पटना : कोई तो झूठ बोल रहा है। या तो भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक अपना 2024 और उसके पूर्व का प्रतिवेदन झूठा प्रस्तुत किया है। या बिहार में 12 अप्रैल, 2005 को स्थापित स्टेट हेल्थ सोसाइटी अपने अस्तित्व की सफाई में झूठा आंकड़ा वितरित कर रहा है। या फिर प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार प्रदेश की तड़पती – बिलखती स्वास्थ्य व्यवस्था को देखकर भी मूक बधिर बने है। या फिर बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डे अपनी पार्टी और केंद्रीय आलाकमान तथा स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा की नजरों में ‘नीली आँख वाला’ बने रहने के लिए स्टेट हेल्थ सोसाइटी के आकंड़ों का खेल खेल रहे हैं। क्योंकि बिहार में स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ऐसी कोई भी बातें नहीं है – जिसपर प्रदेश की सरकार को नाज हो और आगामी विधानसभा का चुनाव भी दस्तक दे दिया है ।
भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग), स्टेट हेल्थ सोसाइटी, बिहार या फिर नीतीश कुमार की अगुवाई वाली बिहार सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय के मंत्री, अधिकारी या अंततः प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार – कोई तो है झूठी खबर फैला रहा है, जहाँ तक स्वास्थ्य का स्वास्थ्य का सवाल है। अगर यह खबर सत्य है तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है प्रदेश में चिकित्सा के क्षेत्र में, दवाई बनाने से लेकर दावों की आपूर्ति करने वाले लोग सभी हाथ मिलाकर स्वास्थ्य विभाग को रुग्ण करने पर आमादा हैं ।
अन्यथा साल 2024 के भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के प्रतिवेदन में यह कैसे उद्धृत होता कि “देश में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व (1,106 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) वाला राज्य होने के नाते बिहार को सभी प्रकार की बीमारियों से निपटने के लिए उचित स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है,” और 2025 के मार्च महीने आते-आते बिहार मुफ्त दवा आपूर्ति करने में राष्ट्र का अग्रणी राज्य कैसे बन जाता?
सरकारी आंकड़ों के अनुसार, नीतीश कुमार का स्वास्थ्य विभाग और प्रदेश की सरकार “मुफ्त दवा आपूर्ति में 20 वर्षों में 10 गुना वृद्धि के साथ साथ रिकार्ड स्थापित कर रहा है, वही भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने अपने नवीनतम प्रतिवेदन (2024) में कहा था कि “प्रदेश का नोडल एजेंसी मात्र 14 से 63 फीसदी दवाओं के लिए आपूर्ति कर्ताओं के साथ दर अनुबंध निष्पादित किये, आज दावा किया जा रहा है कि “सरकारी अस्पतालों में 611 प्रकार की दवाइयां मुफ्त उपलब्ध हैं” और “स्थानीय सरकार मात्र 2024-2025 वर्ष में इस मद में 762 करोड़ रुपए व्यय कर चुकी है।” गजब का इत्तेफाक है।
