‘लालगंज’ (मधुबनी) महज एक गांव नहीं, एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक विरासतों का गढ़ था, आज ‘वैभव’ की गवेषणा करने की आवश्यकता है

'लालगंज' (मधुबनी) महज एक गांव नहीं, एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक विरासतों का गढ़ था, आज 'वैभव' की गवेषणा करने की आवश्यकता है

लालगंज (मधुबनी, बिहार) : उस शाम माँ अपनी बेटी रीता के साथ अपने वृद्ध पिता से मिलकर लालगंज (मधुबनी) से अपने घर (उजान) आ रही थी। आम तौर पर उन दिनों अपने गाँव से लालगंज आने-जाने के लिए वह दरभंगा से निर्मली की ओर आने-जाने वाली रेल लाइन को पार कर खेत के रास्ते आड़ पकड़कर आया-जाया करती थी। मैं भी उसके साथ ऊँगली पकड़कर चलता रहता था। आम तौर पर अपने गाँव से जब लालगंज के लिए निकलते थे तब तत्कालीन उजान गाँव के प्राथमिक विद्यालय के बाएं दीवार को छूकर अनेकानेक टोलों को पार करते रेल लाइन तक पहुँचते थे। फिर रेल लाइन पार कर दाहिने हाथ के खेतों के आड़ को पकड़कर लालगंज के लिए चलते रहते थे। 

बात साठ के दशक के उत्तरार्ध और सत्तर के दशक के पूर्वार्ध की है। सत्तर के दशक उन दिनों रेल लाइन से खेत के रास्ते कुछ दूर चलने के बाद एक लकड़ी का पुल मिलता था। वह पुल कमला नदी के ऊपर बना था। वह पुल काला रंग का था। उस पल का निर्माण आज़ादी के पूर्व हुआ था। ऐसा माना जाता है कि उसके निर्माण के बाद निर्माणकर्ताओं ने उसे काले रंग में एक बार जो रंगा, उसका नाम ही ‘करिया पुल’ हो गया। समयांतराल, विभिन्न प्राकृतिक आपदाओं के कारण वह कमजोर होता गया। उस पुल को पार करने के बाद कोई एक एक कोस पैदल चलने के बाद खेत के रास्ते के बीचोबीच, लेकिन बाएं तरफ, ईमली का दो विशाल पेड़ था। वह पेड़ इस रास्ते मुसाफिरों के लिए एक बरदान स्वरुप था – गर्मीं-बारिस में मददगार तो होता ही था। इतना ही नहीं, खेत में काम करने वाले किसानों के लिए दम लेने के लिए, थकान दूर करने के लिए एक बेहतर स्थान था। 

उन दिनों उस रास्ते के दोनों तरफ दूर-दूर तक सिर्फ खेत-ही-खेत था जिसमें समयानुसार विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती होती थी – खासकर धान, मड़ुआ, ईख और अनेकानेक सब्जियां। इस ईमली बृक्ष से कुछ दूर पर नाक के सीध में आसमान की ऊंचाई को छूने वाला चार विशालकाय इक्विपलिप्टस का बृक्ष था, जो हमारे ननिहाल, यानी, लालगंज गाँव की उपस्थिति का बोध करता था। उस बृक्ष के नीचे तक आते-आते हम सभी थक जाया करते थे। अक्सरहां, हम सभी जब ईमली के बृक्ष से कुछ आगे निकलते थे, तब हमारे ननिहाल के लोग, विशेषकर माँ के पिताजी, उनके चाचाजी, माँ के भाई या अन्य बड़े-बुजुर्ग जो भी दालान की ओर होते थे, चाल देखकर पहचान लेते थे – कौन आ रहा हैं? आखिर अपने संतान और उसके बच्चों को कौन नहीं पहचानता। 

लालगंज गाँव का एक दृश्य और गांव के बीच एक पोखर -तस्वीर: अमल झा के सौजन्य से

यहाँ तो मुद्दत से जब से इस पृथ्वी पर ‘दो पाया’ यानी मनुष्य के अलावे ‘चार पाया’ (जानवर) का आगमन हुआ, वह चार पाया जानवर, चाहे कुत्ता ही क्यों न हो, अपने बच्चों को देखकर, सूंघ कर अपने कलेजे से लगा लेता है। जानवरों की माँ भी अपने बच्चों को सूंघ कर आनंद विभोर हो जाती है और उसकी क्षुधा शांति के लिए उसे अपना स्तन सौंप देती है। जानवरों में यह परंपरा मुद्दत से चलती आ रही है और चलती रहेगी; लेकिन मनुष्यों में अब वह स्नेह, प्रेम, आपक्ता नहीं रहा, यह मेरा मानना है। खैर। 

