अजमेर :राजस्थान ही नहीं, भारत के अन्य प्रदेशों में अगर ऐतिहासिक धरोहर, वह भी “दुधारू गाय” जैसा नहीं हो, तो स्थानीय लोगों के लिए बेरोजगारी और भुखमरी की स्थिति तो आ ही जाएगी; उन ऐतिहासिक धरोहरों को “तथाकथित” रूप से “संरक्षण” देने वाले “विभाग” “मंत्रालय” और उनके लोगबाग भी “कलप-कलप कर” जीवन व्यतीत करेंगे। आपको शायद विस्वास नहीं होगा। लेकिन आप अपने गली, मोहल्ले, प्रखंड, पंचायत, सब-डिवीजन, जिला, राज्य और देश के कोने-कोने में विराजित इन ऐतिहासिक पुरातत्वों की वर्तमान स्थिति पर एक बार नजर दौड़ाएं, आप रो-रोकर थक जायेंगे, बसर्ते आप भी संवेदनशील हों और आप उन दुधारू गायों को दूहकर धनाढ्य बनने की चाहत वाली रोग से पीड़ित नहीं हों।
आंकड़ों के अनुसार देश में तक़रीबन ३६४५ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। अगर औसतन भारतीयों से पूछा जाय की वे अपने ही राज्य में स्थित न्यूनतम १० ऐतिहासिक पुरातत्व और घरोहरों का नाम बताएं, तो उम्मीद है वे पांच अथवा छठे नाम बताते-बताते दम तोड़ देंगे। वजह यह है कि उन्हें उन ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहरों में कोई दिलचस्पी नहीं है (अपवाद छोडकर्) ।
यदि इन आंकड़ों का विश्लेषण करें तो देश के सम्पूर्ण क्षेत्रफल में औसतन प्रत्येक ८९२ किलोमीटर पर एक न एक ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर है। इनमे सबसे अधिक ७४३ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर उत्तर प्रदेश में हैं, यानि उत्तर प्रदेश के ३२४ प्रति किलोमीटर क्षेत्रफल पर एक न एक ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर है।
उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा स्थान कर्णाटक का है जहाँ ५०६ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। तीसरा स्थान तमिल नाडू का है जहाँ ४१३ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। पांचवा स्थान गुजरात (२९३ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर); छठा स्थान मध्य प्रदेश (२९२ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर); सातवां स्थान महाराष्ट्र (२८५ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर), आठवां स्थान राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली जहाँ १७४ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। भौगोलिक क्षेत्रफल के दृष्टि से राजस्थान बहुत बड़ा भूभाग है, लेकिन यहाँ १६२ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं। पश्चिम बंगाल में १३६ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; आंध्र प्रदेश में १२९ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; हरियाणा में ९१ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; ओडिसा में ७९ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; बिहार में ७० ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; जम्मू-कश्मीर में ५६ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; असम में ५५ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; छत्तीसगढ़ में ४७ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; उत्तराखंड में ४२ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; हिमाचल प्रदेश में ४० ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; पंजाब में ३३ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; केरल में २७ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; गोवा में २१ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर; झारखण्ड में १३ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर हैं और अंत में दमन-दीव में १२ ऐतिहासिक पुरातत्व और धरोहर स्थित हैं।
इन ३६४५ ऐतिहासिक पुरातत्वों के रख-रखाव और बचाव की स्थिति कैसी है यह तो सर्वविदित है, दुधारुओं को छोड़कर। यदि विशेष अन्वेषण करेंगे तो आपको मालूमात होगा की इन ऐतिहासिक पुरातत्वों के रख-रखाव, बचाव इत्यादि पर जितने खर्च किये जाते हैं, अथवा अब तक खर्च किये गए हैं, वह भी एक “ऐतिहासिक घपला” होगा। राजस्थान का आमेर दुर्ग भी इन तथ्यों से अछूता नहीं है।
