‘जे है की से’ अब ‘लालाजी’ के साथ बिहार का राजनीतिक नब्ज, टेंटुआ पकड़ेंगे, कह रहे हैं ‘क्रान्ति’ लानी है बिहार में

बिहार की राजनीति - आएं एक दूकान खोलें 
बिहार की राजनीति - आएं एक दूकान खोलें 

सैंतीस दुनि चौहत्तर जोड़ आठ, यानि, सुनने में आ रहा है कि 82-वर्षीय यशवन्त सिन्हा साहेब, 74-वर्षीय देश के एकमात्र राजनीतिक थर्मामीटर के साथ मिल-जुलकर बॉलीवुड से पिछड़े राजनीति में दलित के नाम पर  ‘नेपोटिज्म’ का हिस्सा बने 37-वर्षीय चिराग पासवान के साथ बिहार के आगामी विधान सभा चुनाब में वर्तमान व्यवस्था को शिकस्त देने के लिए ‘प्रायोजित कार्यक्रम’ तैयार कर  रहे हैं; क्योंकि दिल्ली के 12-जनपथ में यह चर्चाएं आम हैं की “पप्पाजी !!! एक बार बिहार के मुख्यमंत्री का नेमप्लेट चाहिए, देखिये न!! माँझी से तो आप निमन ही हैं न !!! 

यादव, ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित, महादलित, कायस्थ, भूमिहार, राजपूत, कुर्मी, बनिया, सिख, जैन, बुद्धिस्ट, आदिवासी,  कुशवाहा, कोयरी, धानुख, मौर्य इत्यादि-इत्यादि जाति के मतदाताओं वाले राज्य बिहार में अब तक  23 ​मुण्डी वाले लोग (उनके बार-बार बनने/बैठने की संख्या अलग है) मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठे हैं। कुछ “थोपे” गए, कुछ “जबरदस्ती” बैठ गए, कुछ फिर बैठने के लिए चतुर्दिक झूठ-सच-झूठ का चक्रव्यूह रच रहे हैं। स्वाभाविक है, जिस कुर्सी पर बैठे-बैठे प्रकृति के नियमानुसार “वायु-त्याग” किये, आज प्रदेश “आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक-शैक्षिक-व्यावसायिक और नियोजन के दृष्टिकोण से पाईल्स रोग से कराह रहा है। कुल 25,921 दिनों के अपने-अपने कार्यकाल में मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों-सन्तरियों ने सोने जैसा इस प्रदेश को स्वहितों में नेश्तोनाबूद कर दिया है। बेचारी जनता !!

नीतीश कुमार, मुख्य मंत्री, बिहार  फोटो सौजन्य से  

सवाल यह है कि इन ”राजनीतिक पैरासाइट्स” में कैसे बदलाव लाया जाय। जब तक इन पैरासाईटों को प्रदेश की मुख्य धारा हटाकर दर-किनार नहीं किया जायेगा, प्रदेश में विकास की बात तो स्वप्न में भी नहीं सोचें यहाँ के लोग, मतदातागण। इतना ही नहीं, मतदाताओं को उन लोगों से भी सचेत रहना होगा जो जीवन भर प्रदेश की उथ्थान के लिए सोचे नहीं, प्रदेश के किसी भी एक व्यक्ति को विकास हेतु हाथ क्या, ऊँगली तक नहीं पकड़ने का सोचे – लेकिन जब सांस रुकने का समय आया तो प्रदेश वापस आकर “नेतागिरी” करने लगे – चाहे नेता हों या अधिकारी।

बिहार के लोग एक उदाहरण दें की बॉलीवुड के शत्रुघ्न सिन्हा का प्रदेश के विकास में क्या योगदान है? क्या वे बिहार के किसी कलाकार को मुम्बई में उठने/उभरने के लिए “पनाह” दिए? क्या वे अपने जीवन में कभी बिहार में शैक्षणिक विकास हेतु, रोजगार के विकास हेतु यहाँ के लोगों के लिए कुछ किये? मुझे तो नहीं लगता है, अगर आपको पता हो तो लिखें जरूर। 

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इसी तरह, बॉलीवुड के मनोज तिवारी, प्रकाश झा, इम्तियाज़ अली, शेखर सुमन, संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, सोनाक्षी सिन्हा इत्यादि महामानवों का क्या योगदान रहा है बिहार के विकास में?  आश्चर्य तो यह है कि बिहार के ‘अशिक्षित’ ही नहीं, ‘शिक्षितों का एक विशाल समूह, जो राजनेताओं द्वारा खींची गयी रेखाओं पर कदमताल करते हैं, वे भी “ताली” बजाते हैं। हाँ, ये महानुभाव गरीब-गुरबा और लोगों को ज्ञान मुफ्त में देते नहीं थकते।  

