दिल्ली सल्तनत का ऐतिहासिक लोहे वाला पुल “इट्स रेड’ 😢 क्या हम किसी भयानक हादसे का इंतज़ार कर रहे हैं ?

लोहे-का-पुल "इट्स रेड'

नई दिल्ली: दिल्ली सल्तनत में सन 1867 में बना ‘लोहे का पुल’ आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है। आज से डेढ़ सौ साल और अधिक पहले अंग्रेजी शासनकाल में बना यह पुल शायद यह सोचा भी नहीं होगा कि स्वतंत्र भारत में देश के लोग, रेल के आला अधिकारी, रेल मंत्रालय इसके साथ ऐसा व्यवहार करेंगे। ऐसा लगता है कि इस पुल की रक्षा-सुरक्षा-रख रखाव से जुड़े लोग किसी भयानक हादसे का इंतज़ार कर रहे हैं। 

आज इस पुल के ऊपरी तल्ले पर, जिस पर भारतीय रेल की तक़रीबन 200 से अधिक गाड़ियां नित्य चलती हैं, के निचली हिस्से के लोहे में जंग इस कदर लगा है कि पपड़ियां नीचे गिरते दिखाई देती है। आश्चर्य की बात तो यह है कि भारतीय रेल के अधिकारियों को, रेल मंत्रालय के लोगों को, मंत्रियों को दिखाई नहीं देता। दिखे भी तो कैसे? कुर्सियों को छोड़कर कभी बाहर निकलें तब तो। खैर। 

इस पुल को रेलवे अपनी तकनीकी भाषण में पुल नं 249 भी कहती है। यह भी माना जाता है कि दिल्ली सल्तनत का यह लोहा पुल भारतीय रेल में बने पुलों में सबसे पुराने पुलों में एक है। इस पुल का निर्माण कार्य भारत में प्रथम स्वाधीनता आंदोलन (1857) के करीब पांच साल बाद सन् 1863 में प्रारम्भ हुआ जब तत्कालीन अंग्रेजी हुकुमतानों को कलकत्ता की ओर से दिल्ली पहुंचने में तकलीफ होने लगी थी। इस पल के निर्माण में कोई तीन वर्ष लगे थे। सं 1867 में इसे भारत के लोगों के लिए खोला गया। 

लोहे-का-पुल “इट्स रेड’

लोहे का पुराना पुल गवाह है कलकत्ता से दिल्ली अविभाजित भारत की राजनीतिक राजधानी आने की। जब यह लोहे का पुल अपने अस्तित्व में नहीं आया था दिल्ली सल्तनत में पैर रखने के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल या अन्य पूर्वोत्तर राज्यों से आने वालों को यमुना नदी नाव से पार करना होता था। लोगों की नजर नहीं लगी थी, स्वाभाविक है यमुना नदी की चौड़ाई भी अधिक थी। तीन वर्ष लगे थे लोहे के इस पुल को बनने में और रेल पटरियों से यमुना पार की मिट्टी और लोगों को दिल्ली सल्तनत से जोड़ने में।

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अगर इसके निर्माण-कला को देखा जाय तो यह पुल एक डबल-देकर जैसा दिखता है जहाँ ऊपरी मंजिल पर रेल गाड़ियां और निचली मंजिल पर सवारी गाड़ियां, मसलन बस, छोटे-मोटे ट्रक, गाड़ियां, रिक्शा, टमटम, बैलगाड़ी, साईकिल आदि चलती हैं। यह ट्रस ब्रिज शैली पर बनी है। इस पुल की कुल लम्बाई 2640 फुट है और यह 12 स्तम्भों पर खड़ी है। कहते हैं ब्रिटिश साम्राज्य के दौरान भारत यह पुल यमुना के उस पार और इस पार में बेस शहरों को जोड़ने में अहम्के भूमिका निभाया। दूसरे शब्दों में यह पुल अविभाजित भारत के दिल्ली और लाहौर शहरों को कलकत्ता से जोड़ा था रेलमार्ग से। 

लोहे-का-पुल “इट्स रेड’

