दिल्ली के एक कांफ्रेस हॉल में जहाँ कक्ष में किसी किनारे बोतल में पानी रखा मिलेगा, विद्वान-विदुषी-विशेषज्ञ ‘नदी उत्सव’ मानते मिलेंगे😢

दिल्ली में यमुना नदी छठ पर्व के अवसर पर PHOTO: The Sunday Guardian

दिल्ली और दरभंगा : विगत वर्ष भारत के न्यायालय में एक मुकदमा आया था कि दिल्ली में यमुना नदी के क्षेत्र को काट कर, बांधकर अट्टालिकाएं बनाई जा रही है। यमुना को काट कर गगनचुम्बी अट्टालिकाएं बनी और आने वाले समय में यह क्रिया भी जारी रहेगी। यह बात यहाँ इसलिए उद्धृत कर रहा हूँ कि देश में नदियों के बारे में, उसकी रक्षा के बारे में जितनी भी बातें होती हैं, वह कागज़ पर अधिक होती हैं। बड़े-बड़े विद्वान-विदुषी इस बात को कहते भी नहीं थकते प्राचीन ग्रंथों में नदियों का वर्णन, नदियों के किनारे सांस्कृतिक विरासत और लोक एवं सांस्कृतिक परंपराओं में नदियों का उल्लेख है, लेकिन वास्तविक रूप में नदियों की धाराओं को स्वहित में मोड़ने में तनिक भी संकोच नहीं करते। विश्वास नहीं हो तो से ऊपर हरिद्वार नदी की धरा को देखिये और नीचे पटना को सुन्दर बनाने में गंगा को दूर, बहुत दूर भगाने में आधुनिक मगध नरेश की भूमिका देखिये। मियाज़ ‘टंच’ हो जायेगा।

इधर आज ज्ञात हुआ कि दिल्ली में आयोजित ‘नदी उत्सव’ कांफ्रेंस हॉल में शुरू होगा जहाँ कोने में ‘बोतल में पानी’ रखा मिलेगा जो भारत की नदियों का प्रतीक माना जायेगा । प्राचीन ग्रंथों में नदियों का वर्णन, नदियों के किनारे सांस्कृतिक विरासत और लोक एवं सांस्कृतिक परंपराओं में नदियों का उल्लेख समेत कई विषयों पर चर्चा कांफ्रेस हॉल में होगा। दिल्ली सल्तनत के विद्वान, विदुषी यह मानते हैं कि ‘नदी उत्सव’ नदी संस्कृति, इसकी परंपराओं, अनुष्ठानों और जल ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने का एक प्रयास है।विद्वानों और विदुषियों का कहना है कि आधुनिकता की दौड़ में हम अपनी नदियों को धन्यवाद देना भूल गये हैं और यह आयोजन नदियों से जुड़ाव को याद करने की एक पहल है । गजब की सोच है। मानना पड़ेगा। ऐसा लगता है जैसे ‘इण्डिया’ बनाम ‘भारत’ की बात देख रहे हैं।

दिल्ली में आयोजित इस ‘नदी उत्सव’ को देखकर, उसके बारे में जान कर मिथिला की एक कहावत तत्काल मानस पटल पर छा गया। जिस महामहोपाध्याय ने मिथिला का चित्रण ‘पग-पग पोखर, माछ, मखान, मधुर बोल मुसकी मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक’ इन शब्दों में किये थे, वे बहुत दूरदर्शी थे। लगता है वे सरस्वती के वरद पुत्र थे और उन्हें ज्ञात था कि आने वाले समय में मिथिला के लोग उनकी कविता को मिथिला के चौराहों पर ‘पाठ’ करके, मिथिला का गुणगान करके अपने-अपने हिस्से की मिथिला अपने नाम लिखाएँगे। प्रदेश के लेखाकार में ‘एक खास किस्म के लोग’ दरभंगा राज का ‘मुहर’ लेकर तैयार भी रहेंगे जो आतंरिक-बाहरी माफिआओं के साथ मिलकर मिथिला (दरभंगा राज और उसकी गरिमा) को बेचकर, उसे मिट्टी पलीद करेंगे और स्वयं ‘संभ्रांत’ और ‘धनाढ्यों’ की श्रेणी में सूचीबद्ध हो जायेंगे, नेता, अभिनेता भी हो सकते हैं।

