बिहार में कोरोना का “काल” : लालू एंड कंपनी वनाम नीतीश एंड कंपनी = मतदाताओं की “रुदाली” 

डॉ मीसा भारती, पूर्व-मुख्य मंत्री माँ श्रीमती राबड़ी देवी, फ्रेम में लालू प्रसाद यादव।  मीसा भारती पाटलिपुत्र लोक सभा क्षेत्र से नॉमिनेशन पत्र भर रहीं हैं। यहाँ चुनाव में वे अपने ही मामा के हाथों परास्त हुई। फिर राज्य सभा के रास्ते भारत के संसद में पहुँच गयीं .तस्वीर प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया के सौजन्य से 

पटना: आपने कभी सुना, पढ़ा कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री दम्पत्ति – लालू प्रसाद यादव और श्रीमती राबड़ी देवी – की चिकित्सक बेटी और राष्ट्रीय जनता दल की राज्य सभा सदस्या श्रीमती मीसा भारती अपने प्रदेश में कोरोना से संक्रमित किसी भी नागरिक के सहयोग हेतु अपना कदम अथवा हाथ बढ़ाई हैं?  शायद नहीं। राजनीति की बात छोड़िए, मोहतरमा तो चिकित्सा-सिद्धांतों को भी कूड़ेदान में फेंक दी। तभी तो बिहार की ही एक लेखिका कहती है की “मीसा भारती तो लालू जी की सेवा में लगी है, जनता की नहीं।” अब अगर प्रदेश में विपक्ष के नेताओं का यह हाल है तो फिर नीतीश कुमार एंड कंपनी को किस आधार पर आलोचना की जाए ? प्रश्न बहुत गंभीर है। 

बिहार की आवादी कोई बारह करोड़ है और पूरे प्रदेश में करीब बारह सौ अस्पताल/चिकित्सालय हैं जिनमें कलम-तोड़ डाक्टरों से लेकर, झोला-छाप डाक्टरों से लेकर, राजनेताओं द्वारा ‘अनुशंसित’ नाम वाले डाक्टरों से लेकर, मीसा भारती जैसी “टॉपर” डाक्टरों की संख्या कोई 210900 के आस-पास है। यानि आवादी:डाक्टरों का अनुपात क्या हैं, आप गणित निकालें। श्रीमती मीसा भारती की डाक्टरी उतना ही चर्चित है, जितना प्रदेश के वर्तमान मुख्य मंत्री श्री नीतीश कुमार का क्रिया-कलाप, जहाँ तक कोरोना-वायरस के संक्रमण के रोकथाम का सवाल है। भारती 1993 में टिस्को कोटा के तहत महात्मा गांधी मेमोरियल मेडिकल कॉलेज, जमशेदपुर में एमबीबीएस कोर्स में दाखिला ली थीं और फिर पटना से एमबीबीएस की परीक्षा में टॉप की थी।

इनको तो पहचानते ही होंगे? ये हैं पहले ही हार स्वीकार करने वाले नितीश कुमार। बिहार के मुख्य मंत्री हैं। बीजेपी के  बैशाखी पर चल रहे हैं।  गलत बात मत कीजिए : हम अपने सामर्थभर बहुत कुछ कर रहे हैं। कल ही तो मास्क लगाकर, काळा शीशे वाली गाडी में बैठकर पटना की सड़कों को नापे थे। फिर लॉक-डाउन लगा दिए।  और क्या चाहिए। …….”