माँ अपने स्वभाव के कारण न केवल लालगंज में, बल्कि ‘उजान’ में भी सबकी सम्मानित थी। वैसे शिक्षा के प्रचार-प्रसार से, आर्थिक बिपन्नता से आर्थिक सम्पन्नता के कारण, ग्रामीणों का उत्तरोत्तर शहरीकरण के कारण, समाज में बदलते सोच के कारण, नई पीढ़ियों की सोच में आमूल परिवर्तनों के कारण मिथिला के समाज में अनेकानेक परिवर्तन हुए हैं। लेकिन उन दिनों भी और आज भी, मिथिला में एक परंपरा प्रचलित है ‘लड़की की विवाहोपरांत उसे अपनी मायके में वह अस्तित्व नहीं रह पाता है, जो माता-पिता के एक संतान के रूप में उसे प्राप्त होनी चाहिए।’ हम आज चाहे कितनी भी बड़ी-बड़ी ‘उदारवादी’ बातें कर लें, सामाजिक क्षेत्र के मीडिया पर लिखें, लिख-लिखकर चिपकाते रहें; हकीकत यह है कि ‘लड़की की विवाह के बाद, खासकर अगर लड़की का पाणिग्रहण संस्कार किसी निर्धन पुरुष से हो जाय, चाहे वह जाति में क़ुतुब मीनार की ऊंचाई पर ही क्यों न हो; लड़की का अपने नैहर में वह स्थान नहीं मिलता, जो धनाढ्य पति के घर विवाह होने पर मिलता है। 

मेरा मानना यह है कि धनाढ्य के घर, राजा-महाराजा के घर, जमींदारों के घर लड़की का विवाह होने पर जीवन पर्यन्त वह अपने मायके को सभी दृष्टि से संभालती रहती है। स्वाभाविक है उसे ‘मुखिया’ जैसा सम्मान मिलेगा ही। मेरी माँ का विवाह भी निर्धन श्रोत्रिय परिवार में हुआ था। संस्कृत के आचार्य तो थे मेरे बाबूजी, लेकिन खेतों के दस्तावेजों के साथ उनका अलंकरण नहीं था। धनाढ्य नहीं थे। विवाह के समय उपस्थित लोगों के सामने उन्होंने जिन-जिन बातों की कसमें खाये थे, अपने जीवन के 72-वसंतों में वे एक-एक साँसों में उन संकल्पों को, कसमों को पूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़े थे। यही कारण है कि साठ के दशक के प्रारंभिक वर्षों में बाबूजी गांव से बाहर निकले – अपने, अपने परिवार, बाल-बच्चों के रक्षार्थ और पटना स्थित किताबों की दुनिया में स्वयं को समर्पित कर दिए। पहले ‘बुक सेंटर’ और फिर नॉवेल्टी एंड कंपनी। मेरे बाबूजी की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में सन 1992 को हुई और माँ, उनके देहावसान के कोई अठारह वर्ष बाद अपनी अनंत यात्रा पर निकली। आज अगर बाबूजी जीवित होते तो वे 102 वर्ष के होते और माँ नब्बे के आस-पास । खैर।

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मेरे मातामह (कुर्सी पर बैठे) और उनके पुत्र (मातामह सहित सामने के तीनों पुत्र अब इस संसार में नहीं हैं)

उस शाम माँ लालगंज से उजान आते समय ईमली के पेड़ से, जहाँ से उसे सीधा आने चाहिए था, दाहिने हाथ वाली खेत की आड़ को पकड़ ली। उस शाम भगवन सूर्य भी कुछ जल्दी अस्ताचल की ओर उन्मुख हो गए थे। माँ-बाबूजी हमेशा कहते थे: “जीवन में परीक्षा देने के लिए हमेशा सज्ज रहना। कभी समय परीक्षा लेगा तो कभी साँसे। कब किसका मन और विचार बदल जायेगा, समझ नहीं पाओगे। माता-पिता को छोड़कर, समाज का प्रत्येक व्यक्ति कभी किसी को आगे बढ़ते नहीं देखना चाहते है। ईर्ष्या उत्कर्ष पर होती है। समय और समाज द्वारा ली जाने वाली परीक्षाओं में बेदाग़ निकलने के लिए, अब्बल आने के लिए, अपने शरीर पर, अपने चरित्र पर कभी दाग, कभी छींटा नहीं लगने देना। एक माता-पिता का वचन है – तुम्हे कोई बाल बांका नहीं कर पायेगा।” 

