लल्लू यादव को ‘लल्लू’ शब्द से परहेज था, जबकि लल्लू बाबू फक्र करते थे अपने नाम पर 

लल्लू बाबू, यानी चंद्रशेखर सिंह ​और 'दी इण्डियन​ नेशन अख़बार के तत्कालीन संपादक दीनानाथ झा - दोनों दिवंगत आत्माओं को नमन ​

पटना / नई दिल्ली : नब्बे के दशक में जब लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने तो तत्कालीन पत्रकार जगत के लोग उन्हें अख़बारों के पन्नों में लल्लू यादव लिखने लगे। सुबह-सवेरे लाखों-लाख की संख्या में बिकने वाले अख़बारों के पहले पन्ने पर जब अपना नाम का अपभ्रसिंत रूप देखते थे तो वे “हथ्थे से कबर” जाते थे। पता लगाने लगते थे कि किसने लिखा है। उन दिनों पटना के अख़बारों में अधिकाशंतः पढ़े-लिखे, विचारवान, ऊँची जाति के पत्रकारों का जमघट था। लल्लू यादव का “हथ्थे से कबरना” स्वाभाविक भी था। जैसे जैसे बिहार में “लल्लू यादव” का प्रकरण और अध्याय बढ़ता गया, मजबूत होता गया, अख़बारों के पन्नों पर भी “लल्लू” शब्द में “ल्लू” शब्द निरस्त होता गया और “लालू प्रसाद यादव” हो गया । आगे कुछ और परिवर्तन हुआ – “यादव” शब्द भी “निरस्त” हो गया और लल्लू यादव ‘लालू प्रसाद यादव’ के रास्ते ‘लालू प्रसाद’ हो गए।

लेकिन, नब्बे के दशक से पूर्व, यानी आज़ादी के 36 वें वर्षगांठ से एक रात पहले, जब जमुई जिले के लल्लू बाबू अविभाजित बिहार (बिहार और झारखण्ड) के 16 वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए, तो उन्हें पटना ही नहीं, बिहार के किसी भी कोने से, गली से, मोहल्ले से, सड़क से प्रकाशित होने वाले किसी भी समाचार पत्र के पत्रकारों से शिकायत नहीं हुई थी, जब लोगों ने लिखा था ‘जमुई के लल्लू बाबू अब बिहार के मुख्यमंत्री बनेंगे’ – हाँ, एक व्यक्ति अंदर से अवश्य कुहके थे। लेकिन ‘प्रारब्ध’ को कौन टाल सकता है। 

आठवें विधान सभा में जून, 1980 से अगस्त, 1983 तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे डॉ जगन्नाथ मिश्र को जब कुर्सी से उतारा गया था, तब दिल्ली के आदेशानुसार जमुई वाले लल्लू बाबू यानी चंद्रशेखर सिंह 16 वें मुख्यमंत्री के रूप में प्रदेश का कमान संभाला। लल्लू बाबू 14 अगस्त, 1983 से 12 मार्च 1985 तक मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठे थे। 

बहरहाल, भारतीय रेल की दिल्ली-हावड़ा मेन लाइन पर जब पटना से लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर आगे हावड़ा की ओर बढ़ते हैं तो एक जगह आती है, मलयपुर, जिला जमुई लगता है। यहीं के एक बड़े जमींदार परिवार में चंद्रशेखर सिंह उर्फ लल्लू बाबू का जन्म हुआ था। आजादी मिलते वक्त 20-21 साल के लल्लू बाबू इकनॉमिक्स में एमए कर रहे थे। पिता को लगा, अंग्रेजों के जाने पर प्रशासन में पढ़े लिखों को सीधे एसडीएम और डिप्टी एसपी बनाया जा रहा है, चंद्रशेखर भी ऐसा ही करेगा। लेकिन उनका इरादा सियासत का था। 