विगत दिनों नितीश कुमार चुनावी-कुस्ती लड़ने के पहले ही ‘हार’ मान लिए और भारतीय जनता पार्टी के आला-कमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से ‘गुफ्तगू’ कर प्रदेश सरकार में ‘एफ़डीआई’ करा दिए। इस बात पर रजामंदी दिखा दिए कि ‘आप (बीजेपी) चाहे जितनी भी सीट जीते, मुख्य मंत्री वही बनेंगे, उनके नीचे भले सोसलिस्ट, कम्युनिस्ट, जर्नलिस्ट, फासिस्ट जो भी रहें। 

ऐसा ही हुआ। उनके नीचे जितने भी लोग-बाग़ हैं वे वैसे ही हैं जैसे श्रीमती मीसा भारती का डाक्टर होना – यानि उनके सामने प्रदेश के लोगबाग तड़प-तड़प कर मृत्यु को प्राप्त करते रहें और उन्हें कोई फर्क ना पड़े। त्रादसी के इस क्षण में प्रदेश में चिकित्सा की क्या स्थिति है, चिकित्सालयों में उपकरणों, सामग्रियों, दवाईयों, यहाँ तक कि सांस लेने के लिए ऑक्सीजन सिलिंडरों की क्या स्थिति है, यह आप बेहतर जानते हैं। पटना की एक प्रसिद्द लेखिका और समाज-सेविका श्रीमती अनीता गौतम जी कहती हैं: “आपदा का मतलब अचानक आने वाली मुसीबत ही नहीं होती, भविष्य को लेकर सजगता भी होती है। पूरा एक साल किसी भी तरह की तैयारी के लिए कम नहीं होता। आखिर कब तक रोना रोयेगी सरकार इंफ़्रा स्ट्रक्चर का। बिहार में बंद पड़े सरकारी विद्यालयों के कमरों में कोरोना अस्पताल खोले जा सकते थे।

आज पटना की हर गली, हर मोहल्ला, कर चौराहा शांत है। कब किस गली से, किस घर से रुदाली शुरू हो जाय, किसी को पता नहीं है। शासन से शासक तक, प्रशासन से प्रशासक तक, बौने-कद के चवन्नी-छाप नेताओं से लेकर स्वीस-बैंकों में जनता की पैसों को लूटकर रखने वाले आदमकद के नेताओं तक, भले शरीर’ से जीवित हों, उनकी आत्माएं ‘चुनावोपरांत मर गई’ है। इसलिए आज शरीर से पार्थिव होते अपने मतदाताओं को देखकर, उनके परिवारों, परिजनों की रुदाली सुनकर भी आँखें नम नहीं होती। शहर में नेताओं की आखों पर रंग-बिरंगे चश्मे चढ़े हैं। कोई वातानुकुलित गाड़ियों में शहर का मुयायना कर रहा है तो कोई वातानुकूलित कक्ष में बैठकर बेविनार’ कर रहा है। 

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अशोक राज पथ। मगध के सम्राट अशोक के नाम पर है यह सड़क। अब सुन रहे हैं किसी और के नाम पर नामकरण होना है। तस्वीर: राजीव कुमार @ राजन का है 

कुछ देर पहले पटना के कुछ पुराने, बहुत पुराने लोगों से बात कर रहा था। उनका कुशलक्षेम पूछ रहा था। सबों के गलों में ‘रुदन’ था। आवाज उतना प्रखर नहीं था, जो चाहिए था।  प्रत्येक पांच शब्द के बाद प्रदेश के मुख्य मंत्री नीतीश कुमार को, अन्य राजनीतिक पार्टियों के घुटने से लेकर आदमकद तक की नेताओं को इस करोना-संक्रमण काल में उनके रवैय्ये को लेकर गालिया रहे थे। स्वाभाविक भी है। एक मत की कीमत, मतों की गिनती के समय ही होता है। चुनाव-परिणाम के बाद बिहार में मतदाताओं की स्थिति ‘वेबिनार’ जैसी ही होती है। 

कई लोग जो प्रदेश को विगत सात-दशक से अधिक समय से जानते हैं, लोगों को पहचानते हैं, आश्चर्य चकित शब्दों में यह भी कह रहे थे कि आख़िर वह कौन सी परिस्थिति या कारण है जिसके कारण बिहार का वह महामानव, जो जीवन-पर्यन्त सामाजिक क्रांति लाने में विश्वास किया, एक्शन-सोसियोलॉजी को बिहार की गली-कुचियों से निकालकर, निखारकर अमेरिका-इंग्लॅण्ड और अन्य देशों में फैलाया; आज “इतना इनएक्टिव” कैसे हो गया? उनके प्रदेश के लोग बड़े, बूढ़े, औरत, मर्द, बच्चे तड़प-तड़प कर एक-एक सांस के लिए प्रशासन के सामने भीख मांग रहे हैं, दम तोड़ रहे हैं, फिर जीते-जी उस महामानव का आत्मा “पार्थिव” कैसे हो गया ? कुछ तो वजह है ?