कुछ ऐसी ही स्थिति उस शाम भी हुई जब भगवान् सूर्य माँ और रीता बहन को खेत की उस आड़ कर अकेले छोड़कर अस्ताचल तो चले गए, लेकिन दोनों उनकी निगाहों में थी । माँ – बेटी बेखौफ उस रास्ते पर चली जा रही थी, जो गलत थी। कुछ दूर चलने के बाद रेलवे लाईन आ गई। रेलवे लाइन को देखते ही माँ का शरीर बर्फ हो गया। वह समझ गई की गलत रास्ते पर अग्रमुख होते आये। माँ के अनुसार रेलवे लाइन इतनी जल्दी नहीं आती थी और जब आती थी तब हम सभी बौढी टोला के आस-पास आ जाते थे।

उन दिनों लालगंज और उसके आसपास के गाँव, जो रेलवे लाइन के आस-पास होती थी, चोरियां बहुत होती थी। उस शाम भी कुछ युवक, जिनका कार्य रात के अँधेरे में ही होता था, अपने-अपने समय का इंतज़ार कर रहे थे। रात आठ बजे एक ट्रेन भी दरभंगा से सकरी – तारसराय – ककरघट्टी – मनीगाछी – लोहना रोड – झंझारपुर के रास्ते आगे निकलती थी नित्य । उस अनजान जगह पर दो हताश महिला को देखकर कुछ युवक एकत्रित हो गए। सभी माँ को और रीता बहन को देख रहे थे। एक हाथ से रीता को पकड़े और दूसरे हाथ से माँ अपनी आँचल की खूंट से आखें पोछ रही थी। उस देर-शाम ईश्वर के अलावा वहां कोई दूसरा सहायक नहीं था। जो सहायक था, उसे समाज अच्छे लोगों की गिनती में नहीं जानता। खैर। 

उस घटना को याद करते माँ थरथराने लगती थी। उस दिन भी उसकी होंठ थरथरा रहा था लेकिन बहुत आत्म सम्मान के साथ कहती है: “समाज में हर कोई बुरा नहीं होता। जो बहुत बुरा होता, वह भी कभी कुछ ऐसा कार्य कर जाता है, जब ईश्वर भी उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। उस शाम शायद भगवान सूर्य भी स्वयं को माफ़ नहीं किये होंगे लेकिन वे उस युवक-गिरोह को अपने अन्तःमन से आशीष देने में भी कोई कोताही नहीं किये होंगे। एक युवक हमारे पास आया। मैं रीता को लेकर स्वयं को संभाल रही थी। वह मुझे देखकर कहा कि आप शायद रास्ता भटक गई हैं। आप शायद लालगंज की रहने वाली हैं ? आप कहाँ जा रही है ? उसकी आवाज में एक सम्मान था। मैं उसे सभी बातें बताई। फिर हम दोनों को रेल लाइन के रास्ते अपने गाँव के प्राथमिक विद्यालय तक पहुँचाया। उसके साथ चार और युवक थे। विद्यालय के पास आकर वह प्रणाम भी किया और कहा कि बहन, आप बहुत ही सम्मानित व्यक्ति की बेटी हैं और उससे भी सम्मानित पुरुष की पत्नी। आज आप स्वयं महादेव के गणों के साथ अपने गांव से अपने गाँव आयी है। महादेव आपकी रक्षा करें।”

उस घटना के बाद माँ अपने जीवन काल में कभी भी खेत के रास्ते का चयन नहीं की। यह अलग बात है कि पटना प्रवास के बाद वह लालगंज बहुत कम जा सकी। यहाँ तक की जब उनके पिता पंडित मेधानाथ मिश्र का निधन 2 अगस्त, 1972 को हुआ, माँ नहीं पहुँच पायी । मैं  अपने मातामह की मृत्यु से कोई तीन दिन पहले उनका आशीष लेकर लालगंज से अपने पैतृक गाँव के रास्ते पटना की ओर अपने पिता के पास प्रस्थान किया था। फिर उसके बाद मैं कभी लालगंज नहीं जा सका। 

