भारत के ‘शैक्षिक-दर’ आकंड़े के “शेष 25 फ़ीसदी अज्ञानी, अनपढ़ लोग” भी इन ढ़हती दीवारों को देखकर ‘अश्रुपात’ है; दीवारें “मालिकों को ढूंढ रहा है”

ओह !!!!! दरभंगा महाराज ..... उनके किले का प्रवेश द्वार

दरभंगा: भारत की सम्पूर्ण आवादी का कोई 25 फीसदी लोग अज्ञानी, अनपढ़ हैं। यह भारत सरकार का शिक्षित-दर का आकंड़ा है। इस आंकड़े के अधीन रहने वाले लोग भी इस ढ़हती, टूटती दीवारों को देखकर इसके वर्तमान स्वामी की “मानसिक स्थिति के प्रति संवेदना” व्यक्त करता होगा। उन पच्चीस फ़ीसदी आवाम को जब यह मालूम होगा कि इस गगनचुम्बी दीवार को दिल्ली के लाल किले के तर्ज पर मिथिला नरेश और दरभंगा के अंतिम राजा महराजधिराज डॉ सर कामेश्वर सिंह ने आज से कोई अठ्ठासी वर्ष पूर्व मिथिला और अपने राज की गरिमा को मूर्तिवान किया था, इस बिलखती दीवारों को देखकर वह भी चीत्कार मारने लगेगा। अगर वह आवाम नेत्रों से दिव्यांग होगा, फिर भी दीवारों की ईंटों के नीचे दबी मिट्टियों को सूंघकर यह निर्णय दे सकता है कि दरभंगा राज की वर्तमान पीढ़ी, जो इन सम्पत्तियों का मालिक है; कितना ‘मानवीय’ हैं ‘निर्जीवों’ के लिए। 

बहरहाल, दरभंगा राज रेसिडुअरी इस्टेट और महाराजाधिराज डॉ कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टियों में आप मिथिलावासी कुमार कपिलेश्वर सिंह को कहीं देखे हैं? कुमार कपिलेश्वर सिंह कुमार शुभेश्वर सिंह के छोटे पुत्र हैं। कुमार शुभेश्वर सिंह महाराजाधिराज के अनुज राजबहादुर विश्वेश्वर सिंह के सबसे छोटे पुत्र थे। कुमार कपिलेश्वर सिंह दरभंगा के लाल किले के मुख्य प्रवेश द्वार के साथ किले की सुरक्षा-व्यवस्था हेतु चतुर्दिक बने तालाब के उस पार दाहिने हाथ वाले कोठी में रहते हैं – अब नजर नहीं आ रहे हैं। 

रामबाग ही नहीं, दरभंगा शहर में लोगों के बीच चर्चाएं आम है कि जीएम रोड बंगला नंबर-4 में हुए हादसे के बाद से “सिंह साहब” कहीं दृष्टिगोचित नहीं हो रहे हैं, जिससे कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट अथवा दरभंगा राज रेसिडुअरी एस्टेट के तहत होने वाले सभी कार्य वाधित हैं – यह दीवार गवाह है। उनके इर्द-गिर्द चक्कर लगाने वाले चाटुकार, सलाहकार भी आजकल दिख नहीं रहे हैं। चर्चाएं यह भी है कि “सिंह साहब” दिल्ली स्थित अपने “फ्लैट” में भी दृष्टिगोचित नहीं हैं । अफवाह यह भी है कि वे अपने बड़े भाई कुमार राजेश्वर सिंह के पास अमेरिका चले गए हैं।

दरभंगा के रामबाग के लोगों में एक पक्ष का कहना है कि अगर वे भारत के किसी कोने में होते तो इस गिरती, ढ़हती दीवारों से रूबरू होने अवश्य आते या फिर अपने किसी चापलूसों, चाटुकारों को देखने अवश्य भेजते। जबकि दूसरे पक्ष के लोग कहते हैं कि अगर उन्हें महाराजाधिराज की परम्पराओं, दरभंगा राज की गरिमा और संस्कृति की चिंता होती तो शायद दरभंगा का यह हाल नहीं होता। इस कोठी में कुमार शुभेश्वर सिंह रहते थे। उनकी मृत्यु के बाद आज उनका छोटा पुत्र कपिलेश्वर सिंह दरभंगा प्रवास के दौरान  ‘सपरिवार’ रहते हैं – यदा-कदा। महाराजाधिराज के वसीयत के हिसाब से रामबाग फोर्ट का मालिक वे दोनों भाई ही है।

