सीताराम बाज़ार (पुरानी दिल्ली) : अभी मैं दिल्ली शहर के एक #बाजार में खड़ा हूँ बीचो बीच। मन में 42 साल पहले #सागरसरहदी के निर्देशन में बना एक सिनेमा याद आ गया है। उस सिनेमन को पटना के वीणा सिनेमा गृह में देखा था। उस सिनेमा में #नसरुद्दीनशाह, #फ़ारुक़शेख, #स्मितापाटिल और #सुप्रियापाठक मुख्य भूमिका निभाए थे। वह सिनेमा खाड़ी के देशों में अमीर लोगों के हाथों बेची जाने वाली एक युवा लड़की की त्रासदी को दिखाया था। उस सिनेमा को बनाये थे #विजयतलवार साहेब और कहानी लिखे थे #इब्राहिमरूंगला जी। वह सिनेमा साल 1982 के जुलाई महीने में भारत के सिनेमा घरों के पर्दों पर आया था। सिनेमा का नाम था #बाजार। उस सिनेमा के कई बेहतरीन गीत थे। उन गीतों में एक गीत था:
😢 देख लो आज हमको जी भरके
कोई आता नहीं है फिर मरके 😢
इस गीत के बोल लिखे थे #मिर्ज़ाशौक़लखनवी, पार्श्व गायिका थी ख़य्याम साहब की पत्नी #जगजीतकौर साहिबा और संगीत दिया था ख़ुद #खय्याम साहब। इस गीत का जिक्र यहाँ इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि अभी मैं जहाँ खड़ा हूँ, आधुनिक #भारत के #इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय यहीं से प्रारम्भ हुआ था। इस स्थान पर ही एक खूबसूरत महिला #सुहागन बनी थी। आज इस स्थान को देखने वाला है तो कई लोग, कई हज़ार-हज़ार करोड़ों के मालिक भी हैं – लेकिन उनके लिए इस भूमि के प्रति #वेदना और #संवेदना मृत है। तभी तो यह स्थान आज बाजार में बिक गया। अब एक नया स्वामी हो गया इस जगह का। अब यहाँ गगनचुंबी इमारत खड़ा होगा।
हौज काजी मेट्रो स्टेशन के प्रवेश-निकास द्वार तीन से बाहर निकल कर जब एक बुजुर्ग रिक्शावाला से पूछा कि आप मुझे सीताराम बाजार मंदिर के पास ले चलेंगे, जहाँ कभी भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की शीदी हुई थी? रिक्शावाला मेरे चेहरे को टुकुर-टुकुर देखने लगा। मेरी उम्र और उस रिश्वाला की उम्र में कोई 20 वर्ष का फासला जरूर था। उसकी कमर झुकी थी, लेकिन हिम्मत अडिग था। उसके हाथों की कलाई उस उम्र में भी काफी चौड़ी थी। कलाई पर धमनी और शिराओं का विशाल जमघट दिख रहा था। आम तौर पर समाज के धनाढ़्य लोग ऐसे हाथ और हाथों की धमनी – शिराओं को दिखने-दिखाने लायक बनाने के लिए न जाने कितने लाख रूपये खर्च करते हैं व्यायाम पर। इस मजदुर का हाथ देखकर मन खुश हो गया।
मैं मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था, तभी वह बुजुर्ग कहता हैं: “अब नेहरू जी की शादी वाली जगह कहाँ रहा वह जगह, अब तो गुटका वाला का हो गया। अब तो एक महीने के अंदर ही वहां के सभी दुकानदारों को अपनी-अपनी दूकान समेट कर कहीं और जाना होगा। न्यायालय का आदेश हो गया है।”
अपनी बात समाप्त कर फिर वह मुझसे पूछता हैं: “आप पत्रकार हो?” मैं गर्दन हिला दिया। इससे पहले की मैं रिक्शा बैठूं, उसके होठ लाल देखकर उससे पूछा कि ‘आप पान खाएंगे? मुझे भी खाना है। सोचता हूँ काम शुरू करने से पहले पान खा लूँ।”
आम तौर पर पान खाने वाला व्यक्ति पान का नाम सुनकर प्रफुल्लित हो जाता है। वह मुझे बैठने को कहा और सीताराम बाजार की ओर निकल पड़ा। कोई पचास कदम आगे बढ़ कर एक पानी की दूकान पर रोका और कहा: ‘यहाँ पान एक बार खा लें, आप यहीं आकर पान खाया करेंगे।” पहले दोनों पान खाये और दो-दो पान बांधकर झोला में रख लिए।
हौजकाजी के इस स्थान से एक रास्ता नई सड़क-जामा मस्जिद की ओर जाती है, जबकि दूसरे सीताराम बाज़ार के रास्ते तुर्कमान गेट के तरफ आती है। एक रास्ता कश्मीरी गेट होते कमला मार्किट के रास्ते नई दिल्ली होते कनाट प्लेस की और बढ़ती हैं जबकि एक रास्ता लालकुआं की ओर जाती है।