बहरहाल, उस ईमली के पेड़ से सीधा जब हम लालगंज के लिए आते थे तो सबसे पहले श्री जिष्णुनाथ मिश्र का घर दीखता था, सबसे बाएं किनारे। इनके घर के सामने इक्लिप्टस के चार बड़े-बड़े ऊँचे बृक्ष थे, जो इस बात का गवाह था कि ‘हम लालगंज’ में हैं। इस बृक्ष से पहले खेत और रास्ते के बाएं तरफ एक विशालकाय और गहरा पोखर था। उस पोखर में स्थानीय लोग, गाँव के तत्कालीन खेतिहर मजदूर, गाय-भैंस और अन्य जानवरों के लिए पानी का इस्तेमाल तो होता ही था। सबसे बड़ी बात थी ‘मछली’ की उपलब्धिता। इस पोखर में प्रचुर मात्रा में मछलियां होती थी। इस पोखर के दाहिने हाथ सामने से एक रास्ता निकलता था ‘पगडण्डी’ के रूप में, जो आगे चलकर बाएं मुड़ती हुई मल्लाह टोली के रास्ते सरिसब-पाही की ओर उन्मुख होती थी। यही पगडण्डी तत्कालीन दरभंगा-निर्मली सड़क मार्ग से जुड़ती थी जो बिदेश्वर मंदिर के सामने से आगे झंझारपुर की ओर निकलती थी। 

पैटघाट (लालगंज) स्थित महादेव का मंदिर

श्री जिष्णुनाथ मिश्र हमारे मातामह के सबसे छोटे भाई थे। इनके घर के दाहिने मेरे मझले मामा श्री शुभनाथ मिश्र @श्री शोभी बाबू का घर था। श्री शोभी बाबू के घर का दाहिना दीवार जहाँ समाप्त होता था, वहां अंगना जाने के लिए एक रास्ता था और रास्ते के दाहिने कोने पर मेरे मातामह श्री पंडित मेधानाथ मिश्र का घर था। इस घर के दो हिस्से थे। इस घर के पीछे के हिस्से में कोई सौ वर्ष से भी अधिक पुराना एक विशालकाय हॉल नुमा अधपक्का घर था। दीवारें तो ईंट की थी लेकिन ऊपर खपड़ा था। इन दोनों घरों के बीच बाहर के तरह दाहिने हाथ एक विशालकाय कटहल का बृक्ष था जो आम तौर पर फलने और पकने के दिनों में गाँव वालों के लिए खुशखबरी होता था। 

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मेरे मातामह के घर के दाहिने पहले श्री कीर्तिनाथ मिश्र का घर था फिर श्री हरखुब बाबू का। मेरे मातामह सबसे बड़े थे और चार भाई थे – पंडित मेधानाथ मिश्र (मातामह), श्री नीतिनाथ मिश्र, श्री हेरम्ब नाथ मिश्रा और श्री जिष्णुनाथ मिश्र। जो रास्ता पीछे से खेत के पगडण्डी के रूप में आती थी, वह रास्ता श्री हरखू बाबू के घर से पचास कदम आगे मिलकर आगे निकलती थी। यही रास्ता आगे जब दाहिने तरफ अपना रुख लेता था, बाएं हाथ एक विशालकाय पोखर हुआ करता था। वह पोखर काफी गहरा था और उसके बीच में एक विशालकाय लकड़ी का काला खम्बा गड़ा होता था। इस पोखर के दक्षिण कोने पर एक ऐतिहासिक मंदिर था। उन दिनों इस मंदिर में राम, लक्ष्मण, राधा-कृष्ण की बेहद सुन्दर प्रतिमाएं स्थापित थी। इस मंदिर के स्थापना कालखंड के बारे में कहा जाता है कि यह कोई दो सौ साल से भी अधिक पुराना मंदिर था, जो बहुत उग्र था। इस मंदिर के पश्चिम भाग में श्री उमानाथ मिश्र और सिंधुनाथ मिश्र का घर था जबकि उत्तर-पश्चिम दिशा में श्री अम्बिकनाथ मिश्र का घर था। 

