‘प्राकृतिक आपदाओं’ से बचने के लिए ‘बंजर भूमि’ को ‘हरा-भरा’, ‘कृषि योग्य’ बनाना होगा और इसके लिए प्राकृतिक कृषि ही एकमात्र विकल्प है (भाग-4)

समर शैल प्राकृतिक फार्म में हल्दी का फसल

पूर्णिया / पटना / नई दिल्ली : आज देश में पर्यावरण को बचाने सम्बन्धी जितने ढ़ोल – नगाड़े पिटे जाएँ, सरकारी कोषागार से पैसे पानी की तरह बहाया जाए, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश में ‘वनों से भरी’ भूमि की तुलना में ‘बंजर’ भूमि की फीसदी अधिक है और बढ़ रही है । आज कृषि के क्षेत्र में हम भले ‘आत्मनिर्भरता’ की बात करें, लेकिन सरकारी आंकड़े यह भी कहते हैं कि देश में आज सिर्फ 51 फीसदी जमीन पर खेती होती है, जबकि चार फीसदी भूमि पर चरागाह है। आज देश में 21 फीसदी जमीनों पर ही ‘वन’ है जबकि ‘बंजर’ भूमि की फीसदी 24 फीसदी है। यह आंकड़े मैं नहीं, सरकारी दस्तावेजों में अंकित है। 

इन दशाओं और दुर्दशाओं के मद्दे नजर देश में एक ऐसी खेती की जरूरत है जो न केवल पर्यावरण के अनुकूल हो, उसे मजबूत और समृद्ध करने वाली हो; बल्कि लागत की दृष्टि से भी कम हो, आर्थिक तौर पर कृषकों पर कम भार डाले, किसान आत्म हत्या नहीं करे, उन्नत किस्म का फसल उत्पन्न करे और समाज के साथ देश भी आत्मनिर्भर हो। यही कारण है कि आज देश-विदेश में लाखों, अरबों की कमाई करने वाले युवक, युवतियां, जिनके गाँव में अपनी जमीन है, अथवा पट्टे पर ही सही जमीन प्राप्त होने की सुविधा है, भारत की गाँव की ओर आ रहे हैं – प्राकृतिक खेती करने के लिए। 

प्राकृतिक खेती एक ऐसी खेती है जो प्रकृति की जीवन से मेल खाती है। यह उत्पादन प्रणालियों और फसल उत्पादन को नियोजित तो करती ही है, साथ ही, प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में सूर्य के प्रकाश, नमी, मिट्टी, फसलों, जीवित प्राणियों और रोगाणुओं के बीच परस्पर समन्वय रखकर बेहतर पैदावार करती है। प्राकृतिक खेती की ओर आकर्षण आज की पीढ़ियों को आत्मविश्वास जगा रहा है। यह सच है कि आज भी भारत के जिन 51 फीसदी जमीनों पर खेती होती है, उस पर काम करने वाले किसानों की शिक्षा और तकनीकी योग्यता ‘शून्य’ ही है और अधिकतर मामले में वे अपने ‘अनुभवों’ के आधार पर खेती करते आ रहे हैं, कर रहे हैं। 

हल्दी का पौधा

लेकिन आज शैक्षिक और तकनिकी योग्यताधारी जब उन किसानों का हाथ पकड़ रहे हैं, उत्पादन की गुणवत्ता के साथ-साथ उत्पादन की मात्रा में भी वृद्धि होना स्वाभाविक है। कभी बिहार-बंगाल-उड़ीसा राज्यों का काला पानी कहा जाने वाला ‘पूर्णिया’ जिला के रामनगर इलाके में सैकड़ों एकड़ भूमि पर ‘प्राकृतिक खेती’ को अनुवादित करने वाले मुद्दत तक देश के ‘कॉर्पोरेट घरानों, खासकर रिलायंस में वरिष्ठ पदों को सँभालने वाले श्री हिमकर मिश्रा एक दृष्टान्त है। श्री हिमकर मिश्रा आज न केवन राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय कृषि-विशेषज्ञों को अपनी ओर आकर्षित भी कर रहे हैं।   

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प्राकृतिक खेती को “कीटनाशक मुक्त खेती” भी कहा जा सकता है । यह एक कृषि-पारिस्थितिक रूप से मजबूत कृषि प्रणाली है जिसमें फसलें, पेड़ और पशुधन शामिल हैं, जो कार्यात्मक जैव विविधता के सर्वोत्तम उपयोग की अनुमति देता है। यह मिट्टी की उर्वरता बहाली, वायु गुणवत्ता, और न्यूनतम और/या ग्रीनहाउस गैस जैसे कई अन्य लाभ प्रदान करते हुए किसानों की आय बढ़ाने का वादा करता है। 