दो-तीन दशक और उससे पहले इन इलाकों में सैकड़ों बारे आया था अनेकानेक कहानियों के कारण। विगत दिनों जब वेश्याओं पर कहानी कर रहा था तो आया था। खैर। सीताराम बाजार सड़क से आगे बढ़ने पर एक मंदिर के पास से दाहिने हाथ जब सड़क मुड़ती है, रिक्शावाला कहता है: “हुजूर !! आप सीताराम बाजार – चूड़ी वालान के उस जगह पर आ गए जहाँ कभी स्वरुप नारायण की हवेली हुआ करती थी। सुनते हैं स्वरूप नारायण की हवेली तीन तल्ला मकान होता था। विशालकाय बरामदा और तत्कालीन मुग़ल सल्तनत वाली नक्कासीदार खिड़कियां और सजावट होती थी। रिक्शावाला के मुख से इन बातों को सुनकर हैरानी भी हुई और अच्छा भी लगा।
पंडित जवाहरलाल नेहरू का परिवार आज भी जीवित हैं। सन 1916 में जब जवाहरलाल का कमला कॉल के साथ विवाह हुआ था, उन दिनों नेहरू परिवार की जो भी आर्थिक स्थिति रही हो, आज के परिपेक्ष में उसकी तुलना नहीं की जा सकती है। हाँ, जब सोच की बात होगी तो शायद कभी न कभी लोग यह सोचने पर विवश होंगे ही कि आखिर जिस घर से जवाहर लाल नेहरू – कमला कॉल (बाद में नेहरू) का दाम्पत्य जीवन प्रारम्भ हुआ, आज पुरानी दिल्ली की गलियों में अपनी जिंदगी की एक-एक सांस लेते वहां की मिट्टी अंततः दम तोड़ दी।
आज तक नेहरू के विवाह का एक हिस्सा माने जाने वाले वह स्थान, कल किसी निजी लोगों की संपत्ति के रूप में जानी जाएगी। हक्सर की हवेली के साये में दशकों से अपना और अपने परिवार का जीवन यापन करने वाले कोई 18 दुकानदार अपने कलेजे पर पत्थर रखकर अगले माह सितम्बर 24 तक न्यायालय के आदेशानुसार उन्हें उसे खाली करना होगा ताकि वहां नए सिरे से भवन का निर्माण हो सके।
हक्सर की हवेली ही एक मात्र पुरानी दिल्ली की संपत्ति नहीं है, यहाँ की तंग गलियों में आज भी दर्जनों हवेलियां अपने-अपने भाग्य को कोसते अपने जीवन के अंतिम सांस की प्रतीक्षा कर रहा है। कई हवेलियां और कोठियों के मालिओं की अगली पीढ़ियां उस मिटटी को त्यागकर भारत ही नहीं विश्व के अन्य स्थानों में अपने जीवन का निर्वहन कर रहे हैं। वजह एक तरफा नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, व्यवसाय के अलावे बहुत से ऐसे कारण हैं जो दशकों पहले की पीढ़ियों को वर्तमान पीढ़ियों की सोच से अलग करता है।
आज के इस वैज्ञानिक युग में, जहाँ क्षण-प्रति-क्षण बदलाव आ रहा है, लोग धरती से चन्द्रमा पर पहुँच रहे हैं, वहां पुरानी दिल्ली की गलियों में हक्सर की हवेली जैसे हश्र होना भी स्वाभाविक है। लेकिन एक बात सोचने को विवश कर देता है कि नेहरू-गांधी परिवार के लगभग सभी पुराने घर – चाहे वह इलाहाबाद में आनंद भवन हो, या लुटियंस दिल्ली में तीन मूर्ति हाउस हो या फिर 1, सफदरजंग रोड हो, या दिल्ली शहर में कमला नेहरू के नाम पर, नेहरू के नाम पर, इंदिरा गांधी के नाम पर, राजीव गांधी के नाम पर अनेकानेक संग्रहालय हो या संपत्ति, जवाहरलाल नेहरू और कमला कौल नेहरू की शादी के लिए पुरानी दिल्ली की यहाँ की मिट्टी गुमनाम होते-होते मृत्यु को प्राप्त की।
वैसे यहाँ के आज के वासिंदे यहाँ की इतिहास से वाकिफ नहीं हैं। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो यहाँ की इतिहास को सम्पूर्णता के साथ बता सके। आज़ादी के बाद के वर्षों में भी इस स्थान के बारे में तत्कालीन सरकार या व्यवस्था के लोग इस स्थान को प्रमुखता के साथ घरोहर के रूप में भी नहीं उजागर कर सके। यही कारण है कि चाहे आप हौजकाजी के तरफ से आएं या तुर्कमान गेट के तरफ से हक्सर की जावेळी को ढूंढना मजाक नहीं है।
