​काश 😢 दरिभंगा के महाराजाधिराज महिलाओं को आगे बढ़ाते 😢 आज दरभंगा किले के पुरषों में थोथी की दरिद्रता है, दुःखद 😢

मिलजुल कर चर्चा कर लेंगे महाराज पर

दिल्ली गेट परिसर के बाएं हाथ बकरी चराने के लिए जाता एक नौजवान, जो आगामी विधानसभा चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग पहली बार करेगा, बुदबुदाकर कहता है: “अच्छा हुआ महाराजाधिराज मृत्यु को प्राप्त किये। आज अगर जीवित होते तो फफककर रोते। संतानहीन महाराजाधिराज के घर में कोई वैसा पुरुष या महिला नहीं हुआ जो भारतीय राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक ब्रह्माण्ड पर महाराजाधिराज का प्रतिनिधित्व के साथ-साथ उनकी गरिमा को ढ़ोल-नगारा पीट कर दुनिया को बताते। दुर्भाग्य। जो हैं उनमें थोथी ही नहीं है – न पुरुष में और ना ही महिला में। महिलाओं को दोष नहीं देंगे क्योंकि महिलाओं को तो महाराजा ने भी पनपने नहीं दिए।” तभी बकरी भी मिमियाने लगी, जैसे बकरी भी अपने मालिक की बातों का समर्थन कर रही हो।

बकरी की शारीरिक भाषा और बार-बार अपने स्वामी के तरफ नजर उठाकर देखने से ऐसा लग रहा था जैसे वह कह रही हो कि ‘एक बात समझ से परे है कि संविधान के बारे में चर्चा काल में झा साहेब अपने राजनीतिक स्वामी नीतीश कुमार का नाम, उनकी जेल यात्रा को क्यों दोहरा रहे थे। नीतीश कुमार उन हज़ारों-लाखों क्रांतिकारियों में एक थे जो आपातकाल के समय कारावास में बंद हुए थे। जयप्रकाश नारायण की क्रांति जिसने भी पटना में, बिहार में देखा है, जो जीवित हैं, वे सभी जानते हैं कि उस आंदोलन में नीतीश कुमार की कितनी भूमिका थी? लेकिन जो प्रथम द्रष्टा हैं वे अपनी बात अगली पीढ़ी को बताएँगे नहीं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अनुकम्पा से राजनीति में आने वाले, पहले प्रदेश के ऊपरी सदन और फिर बाद में देश के ऊपरी सदन में सांसद बनने वाले श्री संजय झा संविधान पर अपना विचार दे रहे थे, मिथिला में जयजयकार हो रहा था। दरभंगा के टॉवर चौक से मिथिला विश्वविद्यालय परिसर स्थित दिल्ली गेट तक सभी कह रहे थे कि संजय झा आज महाराजाधिराज का नाम लेकर, महाराजाधिराज का संविधान के प्रति सोच को दोहराकर जयजयकार कर दिए हैं। ऐसा लग रह था जैसे मुद्दत बाद संसद में मिथिला के राजा का नाम लिया गया हो।

विगत दिनों जब संसद में जवाहरलाल विश्वविद्यालय के दो राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले दो पूर्ववर्ती छात्र दरभंगा के महाराजाधिराज डॉ. कामेश्वर सिंह की भारतीय संविधान के प्रति भूमिका का मंत्रोच्चारण कर रहे थे तो महाराजा का पार्थिव शरीर सामने आ गया। सन् 1962 में जब उनका हँसता-मुस्कुराता शरीर सुबह-सवेरे पार्थिव हो गया था। गाँव से हज़ारों लोग ट्रेन पकड़कर दरभंगा भागे। महाराज की मृत्यु मिथिला की मृत्यु थी। सामाजिक क्षेत्र से लेकर शैक्षिक क्षेत्र तक, चिकित्सा के क्षेत्र से लेकर सांस्कृतिक क्षेत्र तक संपदा को बढ़ाने, सुरक्षित रखने वाले लोगों के चेहरों पर हतासी था। संतानहीन महाराजाधिराज के पार्थिव शरीर को दरभंगा में आनन फ़ानन में अग्नि को सुपुर्द किया गया था।