उन दिनों हम सभी श्री जिष्णुनाथ मिश्र के घर के आँगन के रास्ते से पहले श्री शोभी बाबू के घर के आँगन में आते थे। इस आँगन में भान्साघर के स्थान पर एक विशालकाय टीला था, जो इस बात का गवाह था कि वहां कभी एक विशालकाय घर रहा होगा । वह घर संभवतः एक आगजनी में जल गया होगा अथवा समयांतराल गांव से लोगों के पलायन के कारण उपेक्षित होते-होते अपना अस्तित्व समाप्त कर दिया। 

वजह भी था। हमारे मातामह पंडित मेधानाथ मिश्र के सबसे बड़े पुत्र श्री विश्वनाथ मिश्र का विवाह गढ़बनैली में एक राजा की बेटी के साथ संपन्न हुआ और व ससुराल में ही बस गए। उन दिनों भी, और आज भी लोगबाग ऐसे विवाह और दामाद को ‘घर-जमाय’ ही कहते हैं। उनसे छोटे भाई श्री शुभनाथ मिश्र @शोभी बाबू अपना सम्पूर्ण जीवन शैक्षिक कार्यों को अर्पित कर दिए और यह कार्य लालगंज के हज़ारों मिल दूर तत्कालीन उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के एक सनातन संस्कृत विद्यालय में किये। जीवन पर्यन्त उन्होंने सहारनपुर में ही रहे। समयांतराल लालगंज की उस पैतृक स्थान पर उनके बड़े बेटे रहते थे। एक बेटा ‘ढल्लन बाबू’ अल्पायु में ही ईश्वर के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज कर दिए। उनके छोटे भाई श्री ललित नाथ मिश्र अपने जीवन का अस्सी से अधिक फीसदी समय अपने बड़े भाई के पास गढ़बनैली में बिताये, जबतक बड़े भाई के पुत्र लोग ‘बड़े’ नहीं हो गए और ‘विचारों में विभाजन’ नहीं होने लगा। 

हमारे मातामह की दो शादियां थी। पहली पक्ष में उपरोक्त तीनों पुत्रों के अलावे मेरी माँ राधा देवी थी। जबकि दूसरे पक्ष में तीन पुत्र – भोला बाबू, शम्भुनाथ मिश्र और लंगट मिश्र । श्री शम्भुनाथ मिश्र उत्तर प्रदेश सरकार में एक श्रेष्ठ पदाधिकारी के रूप में सेवा का अवकाश प्राप्त किये हैं। श्री लंगट बाबू अब इस दुनिया में नहीं हैं। इस पक्ष हमारी दो मौसी भी थी – एक भन्ना मौसी और दूसरी तुला मौसी। हमारे मातामह का वह विशालकाय हॉल वाला घर, आज भी याद है जिस घर में सभी रहते थे। इस घर का आँगन का दरवाजा जहाँ खुलता था वहां एक कुआं था। इस कुएं के सामने एक घर तो था, लेकिन उसमें जलाने के सामान के अतिरिक्त और कुछ नहीं रखा जाता था। इसी घर के दाहिने सिरे से एक रास्ता निकलता था जो पीछे के पोखरा और मंदिर के तरफ निकलता था। 

बहरहाल, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, पुरी के प्रोफ़ेसर हैं श्री उदयनाथ झा ‘अशोक’ जी हिंदी, संस्कृत के हस्ताक्षर तो हैं ही, अपने गाँव अथवा मिथिला के इस क्षेत्र के भौगोलिक, पारिवारिक कुल-बृक्षों का ये चलता-फिरता किताब है। ‘दी ग्रेट हेडमास्टर’ किताब में उन्होंने लालगंज गाँव के बारे में, यहाँ के लोगों, परिवारों की उत्पत्ति और विकास के बारे में बहुत विस्तार से लिखे हैं। उनका कहना है कि देश में पांच लाख से भी अधिक गाँव हैं जिनके नामकरण का अपना-अपना इतिहास है। भारत में ‘लालगंज’ नमक स्थान भी बहुत हैं – मसलन मध्यप्रदेश के सतना जिला में ‘लालगंज’ है, उत्तर प्रदेश के कानपुर और प्रतापगढ़ में ‘लालगंज’ है, बिहार के बैशाली में मोतिहारी में  ‘लालगंज’ है। इसी तरह ‘गोपीलालगंज’ भी है और ‘मोहनलालगंज’ भी। 