कुछ लोगों का मानना है कि सीताराम बाज़ार में स्थित हक्सर हवेली, कभी दो मंजिला इमारत थी जो कमला नेहरू का पारिवारिक घर था। बाद में परिवार ने इसे बेच दिया गया। इस परिसर के दो तरफ कोई साठ-सत्तर वर्ष बनी करीब 18 दुकानें है। दुकानदारों की तीसरी पीढ़ियां आज तक याहं से अपने अपरिवार का भरण पोषण करते आया है। लेकिन अगले माह के बाद इस कार्य के लिए उसे कहीं और ठिकाना ढूँढना होगा।
जवाहरलाल नेहरू की शादी कमला कौल से 1916 में हुई थी। कहते हैं कमला कॉल का परिवार पुरानी दिल्ली के सीताराम बाजार में रहता था। कहा जाता है कि आज़ादी के बहुत बाद तक यह स्थान बहुत बेहतर था और स्थानीय लोगों के अलावे, शहर के विद्वान, विदुषी इस स्थान को जवाहरलाल नेहरू का ससुराल के नाम से जानते थे।
पूर्व भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) अधिकारी पवन के वर्मा द्वारा लिखित वॉल्ड सिटी में हवेलियों पर एक किताब – ‘मैन्शन एट डस्क: द हवेलिस ऑफ ओल्ड डेल्ही’ के अनुसार 1857 के विद्रोह के दौरान हवेली को बहुत नुकसान पहुंचा था। उन्होंने यह भी उद्धृत किया है कि जंगे आज़ादी के दौरान इस हवेली को तत्कालीन ब्रिटिश सैनिकों ने इसमें तोड़फोड़ की थी। परिणाम यह हुआ कि यहाँ रहने वाले लोग यहाँ नहीं रह सकते थे। सं सत्तावन के युद्ध के करीब तीन दशक बाद 1887 के आस-पास इसका पुनर्निर्माण कराया गया था। यह भी कहा जाता है कि हक्सर परिवार ने 1970 के दशक के मध्य में यह संपत्ति दिल्ली यार्न एसोसिएशन को बेच दी थी। सामान्य के साथ -साथ इस हवेली की स्थिति बहुत बदल गई।
चूड़ीवालान और बाजार सीताराम का यह इलाका उन दिनों कश्मीर से आये लोगों के लिए विख्यात था। यहाँ कई सौ नहीं, बल्कि कई हज़ार कश्मीरी परिवार रहते थे। यह भी माना जाता है कि आज़ादी के बाद, कश्मीर के वासिंदे क्रमशः यहाँ से विस्थापित होकर दिल्ली के अन्य इलाकों के अलावे कश्मीर भी वापस हुए थे। यह भी माना जाता है कि यह एक भव्य संरचना हुआ करती थी जिसमें पारंपरिक शाहजहानाबादी हवेली की सभी विशेषताएं थी।
कुछ बड़े-बुजुर्गों का कहना है कि कांग्रेस राज के दौरान भी कभी यह स्थान तत्कालीन संचार माध्यमों का ध्यान आकर्षित नहीं कर सका। या हूँ भी कह सकते हैं कि संचार माध्यम से जुड़े लोगों ने पंडित नेहरू से जुड़े इस स्थान को तबज्जो नहीं दिया। लोगों का यह भी मानना है कि इस स्थान पर पंडित जवाहर लाल नेहरू के विवाहोपरांत, या फिर श्रीमती इंदिरा गाँधी, या फिर राजीव गाँधी, संजय गाँधी और आज की पीढ़ी कभी इस स्थान के महत्व को समझा। पुरानी दिल्ली के चूड़ी वालों और सीताराम बाजार का यह इलाका एक समय नेहरू का ससुराल के रूप में विख्या हुआ था, समयांतराल लोगों के मानस पटल से मिटता चला गया। आश्चर्य इस बात की है कि भारत के अलावे अन्य राष्ट्रों के राष्ट्राध्यक्ष अपने और अपने पूर्वजों के स्थान को ढूंढने पुराणी दिल्ली की गलियों में आते हैं, लेकिन नेहरू के परिवार के लोगों ने कभी ऐसा नहीं किया।
एक रिपोर्ट के अनुसार, कौल परिवार ने 1970 के दशक की शुरुआत या मध्य में हवेली बेच दी थी और नए मालिक ने इसका रखरखाव नहीं किया, जिसके कारण यह ढह गई। चूंकि संपत्ति कई वर्षों तक काफी हद तक अप्रयुक्त रही, इसलिए यह ढहने लगी। संपत्ति का एक हिस्सा 1980 के दशक में ढह गया और दूसरा महत्वपूर्ण हिस्सा 90 के दशक में ढह गया। इसकी कोई भी विशेषता आज समय की मार से बची नहीं है और लगातार कचरा डाले जाने के कारण यह जगह मलबे के ढेर जैसी दिखती है।