दिल्ली में यमुना नदी Photo: Outlook

यहाँ दिल्ली में विद्वान लोग कह रहे हैं कि दिल्ली में चौथा ‘नदी उत्सव’ मनाया जा रहा है। वे यमुना नदी के किनारे भी इस उत्सव को मनाएंगे । आधिकारिक सूत्रों के अनुसार इस उत्सव में विभिन्न विषयों पर पर्यावरणविदों और विद्वानों के साथ विद्वत चर्चा, फिल्म स्क्रीनिंग, प्रख्यात कलाकारों की प्रस्तुतियां, कठपुतली शो और विभिन्न पुस्तकों पर चर्चा होंगी। यह आयोजन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के राष्ट्रीय सांस्कृतिक मानचित्रण मिशन और जनपद सम्पदा प्रभाग की ओर से 22 सितंबर से 24 सितंबर, 2023 तक आयोजित किया जा रहा है।

यकीन मानिए जो सम्मानित व्यक्ति, विद्वद्जन, विदुषी, सामाजिक सरोकार रखने वाले गणमान्य लोग, संस्थाएं इसमें भाग ले रहे हैं, तीन दिन बाद दिल्ली प्रशासन, केंद्र सरकार और अन्य निकायों की आलोचना करने में तनिक भी हिचकी नहीं लेंगे। इस तीन दिवस के बीच जो महानुभाव यमुना नदी की स्वच्छता और पर्यावरण में इसकी सकारात्मक भूमिका का व्याख्यान करेंगे, तीन दिन बाद आईटीओ चौराहे पर, जंतर मंतर पर, विजय चौक पर, यहाँ तक कि यमुना नदी में गर्दन तक पानी में खड़े होकर यमुना नहीं और पानी की आलोचना करेंगे।

दरभंगा का एक पोखर फोटो: @अखबारवाला001

मिथिला में कवि महोदय यह भी जानते थे इस कविता में वे जिस ‘संज्ञा’, ‘सर्वनाम’, ‘विशेषण’ ‘क्रिया’ का इस्तेमाल कर रहे हैं, आने वाले दिनों में वह ‘अपभ्रंश’ ही नहीं, ‘विध्वंस’ का रूप ले लेगा। मानसिक रूप से समाज के कुछ सम्मानित लोगों के लिए यह शब्द बाजार अवश्य देगा, उनकी ‘रोजी-रोटी’ का साधन अवश्य बनेगा। वे यह भी जानते थे कि मिथिला के समाज में ‘विद्या’ महत्वहीन हो जायेगा। ‘वैभव’, ‘लक्ष्मी’ को प्राप्त करने, उन पर अपना-अपना अधिपत्य ज़माने की होड़ में ‘विद्या’, ‘विद्यालय,’, ‘गुरुकुल’, ‘गुरुजन’, जो समाज का पथ-प्रदर्शक थे, मिथिला की सड़कों पर उनकी वही स्थिति होगी जैसी भारत के नगरों, महानगरों में मुख्य सड़क के दाहिने-बाएं ‘पगडण्डी’ नुमा सड़क होती है और जहाँ लिखा होता है ‘साईकिल और पैदल चलने वालों का रास्ता। यानी ‘साईड लाईन’ हो जायेंगे। इतना ही नहीं, दुर्भाग्य का पराकाष्ठा तब होगा जब उस रास्ते को भी समाज के ‘वैभवशाली’, ‘बाहुबली’, ‘पहलवान’, ‘दबंग’, ‘लाठीधारी’, ‘बंदूकधारी’, ‘कट्टाधारी’ व्यक्ति, जो तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था से संरक्षित, पोषित रहेंगे (इसमें मिथिला वासी भी सम्मिलित रहेंगे), कब्ज़ा किये बैठे होंगे। समाज में ‘अशिक्षा’ के कारण मूक-बधिर लोगों का, चापलूस-चाटुकारों का बोलबाला हो जायेगा।