जो उस दृश्य को देखे थे, भाव विह्वल थे। सभी एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे। उसी क्षण दरभंगा का भविष्य देख रहे थे वे सभी जो निर्लोभ थे और महाराज के साथ आत्मीय संबंध रखते थे। उन्हें महाराजा की ज़मीन से कोई लोभ था और ना ही उनके ज़ेवरों से। उनके लिए महाराजा के मुख से निकला दो शब्द ही गंगा जल जैसा पवित्र और हीरे-जवाहरात जैसा बहुमूल्य था। कल जब मणिकर्णिका घाट से दशास्वमेध घाट, दरभंगा घाट, दिगपतिया घाट, कर्नाटक घाट के रास्ते तुलसी घाट होते अस्सी घाट के तरफ़ उन्मुख था अपने किताब को पूर्णता प्रदान करने के लिए तो बाबूजी की बातें, महाराजा का चेहरा याद आ रहा था। संसद, संविधान और नेताओं की बातें याद आ रही थी। सोच रहा था दरभंगा घाट के रास्ते मणिकर्णिका से तुलसी तक गंगा उल्टी बहती है। यह गंगा को भी पता है और महादेव को भी और इस पृथ्वी के लोग समझते हैं सबसे अधिक ज्ञाता वे ही हैं जो बनारस में गंगा उल्टी बहती है का मुहावरा लिखकर, बोलकर चापलूसी की दुकानदारी चला रहे हैं।

उधर, महाराजा रामेश्वर सिंह के कालखंड में निर्मित विशालकाय भवन के दीवार पर लिखा दरभंगा घाट के दाहिने हाथ मंदिर के चबूतरे पर बैठे एक महात्मा कहते हैं: “बऊ यौ !! दोसरक पत्नी सबके निक लगैत छै। मिथिला में बिना लोभ कें कोई केकरो प्रसंशा नै करै छै, चाहे अधिकारी होइथ, पदाधिकारी, नेता, अभिनेता, मंत्री, मुख्यमंत्री अथवा प्रधान मंत्री। आई यदि महाराजाधिराज के एक टा संतान होईतईन ते आई मिथिला के हाल बेहाल नई होईते। अनपढ़, अज्ञानी, चापलूस के हाथ में मुफ़्त में धन दौलत भेट गेलई यानी आँहरा के हाथ में बटेर, जेकरा स्वयं विधान सभा आ संसद में महाराजक प्रतिनिधित्व करैक चाहि, थोथिक अभाव में पुरुख से भेंट नहि करै छै .… समय बदैल रहल अछि । देखब दरभंगा में नबका नबका ठग आवि गेल अछि । महात्मन के शब्दों में दम था। ​”

बहरहाल, भारत में संविधान लागू होने के 74 साल के बाद संसद में संविधान सभा के उस सदस्य का नाम पहली बार गूंजा जिसने भरे सदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कहा था कि वह फ्रीडम ऑफ स्पीच के संसोधन की आड़ में आप कार्यकारी अत्याचार के बीज बो रहे हैं। संविधान के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर राज्यसभा में चल रही जोरदार बहस के बीच नेहरू के घोर आलोचक बिहार के इस राजनेता का जिक्र राज्य सभा में बार बार हो रहा है। वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से लेकर जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा तक ने कामेश्वर सिंह के भाषण को खूब उधृत किया। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दिल्ली की गद्दी पर बैठने या फिर नीतीश कुमार को प्रदेश का मुख़्यमंत्री होने का रिकार्ड बनाने के बाद आज तक दरभंगा में जितने भी कार्यक्रम हुए, महाराजा के परिवार और परिजनों को उस कार्यक्रम से मीलों दूर रखा गया है, यहाँ तक कि हवाई अड्डे के सञ्चालन के समय भी। इतना ही नहीं, कामेश्वर सिंह को भारतीय राजनीतिक इतिहास के पन्नों से हटा दिया गया। दुर्भाग्य यह है कि महजराजाधीरज की मृत्यु के बाद विगत 62 वर्षों में दरभंगा राज से जुड़े लोगों में, जॉन उनकी समपत्तियों का हिस्सेदार बने, थोथी से सभी दरिद्र रहे।

राज्यसभा में संविधान पर चर्चा की शुरुआत करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने अंबेदकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद कामेश्वर सिंह का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि कामेश्वर सिंह जो संविधान सभा के सदस्य थे, उन्होंने नेहरू के पहले संविधान संशोधन को यह कहते हुए विरोध किया था कि यह अंतरिम सरकार है और इसे जनता का जनादेश इस काम के लिए नहीं मिला है। संविधान सभा के सदस्य कामेश्वर सिंह ने कहा था: ”यह संसद, एक अस्थायी है. यह लोगों की इच्छा को प्रतिबिंबित नहीं कर रही है। जिस तरह से संविधान चाहता है कि संसद इसे प्रतिबिंबित करे। इस तरह की सरकार या संसद के लिए जनता की राय का संदर्भ दिए बिना संविधान में इस तरह के मूलभूत परिवर्तन करना बेहद अनुचित है, और वह भी एक कठिन संसदीय सत्र के अंतिम चरण में और लगभग आम चुनाव की पूर्व संध्या पर।”