यह हम नहीं बल्कि राजस्थान उच्च न्यायालय की जयपुर बेंच यहाँ हुए एक घटना के बाद कहा था: “दुर्भाग्यवश न केवल जनता बल्कि विशेषकर संबंधित अधिकारीगण भी पैसे की चमक से अंधे, बहरे और गूंगे बन गए हैं, और ऐसे ऐतिहासिक संरक्षित स्मारक आय का एक स्रोत मात्र बन कर रह गए हैं।” मुगले आजम से लेकर, जोधा अकबर, भूल-भुलैय्या, बाजीराव मस्तानी और न जाने कितने फिल्मे बनायीं गयी है – पुरात्तव और धरोहर को उपेक्षित है।
आमेर की स्थापना मूल रूप से ९६७ ई॰ में राजस्थान के मीणाओं में चन्दा वंश के राजा एलान सिंह द्वारा की गयी थी। वर्तमान आमेर दुर्ग जो दिखाई देता है वह आमेर के कछवाहा राजा मानसिंह के शासन में पुराने किले के अवशेषों पर बनाया गया है। मानसिंह के बनवाये महल का अच्छा विस्तार उनके वंशज जय सिंह प्रथम द्वारा किया गया। अगले १५० वर्षों में कछवाहा राजपूत राजाओं द्वारा आमेर दुर्ग में बहुत से सुधार एवं प्रसार किये गए और अन्ततः सवाई जयसिंह द्वितीय के शासनकाल में १७२७ में इन्होंने अपनी राजधानी नवरचित जयपुर नगर में स्थानांतरित कर ली।
विश्व धरोहर समिति के ३७वें सत्र में राजस्थान के पांच अन्य दुर्गों सहित आमेर दुर्ग को राजस्थान के पर्वतीय दुर्गों के भाग के रूप में यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल में शामिल किया गया था। वार्षिक पर्यटन आंकड़ों के अनुसार यहाँ ५००० पर्यटक प्रतिदिन आते हैं।
आमेर को यह नाम यहां निकटस्थ चील के टीले नामक पहाड़ी पर स्थित अम्बिकेश्वर मन्दिर से मिला। अम्बिकेश्वर नाम भगवान महादेव के उस रूप का है जो इस मन्दिर में स्थित हैं, अर्थात अम्बिका के ईश्वर। यहां के कुछ स्थानीय लोगों एवं किंवदन्तियों के अनुसार दुर्ग को यह नाम माता दुर्गा के पर्यायवाची अम्बा से मिला है। इसके अलावा इसे अम्बावती, अमरपुरा, अम्बर, आम्रदाद्री एवं अमरगढ़ नाम से भी जाना जाता रहा है। इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार यहां के राजपूत स्वयं को अयोध्यापति राजा रामचंद्र के पुत्र कुश के वंशज मानते हैं, जिससे उन्हें कुशवाहा नाम मिला जो कालांतर में कछवाहा हो गया। आमेर स्थित संघी जूथाराम मन्दिर से मिले मिर्जा राजा जयसिंह काल के वि सं १७१४ तदनुसार १६५७ ई॰ के शिलालेख के अनुसार इसे अम्बावती नाम से ढूंढाढ क्षेत्र की राजधानी बताया गया है। यह शिलालेख राजस्थान सरकार के पुरातत्त्व एवं इतिहास विभाग के संग्रहालय में सुरक्षित है। वैसे टॉड एवं कन्निंघम, दोनों ने ही अम्बिकेश्वर नामक शिव स्वरूप से इसका नाम व्युत्पन्न माना है। यह अम्बिकेश्वर शिव मूर्ति पुरानी नगरी के मध्य स्थित एक कुण्ड के समीप स्थित है। राजपूताना इतिहास में इसे कभी पुरातनकाल में बहुत से आम के वृक्ष होने के कारण आम्रदाद्री नाम भी मिल था।
इतिहासकार जेम्स टॉड के अनुसार इस क्षेत्र को पहले खोगोंग नाम से जाना जाता था। तब यहाँ मीणा राजा रलुन सिंह जिसे एलान सिंह चन्दा भी कहा जाता था, का राज था। वह बहुत ही नेक एवं अच्छा राजा था। उसने एक असहाय एवं बेघर राजपूत माता और उसके पुत्र को शरण मांगने पर अपना लिया। कालान्तर में मीणा राजा ने उस बच्चे ढोला राय (दूल्हेराय) को बड़ा होने पर मीणा रजवाड़े के प्रतिनिधि स्वरूप दिल्ली भेजा। मीणा राजवंश के लोग सदा ही शस्त्रों से सज्जित रहा करते थे अतः उन पर आक्रमण करना व हराना सरल नहीं था।
किन्तु वर्ष में केवल एक बार, दीवाली के दिन वे यहां बने एक कुण्ड में अपने शस्त्रों को उतार कर अलग रख देते थे एवं स्नान एवं पितृ-तर्पण किया करते थे। ये बात अति गुप्त रखी जाती थी, किन्तु ढोलाराय ने एक ढोल बजाने वाले को ये बात बता दी जो आगे अन्य राजपूतों में फ़ैल गयी। तब दीवाली के दिन घात लगाकर राजपूतों ने उन निहत्थे मीणाओं पर आक्रमण कर दिया एवं उस कुण्ड को मीणाओं की रक्तरंजित लाशों से भर दिया। इस तरह खोगोंग पर आधिपत्य प्राप्त किया। राजस्थान के इतिहास में कछवाहा राजपूतों के इस कार्य को अति हेय दृष्टि से देखा जाता है व अत्यधिक कायरतापूर्ण व शर्मनाक माना जाता है। उस समय मीणा राजा पन्ना मीणा का शासन था, अतः इसे पन्ना मीणा की बावली कहा जाने लगा। यह बावड़ी आज भी मिलती है।
