हे गाँधी !! एक बार फिर आना बिहार, इटावा, किसान बहुत कष्ट में हैं

विगत दिनों 2 अक्टूबर को मोहनदास करमचन्द गाँधी का 151 वां जन्मदिन है। अगर जीवित होते तो 151-वर्ष के होते। बिहार प्रदेश के मुख्य मन्त्री भी अब वृद्धावस्था की ओर अग्रसर है। वे भी 70 वर्ष के हो रहे हैं। लेकिन जिस मोहनदास को आज से 104-वर्ष पूर्व, यानि 1916 में बिहार के चम्पारण जिले के किसान-आंदोलन में “महात्मा” शब्द से अलंकृत किया गया, आज प्रदेश के उन्ही किसानों की दूसरी-तीसरी-चौथी पीढ़ी के वंशज सरकारी नीतियों से त्रस्त हैं, कुहर रहे हैं। उस समय देश “गुलाम” था, आज देश “आज़ाद” है।

वजह: देश में किसानों की दयनीय हालत से सभी वाकिफ हैं। इसमें बिहार के किसानों की स्थिति और भी बद्तर है। यहाँ के किसानों की मासिक आय 3558 रुपये है जबकि देश के दूसरे प्रांतों में किसानों की मासिक आय बिहार के किसानों की आय से न्यूनतम चारगुना अधिक तो अवश्य है। प्रदेश के सरकारी क्षेत्रों में कार्य करने वाले चपरासी और सफाई कर्मचारियों भी इन किसानों से न्यूनतम दस-गुना अधिक तनख़ाह पाते हैं। इतना ही नहीं, बिहार में शायद ही कोई किसान होगा जो कर्जमुक्त होगा। परन्तु आज़ाद भारत में तो “मोहनदास करमचन्द” कोई है नहीं, फिर कौन सोचेगा बिहार के किसानों के बारे में ?

विगत वर्षों से प्रदेश के मुख्य मन्त्री अनेकानेक बार इस बात को स्वीकार किये की प्रदेश में होने वाले अपराधों में 80 फीसदी से अधिक अपराध “भूमि से सम्बंधित” होते हैं। उन्होंने प्रदेश के अधिकारीयों को ऐसे सभी मामलों को समाप्त करने का आदेश दिया। लेकिन “कुछ आदेश पारित हुए”, कुछ “आधार में लटक गए” और अपराधों का सिलसिला जारी रहा। आज प्रदेश में किसानों, भू-स्वामियों की स्थिति कैसी है यह प्रदेश के लोगों से छिपा नहीं है।

कहा जाता है अंग्रेज बागान मालिकों ने चंपारण के किसानों से एक करार कर रखा था, जिसके अंतर्गत किसानों को अपने कृषिजन्य क्षेत्र के 3/20 वें भाग पर नील की खेती करनी होती थी। इसे तिनकठिया पद्धति के नाम से जाना जाता था। 19वीं सदी के अंतिम दिनों में रासायनिक रंगों की खोज और उनके बढ़ते प्रचलन के कारण नील की मांग कम होने लगी और उसके बाजार में भी गिरावट आने लगी। इसके कारण नील बागान मालिक चंपारन के क्षेत्र में भी अपने नील कारखानों को बंद करने लगे। किसानों को भी नील का उत्पादन घाटे का सौदा होने लगा। वे भी नील बागान मालिकों से किए गए करार को खत्म करना चाहते थे। किसानों से हुए करार से मुक्त करने के लिए बागान मालिक भारी लगान की मांग करने लगे। परेशान किसान विद्रोह पर उतर आए। यहां के राजकुमार शुक्ल ने किसानों का नेतृत्व संभाला।

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1916 में राजकुमार शुक्ल ने लखनऊ जाकर महात्मा गांधी से मुलाकात की और चंपारन के किसानों को इस अन्यायपूर्ण प्रक्रिया से मुक्त कराने के लिए आंदोलन का नेतृत्व करने का अनुरोध किया। गांधी जी ने उनका अनुरोध स्वीकार लिया।