लेकिन मधुबनी का ‘लालगंज’ तनिक पृथक है। यह सर्वविदित हैं की मिथिला का अंतिम राजवंश ‘खण्डबला’ कुल का नीव ‘विद्या’ के प्रभाव के कारण पड़ा। इस वंश के राजा लोग अपने-अपने समय खंडकाल में ‘विद्या’ के आधार पर, शास्त्रार्थ के आधार पर किसी गाँव का नामकरण करते थे। प्रतिवर्ष ‘धौत परीक्षा’ का आयोजन होता था। इस परीक्षा में गुरु-शिष्य दोनों उपस्थित होते थे। लेकिन प्रश्नों का उत्तर सिर्फ शिष्य ही दे सकता था। यह परीक्षा विभिन्न विषयों में होती थी। मसलन – न्याय, व्याकरण, मीमांसा, आदि में होती थी। इस शास्त्रार्थ में विभिन्न विषयों के लिए विभिन्न रंगों के धोती का उपयोग होता था। जैसे न्याय में लाल धोती, व्याकरण में सफ़ेद, मीमांसा में पीला इत्यादि। 

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अब अगर किसी एक गाँव अथवा टोल के तीन-चार व्यक्ति अथवा परिवार इस परीक्षा में उत्तीर्ण होते थे तो तत्कालीन महाराज उन सम्मानित विद्वानों को कुछ जमीन, पारितोषिक देकर उन्हें एक स्थान पर बसा देते थे और उस नए स्थान का नाम उनके शास्त्रार्थ के विषय और धोती के रंग के आधार पर नामकरण किया जाता था। ‘लालगंज’ गाँव का नामकरण भी कुछ इसी आधार पर हुआ है। 

महामहोपाध्याय शंकर मिश्रा के वृद्ध प्रपौत्र रामचंद्र मिश्र की दो शादी थी। दोनों पक्ष से उन्हें पांच पुत्र हुआ अच्युत, वनमाली, रघुपति, रतिपति और धर्मपति । इसमें रघुपति, रतिपति और धर्मपति न्याय के हस्ताक्षर हुए। ये जिस कालखंड में थे उस समय मिथिला के राजा थे नरेंद्र सिंह (1744-1760) थे। राजा नरेंद्र सिंह इन तीनों विभूतियों को ‘लोहना’ गाँव में बसाये और जिस भाग में इन्हे बसाया गया, उस भाग का नाम ‘लालगंज’ रखा गया। यानी ‘लालगंज’ गाँव का नामकरण राजा नरेंद्र सिंह के कालखंड में रघुपति-रतिपति और धर्मपति भाइयों द्वारा स्थापित हुआ। इन्ही भाइयों के वंशज रमाकांत मिश्र, राजेश्वर मिश्र महामहोपाध्याय हुए। धर्मपति की अगली पीढ़ी में उनके चार पुत्र – राम मिश्र, राघव मिश्र, पद्मनाभ मिश्र और महीमिश्र। जिसमें तीन पुत्र न्याय के हस्ताक्षर हुए और चौथे मीमांसा के विद्वान। आज लालगंज में इन लोगों का वंशज और परिवार भरा पूरा है। 

लालगंज में दूसरा सबसे पुराना परिवार है बुधवालक  यानी बुधवाल वंश के लोगों का। गाँव में इन परिवारों को ‘ओजहटोली’ की संज्ञा दी जाती है। वैसे इन वंश का मिथिला के किसी भी वंश से किसी भी मायने में कम नहीं है है, फिर भी जो परिवार यहाँ रह गया है उसका ग्रन्थ के रूप में भले कम योगदान है, निबंध और शिष्य-प्रशिष्य के रूप में अधिक देखा जाता है। विभाकर, प्रभाकर, उदयकार, कवी कृष्णानंद आदि इसी वंश के विभूति रहे। 