इस पुल पर पहले रेल की एक लाइन थी जिसका इस्तेमाल आने-जाने दोनों में किया जाता था। दिल्ली दरबार के बाद, खासकर जब कलकत्ता से तत्कालीन अंग्रेजी अधिकारियों, भारतीयों का दिल्ली सल्तनत की ओर प्रवास बढ़ा, यातायात पर दबाब बड़ा, इसे दोहरी लाइन में परिवर्तित किया गया था। इस पुल कि खासियत इसकी दोहरी उपयोगिता है यह सड़क यातायात के साथ-साथ रेल यातायात दोनों को सुगम रुप से जारी रखता है। इसका ऊपरी भाग रेल यातायात के लिए बना है और निचले स्तर पर सड़क यातायात के लिए बनाया गया है। कहते हैं इसी तरह का एक और पुल इलाहाबाद (अब प्रयागराज) को नैनी से और इलाहाबाद को मुगलसराय से जोड़ता है। 

आज, यह पुल ‘रो’ रहा है, ‘कराह’ रहा है, ‘व्यथित’ हो रहा है। निर्जीव होते हुए भी इस बात से चिंतित है कि कहीं उसके बुढ़ापे के कारण उस पर चलने वाले बोझों को वह सहन नहीं सके और दम तोड़ दे। आज सम्पूर्ण पुल के लोहों में जंग लगा है। रेलवे और ठेकेदार ‘मरम्मत’ कर लोहों के ‘जंग को पीला’ करने में, कमजोरी को ढंकने में लगे हैं। ईश्वर न करे कोई बड़ा हादसा हो, जान-माल का नुकसान हो, लेकिन समय क्या चाहता है सिर्फ समय को ही पता है।

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इस पुल के बगल में ‘आधुनिक विज्ञान’ का नमूना विगत दो दशकों से कछुए की चाल में चल रहा है। सुनते, कहते समझ नहीं आता कि सन 1867 में तीन वर्ष लगे थे इस लोहे के पुल के निर्माण में जब विज्ञान और वैज्ञानिक उतने ‘शिक्षित’ नहीं थे, आज विज्ञान को विकसित होने के बाद भी अधिकारियों, नेताओं, रेलकर्मियों, ठेकेदारों, समाज सेवियों का ह्रदय विकसित नहीं हो सका, दो दशक में भी हावड़ा की ओर से आने वाली रेलगाड़ी, यमुना-पार से आने वाले वहां और लोग नए पुल पर आने से, चलने से वंचित हैं।

लोहे-का-पुल “इट्स रेड’

इतिहासकारों के मुताबिक, दिल्ली सल्तनत में लोथियन पुल का निर्माण लेफ्टिनेंट कर्नल सर लोथियन केर स्कॉट (1861-67) द्वारा किया गया था। इससे लगभग 300 गज की दूरी पर जीपीओ के सामने पुरानी दिल्ली स्टेशन को कश्मीरी गेट इलाके से जोड़ने वाला कौड़िया पुल है। इस पुल ने शाह आलम के शासनकाल में 18 वीं शताब्दी के एक रईस, शाद खान द्वारा “तहबाज़ारी” या कर के रूप में एकत्र किए गए कौड़ी के गोले (इसलिए नाम) के पहले के निर्माण को बदल दिया था। कनॉट प्लेस के पास उत्तर रेलवे का मिंटो पुल 1933 में बना था। कमल अतातुर्क रोड पर पुल उसी साल बना था। कोटला मुबारकपुर पुल भी 1930 के दशक में बना था। मजनू-का-टीला के पास वजीराबाद पुल फिरोजशाह तुगलक के समय में बनाया गया था और अब छह सदियों से उपयोग में है।

लोहे-का-पुल आगरा में पुराने जमुना ब्रिज के कुछ ही समय बाद बनाया गया था (चूंकि कलकत्ता से रेलवे लाइन दिल्ली तक विस्तार करने से पहले उस शहर से गुजरती थी)। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसके निर्माण पर 16 लाख रुपये खर्च की थी । दो मंजिला लोहे का पुल ब्रिटिश सरकार के ईस्ट इंडिया रेलवे द्वारा बनाया गया था। वर्ष 1913 में इससे एक नई लाइन जोड़ी गई। जैसे ही वाहन पुल के नीचे सड़क से गुजरते हैं, पुल की दूसरी मंजिल ट्रेनों को इसके माध्यम से गुजरने देती है। दिलचस्प बात यह है कि इस पुल से रोजाना औसतन 150-200 ट्रेनें गुजरती हैं।

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बहरहाल, लगता है पौंड, डॉलर, स्टर्लिंग की तुलना में भारतीय रुपयों का मोल काम होने के साथ-साथ अधिकारियों, नेताओं, रेलकर्मियों, ठेकेदारों, समाज सेवियों आदि का मानसिक मोल भी लुढ़क गया है

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