पटना ही नहीं, बिहार ही नहीं, देश के अन्य राज्यों से, केंद्र से प्रकाशित समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, सामाजिक क्षेत्र के मीडिया साईटों, विभिन्न वेबसाइटों पर राजधानी और दूरंतो की गति से यह खबर प्रकाशित हो रही है कि “कभी अपने खस्ताहाल स्वास्थ्य सेवा ढांचे के लिए बदनाम बिहार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में खुद को एक आदर्श राज्य के रूप में बदल लिया है, खास तौर पर मुफ़्त दवा वितरण के मामले में। पिछले 20 सालों में दवाओं की आपूर्ति और वितरण में दस गुना वृद्धि के साथ, बिहार अब सरकारी अस्पतालों में 611 तरह की दवाएँ मुफ़्त उपलब्ध कराता है – जो देश में सबसे ज़्यादा है।”

अब मंत्रालय के लोगों को, प्रदेश के मुख्यमंत्री को कैसे कहा जाए (नीतीश बाबू क्षमा करेंगे) आज़ादी के 78 वर्ष बाद आज तक शिक्षा के मामले में प्रदेश का आंकड़ा शत-प्रतिशत अंक की बात छोड़ें, अस्सी का अंक भी प्राप्त नहीं कर पाया है। पुरुषों की साक्षरता दर 79.70 (कागज पर), महिलाओं का साक्षरता दर 60.50 फीसदी से अधिक नहीं हो पाया है; लेकिन प्रदेश का स्वास्थ्य क्षेत्र इस बात का दावा करता है कि ‘मुफ्त में दवाई बांटने में बिहार राष्ट्र का नंबर-1 राज्य हो गया।’ यहाँ एक सवाल कोई पूछे अथवा नहीं ‘बहिरा’ तो अवश्य पूछेगा कि ‘जब कागज पर असली खर्च नकली हो जाते हैं, भ्रष्टाचार के पराकाष्ठा के कारण; वैसी स्थिति में मुफ्त में 762 करोड़ रूपये का आंकड़ा कम नहीं होता।’
ख़बरों में कहा गया है कि “यह परिवर्तन 2005 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में शुरू हुआ, जिसे 1 जुलाई, 2006 को एक महत्वपूर्ण बढ़ावा मिला, जब राज्य की निःशुल्क दवा नीति औपचारिक रूप से शुरू की गई। शुरुआत में केवल 47 दवाओं से, सूची में तेजी से विस्तार हुआ है, जिसमें अब कैंसर, हृदय रोग, अस्थमा, गठिया और अन्य जैसी गंभीर स्थितियों के लिए दवाएं शामिल हैं। स्वास्थ्य विभाग के अनुसार, निःशुल्क दवाओं पर राज्य का व्यय मामूली शुरुआत से बढ़कर वित्त वर्ष 2024-25 में ₹762 करोड़ हो गया है, अनुमान है कि वित्त वर्ष 2025-26 में यह बढ़कर ₹1100 करोड़ हो जाएगा। यह वृद्धि बढ़ती मांग और सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा की पहुँच के लिए राज्य की प्रतिबद्धता दोनों को दर्शाती है।” लेकिन सवाल है इस तथ्य को आंकेगा कौन?
भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक अपने 2024 के प्रतिवेदन में लिखा है कि “देश में सबसे अधिक जनसंख्या घनत्व (1,106 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी) वाला राज्य होने के नाते बिहार को सभी प्रकार की बीमारियों से निपटने के लिए उचित स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढांचे की आवश्यकता है। विभाग के कार्यालयों में 49 प्रतिशत रिक्तियां थीं, जैसे स्वास्थ्य सेवा निदेशालय, राज्य औषधि नियंत्रक, खाद्य सुरक्षा विंग, आयुष और मेडिकल कॉलेज और अस्पताल (एमसीएच)।
कैग कहता है कि ‘बिहार में, मार्च 2022 तक 12.49 करोड़ की अनुमानित जनसंख्या के मुकाबले, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की सिफारिश को पूरा करने के लिए 1,24,919 एलोपैथिक डॉक्टरों (1:1,000) की आवश्यकता थी, जिसके मुकाबले जनवरी 2022 तक केवल 58,144 (1:2,148) एलोपैथिक डॉक्टर ही उपलब्ध थे। इतना ही नहीं, स्वीकृत संख्या के मुकाबले स्टाफ नर्स की कमी 18 प्रतिशत (पटना) से लेकर 72 प्रतिशत (पूर्णिया) तक थी। स्वीकृत संख्या के सापेक्ष पैरामेडिक्स की कमी 45 प्रतिशत (जमुई) से लेकर 90 प्रतिशत (पूर्वी चंपारण) तक थी।