1952 में पहले चुनाव हुए। इसके लिए नियम था, 25 साल उम्र जरूरी हो। चुनाव मार्च अप्रैल 1952 में हुए, मगर चंद्रशेखर 17 अगस्त 1952 को 25 साल के हो रहे थे। लेकिन तब नामांकन में वैसी सख्ती नहीं होती थी। साधारण सा प्रपत्र जिसमें बस जन्म का साल लिखना होता था। कोई सपोर्टिंग डॉक्युमेंट भी नहीं। नाम, जन्म का वर्ष, गांव-जिला, दो चार प्रस्तावक और पार्टी का सिंबल, बस काम हो गया। चंद्रशेखर का काम पहले ही चुनाव से बन गया। चकाई विधानसभा से विधायक बन वह पटना पहुंचे तो पाया, सबसे कम उम्र के माननीय बन गए हैं। सिलसिला चल निकला। अध्ययनशील चंद्रशेखर ने विधानसभा की बहसों में हिस्सा लिया तो वरिष्ठों का उन पर ध्यान गया। सत्तर के दशक से लाल बत्ती भी मिलने लगी। केदार, गफूर और जगन्नाथ मिश्र की सरकार में। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां मिलीं 1980 के एक चुनावी मुकाबले से। 

ये मुकाबला था महाराष्ट्र के समाजवादी नेता और बिहार के बांका से सांसद मधु लिमये से। ये वही मधु लिमये थे, जिन्होंने जनता पार्टी में जनसंघ वालों की दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठा बवाल काट दिया लिमये का तर्क था कि जनता पार्टी के नेता सांप्रदायिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में सक्रिय नहीं रह सकते। इस अड़ेबाजी के फेर में आगे चलकर पार्टी और सरकार, दोनों टूटे। लिमये की एक और पहचान थी – धारदार वक्ता, संसद में खड़े होते तो तर्कों और प्रमाणों से मंत्रियों की सियासी बलि ले लेते। 

ये भी पढ़े   एक तस्वीर जिसने कोसी वाले बाहुबली आनंद मोहन सिंह को 'विश्व पटल' पर ला दिया, चंद्रशेखर भी यही चाहते थे, लेकिन लालू नहीं 

80 के लोकसभा चुनाव में बांका लोकसभा सीट पर इन्हीं मधु लिमये का मुकाबला कांग्रेस (आई) यानी इंका के उम्मीदवार चंद्रशेखर सिंह से था। दोनों के बीच 1977 के लोकसभा चुनाव में भी मुकाबला हुआ था लेकिन तब बाजी जनता पार्टी के मधु लिमये के हाथ लगी थी। 1980 के चुनाव में दोनों की पार्टी बदल गई थी। 1977 में जनता पार्टी से चुनाव लड़े मधु लिमये इस बार चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में जनता पार्टी के टूटे धड़े जनता पार्टी (सेक्युलर) के उम्मीदवार बने, जबकि 1977 में कांग्रेस के उम्मीदवार रहे चंद्रशेखर सिंह इन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के टूटे धड़े कांग्रेस (ई) यानी इंका के उम्मीदवार बने। नतीजे आए तो विजेता के खांचे के आगे नाम लिखा था, चंद्रशेखर सिंह। 

चंद्रशेखर अनुभवी विधायक थे और बड़े विपक्षी नेता को हरा दिल्ली पहुंचे थे। इंदिरा ने इसका ख्याल रखा और उन्हें मंत्रिपरिषद में स्थान दिया।  पटना में राज्य मंत्रिपरिषद चला रहे थे जगन्नाथ मिश्र। तीन साल के अंदर गुटबाजी,विवादास्पद प्रेस बिल, बॉबी हत्याकांड, को-ऑपरेटिव की कथित धांधली, मिनरल पॉलिसी का विरोध। इन सब सुर्खियों के बाद पार्टी के ताकतवर महासचिव राजीव गांधी ने तय किया। भ्रष्ट छवि वाले मुख्यमंत्रियों को विदा किया जाए। महाराष्ट्र के एआर अंतुले, कर्नाटक के गुंडूराव और बिहार के जगन्नाथ की विदाई हो गई। अगस्त के पहले हफ्ते में जगन्नाथ मिश्र का इस्तीफा हो गया। और शुरू हो गई नए मुख्यमंत्री की खोज। 

