महाराजाधिराज का था ।
बहरहाल, इन क्षेत्रों में रहने वाले बड़े-बुजुर्ग, जो आठ दसक के बसंत को देखा, वे भी नहीं जानते की “आखिर इन ऐतिहासिक घरोहरों का वर्तमान स्वामी कौन है ? उनके लवों पर महाराजाधिराज का नाम बहुत ही श्रद्धा और सम्मान के साथ आता है। स्थानीय महिलाएं तो महाराजाधिराज का नाम भी नहीं लेतीं, ससम्मानार्थ । लेकिन आज की पीढ़ियां महाराजाधिराज की वर्तमान पीढ़ियों को नहीं जानती, पहचानती जो इन सम्पत्तियों के स्वामी हैं।
धार्मिक-ज्ञाताओं का मानना है कि कामाख्या का भुनेश्वरी मंदिर, कामाख्या मंदिर से अधिक “उग्र” है। हिंदू धर्म के अनुसार, भुवनेश्वरी देवी 10 महाविद्या देवी में से चौथी देवी हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 7 वीं और 9 वीं शताब्दी के बीच हुआ था। पत्थरों से बने इस मंदिर की संरचना कामाख्या मंदिर से काफी मिलती-जुलती है। इन्हें आदि पराशक्ति या पार्वती भी कहते हैं जो शक्ति के सबसे पुरातन रूपों में से एक हैं। शिव, जो त्रयंबक या भुवनेश्वर के स्वरूप में है। भुवनेश्वरी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है – भुवन और ईश्वरी।
इतिहास गवाह है कि महाराजा रामेश्वर की दीक्षा पूर्णाभिषेख संस्कार कामाख्या मंदिर में ही हुआ था। कामाख्या में उनकी साधना कामाख्या पीठ की सबसे ऊँची चोटी भुनेश्वरी में करते थे। तत्पष्चायत जब राजनगर आए तो यहाँ भी कामाख्या मंदिर बनाकर माँ भुनेश्वरी की स्थापना तंत्र विधान से 1924-1927 तक के बीच किये। महाराजा स्वयं रात्रि से प्रातः 3 तक कई बार कामाख्या मंदिर में अर्चना करते थे। दरभंगा के मशहूर शक्ति साधक महाराज रमेश्वर सिंह 1898 में भूकम्प से क्षतिग्रस्त हुए कामाख्या मंदिर का नये सिरे से निर्माण भी करवाया था । उन्होंने शक्तिपीठ को काफ़ी भूमि – सम्पति भी दान किये थे। इतना ही नहीं, प्राचीन सौभाग्य कुंड को दरभंगा के महाराज रामेश्वर सिंह ने दो भागों में बाँट कर बीच में एक ईंट की दीवार बनवाई थी। वे देवी भुवनेश्वरी का एकाक्षरी मंत्र ‘ह्रीं’, त्र्याक्षरी मंत्र ‘ऐं ह्रीं श्रीं’ के सिद्ध-पुरुष थे।
बहरहाल, विगत दिनों बिहार के मधुबनी जिले के राजनगर क्षेत्र में महाराजा रामेश्वर सिंह द्वारा स्थापित “कामाख्या मंदिर” में उपस्थित लोगों से बात काने प् ज्ञात हुआ कि आज इस पीठ की पूजा-अर्चना में काफी कमी हो गयी है। मंदिर परिसर में उपस्थित एक वृद्ध कहते हैं: “माँ भगवती की अर्चना में कमी होना शुभ संकेत नहीं है। यह आप इस ऐतिहासिक भवनों के अतिरिक्त दरभंगा के किलों की ढ़हती ईंटों को, नामोनिशान मिटती व्यवस्थाओं को देखकर लगा सकते हैं। यह बहुत ही सिद्ध स्थान है अउ ऐसे सिद्ध स्थान की उपेक्षा समाज के लिए शुभ संकेत नहीं है।”
देवी भुवनेश्वरी आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं और तैत्रेय उपनिषद के अनुसार आकाश सर्वप्रथम रचनाओं में से एक है। इस उपनिषद अनुसार आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से पौधे तथा जड़ी बूटियां, पौधे तथा जड़ी बूटियों से भोजन, तथा भोजन से मनुष्य का निर्माण हुआ है। ललिता सहस्त्रनाम में देवी भुवनेश्वरी का व्याख्यान है जिसमें उन्हें इस संपूर्ण ब्रह्मांड की रानी बताया गया है। ‘ह्रीं’ बीज को माया बीज या भुवनेश्वरी बीज भी कहा गया है। इस बीज मंत्र में संरचना की अद्भुत क्षमता है तथा इसे सबसे अधिक शक्तिशाली बीज मंत्रों में से एक माना गया है क्योंकि यह बीज अपने अंदर शिव बीज, अग्नि बीज तथा कामकला बीच को सम्मिलित करता है।
मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। कहा जाता है कि आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो ब्रह्मपुत्र नदी के बीचोबीच टापू के ऊपर स्थित है, का दर्शन करना आवश्यक है। लोग यह मानते हैं कि यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।
बहरहाल, अपने एक हाथ को सर पर रखकर, दूसरे हाथ से धोती के कोने से अपनी अश्रुपूरित आखों को पोछते कोई नब्बे वसंत का गवाह एक वृद्ध कहते हैं: “अउ बाबू !! आब त कामाख्या माँ के देखई वाला कोई नहि छै। जीवन में कतेक बेर भुनेश्वरी मंदिर गेलउँ, आब स्मरण नहि अछि। महाराजा रामेश्वर सिंह जी द्वारा स्थापित ई कामाख्या पीठ बहुत उग्र छल। परन्तु, आब सांझक महत्व कोई नहि बुझैत छै। संस्कार के सर्वनाश भय जेल अछि। कोन दिन ईंट आ छत भरभरा जाएत, कोई नहि कहि सकैत अछि। माँ कामाख्या अपन रक्षा स्वयं के रहल छथि। हे माँ।”