महात्मा गांधी, राजकुमार के अनुरोध पर चंपारन पहुंचे तो वहां कि अंग्रेज प्रशासन ने उन्हें जिला छोडऩे का आदेश जारी कर दिया। गांधी जी ने इस पर सत्याग्रह करने की धमकी दे डाली, जिससे घबराकर प्रशासन ने उनके लिए जारी आदेश वापस ले लिया। चंपारन में सत्याग्रह, भारत में गांधी जी द्वारा सत्याग्रह के प्रयोग की पहली घटना थी। चंपारन आंदोलन में गांधी जी के नेतृत्व में किसानों की एकजुटता को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने जुलाई 1916 में इस मामले की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया। गांधी जी को भी इसका सदस्य बनाया गया ।आयोग की सलाह मानते हुए सरकार ने तिनकठिया पद्धति को समाप्त घोषित कर दिया। किसानों से वसूले गए धन का भी 25 प्रतिशत वापस कराया गया। चंपारन आंदोलन मे गांधी जी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें महात्मा के नाम से संबोधित किया। तभी से लोग उन्हें महात्मा गांधी कहने लगे। यहाँ गांधी जी के आंदोलन में राजेन्द्र कुमार, जीवी कृपलानी, महादेव देसाई, ब्रजकिशोर, नरहर पारिख भी शामिल थे।

चम्पारण के किसान

बहरहाल, उधर, उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के किसानों, खासकर बुनकरों की स्थिति बिहार के किसानों से बेहतर नहीं है।वार्ता के एक रिपोर्ट के अनुसार, एक जमाने में सूती वस्त्रो के निर्यात से देश के विदेशी मुद्रा भंडार को भरने में खासा योगदान करने वाले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में बुनकर उद्योग सरकार की बेरुखी से दम तोड़ता नजर आ रहा है ।

बदहाली के शिकार जिले के बुनकरों को फिलहाल सरकार के रहमोकरम की कोई जरूरत नहीं हुये है और वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के आदर्शो पर चलते हुये जीतोड़ मेहनत और बुलंद इरादों से कारोबार में गर्माहट बनाये रखने की पुरजोर कोशिश में जुटे हैं। कोराना महामारी ने बुनकर उद्योग को खासा नुकसान पहुंचाया है और बड़ी तादाद में इस उद्योग से जुड़े कारीगर रोजी रोटी को मोहताज हो गये हैं।

इटावा में बुनकरी कारोबार आजादी से बहुत पहले शुरु हो गया था। 1929 में महात्मा गांधी इटावा आये थे। गांधी का सूत प्रेम देखकर बुनकरों के मन में नया उत्साह पैदा हुआ और आजादी के वक्त तक इटावा में बुनकरी का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ा। आजादी के बाद भी यह बढ़त जारी रही लेकिन सरकार ने जैसे ही बुनकरों के विकास का बीड़ा अपने हाथ में लिया, बदहाल होते होते बुनकर विनाश की दहलीज पर आ खड़ा हुआ। आजादी के पहले का उत्साह सरकारी योजनाओं और अफसरशाही की भेंट चढ़ गया है।

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जिले के बुनकरों का कहना है कि महात्मा गांधी का नाम जेहन में आते ही एक अजीब सी ताकत का एहसास होता है, महात्मा गांधी ने गुलामी के दौर में देशवासियों में एक नई ऊर्जा का सृजन कर दिया था जिसके बलबूते पर देश को आजादी मिली,महात्मा गांधी ने देश को जो कुछ दिया है उसका बखान करने की जरूरत नहीं हैं लेकिन उन्होनें हथकरघा के रूप में एक कारोबार देशवासियों को दिया है। इसी कारोबार का खासा असर उत्तर प्रदेश के इटावा में देखा जाता है। इटावा के बुनकर महात्मा गांधी को प्ररेणास्त्रोत मान कर आज भी अपना कारोबार करने में तन्मयता से जुटे हुये है।