सुलभ शौचालय जब प्रारम्भ हुआ था, यह तस्वीर 1970 का है। डॉ बिंदेश्वर पाठक है और सामने बैठे हैं बिहार के तत्कालीन महामानव सब। इस त्रादसी के समय डॉ पाठक की कमी महसूस कर रहे हैं ‘सांस से तड़पते लोग, बड़े-बुजुर्ग, वृद्ध, महिला, बच्चे, अनाथ सभी

पाटलिपुत्र कॉलोनी के एक वरिष्ठ नागरिक, जो सुलभ शौचालय को सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन बनते देखे हैं, संस्था के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक को ‘पद्मभूषण डॉ बिंदेश्वर पाठक’ होते देखे हैं, कहते हैं: “हम बिहार के लोगों को आज भी विश्वास नहीं हो रहा है कि जिस बिंदेश्वर पाठक ने बिहार के समाज में ही नहीं, भारत और विश्व के समाजों में एक सामाजिक क्रांति लाये, जिन्होंने ‘ऐक्शन सोसिओलोजी को वास्तिविक रूप से जीवंत किया, उसे गतिमान किया, चलने ही नहीं दौड़ने लायक बनाया; आज अपने ही प्रदेश के लोगों की सांस क्रमशः रुकते देख रहे हैं, जीवित शरीर को पार्थिव होते देख रहे हैं, परिवारों को टूटते-बिलखते देख रहे हैं, महिलाओं को विधवा होते देख रहे हैं, बच्चों को अनाथ होते देख रहे हैं; परन्तु ‘इनएक्टिव’ बने हुए हैं।”

वे आगे कहते हैं: “हम केदारनाथ-बद्रीनाथ को साक्षी मानकर कह सकते हैं कि डॉ बिंदेश्वर पाठक की मानसिकता देश-प्रदेश के राजनेताओं की मानसिकता जैसी नहीं है। वे दूसरों की आखों में अश्रु कभी नहीं देख सकते। अपनी सामर्थ्य भर वे आंसुओं को पोंछने का सामर्थ्य रखते हैं, बिना किसी इक्षा के, लाभ के। फिर, ऐसी कौन सी मज़बूरी है कि वे अपने शुभेक्षुओं की दर्द बांटने में असमर्थ हैं ? कुछ तो कारण है ? सामाजिक, राजनीतिक तो हो नहीं सकता।  

लोगों का मानना है कि सरकार तो एक निर्जीव संस्था है ही। नीतीश कुमार इस प्रदेश के 22 वें मुख्य मंत्री हैं।  लेकिन तकलीफ इस बात की है कि न केवल नितीश कुमार, बल्कि सभी राजनीतिक पार्टियों के छुटकन नेताओं से लेकर, बड़कन नेताओं तक, इस संस्था में “जान-फूंकने” में असमर्थ रहे। सबों ने इस प्रदेश की अस्मिता को लूटा। यही  कारण है कि आज प्रदेश की सड़कों पर, खेत-खलिहानों में, घरों के आंगनों में, दालानों पर, शमशानों में “मतदाताओं के पार्थिव शरीरों का विशाल अम्बार” एकत्रित हो रहा है। आश्चर्य की बात तो यह है कि उन सफेदपोश नेताओं के, अधिकारियों के गले से भोजन का निवाला कैसे नीचे उतर रहा है ?