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उपसभापति हरिवंश के आसन को संबोधित करते हुए निर्मला सीतारमन ने कामेश्वर सिंह के भाषण को आगे उद्धृत करते हुए कहा कि कामेश्वर सिंह कहते हैं: “क्या वे संविधान के प्रति घोर उपेक्षा नहीं दिखाते जब वे इसमें संशोधन करने का प्रयास सिर्फ इसलिए करते हैं, क्योंकि कुछ कानूनों की आलोचना की गई है और न्यायपालिका द्वारा उन्हें अमान्य पाया गया है?” कामेश्वर सिंह आगे कहते हैं, ‘मैं यह कहने के लिए बाध्य हूं कि प्रधानमंत्री कार्यकारी निरंकुशता का बीज बो कर और पार्टी के फायदे के लिए संविधान की सर्वोच्चता के साथ खेलकर एक बुरी मिसाल कायम कर रहे हैं.इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं था कि संशोधन पार्टी, प्रधान मंत्री या सरकार की छवि के लिए लाया गया था।” लेकिन सवाल यह है कि जो आज हो रहा है क्या सही है? अथवा महाराजाधिराज की बातों को यदि आज के समय में उद्धृत कर देखा जाय तो यह (संविधान में संसोधन) कितना तर्कसंगत दीखता है? यह शोध का विषय है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अगर उन दिनों की बात को ‘स्वहित’ में आज उद्धृत किया जा रहा है तो आने वाले कल में भी आज की बात को उद्धृत किया जायेगा।

इससे पहले, बहस में हिस्सा लेते हुए नीतीश कुमार के ‘चहेते’ और जदयू सांसद संजय झा ने भी नेहरू के इस कट्टर विरोधी को सदन में न केवल याद किया बल्कि उनकी बातों का उल्लेख करते हुए कहा कि हमारे दरभंगा के महाराजा कामेश्वर सिंह भी संविधान सभा के सदस्य थे और बाद में वो जीवन के अंतिम क्षण तक राज्य सभा के सदस्य रहे। कामेश्वर सिंह को उद्धृत करते हुए संजय झा ने कहा, कामेश्वर सिंह ने कहा था, ” मैं यह स्पष्ट रूप से कहता हूं कि प्रधानमंत्री जी कार्यकारी सत्ता के अत्याचार के बीज बो रहे हैं और संविधान की सर्वोच्चता के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, ताकि पार्टी की लाभ को प्राथमिकता दी जा सके। वह एक खराब मिशाल स्थापित कर रहे हैं और यह भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक रुझान है।” काश कामेश्वर सिंह के परिवार में आज तथाकथित रूप से स्वयंभू संभ्रांत मानने वाले लोग महाराजाधिराज की गरिमा को बरकरार रख पाते।

बहरहाल, ​भारत में जिस तरह मुग़ल साम्राज्य और ब्रितानिया सरकार का अभ्युदय, उत्कर्ष और पतन हुआ, ‘कुछ अपवाद छोड़कर’ उत्तर बिहार के दरभंगा राज और वहां के राजाओं-महाराजाओं की कथा-व्यथा, अभ्युदय, उत्कर्ष और पतन लगभग वैसे ही है। मुग़ल सल्तनत में जिस तरह अकबर, शाहजहां, जहाँगीर और औरंगजेब का नाम इतिहास के पन्नों से नहीं मिटाया जा सकता है, दरभंगा राज में भी, राजा महिनाथ ठाकुर, राजा राघव सिंह, राजा नरेंद्र सिंह को अपने-अपने साम्राज्यों को बचाने, बढ़ाने के लिए नहीं भुलाया जा सकता। दरभंगा राज के स्थापना काल से इसके पतन तक सिर्फ ये ही तीन राजाओं का नाम उल्लिखित दीखता है, जो अपने प्रान्त को बचाने के लिए, अपने नागरिकों के जान-माल की रक्षा के लिए, उन्हें सुरक्षा प्रदान करने के लिए, आर्थिक, सामाजिक समृद्धि सुरक्षित करने के लिए अपनी “अंतिम साँसों” का परवाह किये, हथियार उठाये, जान की बाजी लगाए, और युद्ध-क्षेत्र में सज्ज हो गए। इन राजाओं के बाद, दरभंगा राज में जितने भी राजा-महाराजा, यहाँ तक की महाराजाधिराज हुए, किन्ही का नाम आधुनिक भारत के इतिहास में “योद्धा” के रूप में उल्लिखित नहीं है, महाराणा प्रताप की तरह। हाँ, मुगलिया शासन के बाद, ब्रितानिया शासन में अपने भी “दानशीलता” को लेकर, सेवा-सुश्रुषा को लेकर ही जाने गए – योद्धा के रूप में नहीं।