उत्तर प्रदेश में चंद्रभान गुप्त ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य की पहली सूत मिल 1967 में इटावा में स्थापित कराई। यह सब इटावा के बुनकर कारोबार को ध्यान में रख कर बुनकरो के हितो में किया गया महत्वपूर्ण कदम समझा गया। जिस समय सूत मिल की स्थापना हुई उस समय इटावा एंव आसपास के बुनकरो को सूत सस्ते दर पर मिलना शुरू हो गया लेकिन सरकार की योजनाओं का लाभ ज्यादा समय तक बुनकर उठाने में सफल नहीं हो सका क्योंकि सरकारी मशीनरी बुनकरो का अहित करने में जुट गयी। एक अनुमान के मुताबिक जिले में 50 हजार के करीब बुनकर है,जो अपने बुनकरी कारोबार से जुड़ कर अपनी रोजी रोटी चला रहे है। 1967 में इटावा में संचालित सूत मिल से एक समय इन बुनकरों को सूत मिला करता था लेकिन 1999 से इस सूत मिल के बंद हो जाने से इटावा का बुनकर उद्योग ठप हो गया, सूत मिल के बंद के बंद हो जाने से इटावा का बुनकर अपनी रोजी रोटी के लिये दूरस्त से सूत मंगाने लगे,महगां सूत मिलने से सूत उघोग ठप हो गया है,इसके ऊपर बुनकर माफियाओं द्वारा संचालित बुनकर सोसाइटियों के घोटाले बाजी ने इस उद्योग की कमर तोड़कर रख दी है। इटावा में करीब 500 से अधिक बुनकर सोसायटियां संचालित हैं। वर्ष 1999 में इटावा का सूत मिल उत्तर प्रदेश सरकार की बेरूखी के चलते बंद कर दिया गया तब से तमाम जी तोड कोशिशे की गयी लेकिन ना तो बुनकरो को और ना ही किसी राजनेता को कोई कामयाबी सूत मिल को चालू कराने की दिशा में नहीं मिल सकी। आज भले ही इटावा के बुनकर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को आदर्श मानकर अपना कारोबार करने मे सफलतापूर्वक जुटा हो लेकिन सरकारी नुमाइंदे इटावा के बुनकरो का नुकसान करने में जुटे हुये है फिर भी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रेरणा से यहां के बुनकर विपरीत हालात में भी अपनी रोजी रोटी चला रहे हैं।

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इटावा स्वतंत्रता आंदोलन के लिए बड़ा महत्वपूर्ण केन्द्र था। गांधी जी ने 1921 में जब असहयोग आंदोलन चलाया तो इटावा के जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष मौलाना रहमत उल्ला के नेतृत्व में यहां के कांग्रेस जनों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया। 1922 में काकोरी कांड में इसी जिले के ज्योति शंकर दीक्षित और मुकुंदी लाल गिरफ्तार किये गये। इसी दौरान जवाहर लाल नेहरू भी कई बार इटावा आये। गांधीजी इटावा की इस देशभक्ति से परिचित थे वे देशभर में जनजागरण अभियान को निकल पड़े थे तो फिर इटावा उनकी दृष्टि से ओझिल नहीं हो सकता था। आज भी इटावा वासी इस बात से रोमांचित हैं कि पूरी दुनिया को सत्य, अहिंसा और बंधुत्व का संदेश देने वाला यह महापुरुष कभी उनके जिले में भी आया था। जिले में बुनकर उद्योग को बढ़ावा देने के लिए भाजपा सांसद डा. रामशंकर कठेरिया सूत मिल का मुद्दा लोकसभा में उठा चुके है । उन्होंने सदन के माध्यम से केंद्र सरकार से इटावा जिले में नई जगह पर सूत मिल की स्थापना कराने की मांग की है ।

उन्होंने कहा था कि इटावा के बुनकर उद्योग का पूरे देश में नाम रहा है । यहां बनने वाले सूत के कपड़े की पहचान देश भर में होती थी । गरीबों को रोजगार भी मिल जाता था। उनका तर्क है कि पूर्ववर्ती सपा सरकार ने इटावा शहर में बंद पड़ी सूत मिल की 44 एकड़ जमीन को आवास विकास को 102 करोड़ रुपये में बेच दिया । अब आवास विकास यहां कालोनी विकसित कर रहा है । इटावा में रोजगार को कोई बड़ा कारखाना नहीं है। ऐसे में अब आवश्यक हो गया है कि इटावा में सूत मिल के लिए कोई नई जगह तलाशी जाए। वहां सूत मिल बने। जिससे बुनकर उद्योग को बढ़ावा मिलेगा। गरीब बुनकरों को रोजगार का साधन मिलेगा।

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