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अगर ऐसा नहीं होता तो आज मिथिला की सड़कों से लेकर पटना के सर्कुलर रोड, सरपेंटाइन रोड के रास्ते दिल्ली के राजपथ और जंतर-मंतर तक इस कविता का पाठ नहीं किया जाता – ‘पग-पग पोखर, माँछ, मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक’” । लोगों को स्वयं समझने की, सोचने की, मंथन करने की, विवेचना करने की, विश्लेषण करने की शक्ति होते हुए भी, वह ‘दिग्भ्रमित’ होना, ‘गुमराह’ होना, ‘बरगलाना’ अधिक श्रेयस्कर समझता है तो हम क्या कर सकते हैं।

इधर दिल्ली के संस्कृति मंत्रालय में लोग कह रहे हैं कि भारतीय संस्कृति में नदियों की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। उनका कहना है कि हमारे देश में नदियां न केवल पवित्र और पूज्य मानी जाती हैं, बल्कि करोड़ों भारतीयों के जीवन का आधार भी हैं। सभ्यताओं का विकास नदियों के किनारे हुआ है। भारत के बड़ी संख्या में शहर, गांव और कस्बे नदियों के किनारे बसे हैं । उनकी पहचान नदियों से ही होती है। भारतीय समाज ने नदियों को हमेशा सर्वोच्च सम्मान दिया है, नदियों को हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग माना है। संस्कृति मंत्रालय के अधीन कला एवं संस्कृति को समर्पित संस्थान, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र पिछले कुछ वर्षों से बड़े पैमाने पर ‘नदी उत्सव ’ आयोजित कर रहा है।

दरभंगा का एक पोखर फोटो: @अखबारवाला001

मिथिला के किसी भी स्थान पर खड़े होकर मिथिला के बाबू, बबुआइन और बौआसिन लोग अगर “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” कविता पाठ करते मिल जायँ, तो समझ लीजिये वे ‘सरेआम झूठ’ बोल रहे हैं। अपने-अपने हितों के रक्षार्थ वे स्थानीय लोगों को बरगला रहे हैं। इस बात से भी इंकार नहीं कर सकते हैं कि वे राजनीति में प्रवेश करने के लिए मिथिला की कविता पाठ करना प्रारम्भ कर दिए हों जो उनके अनेकानेक प्रयासों में, एक यह भी प्रयास हो। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि जिस समय इस कविता की रचना हुई होगी, उस कवि के नजर में मिथिला और उसकी गरिमा अपने उत्कर्ष पर रहा होगा। मिथिला के सभी क्षेत्रों में, प्रत्येक कदम पर, प्रत्येक घरों के सामने-पीछे छोटा-बड़ा पोखर रहा होगा। तत्कालीन राजा-महाराजा-महाराजाधिराज स्थानीय लोगों के सम्मानार्थ, तत्कालीन पानी की समस्याओं के निदानार्थ अपने खर्च पर पोखर, तालाब बनबाये होंगे। यह सच भी है।

अब जब मिथिला में असंख्य पोखर / तालाब रहा होगा तो उसके महार (इम्बैंकमेंट) पर पान की खेती, मखान की खेती होती होगी, जिसका उपयोग अपने-अपने घरों में, आगंतुकों के लिए, सगे-सम्बन्धियों के लिए किया जाता होगा। कोई सौ वर्ष पहले तक मिथिला में ‘शिक्षा’ चाहे ‘प्राथमिक’ हो, ‘माध्यमिक’ हो या ‘उच्च शिक्षा हो – पढ़ने वालों के साथ-साथ पढ़ाने वालों की किल्लत नहीं थी। अपने-अपने क्षेत्र के अनेकानेक आचार्य, प्राचार्य, महामहोपाध्याय समाज में उपलब्ध थे। शिक्षा के मामले में बनारस और इलाहाबाद की दूरियां मिथिला से अधिक नहीं थी। पाटलिपुत्र में भी मिथिला के लोग आकर शिक्षित होते थे। लेकिन, दुर्भाग्य यह रहा कि शिक्षा प्राप्ति के बाद उन्हें समाज को जो वापस करना था, वह नहीं कर सके। मिथिला के ग्रामीण इलाकों से खेतिहर-परिवारों से लेकर विद्वानों के परिवारों तक, जो भी शिक्षा के लिए शहर की ओर उन्मुख हुए, कभी वापस नहीं आये। और वापस भी आये तो वृद्धावस्था में। परिणाम यह हुआ कि मिथिला की जो अपनी पारम्परिक शिक्षा और शिक्षा पद्धति थी, उसका सर्वनाश हो गया।