अख़बारों में प्रकाशित ख़बरों के मुताबिक, केंद्र सरकार के डीवीडीएमएस (ड्रग्स एंड वैक्सीन डिस्ट्रीब्यूशन मैनेजमेंट सिस्टम) पोर्टल ने लगातार पांच महीनों तक बिहार को दवा आपूर्ति और वितरण में नंबर वन स्थान दिया है, जो इसके स्वास्थ्य सुधारों की सफलता को रेखांकित करता है। साथ ही, नीति के कार्यान्वयन से पहले, रोगियों, विशेष रूप से वंचितों को महंगी, अक्सर जीवन रक्षक दवाओं के लिए निजी फार्मेसियों पर निर्भर रहना पड़ता था। अब, सरकारी अस्पतालों में मुफ्त में दवाएँ उपलब्ध होने से परिवारों पर वित्तीय बोझ काफी कम हो गया है।
विगत कुछ दिनों से चिकित्सा सुविधाओं के क्षेत्र में सरकार अथवा सरकार द्वारा प्रायोजित संस्था/संगठन द्वारा जो प्रचार-प्रसार किया जा रहा है उसके मुताबिक 2006 में 47 दवाएँ थी, 2008: ओपीडी के लिए 33, आईपीडी के लिए 112 दवाएं उपलब्ध थी मुफ्त वितरण के लिए। साल 2023 में अकस्मात् यह सूची 611 दवाएँ की हो गई। प्रचार-प्रसार के अनुसार, ‘यह मजबूत उपलब्धता सुनिश्चित करती है कि सरकारी अस्पताल में आने वाले प्रत्येक रोगी को उचित और आवश्यक दवाएँ दी जाएँ।’ इतना ही नहीं, यह भी दावा किया जा रहा है कि “दवा आपूर्ति और स्वास्थ्य सेवा सुधार में बिहार की सफलता शासन-संचालित परिवर्तन का एक शक्तिशाली उदाहरण प्रस्तुत करती है। चूंकि राज्य स्वास्थ्य सेवा में निवेश करना जारी रखे हुए है, इसलिए लाखों लोगों – विशेषकर गरीबों – का जीवन बेहतर हुआ है, जिससे सुलभ और सस्ती सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का एक नया युग शुरू हुआ है।”

लेकिन भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक कहता है कि “सभी स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं पर मरीजों को आवश्यक दवाइयां निःशुल्क उपलब्ध कराने के लिए विभाग ने आवश्यक औषधियों की सूची (जिसमें वर्ष 2016-22 के दौरान 387 तक दवाएं शामिल हैं) तैयार की थी, लेकिन नोडल एजेंसी यानी बीएमएसआईसीएल ने इस अवधि के दौरान केवल 14 से 63 प्रतिशत दवाओं के लिए आपूर्तिकर्ताओं के साथ दर अनुबंध निष्पादित किए, जिसके परिणामस्वरूप ऐसी दवाएं अनुपलब्ध रहीं। वर्ष 2016-22 के दौरान बीएमएसआईसीएल को 13,440 क्रय आदेशों के विरुद्ध 1,290.39 करोड़ रुपये मूल्य की 197.38 करोड़ यूनिट दवाएं/शल्य चिकित्सा वस्तुएं प्राप्त हुईं। प्राप्त दवाओं/शल्य चिकित्सा वस्तुओं की शेष शेल्फ लाइफ उनके कुल जीवन का 35 प्रतिशत से 74 प्रतिशत थी, जबकि न्यूनतम शेल्फ लाइफ 75 प्रतिशत होनी चाहिए।”
भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक कहता है: “नमूना-जांच की गई स्वास्थ्य सुविधाओं में, वर्ष 2016-22 के दौरान बाह्य रोगी विभागों के लिए आवश्यक दवाओं की अनुपलब्धता 21 प्रतिशत से 65 प्रतिशत के बीच थी और अंतः रोगी विभागों के लिए अनुपलब्धता 34 प्रतिशत से 83 प्रतिशत थी। दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल और राजकीय मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल (जीएमसीएच), बेतिया में, यह देखा गया कि बीएमएसआईसीएल द्वारा दवाओं की कम/गैर-आपूर्ति के कारण वित्तीय वर्ष 2019-21 के दौरान 45 प्रतिशत से 68 प्रतिशत दवाएं उपलब्ध नहीं थीं। राज्य आयुष सोसायटी, बिहार, भारत सरकार (जीओआई) द्वारा निर्धारित आवश्यक दवाओं की खरीद नहीं कर सकी, हालांकि इस उद्देश्य के लिए वित्तीय वर्ष 2014-20 के दौरान ₹ 35.36 करोड़ का अनुदान प्रदान किया गया था।” इतना ही नहीं, कैग आगे कहता है: “आयुष स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं में सभी संवर्गों में 35 प्रतिशत से लेकर 81 प्रतिशत तक कर्मचारियों की महत्वपूर्ण कमी थी। स्वास्थ्य सेवाओं के विभिन्न स्तरों पर आवश्यक जनशक्ति की भर्ती के लिए नियुक्त मानव संसाधन एजेंसी ने 82 प्रकार के 24,496 पदों के लिए विज्ञापन प्रकाशित (अक्टूबर 2019-जनवरी 2021) किए। हालांकि, जनवरी 2022 तक 35 प्रकार के 13,340 पदों की भर्ती लंबित थी।”
वैसे, चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े एक शीर्षस्थ अधिकारी का कहना है कि “यह सभी प्रचार-प्रसार आगामी विधानसभा चुनाव के मद्दे नजर किया जा रहा है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जगत प्रकाश नड्डा शायद यह चाहते हैं कि स्वास्थ के मद्दे नजर प्रदेश में एक सकारात्मक प्रचार प्रसार किया जाय। सूत्रों का कहना है कि न केवल नड्डा, बल्कि प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पाण्डे भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं वर्तमान सरकार में। स्वाभाविक है आगामी चुनाव के मद्दे नजर न तो वे अपने विभाग को शर्मशार करना चाहेंगे और ना ही केंद्रीय नेताओं को, केंद्रीय मंत्री को जो पुरे राष्ट्र में स्वास्थ्य सम्बन्धी सुविधाओं के लिए उत्तरदायी हैं। वैसे प्रदेश के लोग इस बात से भली भांति परिचित हैं कि प्रदेश में स्वास्थ्य की स्थिति कैसी है और प्रदेश में स्वास्थ्य किन-किन लोगों की मुठ्ठी में है।”

एक और प्रचार-प्रसार का दृष्टान्त देते अधिकारी कहते हैं: “यहाँ 2005-10 को आधार वर्ष मानकर यह कहा जा रहा है कि साल 2005 में, बिहार में केवल 6 सरकारी मेडिकल कॉलेज थे, जिनमें कुल 390 एमबीबीएस सीटें थीं। 2025 तक, राज्य में अब 12 सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं, और 22 निर्माणाधीन हैं। पूरा होने के बाद, बिहार में मेडिकल कॉलेजों की कुल संख्या 34 हो जाएगी। इसी तरह, एमबीबीएस सीटों में 13 गुना वृद्धि हुई है – 390 से बढ़कर 5,220 हो गई है। इतना ही नहीं, यह भी कहा जा रहा है कि ‘निजी मेडिकल कॉलेजों में उछाल’ आया है और ‘यह वृद्धि केवल सरकारी संस्थानों तक सीमित नहीं है। निजी चिकित्सा शिक्षा में भी तेजी से वृद्धि देखी गई है। 2005 में, बिहार में केवल दो निजी मेडिकल कॉलेज थे, जिनमें 120 एमबीबीएस सीटें थीं। आज, 9 निजी कॉलेज हैं, जिनमें 1,350 सीटें हैं, जो चार गुना वृद्धि को दर्शाता है।’ व्यवस्था कहती कि ‘इस विस्तार से न केवल बिहार के इच्छुक मेडिकल छात्रों के लिए अधिक अवसर पैदा होंगे, बल्कि राज्य द्वारा संचालित अस्पतालों और ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों में डॉक्टरों की लंबे समय से चली आ रही कमी को दूर करने में भी मदद मिलेगी।