श्री मिश्रा कहते हैं: “आज 48 वर्ष हो रहे हैं प्राकृतिक खेती को जमीनी सतह पर अनुवादित करने को। यह खेती प्राकृतिक कृषि के अन्वेषक, जापानी किसान और दार्शनिक  मासानोबू फ़ुकुका के सिद्धांतों पर आधारित है। मसानोबू फुकुओका एक जापानी किसान और दार्शनिक थे। सं 1975 में उनके उपन्यास “द वन-स्ट्रॉ रेवोल्यूशन” में इस कृषि पद्धति को लोकप्रिय बनाया। प्राकृतिक खेती को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पृथ्वी की रक्षा के लिए एक प्रकार के पुनर्स्थापनात्मक कृषि व्यवसाय योजना के रूप में मान्यता प्राप्त है।”

हल्दी

श्री मिश्रा आगे कहते हैं कि “आज देश की सरकार भी एक राष्ट्रीय मिशन के रूप में प्राकृतिक खेती को स्वीकार की है। और यही कारण है कि आज किसानों को रसायन मुक्त खेती अपनाने के लिए प्रेरित करने और प्राकृतिक खेती की पहुंच बढ़ाने के लिए , सरकार ने भारतीय प्राकृतिक कृषि पद्धति (बीपीकेपी) को बढ़ाकर 2023-24 तक एक अलग और स्वतंत्र योजना के रूप में प्राकृतिक खेती पर राष्ट्रीय मिशन (एनएमएनएफ) तैयार किया है।”

“समर शैल प्राकृतिक फार्म” के संस्थापक श्री हिमकर मिश्रा का कहना है कि “आत्मनिर्भर भारत हमारे प्रधानमंत्री जी का सपना है। आत्मनिर्भर तभी बन सकते हैं जब हमारी कृषि, हमारा एक-एक किसान आत्मनिर्भर हो। ऐसा तभी संभव है जब हम रासायनिक कृषि की जगह प्राकृतिक कृषि के सिद्धांतो को आत्मसाध करें एवं प्राकृतिक खेती को एक जन आंदोलन का स्वरुप दें। प्राकृतिक कृषि भारत के लिए कोई नई चीज़ नहीं है। यह प्राचीनकाल से भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और हमारी परंपराओं का अंग है। हमारे वेदों, पुराणों, उपनिषदों में प्राकृतिक खेती के ज्ञान का खजाना मिलता है। यह खेती हमारी जड़ों से जुड़ी है। हमारे पूर्वज सदियों पहले से प्राकृतिक खेती करते रहे हैं।”

उनका मानना है कि प्राकृतिक कृषि इन चार सिद्धांत – हल नहीं, जुताई-निंदाई नहीं, कोई रासायनिक उर्वरक या तैयार की हुई खाद नहीं, हल द्वारा निराई, गुड़ाई नहीं तथा रसायनों पर कोई निर्भरता नहीं – पर आधारित है। इस कृषि व्यवस्था में हम प्रकृति के आदेशों का पालन करते हैं। प्राकृतिक खेती को रसायन मुक्त खेती के रूप में भी परिभाषित कर सकते हैं, जिसमें केवल प्राकृतिक आदानों का उपयोग करता है। श्री मिश्रा का मानना है कि “जब तक हम प्रकृति के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे, हम प्राकृतिक आपदाओं का शिकार होते रहेंगे। विश्व आज जहाँ ग्लोबल वार्मिंग की बात कर रहा है, हम सबों को मिलकर ‘बंजर भूमि’ को ‘हरा-भरा’ कृषि योग्य’ बनाना होगा और इस क्रिया में प्राकृतिक कृषि ही एक मात्र विकल्प है।” 

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समर शैल प्राकृतिक फार्म में काम करती महिलाएं

उनके अनुसार, प्राकृतिक खेती में अन्य जिन सिद्धांतों को अपनाया जाता है, उससे अधिक महत्वपूर्ण ‘सात-सतह पर्यावरणीय सिद्धांत का अपनाना है। आम तौर पर हम ध्यान नहीं देते लेकिन खुले आसमान से लेकर जमीन और उसके अंदर तक जाने वाली सूर्य की रोशनी और उसका तप पेड़-पौधों से लेकर फसल और फलों के साथ-साथ सम्पूर्ण कृषि व्यवस्था को प्रभावित करता है। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि परिपक्व पारिस्थितिक तंत्र के घटक भागों के बीच बड़ी संख्या में संबंध होते हैं। जैसे पेड़, ग्राउंड कवर, मिट्टी, कवक, कीड़े और जानवर। ये प्राकृतिक परतें (सूर्य की अपेक्षित रौशनी) परतें कार्यात्मक पारिस्थितिकी प्रणालियों को डिजाइन और कार्यान्वित करने के लिए उपयोग किए जाने वाले कई उपकरणों में से एक हैं जो टिकाऊ हैं और मनुष्यों के लिए प्रत्यक्ष लाभ हैं।

