सरिसब-पाही (मधुबनी) : आज से कोई पचास दिन पूर्व फेसबुक के आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम पेज पर एक याचना लिखा था। याचना मिथिला के लोगों के लिए था। कहते हैं मिथिला में विद्वानों और विदुषियों की किल्लत नहीं है। बड़े-बुजुर्ग तो यहाँ तक कह दिए कि मिथिला में दरबाजे पर जो जीव-जंतु बंधे होते हैं, वह स्थानीय हवाओं में बौद्धिक, आध्यात्मिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक, मानवीय गुणवत्ताओं की प्रचुरता के कारण उसका व्यवहार भी मानवीय व्यवहारों के पराकाष्ठा जैसा होता है। याचना में लिखे थे कि “मिथिलाक्षेत्र ऐतिहासिक पुरातत्वों/धरोहरों का गढ़ हैं। आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम उन सभी पुरातत्वों/धरोहरों पर एक श्रृंखला प्रारम्भ करने जा रहा है । आपका भी स्वागत है अगर आप भी लिखना चाहें – न्यूनतम शब्द 3000 और कहानियों में तस्वीरों की संख्या बीस” – उक्त याचना विगत 7 अप्रैल को अपरान्ह काल 4.22 बजे पोस्ट किये थे।
विगत 50 दिनों में 184 महामानवों तक वह पहुंचा। दरभंगा के श्री सरोज मिश्र जी उक्त पोस्ट पर ‘बधाई’ लिखे और ‘प्रणाम’ का ‘इमोजी’ चिपकाये। आठ जगह जो ‘मैथिलों’ और ‘श्रोत्रियों’ का गढ़ है, बांटे भी। आश्चर्य की बात तो यह है कि फेसबुक पर मिथिला के रहने वाले, चाहे वे मिथिला क्षेत्र में रहते हों, अथवा शहरों में, महानगरों में गगनचुम्बी अट्टालिकाओं से लेकर संकीर्ण गली-कूचियों में, फेसबुक पर या अन्य सामाजिक क्षेत्र के मीडिया पर उपस्थित अवश्य हैं।
विगत दिनों मिथिला क्षेत्र में, मिथिला के ‘विकास’ के लिए कार्य करने वाले कई लोगों से गुफ़्तगू किये। सबों का कार्य ‘सम्मानित’ मिला। लेकिन बातचीत के दौरान 90 फीसदी से अधिक लोगों का अंतिम कथन यही था कि ‘इन कार्यों से प्रचार-प्रसार होता है, लोग-बाग़ जानते हैं, पहचानते हैं। यह सभी जान-पहचान आने वाले समय में जब वे अथवा उनकी संस्थाओं के लोग राजनीति में प्रवेश लेंगे, चाहे पंचायत के लिए चुनाव लड़े, जिला परिषद के लिए, विधान सभा के लिए, विधान परिषद के लिए, या लोक सभा के लिए – उनका वह सामाजिक कार्य मददगार होगा। अंतिम पंक्ति सुनकर मन हताश हो गया। लेकिन उससे भी अधिक कष्ट तब हुआ जब लोगों ने ‘याचना’ पर अपनी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दिखाया।
कल क्या हो जाये, कहा नहीं जा सकता। संभव है जिस मिथिला क्षेत्र में आज ‘खेती के अलावे (मोहतरमा बाढ़ जी की त्रादसी के अधीन) ऐसा कोई भी साधन अथवा व्यवस्था नहीं है, जो एक अलग राज्य के लिए उपयुक्त हो, ‘मिथिला राज्य’ के रूप में देश का 29 वां राज्य बनकर उपस्थित हो जाए । क्योंकि कुछ भी कहा नहीं जा सकता की कब दिल्ली में बैठे नेताओं को एक बार फिर बिहार को दो फांक में काटकर स्थानीय नेताओं के हाथों ‘खिलौना’ स्वरुप हस्तगत करा दें।
खैर, वर्तमान काल में बिहार के कुल 9 डिवीजन्स, 38 जिलों, 101 सब-डिवीजन्स, 207 सिटीज और टाउन्स, 534 ब्लॉकों, 8,406 पंचायतों और 45,103 गांव में शायद ही कोई क्षेत्र ऐसा होगा, जहाँ की मिट्टी की अपनी इतिहास नहीं होगी। वह इतिहास या पुरातत्व चाहे निर्जीव हो अथवा सजीव, उस गाँव की मिटटी की, वहां की मानसिकता की, वहां की शिक्षा के, वहां की बौद्धिक स्तर की सम्पूर्णता के साथ व्याख्या करता है। दुर्भाग्य यह है कि इस कार्य की जिम्मेदारी भी प्रशासन और सरकार पर थोप दी गई है।