कहा जाता है कि सन 1934 के भयानक भूकंप-त्रादसी के बाद मुगलिया सल्तनत के लाल किले के तर्ज पर ब्रिटिश फर्म के ठेकेदार बैग कैगटीम की देखरेख में 85 एकड़ की जमीन पर इस किले का निर्माण किया था। आज उस ऐतिहासिक किले की गगनचुम्बी दीवारों पर पीपल-बरगद जैसे जीवों ने अपना अधिपत्य जमा लिया है। ऐसा लगता है जैसे महाराजाधिराज के ह्रदय को चिड़ते-फाड़ते ये बृक्ष आकाश की ओर उन्मुख हो रहे हैं, उनसे मिलने के लिए । रामबाग परिसर के लोगों का यह भी कहना है कि इन दृश्यों को देखकर महाराजाधिराज की आत्मा कलपती होगी, बिलखती होगी, तड़पती होगी, दुखी होगी, विलाप करती होगी, आँहें भरती होगी – लेकिन इसे देखने वाला कोई नहीं है। 

दरभंगा के रामबाग पैलेस के मुख्य द्वार पर दरभंगा राज के पूर्व के 20 महाराजाओं की ‘ना’ ‘सही,  महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह की आत्मा बिलखती अवश्य होगी। सोचती होगी कि जिस परिसर में कल तक अनुशासन अपनी पराकाष्ठा पर थी, रास्ता ‘खास’ था – आज ‘आम’ कैसे हो गया। रास्ते टूट गए।  पुल घँस गए। दीवारें फांक-फांक हो गए। पीपल के पेड़,  बरगद के बृक्षों ने दरभंगा किले के चारो तरफ दीवारों में छेद दिया। अपनी जड़ें मजबूत करने में लग गया। यह बात सिर्फ पेड़-पौधों के साथ नहीं, बल्कि महाराजा के शरीर को पार्थिव होने के बाद उस चारदीवारी के अंदर कुछ अपने, कुछ दूर-दराज के सम्बधी, सभी अपना-अपना ठिकाना उन्हीं बृक्षों की भांति बना लिए । महाराज की पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद इस परिसर का स्वामित्व जिनके हाथों आया उनसे दरभंगा राज की, महाराज की, संस्कृति की, पुरातत्व की, घरोहर की सुरक्षा और संरक्षित रहने की बात सोचा नहीं जा सकता। तस्वीरें गवाह हैं। 

यह दीवार गवाह है दरभंगा राज ढह रहा है,पुरातत्व बचाने में सामर्थहीन है वर्तमान पीढ़ी

इस किले के तीन तरफ लगभग 90 फ़ीट ऊंची यह दीवार तैयार की गयी। तीन तरफ तो दीवार बन गई, चौथी तरफ, यानी, पश्चिम इलाके में यह दीवार नहीं बन सका । कुछ लोग कहते हैं कि तीन तरफ दीवार बनते-बनते देश आज़ाद हो गया, जमींदारी प्रथा समाप्त हो गई, इसलिए पश्चिमी दीवार अछूता रह गया। जबकि कुछ लोगों का कहना है कि इस किले के पश्चिम इलाके में रहने वाले लोगों शिकायत की कि इस दीवार से उनके घरों में आने वाली रोशनी अवरुद्ध हो गयी है। सभी न्यायालय से न्याय मांगे और और फिर अदालत ने निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। खैर।