उसी सात-सतही प्राकृतिक सिद्धांत के अंतिम सिंद्धांत का उत्पाद है – हल्दी और जमीन के अंदर उत्पन्न होने वाली वस्तुएं।आप भले माने अथवा नहीं, दुनिया भर में हल्दी की जितनी खपत होती है, भारत अकेले उसका 80 फीसदी उत्पादन करता है। भारत दुनिया में हल्दी का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। भारत से फ्रांस, जापान, अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड, अरब और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में हल्दी का निर्यात किया जाता है। दुनिया का 60% हल्दी एक्सपोर्ट भारत से किया जाता है। हल्दी का भारतीय रसोई घरों में एक प्रमुख स्थान है। भोजन में हल्दी को शामिल करने से हम कई तरह की बीमारियों से बच सकते हैं क्योंकि यह शरीर की इम्युनिटी को बढ़ाने में मददगार साबित होता है। 

अपने फ़ार्म में कार्य करते समर शैल प्राकृतिक फार्म के संस्थापक श्री हिमकर मिश्रा

श्री मिश्रा कहते हैं: “इस फार्म में हल्दी के उत्पादन पर भी विशेष दिए दिए हैं। कई एकड़ों में फैले इस प्राकृतिक फार्म में हल्दी प्रचुर मात्रा में उपजाया जाता है।” वैसे देश के कई इलाके में किसान हल्दी की खेती की ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं और इसको लेकर तरह-तरह के प्रयोग व तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। कहते हैं कि अगर सही तकनीक और बीज की मदद से हल्दी की खेती की जाय तो एक एकड़ में 65-100 क्विंटल तक हल्दी उगा सकते हैं। आज भारत के बाज़ारों में हल्दी  60 से 100 रुपये प्रति किलो बिक रही है । हल्दी के कई किस्में है, मसलन भारत में हल्दी की लगभग 30 किस्में पाई जाती है इनमें लकाडोंग, अल्लेप्पी, मद्रास, इरोड, सांगली, सोनिया, गौतम, रश्मि, सुरोमा, रोमा, कृष्णा, गुन्टूर, मेघा, सुकर्ण, कस्तूरी, सुवर्णा, सुरोमा और सुगना, पन्त पीतम्भ आदि । 

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श्री मिश्रा का कहना है कि “हल्दी में प्रोटीन, वसा, पानी, कार्बोहाइड्रेट, रेशा और खनिज लवण की भी पर्याप्त मात्रा पायी जाती है। हल्दी में बहुत सारे औषधीय गुण होते हैं। ये फसल छायादार वाली जगह पर भी लगा सकते हैं। औषधीय गुण होने के कारण हल्दी को जानवर भी नहीं खाता है। इसके अलावा आयुर्वेदिक उपचार में भी हल्दी को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।जिसके कारण आयुर्वेदिक दवाइयों को बनाने के लिए भी इसका उपयोग अधिक मात्रा में कर रहे हैं। 

उनका मानना है कि हल्दी उत्पादन के मामले में भारत को  विश्व में पहला स्थान प्राप्त होने के साथ-साथ सबसे बड़ा निर्यातक भी कहा जाता है | दुनिया के नीदरलैंड, यूनाइटेड किंगडम, जापान, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, सउदी अरब, जर्मनी और अमेरिका देशों में भारत से हल्दी का निर्यात किया जाता है। भारत में हल्दी की खेती पश्चिम बंगाल, केरल, मेघालय, तमिलनाडु, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक राज्य में मुख्य तौर पर की जाती है, तथा अकेले आंध्र प्रदेश में 40 प्रतिशत हल्दी का उत्पादन किया जाता है। 

समर शैल प्राकृतिक फार्म

बहरहाल, बेहतरीन औषधीय गुणों के कारण इस प्राकृतिक फार्म में काली हल्दी की खेती पर भी ध्यान दिया जा रहा है। काली हल्दी अपनी औषधीय गुणों के चलते प्रसिद्ध है। आयुर्वेद, होम्योपैथी और कई जरूरी दवाइयों के निर्माण में हल्दी का इस्तेमाल किया जाता है। विगत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘कोरोना’ बीमारी के फैलने के बाद पूरे विश्व में हल्दी की मांग बहुत अधिक हो गई है। कहते हैं हल्दी ‘इम्यूनिटी’ को बढ़ता है, यानि यह एक प्रकार का ‘प्राकृतिक बूस्टर’ है। स्वाभाविक है कि इस फसल के उत्पादन की ओर लोगों का आकर्षण। ज्ञातव्य हो कि काली भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काली हल्दी की कीमत 500 से 4,000 रुपये प्रति किलो है। और इसका उत्पादन भी लोग अधिक नहीं कर पा रहे हैं। 

कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि काली हल्दी के लिए भुरभुरी दोमट मिट्टी अच्छी मानी जाती है। इसकी खेती करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि खेत में बारिश का पानी ना रुके। एक हेक्टेयर में काली हल्दी के करीब 2 क्विंटल बीज लग जाते हैं। इसकी खेती के लिए जून का महीना बेहतर माना जाता है। इसकी फसल को ज्यादा सिंचाई की जरूरत नहीं रहती है। इसके औषधीय गुणों के कारण इसमें कीट नहीं लगते हैं। 

क्रमशः 

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