इंका आलाकमान ने दो पर्यवेक्षकों (वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी और ‘बक्सावाले’ अरुण नेहरू) को पटना भेजा। एक-एक कर विधायकों की राय ली गई लेकिन कोई सहमति बनती दिखी नहीं। कई लोग दावेदार हो गए थे। इंका कोषाध्यक्ष सीताराम केसरी, इंदिरा कैबिनेट में शहरी विकास मंत्री भीष्म नारायण सिंह का नाम जोर शोर से चल रहा था। ऐसे में पर्यवेक्षकों को दिल्ली से फोन पर संदेश मिला, मैराथन बैठकें होने लगीं और एक हफ्ते में सहमति बन गई। 13 अगस्त 1983 को प्रणव मुखर्जी ने चंद्रशेखर सिंह को इंका विधायक दल का नेता चुने जाने की घोषणा की। इस घोषणा में कंसेंसस शब्द पर बहुत जोर था। इससे पहले विधायक दल की बैठक में जगन्नाथ मिश्र से ही चंद्रशेखर सिंह के नाम का प्रस्ताव रखवाया गया जबकि उनकी सरकार के शिक्षा मंत्री करमचंद भगत ने प्रस्ताव का समर्थन किया। राजीव ने जगन्नाथ के पूरी तरह पर कतरने का फैसला किया था। इसलिए अगले रोज जब चंद्रशेखर ने कैबिनेट समेत शपथ ली तो जगन्नाथ खेमे के लोगों का खेत खलिहान लुटा नजर आया। 

चंद्रशेखर कैबिनेट में बड़े नेताओं के सगे-संबंधियों की भरमार थी। बिहार के पहले मुख्यमंत्री रहे श्रीकृष्ण सिंह के बेटे बंदीशंकर सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री विनोदानंद झा के बेटे कृष्णानंद झा, केन्द्रीय मंत्री भीष्म नारायण सिंह के समधी ब्रजकिशोर सिंह जैसे लोग मंत्री बना दिए गए। रघुनाथ झा जैसे जगन्नाथ मिश्र समर्थक गायब कर दिए गए। एक दिलचस्प बात और जान लीजिए। पहली बार के विधायक जीतन राम मांझी भी इस सरकार में पहली दफा राज्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनने के बाद चंद्रशेखर सिंह ने बांका की सीट पर विधायकी का उपचुनाव जीतकर विधानसभा भी पहुंच गए। लेकिन चर्चे हुए उनके कहीं भी बिना लाल बत्ती की गाड़ी के पहुंच जाने के। ताकि जमीनी हकीकत से वाकिफ रहें। फिर मौके से ही प्रशासनिक अमले को खुराक दी जाती। चंद्रशेखर सिंह ने यूनिवर्सिटी प्रशासन को भी दुरुस्त किया। इन्हीं सब वजहों से उन्हें धोती कुर्ते वाला आईएएस कहा जाने लगा। इंका महासचिव राजीव गांधी को भी इसी तरह के लोग पसंद आते थे। यानी फिलहाल के लिए कुर्सी सुरक्षित थी। लेकिन इसी फिलहाल के दौरान जगन्नाथ भी एक्टिव थे। 

ये भी पढ़े   बुद्ध का विपरण और बोधगया की सड़कों पर पेट-पीठ एक हुए रोता, बिलखता भिखारी😢

चंद्रशेखर सिंह ने कार्यकाल के शुरू से ही बिहार कांग्रेस में जगन्नाथ मिश्र के विरोधियों को तवज्जो दी। नागेन्द्र झा (जिनके बेटे मदन मोहन झा अभी बिहार प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं), ललितेश्वर प्रसाद शाही, शिवचंद्र झा जैसे लोगों की धाक जमने लगी। इसके बाद प्रदेश इंका अध्यक्ष रामशरण प्रसाद सिंह ने चुन-चुन कर जगन्नाथ मिश्र समर्थक जिला अध्यक्षों की भी छुट्टी कर दी। फिर दबी छुपी खबर आई कि जिस बंगले में जगन्नाथ मिश्र जनता दरबार लगाते थे, वहां हड्डियां मिलीं।जगन्नाथ समर्थक अब मुखर हो गए। मुख्यमंत्री के खिलाफ साजिश करने के आरोप लगने लगे। खुद जगन्नाथ भाषा कार्ड खेलने में जुट गए। उन्होंने मैथिल अखबार निकाला और इस भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का राग भी अलावा। चंद्रशेखर ने इसके काउंटर में राजपूत कार्ड खेला और आरा जाकर वीर कुंवर सिंह के नाम पर यूनिवर्सिटी बनाने का ऐलान कर दिया। लोगों ने कहा कि अधिकारियों की नियुक्ति में भी राजपूतवाद हावी हो गया। 