इस किले में लाल ईंटों का प्रयोग किया गया | इसका डिज़ाइन फतेहपुर, सिकरी के बुलंद दरवाज़ा से प्रेरित है | इस किले के अंदर दो महल हैं। ऐसा माना जाता है कि राज परिवार की “कुल देवता” यहीं हैं । विगत कई भूकम्पों के दौरान महल नष्ट हो गया। लालकिला कई जगहों से दरक गया। लेकिन तब इसकी मरम्मत का कोई काम नहीं हुआ। फिर 2015 के तेज भूकंप में कई जगहों पर न सिर्फ छतिग्रस्त हुआ बल्कि किले के ऊपरी हिस्से का मलबा सड़को पर भी गिर था। किले की मरम्मत नहीं होने से किला लगातार जर्जर हाल होता जा रहा है। कई जगहों पर 10 से 20 फ़ीट तक ऊंची दीवारों में दरार साफ दिखाई दे रही है। दीवार के दक्षिण इलाके में 90 फ़ीट की दीवार घट कर 20-25 फ़ीट ही रह गई है। 

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महाराजाधिराज का कोई संतान नहीं था। उनके भाई राजा बहादुर विशेश्वर सिंह के तीन पुत्र थे – (1) राजकुमार जीवेश्वर सिंह, (2) राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह। वैसे आज महाराजाधिराज की तीसरी पत्नी और राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह की पत्नी को छोड़कर, उस पीढ़ी के सभी महिला-पुरुष मृत्यु को प्राप्त किये। कहते हैं कि महाराजाधिराज वसीयत लिखे जाने के समय इन तीनों भाइयों में राजकुमार जीवेश्वर सिंह ‘बालिग’ हो गए थे और उनका विवाह श्रीमती राज किशोरी जी के साथ संपन्न हो गया था। शेष दो भाई – राजकुमार यज्ञेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह नाबालिग थे। समयांतराल, राजकुमार जीवेश्वर सिंह प्रथम पत्नी के होते हुए भी, दूसरी शादी भी किए। कुमार जीवेश्वर सिंह के दोनों पत्नियों से सात बेटियां – कात्यायनी देवी, दिब्यायानी देवी, नेत्रायणी देवी, चेतना दाई, द्रौपदी दाई, अनीता दाई, सुनीता दाई – हुई । जीवेश्वर सिंह को दोनों पत्नियों से पुत्र की प्राप्ति नहीं हुई। किसी भी अन्य सदस्यों की तुलना में जीवेश्वर सिंह अधिक विद्वान थे, काफी शिक्षित थे और महाराजाधिराज के समय-काल में दुनिया देखे थे। दरभंगा राज के लोग उन्हें “युवराज” भी कहते थे। कुमार यज्ञेश्वर सिंह के तीन बेटे थे – कुमार रत्नेश्वर सिंह, कुमार रश्मेश्वर सिंह और कुमार राजनेश्वर सिंह। इसमें कुमार रश्मेश्वर सिंह की मृत्यु हो गई थी। 

अगर दस्तावेजों को माने तो महाराजाधिराज के इस ऐतिहासिक किले का क्षेत्रफल में उत्तरोत्तर कमी हो रही है। किले की दक्षिण दीवार की ऊंचाई में भी क्रमशः कम हो रही है। महाराजा की जब मृत्यु हुई उसके बाद, उनके उत्तराधिकारियों ने कई महलों के भूखंड को  बेचना शुरू कर दिया था । उन प्लॉटों को खरीदने वाले लोगों ने कॉलोनियों और घरों का निर्माण किया। तो कही, होटल, रेस्तरां और दुकानों को खोला गया |  सवाल यह है कि रामबाग परिसर में पैसे के लिए जमीन बिकेगी, भवन निर्माण होगा तो जमीन के क्रेता/भवन निर्माण कर्ता तो भवन निर्माण सामग्री लाएंगे ही। दूकान ही खोल दिए। पिछले कुछ सालों में एक बड़ी आबादी बस गई है। आप कुछ कर सकते नहीं। बेचारे महाराजाधिराज की आत्मा भी रामबाग परिसर में कराहती होगी।