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पटना विश्वविद्यालय के पूर्ववर्ती छात्र प्रदीप कुमार कहते हैं: “राजनेताओं को आत्मा से मृत होना कोई नयी बात नहीं है। बिहार प्रदेश में विगत 75 वर्षों में अनेकानेक ऐसे राजनेताओं का अभ्युदय हुआ, जो शरीर से सरकार की तरह ‘निर्जीव’ तो थे ही, आत्मा से भी ‘पार्थिव’ थे। लेकिन लोगों की आस्था, विश्वास कभी कमजोर नहीं हुई। प्रदेश की, प्रदेश के लोगों की, शिक्षा की, स्वास्थ की, ज्ञान-विज्ञान की, व्यापार-व्यवसाय की, उद्योग की स्थिति बेहतर होगी; यही सोचकर जीवित रहे, नेताओं को चुनते रहे, सरकार बनाते रहे।  लेकिन आज की स्थिति को देखकर स्वयं पर शर्म आती है। आज स्थिति ऐसी है कि कब सांस  रुक जाएगी, कह नहीं सकते। अस्पताल महज एक भवन बनकर रह गया है। चिकित्सा-व्यवस्था चकनाचुर हो गयी है। कुत्ते-बिल्ली-जानवर जैसे लोगों के साथ व्यवहार हो रहा है।  इस भयानक त्रादसी में भी लोगबाग मुनाफा के लिए, पैसे कमाने के लिए चोर-बाज़ार में ऑक्सीजन गैस बेच रहे हैं, उपकरण के अन्य साधन बेच रहे हैं, दवाईयां बेच रहे हैं और कोई देखने वाला नहीं है।”

पटना साहेब, जहाँ कभी सिखों के दसवें गुरु गुरु गोविंद सिंह का जन्म हुआ था, में रहने वाले मोहम्मद ज़ाकिर का कहते है: “आज समय ऐसा है कि लोगों के पार्थिव शरीर को ढंकने के लिए ‘कफ़न’ की कीमत भी बढाकर बेच रहे हैं लोग-बाग़ । पार्थिव शरीरों शमशान तक ले जाने के लिए कन्धों की किल्लत हो रही है। शमशान घाटों पर सरकार की ओर से, विभिन्न विभागों की ओर से जनाजों को सुपुर्दे ख़ाक करने के लिए, अग्नि को सुपुर्द करने के लिए अधिक कीमत वसूले जा रहे हैं।  लेकिन जो देखने वाला है, वह आँखों पर पट्टी लगा लिया है, काला चश्मा पहनकर काली शीशे वाली गाडी में बैठकर मुयायना करता है सड़कों पर। जबकि मौत गलियों में हो रही है, अस्पतालों में हो रही है, घरों में हो रही है।”

बिहार का ऑक्सीजन मैन गौरव राय – ऑक्सीजन सिलिण्डर के साथ तत्पर, हमेशा। अब तक 1500 से अधिक लोगों को सिलिण्डर प्राप्त कराये हैं

कोरोना-संक्रमण के इस त्रादसी के समय पटना में “ऑक्सीजन-मैन” ने नाम से विख्यात गौरब राय का कहना है: “अभी भी समय है नीतीश जी गांधी मैदान में १००० बेड का इंतज़ाम कर अस्थाई हॉस्पिटल बनवाये बहुतो की जान बच सकती है।” गौरब राय अभी तक 1525 लोगों को ऑक्सीजन सिलिंडर उपक्लब्ध करा पाए हैं, जिसमें कुछ मरीजों को छोड़कर, जो कुछ अन्य बिमारियों से भी ग्रसित थे, लगभग सबों के साँसों को बचाने में सफल रहे हैं। गौरब राय जुलाई 2020 में खुद कोरोनाग्रस्त हुए, अस्पतालों की जर्जर व्यवस्था में जिंदगी और मौत का संघर्ष कठिन लगने लगा तो घर पर ही ऑक्सीजन की व्य़वस्था कर विपरित परिस्थितियों में अपनी जान बचाई। इस  घटना के बाद उन्होंने अपनी पत्नी अरूणा भारद्वाज के साथ मिलकर ऑक्सीजन बैंक बनाकर जरूरतमंद लोगों की जान बचाई है। गौरव राय ने पटना के अलावा 21 जिलों में नेटवर्क का विस्तार कर लिया और कोरोना के गंभीर मरीजों के घर-घर फ्री में ऑक्सीजन पहुँचाया है। 