वैसे भारत में शिक्षा के क्षेत्र के विकास में दरभंगा के महाराजाओं, महाराजाधिराज की भूमिका अक्षुण है। यह बात कल भी लोग मानते थे, आज भी स्वीकार करते हैं और आने वाले समय में भी मानने पर विवश होंगे। लेकिन एक बात पर अगर विचार करेंगे तो शायद देश के लोगों की आँखें अश्रुपूरित हो जाएगी और फिर महाराजाधिराज की ओर, उनके परिवारों के तरफ एक विपरीत निगाहों से देखेंगे, सोचने पर विवश हो जायेंगे। वैसे आज तक किसी ने भी यह लिखने की, कहने की हिम्मत नहीं किये – लेकिन सच तो यही है की दरभंगा राज के चहारदीवारी के बाहर महाराजाधिराज चाहे शिक्षा के क्षेत्र में जो भी भूचाल लाये हों, जितने भी महत्वपूर्ण कार्य किये हों; चहारदीवारी के भीतर अपने ही परिवार की महिलाओं को आधुनिक शिक्षा, आधुनिक सोच से वंचित रखे या वे सभी महिलाएं “शिक्षा के महत्व” को “महत्वहीन” समझी। अगर उनकी नजरों में महाराजाधिराज की सम्पत्तियों के आगे शिक्षा का महत्व हुआ होता, शब्दों का तबज्जो उनकी नज़रों में हुआ होता, महाराजाधिराज जैसी शैक्षिक-सोच का महत्व वे समझी होती, तो शायद वे सभी अपने वजूद को​ नेश्तोनाबूद नहीं होने देते।

आज़ादी के आन्दोलन में, भारत का इतिहास के निर्माण में देश की अनपढ़, अशिक्षित, गरीब, महिलाओं ने अपने पति के सम्मानार्थ जो भी की, आज इतिहास में दर्ज है। भारत का इतिहास उन महिलाओं के नामों के साथ कभी छेड़-छाड़ नहीं कर सकता है। लेकिन दरभंगा राज के मामले, महाराजाधिराज के घर की महिलाएं उन्हें वो सम्मान नहीं दे सकी, जिसके वे हकदार थे। अगर वे महिलाएं खुद आगे कदम बढ़ाई होती तो शायद आज राज दरभंगा नेश्तोनाबूद नहीं होता। और यही कारण है कि उस ज़माने में भी अनपढ़, अशिक्षित, अज्ञानी महिलाएं अपने पति के लिए, अपने परिवार के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र के लिए चट्टान की तरह खड़ी होती थी, अंतिम सांस तक लड़ती थी, योद्धा कहलाती थी – नहीं तो आज भी भारत के इतिहास में विधवा रानी लक्ष्मी बाई, अरुणा असफ अली, सरोजनी नायडू, मैडम बीकाजी कामा, एनी बेसेंट, कमला नेहरू, विजय लक्ष्मी पंडित, कैप्टन लक्ष्मी सहगल, मूलमती, कित्तूर वरणी चेनम्मा, झलकारी बाई, कस्तूरबा गाँधी, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, बेगम हज़रात महल, सावित्री बाई फुले, नीली सेनगुप्ता, उमाबाई कुंडापुर, उदा देवी, जम्मू स्वामीनाथन, मातंगिनी हज़रा, सुचेता कृपलानी आदि जैसी सैकड़ों-हज़ारों महिलाएं भारत के इतिहास में – पति के जीवित रहते अथवा विधवा जीवन में भी अपने पति के सम्मानार्थ उनके पीछे खड़ी होने के लिए – अमर नहीं होती। आज स्वतंत्र भारत के इतिहास में, बिहार के इतिहास में, मिथिलांचल के इतिहास में और दरभंगा के इतिहास में महाराजा सर कामेश्वर सिंह की तीनो पत्नियों को या फिर उन सात महिला लाभार्थियों को कौन जानता है ? आने वाली पीढ़ी को मिथिला के लोग क्या कहेंगे?​