महाराजाधिराज अपने जीते-जी अपनी वसीयत में लिखे थे: “शिड्यूल ‘A’ में वर्णित संपत्ति उनकी पत्नी महारानी राज्यलक्ष्मी को उनके जीवंत पर्यन्त रहने के लिए दिया जाता है। वे इस महल का रहने के अतिरिक्त किसी और ने उद्देश्य में नहीं करेंगी। वे इस भवन में रह सकती हैं, यहाँ के सभी फर्नीचरों और अन्य सुख-सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकती हैं। कोई भी व्यक्ति उनके इस कार्य में किसी भी तरह का व्यवधान नहीं कर सकता है। जब उनकी मृत्यु हो जाएगी तब यह संपत्ति हमारे सबसे छोटे भतीजे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को सम्पूर्णता के साथ चली जाएगी।” शिड्यूल ‘A’ में रामबाग यानि दरभंगा राज फोर्ट के अंदर वाला विशालकाय भवन है। यानि महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद यह संपत्ति राजकुमार शुभेश्वर सिंह की हो जाएगी। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानी महाराजाधिराज की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई और कुमार शुभेश्वर सिंह भी अब इस दुनिया में नहीं रहे।

महाराजाधिराज के वसीयत के शिड्यूल ‘A’ और ‘B’ में उद्धृत सम्पत्तियाँ, यानी महारानी राजलक्ष्मी और महारानी कामसुंदरी को जीवन पर्यन्त रहने के लिए जिन भवनों को महाराज बहुत “स्नेह” और “प्रेम” से लिखा था, ताकि उन्हें महाराज के बिना भी, अपनी अंतिम सांस तक “तकलीफ” नहीं हो; महाराजा की मृत्यु के बाद विगत छः दशकों से उन महलों की दीवारें, महलों की ईंट, बरामदे, खम्भे, छत, परिसर सभी टकटकी निगाहों से सूर्य की रोशनी में प्रत्येक आवक-जावक जीव को देखता आ रहा है, सोचता आ रहा है – कोई उसका भी हाल पूछे !! बारिस में बादलों की गर्जन के साथ भवनों के एक-एक ईंटों के रूह काँप जाते हैं। सभी डर से थर-थर कांपते हैं। परन्तु कोई नहीं आता, कोई नहीं पूछता। चतुर्दिक ‘उपेक्षाओं के पेड़-पौधे, घास-फूस कुकुरमुत्तों जैसा फ़ैल गया है। सूर्य की किरण फटते भवनों के छत-खंभे-दीवारें आपस में गुफ्तगू करना प्रारम्भ कर देते हैं, दुःख-दर्द बांटते हैं और सूर्यास्त होने के साथ ही, सभी एक-दूसरे को हताश निगाहों से देखते पृथक हो जाते हैं। उन्हें तो यह भी ज्ञात नहीं होता कि अगले दिन वे एक-दूसरे से मिल पाएंगे अथवा नहीं ? वे सोचते रहते हैं कहीं महाराजाधिराज की तरह “आकस्मिक रूप से” वे भी अपनी भव्यता को सुबह-सवेरे जमीन पर असहाय और पार्थिव अवस्था में तो पड़ा नहीं पाएंगे ।

हे महाराज!!!!! कहाँ चले गए

दिनांक 5 जुलाई, 1961 को “दि लास्ट विल एंड टेस्टामेंट” में दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह अपना वसीयत बनाते समय वसीयत के आठवें पैरा में लिखा है: “I, bequeath the property mentioned in Schedule “A” to my wife Maharani Rajyalakshmi for her life for her residence (and for no other purposes). She shall be entitled to reside in the said house and use the furniture and fittings only without let or hindrance by anybody. After her demise the said property shall vest in my youngest nephew Rajkumar Subheshawra Singh absolutely.“ और महारानी राज्यलक्ष्मी अपने पति और दरभंगा के अंतिम राजा महाराजाधिराज की मृत्यु के 16-वर्ष बाद अंतिम सांस ली। दस्तावेज के अनुसार उक्त संपत्ति महाराजाधिराज के छोटे भतीजे कुमार शुभेश्वर सिंह का हो गया “अब्सॉल्युटली” – आगे कुमार शुभेश्वर सिंह भी मृत्यु को प्राप्त किये। स्वाभाविक है यह संपत्ति उनके दो पुत्रों को हस्तगत हुआ होगा। 

