पूर्णिया / पटना / नई दिल्ली : इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आने वाले समय में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आई.ए.आर.सी.) के तहत निबंधित देश के सत्तर और अधिक सरकारी और निजी क्षेत्रों के कृषि विश्वविद्यालयों के शोधार्थी और विषय-विशेषज्ञ बिहार के सबसे पिछड़े इलाके पूर्णिया जिले के रामनगर क्षेत्र में वर्षों से चल रहे ‘प्राकृतिक खेती’ अथवा ‘ऋषि खेती’ का गहन अध्ययन करने हेतु अपना-अपना दल भेजे। वैसे भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में इस विषय पर ‘चर्चाएं’ हो रही है। सूत्रों का कहना है कि देश में प्राकृतिक खेती को और अधिक मजबूत बनाने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी निजी तौर पर विशेष दिलचस्पी दिखा रहे हैं।
उधर प्रदेश के आला अधिकारियों का कहना है कि मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार निजी तौर पर इस ‘प्राकृतिक कृषि कार्य’ को देखना चाहते हैं। लेकिन दिल्ली के कृषि मंत्रालय के सूत्रों का मानना है कि ‘रामनगर में जिस तरह से भूमि को बिना किसी छेड़-छाड़ के नए-नए प्राकृतिक तरीकों का ईजाद किया जा रहा है, संभव है की केंद्रीय कृषि मंत्री श्री नरेंद्र सिंह तोमर इस कार्य को बढ़ावा देने हेतु स्वयं रामनगर की यात्रा करें।
सूत्रों का कहना है कि रामनगर में श्री हिमकर मिश्रा के नेतृत्व में स्थापित ‘समर-शैल प्राकृतिक फार्म’ खेती का एक ऐसा सुखद प्राकृतिक तरीका ईजाद कर रहा है जो खेती के काम को कठिन की बजाय बहुत आसान बनाता है। इस कृषि विधि में जोतने, रासायनिक खाद देने, कीटनाशक दवा का प्रयोग करने की कोई जरुरत नहीं होती है। यह न केवल भूमि को बेहतर जीवन प्रदान करती है, बल्कि उत्पाद को भी प्रचुर मात्रा में पौष्टिक रखती है।”
कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने आर्यावर्तइण्डियननेशन.कॉम को बताया कि “आज विश्व में प्राकृतिक संतुलन इसलिए बिगड़ा हुआ है, असंतुलित है क्योंकि मनुष्य अधिकाधिक सुधरी हुई तकनीकों का इस्तेमाल कर रहा है। परिणाम यह हो रहा है कि भूमि पूर्णतः उस पर आश्रित हो गई है। यह एक तर्क-वितर्क का पक्ष है। हकीकत यह है कि यदि हम प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखने के लिए प्रकृति के साथ छेड़-छड़ के बजाय उसके नियमों के तहत चलें तो सभी परिणाम बेहतर ही होगा। कृषि और खेती के मामले में, चाहे धान की खेत हो, गेहूं की खेती हो, फलों की खेती हो, फूलों की खेती हो – सबों पर यह नियम लागु होता है। जानकारी के अनुसार पूर्णिया के रामनगर इलाके में समर शैल प्राकृतिक फार्म में कुछ इसी तरह का प्रयोग हो रहा है।’
मासानोबू फुकूओका पर लिखी गई पुस्तक ‘द वन स्ट्रा रेवोल्यूशन’ का उद्धरण देते कृषि अधिकारी कहते हैं: “प्राकृतिक खेती में पेड़-पौधों में कटाई-छटाई और कीटनाशक उसी सीमा तक आवश्यक होता है, जिस सीमा तक वृक्ष अपने स्वाभाविक आकार-प्रकार से दूर होते हैं। प्रकृति में औपचारिक शिक्षण की कोई भूमिका नहीं होती। किसी फलदार वृक्ष में कैंची से काटकर अलग कर दिया जाए तो उससे एक ऐसी अव्यवस्था पैदा हो सकती है जिसे फिर दुबारा ठीक नहीं किया जा सकता।”
वे आगे कहते हैं: “अपने स्वाभाविक आकार में बढ़ते हुए वृक्ष की शाखाएं तने से, जो बारी-बारी से निकलती (फूटती) है, उससे उन्हें सूर्य का प्रकाश एक-समान मात्रा में मिलता है। यदि इस क्रम को भंग कर दिया जाए तो शाखाओं में ‘टकराव’ पैदा हो जाता है। वे एक-दूसरे पर आकर आपस में उलझ जाती हैं, और जिस स्थान पर सूर्य की किरणें प्रवेश नहीं कर पाती, वहां की पत्तियां मुरझा जाती हैं। यहीं से कीड़े लगना भी शुरू हो जाते हैं। यदि वृक्ष की कटाई-छंटाई नहीं की गई तो अगले वर्ष कुछ और शाखें मुरझा जाएंगी।”