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वैसे, दरभंगा राज का इतिहास राजा महेश ठाकुर से प्रारम्भ होता है। राजा महेश ठाकुर की राजधानी मधुबनी जिला के भउर ग्राम में थी। साल था 1556 और वे कुल 13 वर्ष तक, यानी 1569 तक राजगद्दी पर विराजमान रहे। भारत में मुगलों का इतिहास भी बाबर से ही प्रारम्भ होता है और साल रहता है 1526 । बाबर को जब मध्य एशिया से अपने पैतृक प्रान्त से बाहर निकाल दिया जाता है तब वह भारत की ओर उन्मुख होता है। काबुल में अपना ठिकाना बनाता है और फिर आगे बढ़ने के लिए तैयारी करता है। पानीपत की पहली लड़ाई में वह इब्राहिम लोदी को हारता है। वैसे लोदी का साम्राज्य उस समय तक कमजोर हो गया होता है। लेकिन वह युद्ध भारत के लिए ऐतिहासिक होता है और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना का नींव उत्तर भारत में रखा जाता है। बाबर, काबुल से अपनी राजधानी हटाकर आगरा आ जाता है। मुग़ल साम्राज्य बाबर के साम्राज्य से भारत में प्रारम्भ होता है और कोई 300 साल तक, यानी अंग्रेजों के आने तक भारत में राज करता है।

राजा महेश ठाकुर (1556-1569) राजा गोपाल ठाकुर (1569-1581) राजा परमानन्द ठाकुर, राजा शुभंकर ठाकुर, राजा पुरुषोत्तम ठाकुर (1617-1641) के समय में भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी का आगमन हो चुका था और उस समय तक मुग़ल शासक जहाँगीर गद्दी पर बैठ जाता है । जहांगीर ने कंपनी राज को भारत में व्यापार करने के लिए आमंन्त्रित कर चूका था। जहांगीर के बाद शाहजहाँ पाँचवे मुग़ल बादशाह (1628-1658) बने । शाहजहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभव विलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। उनके शासनकाल को मुग़ल शासन का स्वर्ण युग और भारतीय सभ्यता का सबसे समृद्ध काल बुलाया गया है।शाहजहां के बाद इधर मुग़ल सिंघासन पर औरंगजेब सत्ता पर आसीन हुआ (1658-1707) और शाहजहां को जीवन पर्यन्त उनकी मृत्यु तक कैद रखा। उनकी मृत्यु 1666 में हुयी।

औरंगजेब के समय में भारत में अनेकानेक राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक उथल पुथल हुए, लेकिन मुग़ल साम्राज्य का विस्तार भी इसी के समय में हुआ। सन 1707 में औरंगजेब की मृत्त्यु के बाद भारत के अनेकानेक राजाओं ने मुग़ल शासन के विरुद्ध बिगुल बजा दिए। औरंगजेब के शासनकाल में दरभंगा के चार राजा रहे – राजा सुन्दर ठाकुर (1641-1668), राजा महिनाथ ठाकुर (1668-1690), राजा नरपति ठाकुर (1690-1700), राजा राघव सिंह (1700-1739) – औरंगजेब के बाद भारत में एक और जहाँ अंग्रेजी हुकुमार का बोल बाला होने लगा, मुग़ल सल्तनत का पतन भी स्वाभाविक था। मुग़ल सल्तनत में बहादुर शाह – 1 राज गद्दी पर बैठे और अनेकानेक प्रशासनिक सुधार लाने की बात किये। परन्तु 1712 में उनकी मृत्यु हो गई। मुग़ल साम्राज्य भी जिस गति से ऊपर आया था, उसी गति से नीचे गिरा भी। सन 1712 और 1719 के बीच चार राजा गद्दी पर आये और चले गए। उस समय दरभंगा के राजा थे राजा राघव सिंह।​