साथ ही, महाराजधिराज वसीयत के 11वें पारा में ऐसा क्यों लिखा की उनकी दोनों पत्नियों की मृत्यु के बाद संपत्ति का एक-तिहाई हिस्सा उनके सबसे छोटे भतीजे, राजकुमार शुभेश्वर सिंह के “हिन्दू ब्राह्मण समुदाय” की पत्नी द्वारा उत्पन्न बच्चों का होगा, यह तो महाराजाधिराज की आत्मा ही जानती होगी। यह सच है कि वसीयत बनाते समय राजकुमार शुभेश्वर सिंह “नाबालिग” थे। परन्तु, दो बड़े महारथियों के द्वारा शब्दों का चयन, लेखनी और फिर हस्ताक्षर इस बात का गवाह जरूर है कि  महाराजाधिराज को बात का अंदेशा अवश्य था कि उनकी मृत्यु के बाद दरभंगा राज का अस्तित्व खतरे में पड़ेगा। इस बात से भी सशंकित रहे होंगे कि दरभंगा राज परिवार के पुरुष आने वाले समय में अपनी जाति और संप्रदाय से बाहर भी विवाह कर सकता है, विशेषकर तब जब राज परिसर में ‘अभिभावक और अनुशाशन’ की किल्लत हो जाएगी। उस पीढ़ी को बिना किसी मेहनत और मसक्कत से संपत्ति का विशाल पहाड़ मिल जायेगा। महाराजाधिराज ‘लक्ष्मण रेखा’ तो खींचे, परन्तु अगली पीढ़ी में “लक्ष्मणजी” ख़ुद रेखा को लांघ दिए। यानी, दरभंगा राज की संस्कृति का विराम हो गया यहाँ। 

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शिड्यूल ‘A’ में रामबाग यानि दरभंगा राज फोर्ट के अंदर वाला विशालकाय भवन है। यानि महारानी राज्यलक्ष्मी की मृत्यु के बाद यह संपत्ति राजकुमार शुभेश्वर सिंह की हो जाएगी। महारानी राजलक्ष्मी की मृत्यु सन 1976 में, यानी महाराजाधिराज की मृत्यु के 14 वर्ष बाद हुई। शिड्यूल ‘’B’ में नरगौना पैलेस, इससे लगे गार्डन जिसके उत्तर में कंपाउंड वाल है, दक्षिण में सड़क है जो महाबीर मार्बल मंदिर के तरफ जाती है। महाराजाधिराज और महारानी राजलक्ष्मी की तरह, कुमार शुभेश्वर सिंह भी अब इस दुनिया में नहीं रहे। महाराज की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को हुई और कुमार शुभेश्वर सिंह उनके हिस्से आई आर्यावर्त-इण्डियन नेशन समाचार पत्रों की अंतिम सांस लेने के कोई दो वर्ष बाद 2004 में हुयी। महाराज द्वारा नियुक्त तीनो ट्रस्टीगण भी मृत्यु को प्राप्त किये। 

आपको याद भी होगा कि नब्बे के दशक के उत्तरार्ध कलकत्ता उच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति  विशेश्वर नाथ खरे और उनके सहयोगी न्यायमूर्तियों के समक्ष सिविल प्रोसेड्यूर कोड के सेक्शन 90 और आदेश 36 के तहत, सन 1963 के प्रोबेट प्रोसीडिंग्स संख्या 18 के तहत, दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह बहादुर के वसीयत नामा के अधीन नियुक्त ट्रस्टियों के द्वारा इण्डियन ट्रस्ट एक्ट के सेक्शन 34, 37, 39, 60 और 74 के अधीन एक याचिका से निवेदन किए थे कि उन्हें  रेसिडुअरी इस्टेट ऑफ़ महाराजा दरभंगा और महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह चेरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टीशिप से “मुक्त” किया जाय। लक्ष्मी कांत झा उक्त कार्य को सम्पन्न करते हुए 3 मार्च, 1978 को मृत्यु को प्राप्त करते हैं। 