कल की ही तो बात है – सम्पूर्ण बिहार बाबू कुंवर सिंह के बारे में चर्चा कर रहा था। सामाजिक क्षेत्र के मीडिया पर हज़ारो लोग बाबू कुंवर सिंह की तस्वीर के साथ अपनी तस्वीर चिपकाकर दूर-दूर तक फैला रहे थे। लेकिन क्या कोई इस बात पर मंथन किये कि बाबू कुंवर सिंह के परिवार के कोई आज जीवित हैं अथवा नहीं? बाबू कुंवर सिंह के सेना प्रमुख बाबू जसपाल सिंह के वंशज आज जीवित है अथवा नहीं? शायद नहीं।यह महज एक बड़ा दुर्भाग्य नहीं, बल्कि बिहार के लोगों की मानसिकता को दर्शाता है।
अगर सम्पूर्ण बिहार के गाँव की बात तत्काल नहीं भी करें तो उत्तर बिहार, खासकर मिथिला के क्षेत्र में मानवीय धरोहरों की तो कमी है ही नहीं, उनकी पीढ़ी-दर-पीढ़ियां आज भी हैं। लेकिन प्राकृतिक पुरातत्व की भी किल्लत नहीं है चाहे बेगूसराय का क्षेत्र हो, मुंगेर का क्षेत्र हो, सहरसा का क्षेत्र हो, भागलपुर का क्षेत्र हो, दरभंगा का क्षेत्र हो, मधुबनी का क्षेत्र हो। किल्लत है खोजकर्ताओं, शोधकर्ताओं, जिज्ञासुओं, पिपासुओं की।
खैर, आज मधुबनी जिला के ऐतिहासिक सरिसब-पाही के पाही ग्राम के सम्मानित श्री अमल कुमार झा का आज पहला लेख आया आयाची मिश्र पर। अमल जी धरोहर प्रेमी, पाण्डुलिपि एवं दुर्लभ ग्रंथों के संग्रहकर्ता, सजग पाठक एवं गुरु भक्त हैं। ये विगत तीस वर्षों से लगातार अपने ग्रामीण परिसर की ऐतिहासिकता एवं पुरातात्विक अवशेषों के खोज में लगे हुए हैं। इन्होंने अपने ग्रामीण परिसर के अक्षर पुरुषों एवं उनकी कृतियों का संग्रह कर अपने ज्ञान वर्धन के लिए एक विलक्षण पुस्तकालय का निर्माण किया है।
अमल जी लगातार तीन वर्षों से यदुनाथ सार्वजनिक पुस्तकालय द्वारा दिए जाने वाले एक वर्ष में पुस्तकालय जा कर सबसे ज्यादा पुस्तक पढ़ कर पंडित श्यामानंद झा स्मृति पाठक सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। जो इन्हें एक सजग पाठक घोषित करता है। विगत वर्ष इन्हें इनके शिक्षा एवं शिक्षा के प्रचार प्रसार के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान के लिए श्री श्याम नाथ मिश्र फाउंडेशन, भट्टपुरा, दरभंगा द्वारा सम्मानित किया गया है। ये विगत कई वर्षों से लगातार निःशुल्क ऑनलाइन एवं ऑफलाइन कार्यशालाओं का आयोजन गृहणियों एवं स्कूली छात्र – छात्राओं के लिए कर रहे हैं। इनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य अपने परिसर के लोगों को अपने परिसर के कला, संस्कृति एवं इतिहास से अवगत कराना है।
कहा जाता है कि मिथिला की पुण्य भूमि के जितने पूज्य स्थल हैं उनमें सबसे विशिष्ट सरिसब ग्राम रत्न है। जब से मिथिला का इतिहास उपलब्ध है तब से इस ग्राम का इतिहास उपलब्ध है अपने अनेकों गौरव गाथाओं के साथ जो इसे अन्य सभी पूज्य स्थलों में विशिष्ट दर्शाता है। सरिसब एक विशाल ग्राम है जो मिथिला के प्राचीन नगर अमरावती के मध्य में स्थित है। इसके उत्तर में ‘भौर’ और ‘रैयाम’, पृर्व में ‘लोहना’ और ‘खररख’, दक्षिण में ‘गंगौली’ और ‘सखवाड़’ तथा पश्चिम में ‘पण्डौल’ स्थित है। ये सभी ग्राम प्राचीन हैं और सभी ग्रामों का इतिहास उपलब्ध है परन्तु सरिसब इन सभी से सबसे प्राचीन है।