सं 1719-1748 के बीच मुग़ल का कमान मुहम्मद शाह के हाथों था। लेकिन अब तक मुग़ल साम्राज्य में कमजोर राजा के कारण साम्राज्य का क्षेत्र सीमित होने लगा था। मध्य भारत के अनेकानेक राजा और उनका साम्राज्य मुग़ल से मराठा के हाथों ख़िसक रहा था । दरभंगा राज के राजा राघव सिंह (1700-1739), राजा बिष्नु सिंह (1739-1743), राजा नरेंद्र सिंह (1743-1770) थे उस समय । कहा जाता है कि राजा नरेंद्र सिंह के दत्‍तक पुत्र प्रताप सिंह भी नि:संतान थे और उन्‍होंने माधव सिंह को दत्‍तक पुत्र बनाकर तिरहुत का युवराज घोषित किया था। राजा नरेंद्र सिंह की रानी पद्मावती प्रताप सिंह के इस फैसले से नाराज हुई और उन्होंने माधव सिंह को तत्कालीन राजधानी भौडागढी में प्रवेश प्रतिबंध लगा दिया। कहा जाता है कि माधव सिंह की हत्या की साजिश भी रची गयी और माधव सिंह इस दौरान बनैली राज घराने में पनाह पाये थे। अपने दत्‍तक पुत्र माधव सिंह के लिए प्रताप सिंह ने तिरहुत की राजधानी भौडा गढी से दरभंगा स्थानांतरित किया। रामबाग स्थित परिसर को नूतन राजधानी क्षेत्र के रूप में विकसित किया। सिंहासन संभालने के बाद माधव सिंह ने न केवल राज्य की सीमा का विस्तार किया, बल्कि खजाना भी बडा किया।

रानी पद्मावती के निधन के बाद भोडा गढी से राज खजाना दरभंगा स्थानांतरित हुआ, लेकिन खजाने के लिए ढांचागत आधारभूत संरचना महाराजा छत्र सिंह के कार्यकाल में ही बन पाया। महाराजा छत्र सिंह डच वास्‍तुशिल्‍प से अपने लिए छत्र निवास पैलेस, एक तहखाना और 14 सौ घूर सैनिकों के लिए एक अस्‍तबल का निर्माण कराया। यानी दरभंगा राज के स्थापना काल से रानी पद्मावती तक राजा महिनाथ ठाकुर, राजा राघव सिंह और राजा नरेंद्र सिंह को ही अपने-अपने साम्राज्यों को बचाने, बढ़ने के लिए तत्कालीन अन्य प्रान्त के राजाओं से युद्ध करना पड़ा और विजय भी हुए। यानी अब तक के बारह राजाओं में महज तीन राजा अपने अपने साम्राज्य की सुरक्षा-विस्तार के लिए युद्ध क्षेत्र में गए, शेष नौ को कभी युद्ध की परिस्थिति का सामना नहीं करना पड़ा।

उधर 1757 में पलासी का युद्ध, 1764 में बक्सर का युद्ध से कंपनी की शक्ति मजबूत हुई। और शाह आलम की नियुक्ति बंगाल का राजस्व कलेक्टर, बिहार और उड़ीसा। यानी कंपनी राज गंगा के तटवर्ती इलाकों पर अपना झंडा गाड़ दिया। फिर समयांतराल दक्षिण भारत के बड़े क्षेत्रों के नियंत्रण स्थापित कर लिया। रानी पद्मावती के बाद, दरभंगा राज का कमान राजा प्रताप सिंह (1778-1785), राजा माधव सिंह (1785-1807), महाराजा छत्र सिंह (1807-1839), महाराजा रूद्र सिंह (1839-1850), महाराजा महेश्वर सिंह (1850-1860) इनकी मृत्यु के पश्चात् कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह के अवयस्क होने के कारण दरभंगा राज को कोर्ट ऑफ वार्ड्स के तहत ले लिया गया। जब कुमार लक्ष्मीश्वर सिंह बालिग हुए तब अपने पैतृक सिंहासन पर आसीन हुए। ये काफी उदार, लोक-हितैषी, विद्या एवं कलाओं के प्रेमी एवं प्रश्रय देते थे। रामेश्वर सिंह इनके अनुज थे। फिर आये महाराजा लक्ष्मीश्वर सिंह (1880-1898) महाराजाधिराज रामेश्वर सिंह (1898-1929) इन्हें ब्रिटिश सरकार की ओर से ‘महाराजाधिराज’ का अन्य उपाधियाँ मिलीं। अपने अग्रज की भाँति ये भी विद्वानों के संरक्षक, कलाओं के पोषक एवं निर्माण-प्रिय अति उदार थे। इन्होंने भारत के अनेक नगरों में अपने भवन बनवाए तथा अनेक मन्दिरों का निर्माण करवाया। वर्तमान मधुबनी जिले के राजनगर का अवशेष भवन और सूखता पोखर गवाह है उन दिनों का। नौलखा भवन 1926 ई. में बनकर तैयार हुआ था। कहा जाता है कि राज की राजधानी दरभंगा से राजनगर लाने का प्रस्ताव था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ये माँ काली के भक्त थे और तंत्र विद्या के ज्ञाता भी थे। जून 1929 में इनकी मृत्यु हो गयी।