‘नदी उत्सव का दस्तावेज कहता है कि इस उत्कृष्ट पहल की कल्पना डॉ सच्चिदानंद जोशी ने लोगों के बीच उनकी पारिस्थितिकी और पर्यावरण के बारे में जागरूकता पैदा करने और संवेदनशील बनाने के लिए की थी। ‘नदी उत्सव’ 2018 में शुरू हुआ था, जिसका उद्घाटन कार्यक्रम गोदावरी नदी के तट पर स्थित महाराष्ट्र के नासिक शहर में किया गया था। दूसरा ‘नदी उत्सव’ कृष्णा नदी के तट पर स्थित आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा शहर में और तीसरा ‘नदी उत्सव ’ गंगा नदी के तट पर स्थित बिहार के मुंगेर शहर में आयोजित किया गया था।

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समय बदल रहा था। समाज बदल रहा था। सोच बदल रहे थे। स्वाभाविक है शिक्षा का स्वरूप भी में बदलेगा ही। लेकिन तकलीफ इस बात की है कि आज भी हम उसी कविता पाठ को दोहरा रहे हैं और कहते थक भी नहीं रहे है कि “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” – खासकर तब जब बिहार के ग्रामीण इलाकों में शैक्षिक दर पुरुषों में 57 फीसदी और महिलाओं में 29 फीसदी है। बिहार का यह ग्रामीण इलाका, चाहे गंगा के उस पार का हो या गंगा के इस पार का। मिथिला भी इसी आकंड़े के अधीन है। पूरे प्रदेश में औसतन शैक्षिक दर 69 फीसदी है। इसमें पुरुषों के हिस्से 70 फीसदी और महिलाओं के हिस्से 53 फीसदी है। यानी दोनों के बीच आज भी 17 फीसदी का फासला है और यही 17 फीसदी का फासला, चाहे मिथिला में पंचायत का चुनाव हो, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, बेगूसराय, भागलपुर, मुंगेर, आदि शहरों में जिला परिषद् का चुनाव हो या बिहार के विधान सभा और विधान परिषद का चुनाव हो – निर्णायक होता है। ‘वे’ विजय ‘घोषित’ हो जाते हैं और ‘आप’ अपनी किस्मत को कोसते जीवन पर्यन्त ‘हार’ का सामना करते “पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” कविता पाठ सुनते रहते हैं।

मधुबनी (बिहार) का एक पोखर फोटो: @अखबारवाला001

इधर ‘नदी महोत्सव’ के तीन दिवसीय कार्यक्रम 22 सितंबर को पूर्वाह्न 10.30 बजे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के उमंग कॉन्फ्रेंस हॉल में शुरू होगा।इन तीन दिनों में 18 फिल्में भी दिखाई जाएंगी। इनमें से छह फिल्में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) ने निर्मित की हैं। कठपुतली शो के भाग के रूप में ‘यमुना गाथा’ का प्रदर्शन पूरन भट्ट द्वारा किया जाएगा। इस राष्ट्रीय सेमिनार में पांच शैक्षणिक सत्र होंगे, जिसमें वरिष्ठ विद्वान गोलमेज सम्मेलन में भाग लेंगे। उन्होंने कहा कि तीन दिवसीय कार्यक्रम के दौरान एक पुस्तक मेले का भी आयोजन किया जाएगा, जिसमें विभिन्न प्रकाशन संस्थान नदियों और पर्यावरण से संबंधित अपनी पुस्तकें लाएंगे। कार्यक्रम में दिखाये जाने वाले 18 वृतचित्रों में से पांच को पुरस्कृत करने की भी योजना है। वृतचित्र फिल्म फेस्टिवल के लिए भारत के लगभग सभी राज्यों से फिल्म निर्माताओं ने फिल्में भेजी थीं, जिनमें से 12 को स्क्रीनिंग के लिए चुना गया।