इसी सन्दर्भ में एक और दृष्टान्त लीजिये। आजकल एक और बिहारी नेता बिहार की राजनीति में “बिगुल” फूंकने के लिए बिहार-भ्रमण कर रहे हैं। जब तक सत्ता में रहे – बिहारियों को बीस-फर्लांग दूर रखे, बिहार के विकास के बारे में तो सपना में भी नहीं सोचिये। भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रह चुके हैं और जीवन का 82-बसंत देख चुके हैं,  वित्त मंत्री रह चुके हैं, लेकिन ” विकास के बारे में इनसे कुछ नहीं पूछें की इन्होने बिहार के लिए क्या किया? लेकिन आज भी “मोह-मुक्त” नहीं हो रहे हैं “सत्ता” से। नाम है – श्री यशवन्त सिन्हा। 

यशवंत सिन्हा, क्रांति लाना चाहते हैं बिहार में, जब मंत्री थे तब बिहार बारे में सोचे ही नहीं  – फोटो सौजन्य से  

कहते हैं “निपोटिज्म” राजनीति में बहुत है और इसका ज्वलंत उदाहरण है इनके पुत्र। नाम है जयन्त सिन्हा। अच्छे खासे व्यवसाय में थे, राजनीति में आ गए। सिविल एविएशन और फिनान्स विभागों के राज्य मंत्री भी रह चुके हैं। विगत दिनों किसी “कंट्रोवर्सी” में भी अखबार में छपे थे। अभी तक बिहार से मोह भंग नहीं हुआ है। दिल्ली में लोगबाग इन्हे भी “बिहारी” ही कहते हैं, जबकि अब झारखण्डी” हैं। लेकिन इनसे भी नहीं पूछें की ये अपने प्रदेश (अब तो झारखण्ड) के लिए, वहां के लोगों के लिए क्या किये? अगर विस्वास  हो तो संसदीय क्षेत्रों के साथ-साथ दिल्ली के लोगों से पूछकर देखिये, नाम लेते ही “नाक-भौं सिकुड़ने लगेंगे।” 

बड़े सिन्हा साहेब दो साल पूर्व बीजेपी को नमस्कार कर दिए थे। बीजेपी को अलविदा कहने के साथ ही यशवन्त सिन्हा ने साफ़ कर दिया कि मोदी-शाह-(जेटली)-राजनाथ-(सुषमा)-गडकरी-पीयूष-सीतारामन-प्रभु वग़ैरह की काली छाया में पल रहा भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है! वैसे यह कोई साधारण टिप्पणी नहीं थी। इसे ‘डेथ वारंट’ भी कह सकते हैं। (यह डेथ वारंट दो लोगों पर तक्षण पड़ा – एक अरुण जेटली और दूसरा, सुषमा स्वराज, दोनों “दिवंगत” हो गए ।” 

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इतना ही नहीं, यशवंत सिन्हा बिहार की राजनीति में फिर से सक्रिय होना चाहते हैं। एक नारा भी दिए हैं “यात्रा” के रूप में, ”बदलो बिहार-बनाओ बेहतर बिहार” – कहते हैं इस यात्रा के पहले चरण में ये सेन्ट्रल बिहार के कई जिलों के अलावा उत्तर बिहार के जिलों का भ्रमण करेंगे, लोगों के साथ सभा वगैरह करेंगे, वर्तमान स्थिति का जायजा लेंगे। इसका मुख्य कारण है “बिहार लोगों की सहिष्णुता” – लोगबाग “चुप” रहते हैं, “बुजुर्ग” हैं, बात सुन लेते हैं तो ये बिहार के लोगों को “ग्रान्टेड ले लिए”, ज्ञान देने लगे। अगर अपने ही कलेजे पर तीस सेकेण्ड हाथ रखकर ख़ुद से ये नेता लोग पूछें की उन्होंने अपने प्रदेश के लिए, लोगों के लिए, मतदाताओं के लिए, महिलाओं के लिए, रोजगार के लिए, शिक्षा के लिए क्या किये जब दिल्ली के “नार्थ ब्लॉक में कुर्सी तोड़ रहे थे ?” जबाब नहीं ढूंढ पाएंगे।   

राजनीतिक मौसम विभाग के थर्मामीटर  रामविलास पासवान। एक बार खुद या बेटा को बिहार के मुख्य मंत्री की कुर्सी  बैठे  देखना हैं, चाहे एक दिन  के लिए ही सही, नेमप्लेट में नाम लिखा हो