‘दी ग्रेट हेडमास्टर’ किताब में ‘लालगंज की भौगोलिक एवं ऐतिहासिक पृस्ठभूमि” में बेगूसराय के निवासी एवं भारतीय इतिहास एवं पुरातत्व के शोधार्थी, मूर्तिविज्ञान विषय पर विशेष अध्ययन करने वाले सुशांत कुमार का कहना है कि ‘लालगंज कई शताब्दी पूर्व खड़रख मौजे के अंतर्गत बसा हुआ एक समृद्ध गाँव है। यह गाँव ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में पुरातात्विक श्रोतों के इर्द गिर्द फैला हुआ है। यह मूलतः गौसा घाट, पैटघाट आदि के समीप है। यह घाट कमला नदी के पुरानी धारा से जुड़ा हुआ माना जाता है।नेपाल की तराई में बहती हुयी कमला नहीं जयनगर के पास बिहार प्रदेशीय मधुबनी जिले में लक्ष्मी के रूप में अवतरित हो जाती है। मधुबनी और दरभंगा जिले में कमला नदी की कई स्थिति दक्षिणाभिमुख फैली हथेली की तरह है, जिसकी अंगुलिया बिखरी हुयी है। 

भौगोलिक दृष्टि से लालगंज दो नदी – लखनदेई और कमला के मध्य अवस्थित है। लालगंज में ‘गंज’ शब्द का प्रयोग इस बात को स्पष्ट करता है कि इस इलाके में विशेषकर कमला और लखनदेई नदी घाटी के क्षेत्र में वाणिज्य के साथ साथ बाजार के तत्वों को देखने से स्पष्ट होता है की इस इलाके में कोई न कोई दो चार गाँव व्यापार वाणिज्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इस दृष्टि से लालगंज एक छोटा सा बाजार था और यहाँ के आस पास गौसा घाट, पैटघाट आदि नदी के घाट से उन गांवों का व्यापार होता था। इसलिए एक बाजार के रूप में इसकी स्वीकृति को स्वीकार करना चाहिए। 

‘गंज’ के मध्यकालीन शब्द है जो स्थायी और अस्थायी बाज़ार के रूप में प्रयुक्त होता आया है। ‘क़स्बा’ और ‘गंज’ दोनों कपड़ा, फल, सब्जी तथा दूध के उत्पादों के सम्बन्ध में प्रयोग होता आया है। दो नदियों के बीच अवस्थित ‘लालगंज’ की प्राचीनता एवं महत्ता इसके मध्यकालीन नाम एवं छोटे बाजार को लेकर ही नहीं है, बल्कि इसके चतुर्दिक कई जगहों से प्राचीन टीले, डीह आदि के साथ साथ प्रारंभिक मध्यकाल एवं मध्यकालीन काळा पथ्थर की प्रतिमाओं की प्राप्ति से भी बनी हुई है। बिदेश्वर स्थान, हेठीवाली, पचंमर चौर, मकसूदां स्थान, मंकी डीह, जलपा डीह आदि जगहों के साथ अमरावती नदी घाटी के साथ लालगंज को देखने की आवश्यकता है। 

कहा जाता है कि सरिसब पाही गाँव के बीच से होकर अमरावती नदी 19 वीं सदी के अंत तक बहती थी और इसी तट पर गंगाधर उपाध्याय ने गंगौली गाँव को बसाया था। आज अमरावती प्रवाह के पथ को ढूढ़ने की आवश्यकता है।साथ ही इसके दोनों ओर बसे हुए अमरावती नगर के वैभव की गवेषणा करने की भी आवश्यकता है। सरिसब, उजान, गंगौली, भटपुरा, लोहना, रुपौली, आदि गांव न केवल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं बल्कि ये सारे गाँव शैक्षणिक क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। लालगंज में एक प्रख्यात शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण दरभंगा राज के अधीन खण्डवाल वंश के अधीन हुआ था। महामहोपाध्याय परमेश्वर झा के अनुसार ‘महाराज माधव सिंह की पुत्री पुण्यवती के नाम पर पुण्यवतीश्वर महादेव की स्थापना लालगंज में की गई थी । पंजी अनुसार लोहना गांव के दरिहरे मूल के गरीब नंद झा का विवाह पुण्यवती से हुआ था। इसी वंश में परमानन्द झा हुए जो लक्ष्मीश्वर एकेडमी सरिसब में प्रधानाध्यापक भी बने। 

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  1. अत्यधिक विद्वत्तापूर्ण , तथ्यात्मक, प्रशंसनीय आलेख

  2. अत्यधिक प्रशंसनीय, तथ्यात्मक आलेख

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