रामबाग का प्रवेश द्वार

बहरहाल, भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने 1977-78 में इस किले का सर्वेक्षण भी कराया था। बिहार सरकार द्वारा बिहार के एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स के अधीन दरभंगा के रामबाग पैलेस को एन्सिएंट मोन्यूमेंट की श्रेणी में रखने से पूर्व लोगों से उनका विचार, ऑब्जेक्शन मांगी थी कि दरभंगा राज फोर्ट को क्यों नहीं “बिहार एन्सिएंट मोनुमेंट्स एंड आर्किओलॉजिकल साईट्स रिमेंस” के अधीन ले लिया जाय। ऑब्जेक्शन मांगने के पीछे लोगों का विचार आमंत्रित करना था, ताकि विभाग और सरकार इस दिशा में समुचित कार्रवाई कर सके। यदि किसी को इस दिशा में आपत्ति होगी, स्वाभाविक है, उनके विचार को भी विभाग और सरकार बहुत ही प्राथमिकता से अध्ययन और जांच करेगी ताकि निर्णय लेने में सरकार के तरफ से कोई चूक या भूल नहीं हो जाय । जैसे ही लोगों से आपत्ति मांगने से संबंधित सूचना के प्रकाशन के साथ ही दरभंगा राज फोर्ट में रहने वाले लोगों में खलबली मच गई। कला, संस्कृति और युवा विभाग, बिहार सरकार के सचिव, विभाग के उप-सचिव, पुरातत्व विभाग के निदेशक, अधीक्षक (पटना अंचल), दरभंगा के जिला मजिस्ट्रेट, सब-डिविजनल अधिकारी और अंचल अधिकारी प्रतिवादी बन गए। 

वादी का कहना था कि नियमानुसार उसी स्थान / भवनों को उक्त नियमों के तहत ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता है जो न्यूनतम 100-वर्ष पूरे नहीं किये हों। और नियमानुसार, दरभंगा राज फोर्ट 100 वर्ष की आयु के नहीं हैं, अतः नियमनुसार यह ‘एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ के रूप में नहीं माना जा सकता। नियमों के अनुसार, कोई भी ऐसी चीज जो 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। इस ऐतिहासिक निर्णय का श्रेय भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के एंटीक्वटीज एंड आर्ट ट्रेजर्स एक्ट, 1972 को जाता है। यह कानून 1976 से लागू हुआ। इसका मकसद भारतीय सांस्कृतिक विरासत की बहुमूल्य वस्तुओं की लूट और उन्हें गैर-कानूनी माध्यमों से देश से बाहर भेजने पर रोक लगाना था। वैसे, इसके सिर्फ नकारात्मक और अनपेक्षित परिणामों का अतिरेक ही सामने आया। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि यह कानून इतने कड़े और अभावग्रस्त नियमों से भरा हुआ है कि बेईमान ‘कला के सौदागर’ सरकारी अधिकारियों और कस्टम अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर अपना रास्ता निकाल ही लेते है। बहरहाल, मई 4, 2015 को पटना उच्च न्यायालय दरभंगा के महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह के रामबाग पैलेस से सम्बंधित एक याचिका को रद्द दिया । 