सरिसब का अर्थ संस्कृत में ‘गौर सर्षप’ है जिसका पर्यायवाची शब्द ‘सिद्धार्थ’ है। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में ‘गौर सर्षप’ की खेती होती थी जिस कारण यह क्षेत्र ‘सिद्धार्थ’ क्षेत्र से प्रसिद्ध हुआ। सिद्धार्थ क्षेत्र का उल्लेख पुराणों है। कपिल मुनि के आश्रम से दो योजन पूर्व सिद्धार्थ क्षेत्र अवस्थित है। कपिल मुनि का एक आश्रम कपिलेश्वर में स्थित है। सरिसब की ग्राम देवता मां सिद्धेश्वरी हैं जिनकी प्रतिमा आज भी सरिसब ग्राम के मध्य में स्थित एक विशाल मन्दिर में पूजी रही है।
माँ सिद्धेश्वरी की प्रतीमा का उल्लेख तेरहवें शक शताब्दी के उत्तरार्द्ध में महामहोपाध्याय भवनाथ मिश्र प्रसिद्ध अयाची ने एक श्लोक द्वारा किया है:
दुष्टप्राणहरी गिरीन्द्रतनया नागेन्द्रहाराञ्चिता
भक्तिप्रस्वसुपर्वनायकशिरोरत्नाञ्चिताङिध्रद्वया।
भक्तानुग्रहहेतवे वटतटे स्थानं विधाय स्थिता
भूयाद् भव्यकरी पराभवहरी सिद्धेश्वरी मादृशाम्।।
वराह पुराण में अध्याय 160 श्लोक 44-45 में लिखा है कि बलभद्र की उपास्य देवी मां सिद्धेश्वरी थीं तथा बलभद्र की मिथिला वास पुराण की प्रसिद्ध कथा है।
बहरहाल, चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मिथिला के सोदरपुर सरिसब मूल के अवदात कुल में महामहोपाध्याय भवनाथ मिश्र का जन्म हुआ था। आजीवन अयाचना व्रत के पालन के कारण भवनाथ मिश्र अयाची नाम से प्रसिद्ध हुए। इनका मातृकुल और पितृकुल आदिकाल से विद्या – वैभव से प्रशस्त रहा है। इनके पितामह विश्वनाथ मिश्र मीमांसा के पण्डित थे और पिता न्याय शास्त्र के उद्भट विद्वान थे। इनके मातामह वटेश्वर ने न्याय दर्शन में दर्पण नाम के ग्रन्थ का प्रणयन किया तथा मिमांसा में प्रभाकर संप्रदाय के महार्णव नाम के ग्रन्थ की रचना की।
अयाची मिश्र किसी गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त नहीं की । उन्होंने अपने घर में अपने अग्रज जीवनाथ मिश्र से सभी शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। अर्जित ज्ञान को समय समय पर अपने शिष्यों और औरस पुत्र शंकर मिश्र को समर्पित करते रहे। शंकर मिश्र ने पाँच वर्ष से कम आयु में ही अपूर्व मेधा का परिचय स्वरचित श्लोक द्वारा दे कर राजा द्वारा सम्मानित हुए।
यह श्लोक –
बालोऽहं जगदानन्द नमे बाला सरस्वती।
अपूर्णे पञ्चमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम्।
अद्वितीय मेधा प्राप्ति हेतु आज भी बच्चों को रटाया जाता है। शंकर मिश्र ने सम्मान स्वरूप जो धन प्राप्त किया उसे अपनी माँ को समर्पित किया। शंकर मिश्र के जन्म के समय में उनकी मां ने चमाइन (दाई) को कुछ नहीं दे पाने के कारण वचन दिया था कि बच्चे का पहला उपार्जित धन तुम्हें अर्पित करुँगी ,वचन को पूर्ण करते हुए सारा धन चमाइन को समर्पित किया। चमाइन ने उस अकूत धन को देव कृपा मान जन कल्याण हेतु एक डाबर का निर्माण में खर्च दिया। जो आज भी जनमानस को अपने पवित्र जल से प्राण दान दे रहा है।