उधर, सबसे महत्वपूर्ब बात तो माँछ (मछली) से सम्बंधित है। माँछ की कथा-व्यथा बनारसी पान जैसी है। बनारस में पान की खेती नहीं होती, लेकिन हज़ारों-हज़ार पान की दुकानें हैं। प्रत्येक चार दुकान या चार मकान के बाद पान की दुकानें मिलेंगी। लगभग सभी किस्मों के पान यहाँ, जगन्नाथ जी, गया और कलकत्ता आदि स्थानों से आते हैं। पान का जितना बड़ा व्यावसायिक केन्द्र बनारस है, शायद उतना बड़ा केन्द्र विश्व का कोई नगर नहीं है। काशी में इसी व्यवसाय के नाम पर दो मुहल्ले बसे हुए हैं। केवल शहर के पान विक्रेता ही नहीं, बल्कि दूसरे शहरों के विक्रेता भी इस समय इस जगह पान खरीदने आते हैं।

बस इतना ही समझ लें कि आज मिथिला में माँछ का उपलब्धता जितना है वह मिथिला के दो फीसदी लोगों की आवश्यकता पूरी नहीं कर सकता। मिथिला के बाज़ारों में जो माँछ आप देख रहे हैं वह सन 1911 से पहले देश की राजधानी जिस प्रदेश में थी, वहां से और आंध्र प्रदेश से आती है। मिथिला में महज ‘ठप्पा’ लगता है। अब सोचिये खाते हैं बंगाल की – आंध्र की मछली और आज भी कविता पाठ किये हैं “पग-पग पोखर माँछ ,,,,” जब इस कविता की रचना की गयी थी माछ, पान और मखान मिथिला की शान, पहचान अवश्य थी। लेकिन समय के साथ मिथिला अपनी इस पहचान को न सिर्फ खो दिया है, बल्कि इन सभी चीजों पर अब दूसरे प्रदेशों द्वारा कब्जा भी हो गया है। इस दृष्टि से मिथिला की पहचान खतरे में है और लोग बाग़ है कि इस खतरे में भी खतरा उठाना चाहते हैं ‘मिथिला को अलग राज्य का दर्जा दो” – गजब है।

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हकीकत यह है कि पूरे मिथिला में स्थित पोखरों की संख्या को अगर तनिक बाद में अध्ययन करें तो सिर्फ दरभंगा के महाराजा के साम्राज्य में तक़रीबन 9113 पोखर और तालाब थे। इसमें दरभंगा शहर में ही 350 के आस-पास थे। आज अगर अवकाश है (वैसे मिथिला के लोग वेवजह व्यस्त होते हैं। मोबाईल पर घंटी आज बजायेंगे तो तीसरे दिन हेल्लो ट्यून सुनाई देदा) तो शहर में धूम लें और पोखरों, तालाबों की संख्या, उसकी स्थिति, उसमें दौड़ती मछलियों से, खिलते माखन से, महारों पर लगे पानों की खेती की स्थिति से अवगत हो लें। यकीन मानिए ‘भोकार’ नहीं, ‘चीत्कार’ मारकर रोने लगेंगे, अगर आखों में पानी होगा तो।