विगत दिनों प्रदेश के लोगों को कहते हैं “राजनीति का समय हैं क्योंकि बिहार में चुनाव आने वाले हैं सब लोग इसको आंदोलन में परिवर्तित करना ​हैं,” यह पराकाष्ठा है। अब लीजिये “जे है की से” राम विलास पासवान को। इन्हे राजनीतिक मौसम विभाग का थर्मामीटर कहा जाता है। आलोचना सबों की करते फिरेंगे चाहे पटना का गाँधी मैदान हो या दिल्ली का रामलीला मैदान। लेकिन जैसे ही “लाभ” देखेंगे, तुरन्ते “ढूक” जायेंगे, सपरिवार। सत्ता में बने रहने के लिए कुछ भी कर सकते हैं – कोई भी, किसी भी पार्टी का राजनीतिक विचारधारा बाधक नहीं बन सकता है। किसी पार्टी से हाथ मिला सकते हैं, किसी भी पार्टी से हाथ झटक सकते हैं, अपने और अपने परिवार, परिजनों के लिए, “दलितों के कल्याणार्थ।” 

पिछले वर्ष दिल के वाल्व में रिसाव हो गया था, लन्दन के ब्राम्पटन अस्पताल में सर्जरी कराये क्योंकि “बिहार में तो स्वास्थ सुविधा नीतीश कुमार बनाये ही नहीं। बिहार तो सिर्फ उनके लिए ‘मतदाताओं के लिए है, जो पांच साल पर उनके परिवार, परिजन, और उनके समर्थकों को संसद में भेज देते हैं। आखिर वे सभी “दलित नेता है न” – उन्हें क्या मतलब है दलितों से, उन्हें क्या परवाह है उनके बच्चों से, स्कुल गया या नहीं, खाना मिलता है या नहीं, तन ढंकने क्ले लिए वस्त्र है या नहीं ?

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नजदीकी लोगों का मानना है कि वे एक बार अपने प्रदेश में मुख्य मंत्री बनना चाहते हैं क्योंकि उनका साथी-संगत के सभी नेता लोग, यहाँ तक की जीतन मांझी भी; एक बार नहीं, दो बार, तीन बार मुख्य मन्त्री बन चुके हैं। देश की राजनीति की नब्ज और टेंटुआ दोनों पकड़ने में माहिर हैं। पहले तो अकेले थे, अब पुत्र चिराग पासवान भी पिता का कन्धा-से-कन्धा मिलाकर राजनीतिक व्यूहरचना बनाने का कार्य कर रहे हैं। चिराग पासवान बॉलीवुड में भी अपनी सुन्दरता को लेकर भविष्य आजमाए थे, लेकिन उन्हें कौन समझाए की जब तक बॉलीवुड में खान है तब तक  चिराग तले अँधेरा ही रहेगा। इसमें  चाहे लाख दंड-बैठकी  कर लें, प्रकाश झा भी कुछ नहीं कर सकते कर सकते।  

काहे, हमरा तेजस्वी  मुख्य मंत्री काहे नहीं बनेगा, बुरबक, उसे तो एक्सपीरिएंस भी है डिप्टी मुख्य मंत्री का !!!  

सम्भतः राम विलास पासवान एक अकेला “दलित नेता” हैं जो अपने साढ़े-चार दसक के राजनीतिक जीवन में छः प्रधान मंत्रियों के कैबिनेट में कैबिनेट मंत्री के पद को शोभायमान बनाया। उन्होंने प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह, एच डी देवगौडा, आई के गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह और मोदी की कैबिनेट में काम किया है और कभी भी किसी राजनीतिक विचारधारा को अपनी राजनीतिक जीवन के राह में नहीं आने दिया। नजदीकियों मानना है कि बिहार के तीन नेताओं – लालू यादव, सुशिल मोदी और नितीश कुमार – में राम विलास पासवान नितीश कुमार से अधिक करीब है। बारह-जनपथ में लोगबाग कहते हैं “पप्पाजी !!! एक बार बिहार के मुख्यमंत्री का नेमप्लेट चाहिए, देखिये न!! माँझी से तो आप निमन ही हैं!!!

बहरहाल, एक खबर के अनुसार, बिहार की राजनीति में जहां एक ओर पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने जनता दल यूनाइटेड में वापसी को लेकर भूमिका तैयार करना शुरू कर दिया है वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष को बिहार में ठिकाना लगाना चाहते हैं। सुनने  में आ रहा है कि नितीश कुमार आगामी विधानसभा चुनावों में लोक जनशक्ति पार्टी के साथ सीटों का बंटवारा नहीं करेंगे, चाहे जो हो  जाय . वजह: नितीश मानते हैं की बिहार में दलित नेताओं की किल्लत नहीं है।   (क्रमशः….) 

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