यह महल चार मुख्य भागों में बंटा हुआ है जिनके प्रत्येक के प्रवेशद्वार एवं प्रांगण हैं। मुख्य प्रवेश सूरज पोल द्वार से है जिससे जलेब चौक में आते हैं। जलेब चौक प्रथम मुख्य प्रांगण है तथा बहुत बड़ा बना है। इसका विस्तार लगभग १०० मी लम्बा एवं ६५ मी. चौड़ा है। प्रांगण में युद्ध में विजय पाने पर सेना का जलूस निकाला जाता था। ये जलूस राजसी परिवार की महिलायें जालीदार झरोखों से देखती थीं। इस द्वार पर सन्तरी तैनात रहा करते थे क्योंकि ये द्वार दुर्ग प्रवेश का मुख्य द्वार था। यह द्वार पूर्वाभिमुख था एवं इससे उगते सूर्य की किरणें दुर्ग में प्रवेश पाती थीं, अतः इसे सूरज पोल कहा जाता था। सेना के घुड़सवार आदि एवं शाही गणमान्य व्यक्ति महल में इसी द्वार से प्रवेश पाते थे। जलेब चौक सैनिकों के एकत्रित होने का स्थान। यह आमेर महल के चार प्रमुख प्रांगणों में से एक है जिसका निर्माण सवाई जय सिंह के शासनकाल (१६९३-१७४३ ई॰) के बीच किया गया था।
जलेबी चौक से एक शानदार सीढ़ीनुमा रास्ता महल के मुख्य प्रांगण को जाता है। यहां प्रवेश करते हुए दायीं ओर शिला देवी मन्दिर को रास्ता है। यहां राजपूत महाराजा १६वीं शताब्दी से लेकर १९८० तक पूजन किया करते थे। तब तक यहां भैंसे की बलि दी जाती थी। अगला द्वार है गणेश पोल है। यह एक त्रि-स्तरीय इमारत है जिसका अलंकरण मिर्ज़ा राजा जय सिंह (१६२१-१६२७ ई॰) के आदेशानुसार किया गया था। इस द्वार के ऊपर सुहाग मन्दिर है, जहां से राजवंश की महिलायें दीवान-ए-आम में आयोजित हो रहे समारोहों आदि का दर्शन झरोखों से किया करती थीं। इस द्वार की नक्काशी अत्यन्त आकर्षक है। एक किम्वदन्ती के अनुसार राजा मान सिंह को जेस्सोर के राजा ने पराजित होने के उपरांत यह श्याम शिला भेंट की जिसका महाभारत से सम्बन्ध है। महाभारत में कृष्ण के मामा मथुरा के राजा कंस ने कृष्ण के पहले ७ भाई बहनों को इसी शिला पर मारा था। इस शिला के बदले राजा मान सिंह ने जेस्सोर का क्षेत्र पराजित बंगाल नरेश को वापस लौटा दिया। तब इस शिला पर दुर्गा के महिषासुरमर्दिनी रूप को उकेर कर आमेर के इस मन्दिर में स्थापित किया था।
प्रथम प्रांगण से मुख्य सीढ़ी द्वारा द्वितीय प्रांगण में पहुंचते हैं, जहां दीवान-ए-आम बना हुआ है। इसका प्रयोग जनसाधारण के दरबार हेतु किया जाता था। तीसरे प्रांगण में महाराजा, उनके परिवार के सदस्यों एवं परिचरों के निजी कक्ष बने हुए हैं। इस प्रांगण में दो इमारतें एक दूसरे के आमने-सामने बनी हैं। यह महल दर्पण जड़े फलकों से बना हुआ है एवं इसकी छत पर भी बहुरंगी शीशों का उत्कृष्ट प्रयोग कर अतिसुन्दर मीनाकारी व चित्रकारी की गयी है। ये दर्पण व शीशे के टुकड़े अवतल हैं और रंगीन चमकीले धातु पत्रों से पटे हुए हैं। इस कारण से ये मोमबत्ती के प्रकाश में तेज चमकते एवं झिलमिलाते हुए दिखाई देते हैं।
इस प्रांगण में बनी दूसरी इमारत जय मन्दिर के सामने है और इसे सुख निवास या सुख महल नाम से जाना जाता है। इस महल का एक विशेष आकर्षण है डोली महल, जिसका आकार एक डोली की भांति है, जिनमें तब राजपूत महिलाएँ कहीं भी आना जाना किया करती थीं। इन्हीं महलों में प्रवेश द्वार के अन्दर डोली महल से पहले एक भूल-भूलैया भी बनी है। इस प्रांगण के दक्षिण में मानसिंह प्रथम का महल है । इस महल को बनाने में २५ वर्ष एवं यह राजा मान सिंह प्रथम के काल में (१५८९-१६१४ ई॰) में १५९९ ई॰ में बन कर तैयार हुआ। यह यहां का मुख्य महल है। चौथे प्रांगण में राजपरिवार की महिलायें (जनाना) निवास करती थीं। बहरहाल आप जब भी जाएँ आप आनन्द तो उठायें ही, लेकिन इतना ध्यान अवश्य रखें ऐसे दुर्ग आने वाले हज़ारों-हज़ार सालों में भी नहीं बना पाएंगे हम-आप।