ये सब खबरें 24 अकबर रोड पहुंच रही थीं। राजीव ने फौरन बिहार मामलों की निगरानी के लिए तीन सदस्यों (जी के मूपनार, चंदूलाल चंद्राकर और सी एम स्टीफन) की कमेटी बनाई। फिर केसी पंत को पटना भेजकर दोनों गुटों को एक मेज पर बैठाया गया और कुछ वक्त के लिए दिखावे की एकता कायम हो गई। इसी बीच 31 अक्टूबर 1984 को इन्दिरा गांधी की हत्या हो गई और राजीव प्रधानमंत्री बन गए। पूरे देश में सिख विरोधी दंगे भड़के। बिहार के पटना, जमशेदपुर, धनबाद समेत कई शहर चपेट में आए। फिर लोकसभा चुनाव हुए तो इंका को बड़ी सफलता मिली। 54 में से 48 सीटें। मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह की पत्नी मनोरमा सिंह भी बांका से सांसद हो गईं। कुछ ही महीनों बाद विधानसभा चुनाव थे। लेकिन उसके पहले संगठन में एक नियुक्ति की गई और यहीं से खेल पलट गया। 

फरवरी-मार्च 1985 में बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ। इसके पहले राजीव गांधी ने धनबाद के मजदूर नेता और नसबंदी के दौर में बिहार के स्वास्थ्य मंत्री रहे बिंदेश्वरी दुबे को इंका का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। दुबे को इसलिए लाया गया ताकि जगन्नाथ मिश्र और चंद्रशेखर सिंह का विवाद चुनावों को प्रभावित न कर सके। बिंदेश्वरी दुबे किसी गुट के नेता नहीं थे। लेकिन जब चुनाव के लिए टिकटों का बंटवारा शुरू हुआ तब जगन्नाथ मिश्र समर्थक 22 लोगों का टिकट काट दिया गया। इनमें रघुनाथ झा और सदानंद सिंह भी शामिल थे। रघुनाथ जगन्नाथ के लिए लॉबीइंग के चक्कर में रह गए। हालांकि चुनाव उन्होंने लड़ा, जनता पार्टी के टिकट पर। शिवहर से और जीते भी। विधानसभा अध्यक्ष राधानंदन झा बॉबी हत्याकांड के चलते निपटे।  लेकिन लोगों को अचरज भीष्म नारायण सिंह के समधी ब्रजकिशोर सिंह के टिकट कटने पर हुआ, वो चंद्रशेखर सिंह के समर्थक माने जाते थे। 

ब्रजकिशोर सिंह पूर्वी चंपारण की मधुबन सीट से विधायक थे। चंद्रशेखर सिंह की सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी थे। वह 2 वजहों से विवादों में आ गए। पहली वजह : पूर्वी चंपारण के डीएम राजकुमार सिंह (वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार में ऊर्जा मंत्री) ने अवैध अतिक्रमण हटाने के क्रम में मोतीहारी में ब्रजकिशोर सिंह के घर की बाउंड्री वॉल को गिराया। मंत्री जी ने इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और आरके सिंह का ट्रांसफर हो गया। मगर ऊपर बात नोट कर ली गई। दूसरी वजह : 1984 के लोकसभा चुनाव में शिवहर लोकसभा सीट पर इंका कैंडिडेट रामदुलारी सिन्हा से भितरघात का इल्जाम। ब्रजकिशोर की एक कठित चिट्ठी वायरल हुई, उनकी अपनी हैंड राइटिंग में। इसमें वो समर्थकों से रामदुलारी के मुकाबले जनता पार्टी उम्मीदवार हरिकिशोर सिंह को तरजीह देने की बात कर रहे थे। इस चिट्ठी की एक प्रति राजीव गांधी तक पहुंच गई। उलटी गिनती यहीं से शुरू हो गई। 

ये भी पढ़े   प्रतिद्वंदी रहे 'मायावती' व 'अखिलेश', भ्रष्टाचारी यादव सिंह की मदद में !!