अधिनियम के अनुच्छेद 2(1) (अ) के अनुसार कोई भी ऐसी चीज जो ‘ऐतिहासिक महत्व’ की हो या 100 साल या इससे अधिक पुरानी हो तो वह ‘पुरातात्विक’ है। और हर किसी को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के पास ऐसी प्रत्येक वस्तु का पंजीकरण कराना और उसके चित्र खिंचवाना अनिवार्य होता है फिर भले ही चाहे वह कोई व्यक्ति हो, कोई संगठन हो या कोई संस्थान (उदाहरण के तौर पर कोई मंदिर) । कानून का अनुच्छेद 11 पुरावशेषों और कलाकृतियों के आयात, निर्यात और देश के भीतर भी एक जगह से दूसरी जगह लाने-ले जाने को नियंत्रित करता है और किसी भी व्यक्ति के ऐसा करने पर प्रतिबंध लगाता है। ऐसा करने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार या उसकी किसी एजेंसी को होता है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करना चाहे तो उसे (यदि वस्तु काे देश के भीतर ही एक जगह से दूसरी जगह ले जाता है) इसके लिए जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति लेनी होगी. यदि उस वस्तु का आयात या निर्यात किया जाना है तो विदेश व्यापार के महानिदेशक एवं कस्टम विभाग से अनुमति लेनी होगी। बहरहाल, इस नियम में अनेकानेक खामियों के मद्दे नजर, पूर्व केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा के समय में कानून मंत्रालय के एक सेवानिवृत्त सचिव को काम सौंपा कि वे इस कानून की सभी खामियों को दूर करने, सुधार के उपायाें और नए सिरे से कानून बनाने पर प्रस्ताव बनाये जाए। हालांकि, सेवानिवृत्त न्यायाधीश मुकुल मुदगल समिति ने इस कानून में सुधार के लिए अपनी रिपोर्ट के रूप में 2012 में प्रस्तावित उपायों का जो चिट्ठा सौंपा था। 

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अदालत का मानना था कि नियम के सेक्शन 3 (1) के तहत राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार की सूचना जारी करें। इन बातों का कोई महत्व नहीं है की किस नियम के किस सेक्शन, सब-सेक्शन के तहत क्या लिखा है। यह महज लोगों से आपत्ति लेने सम्बन्धी सूचना है। अदालत का कहना था कि अगर वादी पक्ष यह मानता है कि दरभंगा राज फोर्ट की आयु 100 वर्ष नहीं हुई है, और इसे किसी भी कानून के तहत एन्सिएंट मोनुमेंट्स’ की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है तो उन्हें स्वतंत्रता है कि वे इस सम्बन्ध में अपना सम्पूर्ण विचार, आपत्ति, सम्बद्ध विभाग के अधिकारी के पास प्रस्तुत करें। अदालत यह भी स्वीकार किया कि उस समय इस मामले में अदालत का हस्तक्षेप ठीक नहीं होगा। और इस तरह वादी राजेश्वर सिंह और कपिलेश्वर सिंह द्वारा दायर याचिका निरस्त हो जाता है।  

रामबाग का प्रवेश द्वार

ज्ञातव्य हो की कुछ समय पूर्व रामबाग परिसर के प्रवेश के साथ बाहरी दीवार और किले के अंदर प्रवेश करने के द्वार के बीच बना ऐतिहासिक 86-वर्ष का वृद्ध पुल अपनी रख-रखाव, इस विशाल परिसर के स्वामित्व रखने वाले की उपेक्षा के कारण आंशिक रूप से मृत्यु को प्राप्त करता है, ध्वस्त हो जाता है। कहते हैं  कभी दरभंगा राज परिवार के लोग इसी पुल से एक किले से दूसरे किले जाते थे। यह भी एक धरोहर ही था। ध्वस्त हो भी क्यों नहीं? देखते ही देखते कभी “खास” रास्ता “आम” हो गया। 

कहा जाता है कि दरभंगा राज लगभग 2410 वर्ग मील में फैला था, जिसमें कोई 4495 गाँव थे, बिहार और बंगाल के कोई 18 सर्किल सम्मिलित थे। दरभंगा राज में लगभग 7500 कर्मचारी कार्य करते थे। आज़ादी के बाद जब भारत में जमींदारी प्रथा समाप्त हुआ, उस समय यह देश का सबसे बड़ा जमींदार थे। इसे सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। लोक-चित्रकला, संगीत, अनेकानेक विद्याएं या क्षेत्र की पूंजी थी। आज भवन की कीमत जो भी आँका जाय, इस सम्पूर्ण क्षेत्र यानी दरभंगा के ह्रदय में स्थित 85 एकड़ भूमि की व्यावसायिक कीमत क्या होगी, यह आम आदमी नहीं सोच सकता है। वजह भी है : सरकारी आंकड़े के अनुसार “दरभंगा के लोगों का प्रतिव्यक्ति आय 15, 870/- रूपया आँका गया है और इतनी आय वाले लोग लाख, करोड़, अरब, खरब रुपयों के बारे में सोच भी नहीं सकते। वह जीवन पर्यन्त उस राशि पर कितने “शून्य” होंगे, सोचते जीवन समाप्त कर लेगा। परन्तु सोच नहीं पायेगा। 