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और अंत में, महाराजा रामेश्वर सिंह के बाद महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह दरभंगा राज के गद्दी पर बैठे। महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह के समय में ही भारत स्वतंत्र हुआ और जमींदारी प्रथा समाप्त हुई। देशी रियासतों का अस्तित्व समाप्त हो गया। वे अपनी शान-शौकत के लिए पूरी दुनिया में विख्यात थे। अंग्रेज शासकों ने इन्हें ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि दी थी। वे अनेकानेक कंपनियों की शुरुआत किये थे जिससे प्रान्त का विकास हो, लोगों को रोजगार मिले, शिक्षा मिले। आय के नये स्रोत बने। प्रदेश में इन्होने दो अख़बारों का प्रकाशन प्रारम्भ किये – आर्यावर्त और इण्डियन नेशन तथा मैथिलि के विकास के लिए मिथिला मिहिर नमक पत्रिका। वे संगीत और अन्य ललित कलाओं के बहुत बड़े संरक्षक थे। शिक्षा के क्षेत्र में दरभंगा राज का योगदान अतुलनीय है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, कलकत्ता विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल, ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और कई संस्थानों को काफी दान दिया। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में काफी योगदान किया। महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह बहादुर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के संस्थापक सदस्य थे। अंग्रेजों से मित्रतापूर्ण संबंध होने के बावजूद वे कांग्रेस की काफी आर्थिक मदद करते थे। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, अबुल कलाम आजाद, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से उनके घनिष्ठ संबंध थे। सन् 1892 में कांग्रेस इलाहाबाद में अधिवेशन करना चाहती थी, पर अंग्रेज शासकों ने किसी सार्वजनिक स्थल पर ऐसा करने की इजाजत नहीं दी। यह जानकारी मिलने पर दरभंगा महाराजा ने वहां एक महल ही खरीद लिया। उसी महल के ग्राउंड पर कांग्रेस का अधिवेशन हुआ।​

​इतना ही नहीं, यह भी कहा जाता है कि महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु के बाद तुरंत बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू दरभंगा राज से 15 मन सोना मांगे थे और पंडित ​लक्ष्मीकांत झा एक कार्यक्रम के तहत नेहरू को दिया भी था गया। लेकिन दुर्भाग्य यह था कि पंडित नेहरू महाराजाधिराज की मृत्यु के बाद “एक अक्षर का भी शोक सन्देश राज दरभंगा अथवा महाराजा की विधवा पत्नी को नहीं भेजे थे। सर कामेश्वर सिंह की मृत्यु 1 अक्टूबर, 1962 को होती है और तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु 27 मई, 1964 को, यानी दोनों की मृत्यु तारीखों के बीच महज 20-माह का अंतर होता है। आम तौर पर, महाराजाधिराज दरभंगा जैसे व्यक्ति की मृत्यु के साथ ही, कोई भी प्रधान मंत्री, उसमें भी पंडित नेहरू जैसा, तक्षण सोने की मांग तो नहीं करेंगे !! अब सवाल यह है कि क्या सच में राजकीय कोष में दरभंगा राज का 15 किलो सोना गया था? अगर प्रधानमंत्री कार्यालय/आवास पर आया तो भारत सरकार के राजकोष में या प्रधान मंत्री नेहरू के किसी दस्तावेज में इस बात का उद्धरण है क्या? आज की तारीख में भारत का सूचना अधिकार तो बता ही सकता है कि आखिर दरभंगा राज का 15 मन सोना राजकोष में उस 20-महीनों के बिच जमा हुआ था क्या?