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पटना के एक वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र कुमार कहते हैं: आजादी के बाद सबसे अधिक ध्यान देश के नेतृत्व को तीन क्षेत्रों में देना चाहिए था। पहला शिक्षा: कहने की आवश्यकता नहीं की कितना ध्यान दिया गया। दूसरा स्वास्थ्य: कितना ध्यान दिया गया सच्चाई आज सब के सामने है। तीसरा सुरक्षा: भारत आजादी के समय से अभी तक पांच बड़ी लड़ाई लड़ चुका है लेकिन हम हथियारों के लिए आज भी दूसरे पर निर्भर हैं। जहां तक बिहार का प्रश्न है…कोरोना को लेकर आम जन और सरकार दोनों में भय का माहौल है। भय का आलम यह है कि राज्य सरकार लॉकडाउन का फैसला लेने में हद से ज्यादा देर कर चुकी। संसाधन और साहस दोनों का अभाव झलकता है। न तो दवा उपलब्ध है न हवा (ऑक्सीजन) उपलब्ध है और न चिकित्सक उपलब्ध है। पूरे प्रदेश को अब राम का ही एकमात्र अवलंब है। धरती के कलियुगी भगवान (नेता /चिकित्सक) दोनों आपदा में अवसर तलाश रहे हैं।

पटना के मूर्धन्य साहित्यकार अरविन्द अक्कू कहते हैं: “लोगों की अशिक्षा, अनभिज्ञता, अनादर और अन्य मानव-निर्मित उपेक्षाओं के कारण, कोरोना वायरस का संक्रमण आज महज बिहार की राजधानी पटना, या अन्य शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रदेश के गाँव-गाँव तक फ़ैल गया है। यह सर्वविदित है की बिहार में गाँव में रहने वालों लोगों के लिए ग्रामीण चिकित्सा उतनी दक्ष नहीं है जो इस संक्रमण को फैलने से रोक सके। सबसे बड़ी बात लोगों की बेबकूफी भी है, चाहे मतदाता हों अथवा नेता हो। इतना बिकराल स्थिति के वावजूद आज भी गाँव में विवाह, उपनयन या अन्य सामाजिक-धार्मिक क्रिया-कलापों पर लोगों की भीड़ लग रही है, जो संक्रमण के नजर से भयानक है। हमने तो अपने व्हाट्सअप के माध्यम से सैकड़ों, हज़ारों लोगों को ऐतिहात बरतने को कहा है, कह रहे हैं क्योंकि कोरोना न तो गरीब को देखता है, न ही धनाढ्य को, न ज्ञानी को और ना ही मुर्ख को।

श्रीमती अनीता गौतम जी कहती हैं: “कोरोना की वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिए सरकार को दूसरे देशों से सीखने की जरूरत है। बीमारी के अलावा अगर लोग गरीबी-भुखमरी से मरने लगे तो वह ज्यादा दुःखद है। ऐसे में केवल दाल-चना बाँटने की जगह, दूसरे देशों के जैसे लोगों के हाथ में डायरेक्ट -कैश बेनिफिट्स देने की जरूरत है। गरीब के हाथ में पैसे होंगे तब ही वो रेमडेसीवीर या ऑक्सीजन सिलिंडर जैसी जरूरी सुविधाएं अपने लिए उपलब्ध करवा पाएंगे। काम का सप्ताह और घंटे कोरोना को देखते हुए पहले से ही कम किये जाते तो आज न कोरोना बढ़ता और न ही पूर्ण लॉक्ड डाउन दुबारा लगाने की नौबत आती। खरीदारी के नाम  पर अनावश्यक भीड़ को कम रखा जाता।  लेकिन नहीं, सब कुछ पूर्ववत जैसे कोरोना जैसा कुछ था ही नहीं कभी।

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