अनेकानेक लेख प्रकाशित हैं इस किले के बारे में । किले की दीवारों का निर्माण लाल ईंटों से हुई है | इसकी दीवार एक किलोमीटर लम्बी  है | किले के मुख्य द्वार जिसे सिंहद्वार कहा जाता है पर वास्तुकला से दुर्लभ दृश्य उकेड़े गयें है | किले के भीतर दीवार के चारों ओर खाई का भी निर्माण किया गया था। उस वक्त खाई में बराबर पानी भरा रहता था। कहा जाता है कि महाराजा महेश ठाकुर के द्वारा स्थापित एक दुर्लभ कंकाली मंदिर भी इसी किले के अंदर स्थित है। कहा जाय है कि महाराजा महेश ठाकुर को देवी कंकाली की मूर्ति यमुना में स्नान करते समय मिली थी | प्रतिमा को उन्होंने लाकर रामबाग के किले में स्थापित किया था। यह मंदिर राज परिवार की कुल देवी के मन्दिर से भिन्न है और आज भी लगातार श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करती है। किले के अंदर दो महल भी स्थित हैं | सन 1970 के भूकम्प में किले की पश्चिमी दीवार क्षतिग्रस्त हो गयी , इसके साथ ही दो पैलेस में से एक पैलेस भी आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हो गयी | इसी महल में राज परिवार की कुल देवी भी स्थित हैं | यह महल आम लोगों के दर्शनार्थ हेतु नहीं खोले गए हैं|वैसे दुखद बात यह है की दरभंगा महाराज की यह स्मृति है अब रख – रखाव के अभाव में एक खंडहर में तब्दील हो रहा है | शहर की पहचान के रूप में जाने वाले इस किले की वास्तुकारी पर फ़तेहपुर सीकरी के बुलंद दरवाजे की झलक मिलती है |

बहरहाल, दरभंगा के लोगों का मानना है कि दरभंगा राज की नींव क्रमशः कमजोर हो रही है। उनके पुरखों का उदाहरण देकर जिस दरभंगा राज की गरिमा की, यहाँ के राजा-महाराजाओं की वर्चस्व की चर्चाएं की जाती थी, आज समय के गर्त में धूमिल हो गई है। आज दरभंगा राज की गरिमा समाप्त हो गयी है। लेकिन वे स्वयं में इतना सामर्थ नहीं जुटा पा रहे हैं कि वे दरभंगा राज की गरिमा को पुनः स्थापित कर सकें। उनका मानना है कि इस ऐतिहासिक राज की गरिमा को पुनः स्थापित करने के लिए सबसे अधिक आवश्यक है राज परिवार के लोगों के बीच, विशेषकर पुरुषों के बीच, सामंजस्य का होना, जिसकी किल्लत है। प्रत्येक बात का निदान कचहरी में नहीं हो सकता। राज दरभंगा के लोगों का मानना है कि आज भी वैसे समस्याएं कुछ भी नहीं है, परन्तु जब सभी बातों की पहली और अंतिम छोड़ संपत्ति और अधिपत्य से निकलती है, स्वाभाविक है समस्याएं उत्पन्न होंगी ही। फिर भी, ऐसी कोई भी समस्या नहीं है जिसका निदान आपसी भाईचारे, बातचीत, सामंजस्य, सोच-विचार से नहीं हो सकता है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इन्ही चीजों की किल्लत है दरभंगा के लाल-किला के अंदर।  

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