मधुबनी (बिहार) का एक पोखर फोटो: @अखबारवाला001

वास्तविकता यह है कि मिथिला की पहचान पर, माँछ पर, पान पर, मखान पर ग्रहण लग गया है और ‘अवसरवादी’ लोगों का हाल यह है कि दिन-रात-सुबह-शाम अपने-अपने हितों के लिए ‘पग-पग पोखर, पान , मखान ..” कविता पाठ करते थक नहीं रहे हैं। इन कविता वाचकों को शायद यह मालूम भी नहीं होगा कि पान की खेती करने के लिए दो-रस मिट्टी की जरूरत होती है। न ज्यादा पानी और न ज्यादा धूप की जरूरत होती। पानी इतना हमेशा चाहिए, ताकि मिट्टी में नमी बनी रहे। यहां तो लोगों की आखों में नमी नहीं है, बेचारी मिट्टी क्या करे। यही कारण है कि कलकत्तिया पान दरभंगिया बनाकर मिथिला के बाज़ार पर अधिपत्य जमा लिया है, कब्ज़ा कर लिया है यानी ‘सुतल छी आ वियाह होईत अछि’ वाली कहावत सिद्ध हो रही है और कविता वाचक पाठ करते नहीं थक रहे हैं “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” – पूरी मिथिला की सांख्यिकी आप निकालें, यहाँ दरभंगा जिले में रोज तकरीबन 8 टन मछली की खपत है, लेकिन दरभंगा ज़िले से मात्र 500 किलो तक भी मछली बाजार में नहीं पहुंच पाती है।

एक बात गर्दन से नीचे नहीं उतरता वह यह कि जब पोखर और तालाबों की संख्या उत्तरोत्तर शून्य की ओर अग्रसर है, फिर पानी में पैदा होने वाला मखान कहाँ से आ रहा है? मखान को सुपर फूड का दर्जा मिला है। ‘जी-टैग’ भी मिला है। कई तरह के कंपनियां अपने अपने नाम की ब्रांडिंग भी कर लिए हैं। कहा जाता है कि मल्लाह जाति के लोग ही मखाना की खेती करते थे/हैं। आंकड़ों के अनुसार, बिहार में निषाद समाज की करीब 21 उपजातियां हैं। करीब चार दर्जन ‘सरनेम’ लगाए बैठे हैं। प्रदेश की सम्पूर्ण आबादी में करीब एक करोड़ 70 लाख लोग निषाद जाति के हैं। लेकिन सवाल यह है कि जो समाज के लोग, उनका परिवार, बाल-बच्चा बिहार के, तालाबों-पोखरों में पहले गर्दन भर पानी में डूब कर मखान की खेती करने में अपना सौभाग्य समझते थे, आज ठेंघुने और घुटने पर पानी नहीं है उन तालाबों और पोखरों में। स्थानीय लोगों के कूड़ों – कचरों से भरा उन तालाबों और पोखरों पर आज आलीशान भवन और धन अर्जित करने वाले अन्य ‘निर्जीव’ संस्थानें बन गयी है। लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं। रोजी-रोटी-शिक्षा-चिकित्सा की तलाश में लोग पलायन कर रहे हैं और मिथिला के लोग बाग़ हैं की कविता पाठ कर रहे हैं “पग-पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या, वैभव, शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” ।

बहरहाल, मिथिला में स्थित पोखरों, तालाबों की वर्तमान स्थिति को देखते यह कह सकते हैं कि “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान । विद्या वैभव शांति प्रतीक, सरस नगर मिथिला थींक” महज एक ढोंग है और इन कहावतों को व्यापारीकरण कर रहे हैं। उसी तरह जिस तरह दिल्ली में नदी महोत्सव का। इतना ही नहीं, अब तो मिथिला के पाग पर भी धावा बोल दिया गया है। ‘पाग’ तो अब रंगबिरंगा हो गया। सफ़ेद पाग कहीं दीखता नहीं। लाल-पाग और हल्दी-रंग नुमा पाग महज अवसर पर ही लोग माथे पर रखते हैं। अब तो ‘पान’, मखान, माँछ, मुस्की, आम, लताम (अमरुद), लीची सभी मिथिला के पाग पर दिखेंगे और राष्ट्रीय ही नहीं, अंतराष्ट्रीय बाजार में मिथिला पेंटिंग के नाम पर बेचे जा रहे हैं, जाएंगे और फिर कहते भी नहीं थकेंगे “पग पग पोखर माछ मखान, मधुर बोल मुस्की मुख पान…..” ।

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