विगत वर्ष के एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार के सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों, खासकर विशेषज्ञों की भारी कमी ने गरीबों को बुरी तरह प्रभावित किया है, जो राज्य की कुल 13.7 करोड़ आबादी का एक तिहाई हिस्सा हैं। सैकड़ों अस्पतालों में सालों से डॉक्टरों की कमी के कारण हर दिन सैकड़ों मरीज बुनियादी जांच के बिना ही लौट जाते हैं। जिला अस्पतालों में भी डॉक्टरों और बुनियादी दवाओं की कमी है। राज्य सरकार के दावों के विपरीत, स्वास्थ्य बुनियादी ढांचा खराब है क्योंकि अधिकांश अस्पतालों में अल्ट्रासाउंड और एक्स-रे मशीनें खराब हैं। बिहार में बिस्तरों, डायग्नोस्टिक सेंटरों और उप-मंडलीय अस्पतालों की कमी है, साथ ही बड़ी संख्या में ऐसे गांव हैं जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाएं नहीं हैं। वेंटिलेटर जैसे आवश्यक उपकरण भी अक्सर अनुपलब्ध या काम नहीं करते हैं, जिससे देखभाल की गुणवत्ता में और बाधा आती है।
बहरहाल, बिहार में एलोपैथिक डॉक्टरों, स्टाफ नर्सों और पैरामेडिक्स की कमी है, साथ ही विभिन्न स्वास्थ्य विभागों और मेडिकल कॉलेजों में पद रिक्त हैं। यह कमी ग्रामीण क्षेत्रों में विशेष रूप से गंभीर है। दवा और उपकरणों की कमी: आवश्यक दवाओं का एक बड़ा हिस्सा अनुपलब्ध है, जिससे आउटपेशेंट और इनपेशेंट दोनों की देखभाल प्रभावित हो रही है। एम्बुलेंस में आवश्यक उपकरण और आपूर्ति की कमी है, और प्रमुख अस्पताल महत्वपूर्ण देखभाल उपकरणों की कमी से जूझ रहे हैं। बिहार की स्वास्थ्य योजनाओं को राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के साथ पर्याप्त रूप से संरेखित नहीं किया गया है, जिससे संसाधनों के प्रभावी उपयोग और प्रणालीगत मुद्दों को संबोधित करने में बाधा आ रही है। बिहार में 40,200 एलोपैथिक डॉक्टर, 33,922 आयुष डॉक्टर, 34,257 होम्योपैथिक डॉक्टर, 5,203 यूनानी डॉक्टर और 6,130 दंत चिकित्सक हैं
भारत का नियंत्रक और महालेखा परीक्षक बिहार सरकार को बारम्बार अनुशंसा की और कही राज्य सरकार यह सुनिश्चित करे कि प्रासंगिक मानदंडों/बेंचमार्क के अनुसार स्वास्थ्य सुविधाओं में पर्याप्त संख्या में स्वास्थ्य कर्मियों की तैनाती की जाए। पंजीकरण काउंटर और पंजीकरण कर्मचारियों आदि को जोड़कर पंजीकरण के लिए प्रतीक्षा समय कम किया जाए। प्रत्येक गर्भवती महिला/माता को मातृत्व सेवाओं (प्रसवपूर्व देखभाल, प्रसव के दौरान देखभाल और प्रसवोत्तर देखभाल) की उपलब्धता हो। रेडियोलॉजी और एम्बुलेंस सेवाएँ आवश्यक मानव शक्ति और उपकरणों के साथ नामित स्वास्थ्य सुविधाओं में चालू हों। जैव-चिकित्सा अपशिष्ट प्रबंधन के लिए व्यापक योजनाएँ तैयार करना। जैव-चिकित्सा अपशिष्ट का पृथक्करण और उसका उचित निपटान, साथ ही सभी स्वास्थ्य सुविधाओं में अपशिष्ट उपचार संयंत्रों की स्थापना।
क्रमशः ….