अब 1985 के विधानसभा चुनाव पर लौटते हैं। इंका ने 324 सदस्यीय बिहार विधानसभा में 198 सीटें जीतीं। मगर चंद्रशेखर सिंह खुश नहीं दिख रहे थे। उन्हें दिल्ली में बैठे मित्रों से कुछ और ही संकेत मिल रहे थे। फिर पटना पहुंचे केंद्रीय रेल मंत्री और हरियाणा के नेता बंसीलाल। उन्होंने विधायकों से एक एक कर मुलाकात की। फिर राजीव को फोन पर बताया – मान्यवर, चंद्रशेखर के पक्ष में 30 जबकि विपक्ष में 100 से ज्यादा विधायक हैं। बाकी कह रहे हैं, जो आप तय करें। राजीव तो पहले ही तय करे बैठे थे, उन्होंने बंसीलाल को बिंदेश्वरी दुबे के नाम का ऐलान करने को कह दिया। और इस तरह चुनाव जीतकर भी सत्ता गंवाने वाले चंद्रशेखर सिंह बिहार के इकलौते मुख्यमंत्री बन गए। ठाकुरवाद और भ्रष्टाचार के आरोप चुनावी सफलता पर भारी पड़े। 

मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद राजीव गांधी ने चंद्रशेखर सिंह को अपनी कैबिनेट में एडजस्ट करने की योजना बनाई। चंद्रशेखर सिंह की पत्नी मनोरमा सिंह ने बांका की लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। 1985 के आखिर में उपचुनाव तय हुए। और आ गया कहानी में ट्विस्ट। 1984 में बिहार की मुजफ्फरपुर छोड़ बेंगलुरु सीट से लड़े और हारे जनता पार्टी के फायरब्रैंड नेता जॉर्ज फर्नांडिस बांका आ गए। जोरदार मुकाबला और दोनों तरफ से गड़बड़ी। जनसत्ता अखबार के लिए चुनाव कवर कर रहे थे सुरेंद्र किशोर। उनकी खबर का शीर्षक था, दो तरफा धांधली। चंद्रशेखर सिंह के लिए प्रशासनिक अमला लगा था तो जॉर्ज के लिए धनबाद के बाहुबली सूर्यदेव सिंह छपाई कर रहे थे। आखिर में सरकार भारी पड़ी। चंद्रशेखर सांसद और फिर मंत्री हो गए। पहले राज्य मंत्री और फिर पेट्रोलियम का कैबिनेट प्रभार। इस बीच उन्हें कैंसर हो गया। एम्स में इलाज शुरू हुआ और यहां 9 जुलाई 1986 को उनका निधन हो गया। 

बांका में फिर उपचुनाव हुआ। इंका की तरफ से चंद्रशेखर की पत्नी और पूर्व सांसद मनोरमा सिंह। जनता पार्टी से एक बार फिर जॉर्ज को लाया। मनोरमा जीत गईं। लेकिन 1989 में उन्हें जनता दल के टिकट पर लड़ रहे वीपी सिंह के समधी प्रताप सिंह ने हरा दिया। चंद्रशेखर की राजनीतिक विरासत यहीं पर थमी। उनके बेटे विधुशंकर सिंह I.R.S. अधिकारी हैं और दिल्ली में रहते हैं जबकि बेटी कंचन सिंह अपने परिवार के साथ जमशेदपुर में रहती हैं।

(‘लल्लनटॉप.कॉम के ‘पोलिटिकल किस्से’ के सहयोग से) 

(तस्वीर में : बिहार के 16 वें मुख्यमंत्री का शपथ लेने के बाद लल्लू बाबू, यानी चंद्रशेखर सिंह ‘आर्यावर्त’ और ‘दी इण्डियन नेशन’ अख़बार के दफ्तर पहुंचे। लल्लू बाबू ‘दी इण्डियन नेशन’ के तत्कालीन संपादक दीनानाथ झा को ह्रदय से चाहते थे, उनका बहुत सम्मान करते थे। वजह भी था दीनानाथ झा द्वारा शब्दों का निष्पक्ष चयन और संवाददाताओं को लिखने की स्वतंत्रता। दीनानाथ झा और लल्लू बाबू आमने सामने। बीच में दिख रहे हैं दी न्यूजपेपर्स एंड पब्लिकेशंस लिमटेड के सचिव कृष्णानंद झा )

2 COMMENTS

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here