बहरहाल, लन्दन आर्काइव्स के दस्तावेजों के अनुसार दरभंगा के अंतिम महाराजा सर कामेश्वर सिंह हिंदुस्तान के बेहतरीन धनाढ्य, मानवीय, संवेदनशील, अनुशासित महाराजाओं में सर्वश्रेष्ठ थे। लन्दन आर्काइव्स के दस्तावेजों के अनुसार, लन्दन के संग्रहालयों में आज भी दरभंगा महाराजाओं का नाम उद्धृत हैं – उसमें सर्वश्रेष्ठ गवाह है “स्वर्ण और चाँदी में बना हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स की कुर्सी का रेप्लिका” की प्रस्तुति जिसे उन्होंने उपहार-स्वरुप स्वतंत्र भारत सरकार के माध्यम से दिया था। तकलीफ इस बात की है कि स्वतंत्र भारत में दरभंगा राज और महाराजाओं की अनगिनत ऐतिहासिक कार्यों को उनके ही परिवार के लोगों ने समाप्त कर दिया। वे तत्कालीन अविभाजित और विभाजित भारतीय समाजों के कल्याणार्थ ऐसे अनेकानेक ऐतिहासिक कार्य किये, दान दिए, उपहार दिए, जिसे स्वतंत्र भारत में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए था। परन्तु ऐसा नहीं हुआ।​

लन्दन के एक सूत्र के मुताबिक सन 1947 के पूर्व सार्वजनिक रूप से भारत से जितने भी चलनशील वस्तुओं/सामग्रियों/जेवरातों/अमूल्य निधियों को अंग्रेजी अधिकारियों द्वारा लाया गया था, यहाँ के ऐतिहासिक संग्रहालयों में “पब्लिक डिस्प्ले” पर रखा है। सूत्र का यह भी कहना है कि ब्रिटिश नियमों के मुताबिक जितनी भी सामग्रियां “पब्लिक डिस्प्ले” पर रखीं है और उसके लिए यदि दर्शकों से राशि ली जाती है तो सम्पूर्ण एकत्रित राशि का एक अहम् हिस्सा उस संपत्ति के वास्तिविक मालिकों के आज के वंशजों के निमित होता है जो सम्बंधित देश में रहते हैं। अंग्रेजी हुकूमत समाप्ति के के दौर में और उसके बाद भी भारत से बहुत सरे अमूल्य वस्तुएं गयी थी। सूत्रों के अनुसार वेस्टमिंस्टर महल के लॉर्ड्स कक्ष में, जहाँ हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के सत्र का परिचालन होता है, और जिस सिंघासन से संबोधित करके संसद का उद्घाटन किया जाता है, उस सिंघासन का रेप्लिका महाराजाधिराज कामेश्वर सिंह ने सम्मानार्थ पेश किया था। वैसे इस स्पीकर चेयर का डिजाईन सम्भतः 1849 में हुआ था। लेकिन सं 1941 में हॉउस ऑफ़ कॉमन में बनबार्डिंग के कारण वह कुर्सी ख़राब हो गयी थी। संसद के कार्य को सुचारु रूप से चलने के लिए एक “तत्कालीन कुर्सी” की व्यवस्था की गयी थी।

महाराजाधिराज एक दूरदर्शी मनुष्य थे और वे भविष्य में भारत-ब्रिटेन राजनयिक सम्बन्धों के महत्वों को समझते थे, इसलिए उन्होंने हॉउस ऑफ़ लॉर्ड्स की उस कुर्सी का एक रेप्लिका बनाने को सोचा। इस रेप्लिका का निर्माण स्वर्ण-चांदी में हुआ था। आज़ाद भारत में भारत सरकार के माध्यम से यह रेप्लिका प्रस्तुत किया गया था। लेकिन फिर क्या हुआ इस बात की जानकारी शायद दरभंगा राज के पास नहीं है। सूत्रों के अनुसार दरभंगा के महाराजधिराक सर कामेश्वर सिंह अविभाजित भारत के कौंसिल ऑफ़ स्टेट के करीब 13 वर्ष तक (सन 1933-1946) तक सदस्य थे। साथ ही, वे भारत के संविधान सभा के भी पांच वर्ष (1947-1952) तक सदस्य थे। इतना ही नहीं, आज से 88-वर्ष पूर्व उन्हें 1 जनबरी सं 1933 को आई ई सी से प्रोन्नत कर “नाईट कमाण्डर ऑफ़ दी मोस्ट एमिनेंट ऑर्डर ऑफ़ दी इण्डियन इम्पायर बनाया गया था। आज़ाद भारत में वे अपने जीवन के अंतिम सांस तक भारतीय संसद के ऊपरी सदन के सदस्य रहे। महाराजाधिराज की मृत्यु अक्टूबर 1962 में एक उत्तराधिकारी का नाम लिए बिना उनका निधन हो गया।

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