‘समर-शैल प्राकृतिक फार्म’ के संस्थापक श्री हिमकर मिश्रा के अनुसार: “इस फार्म में मल्टी लेयर’ फार्मिंग होता है। इस मल्टी लेयर की विशेषता है कि सूर्य से निकलने वाली हानिकारक किरण सीधा जमीन पर नहीं पहुँच पाता। इस फार्म में किसी भी तरह का रासायनिक खाद या कीटनाशक का प्रयोग नहीं होता है और ना ही जमीन की जुताई की जाती है। फार्म में वायु प्रदुषण, मिटटी संरक्षण, जल संरक्षण को विशेष रूप से ध्यान में रखकर खेती की जाती है।”
श्री मिश्रा का कहना है कि वे इस फार्म में सैकड़ों ऐसे बहुमूल्य पौधों को उपजाने के प्रयास कर रहे हैं जो न केवल प्राकृतिक दवाइयों के रूप में समाज के सबसे कमजोर वर्गों तक पहुँचाना है, बल्कि ‘इंडिजिनस मेडिसिन’ के रूप में समाज के सभी वर्गों को न्यूनतम मूल्यों पर उपलब्ध हो सके। वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि यह कृषि कार्य स्थानीय लोगों का मनोबल तो बढ़ाएगा ही, रोजगार का अवसर भी प्रचुर मात्रा में सृजन करेगा।
‘प्राकृतिक खेत’ या ‘ऋषि खेती’ भारत का बहुत पुराण कृषि प्रणाली है। इस क्रिया में भूमि के प्राकृतिक स्वरूप को बनाये रखती है। इसमें रासायनिक खादों या कीटनाशक दवा का उपयोग नहीं होता है, बल्कि प्रकृति में आसानी से उपलब्ध प्राकृतिक तत्वों से खेती की जाती है। या पर्यावरण के अनुकूल तो है ही, कृषि-फसलों की लागत को भी कम रहती है। प्राकृतिक खेती जापान के एक किसान एवं दार्शनिक मासानोबू फुकुओका द्वारा स्थापित कृषि की पर्यवरणाक्षी पद्धति है।
बहरहाल, श्री मिश्रा का कहना है कि “इस फार्म में हज़ारों बहुमूल्य पौधों के अतिरिक्त अब अगस्त्य पौधा लगाया जा रहा है।अगस्त्य पौधा पूर्णरूपेण चमत्कारी पौधा है जो रतौंधी, लिवर, कृमि एवं मिर्गी से ग्रसित रोगियों के लिए अचूक दबा के रूप में सिद्ध होगा। इस दिशा में वे देश-विदेश के विशेषज्ञों से इंटरनेट के माध्यम से सम्पर्क स्थापित कर रहे हैं। अगर मेरा प्रयास सफल हो गया तो आने वाले दिनों में औषधीय पौधों के मामले में समर-शैल प्राकृतिक फार्म’ एक नई क्रांति की शुरुआत करेगा।”
ज्ञातव्य हो कि अगस्त्य जैसे पौधे की खेती मुख्य रूप से भारत के अलावा थाईलैंड, मलेसिया, फिलीपींस, नॉदर्न ऑस्ट्रेलिया में बड़े पैमाने पर की जाती है। हमारी पूरी कोशिश होगी कि हम इस फार्म में इस पौधे को संरक्षित और सम्पोषित कर इलाके के लोगों को एक नया जीवन दें। अगस्त्य पौधे की ऊंचाई करीब 20-30 फिर तक होती है और इसे लिए गर्म परिवेश का होना आवश्य है। औसतन सितम्बर – अक्टूबर महीने में इस पौधे में फूल निकलते हैं।
प्राकृतिक खेती भारतीयपरंपरा में निहित एक रसायन-मुक्त कृषि प्रणाली है जो पारिस्थितिकी, संसाधन पुनर्चक्रण और खेत पर संसाधन अनुकूलन कीआधुनिक समझ से समृद्ध है। इसे कृषि पारिस्थितिकी आधारित विविध कृषि प्रणाली मानाजाता है जो फसलों, पेड़ोंऔर पशुधन को कार्यात्मक जैव विविधता के साथ एकीकृत करती है। यह काफी हद तकऑन-फार्म बायोमास रीसाइक्लिंग पर आधारित है, जिसमें बायोमास मल्चिंग, ऑन-फार्म गाय के गोबर-मूत्र फॉर्मूलेशन के उपयोग परप्रमुख जोर दिया गया है; मिट्टीके वातन को बनाए रखना और सभी सिंथेटिक रासायनिक आदानों का बहिष्कार। प्राकृतिकखेती से खरीदे गए इनपुट पर निर्भरता कम होने की उम्मीद है। इसे रोजगार बढ़ाने औरग्रामीण विकास की गुंजाइश के साथ एक लागत प्रभावी कृषि पद्धति माना जाता है।
क्रमशः