शंकर मिश्र ने अपने पिता से न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के मौलिक ग्रंथों को पढ़कर मौलिक ग्रंथों का प्रणयन तथा दुरूह ग्रंथों की व्याख्या कर अपने अर्जित विद्याधन को अपने उत्तर साधकों में बाँट दिया। शंकर मिश्र द्वारा लिखित न्याय वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त साहित्य के प्रमुख ग्रन्थ निम्नलिखित हैं – कणाद रहस्य, भेद रत्न, वादि विनोद, रसार्णव, मनोभव पराभव, गौरी दिगम्बर प्रहसन तथा कृष्ण विनोदी नाटिका, उदयनाचार्य के आत्म तत्व विवेक की कल्पलता व्याख्या, न्यायकुसुमाञ्जलि की आमोद व्याख्या, श्रीहर्ष के खण्डन खण्ड खाद्य के आनन्दवर्धिनी और शांकरी व्याख्या तथा वल्लभाचार्य के न्याय लीलावती की कण्ठाभरण व्याख्या प्रकाशित है।
अयाची मिश्र ने कभी कोई ग्रन्थ नहीं लिखा। यद्यपि मीमांसा शास्त्र का एक ग्रन्थ नयविवेक नाम साम्य के कारण चर्चा में आता है पर मीमांसा कुसुमांजलि में महामहोपाध्याय डा0उमेश मिश्र ने स्पष्ट लिखा है कि मधुबनी जिलान्तर्गत भट्ट सिमरी गांव के निवासी भवनाथ द्वारा लिखित है। शंकर मिश्र अपने सभी कृतियों में अपने पिता के पाण्डित्य के प्रति भक्ति, श्रद्धा तथा आत्मविश्वास अभिव्यक्त किया है।
अयाची ने निःशुल्क विद्यादान कर अपने शिष्यों से कम से कम दस विद्यार्थियों को निःशुल्क विद्यादान करने का वचन गुरु दक्षिणा स्वरूप माँगा। शिष्यों ने इस क्रम को अनन्त काल तक उत्तरोत्तर हस्तान्तरित कर निःशुल्क विद्यादान और गुरु शिष्य परम्परा को जीवित रखा।
आज भी सरिसब के अनेक विद्वान निःशुल्क विद्यादान कर रहे हैं। सरिसब विद्या का केंद्र रहा। लगातार पाण्डुलिपियों का लेखन होता रहा। पाण्डुलिपियों को चुराने और नष्ट करने के उद्देश्य से अनेक आक्रमण हुए। अनेक षड्यंत्र रचे गए। सरिसब की एक राज नटी ने दुर्लभ पांडुलिपियों की रक्षा करते हुए अपने प्राण त्याग दिए।
हर धर्म जाति के लोगों ने सरिसब के ज्ञान परम्परा का लोहा माना और अपनी श्रद्धा व्यक्त करते रहे। सरिसब आज भी अनेक स्कूलों और कॉलेजों के कारण विद्या का केन्द्र बना हुआ है। वाचनालय शास्त्र चर्चा के लिए प्रसिद्ध है। अनेक कला का जन्म और विकास सरिसब में होता रहा है। आज भी सिक्की, लाख, खाधी, धातु, मिष्ठान, पकवान और तार के पत्तों से बने हस्तशिल्पियों का केन्द्र है। अनेक कलाकार केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा सम्मानित हैं। युवा और किशोर समाज सेवा कर रहे हैं। समाज को सदा जागरूक रखते हैं। आपसी सद्भाव बना हुआ है।
सरिसब के प्रवेश पर सिद्धेश्वर नाथ महादेव का मन्दिर और मस्जिद का अगल बगल अवस्थित होना गंगा यमुनी तहजीब का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है। सरिसब बाजार आदि काल से अनेक व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध रहा है और अनेको बार अपनी समृद्धि के कारण लूटा भी गया है । यह गांव आज भी लगातार बढ़ रहा है। समृद्ध हो रहा है। इसलिए यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि सरिसब गाँव धीरे धीरे शहर के रूप में तब्दील हो रहा है।