काहे हमरा पीछे हाथ धो-कर पड़े हैं ? काम तो “उंगली” से ही चल सकता है 

तनि-मनि ग्राफ ऊपर-नीचे हुआ क्या आप तो हज़ारो शब्द लिख दिए।

बिहार की विधि-व्यवस्था हो रही ध्वस्त, सुशासन की जगह दीख रही कुशासन की झलक !

पटना : बिहार की कानून व्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुज़र रही है. साल 2017 में नीतीश कुमार ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर आरजेडी-कॉंग्रेस के साथ अपने गठबंधन को तोड़ते हुए इस्तीफ़ा दिया था और महज चन्द घंटों के बाद ही (भाजपा के विरुद्ध विधान सभा चुनाव लड़कर सत्ता पाने वाले) नीतीश अपने महागठबंधन को तोड़कर पुनः भाजपा के ही साथ मिलकर फिर से बिहार के मुख्य मंत्री बन गए थे. नीतीश के इस कदम की उस समय खूब आलोचना भी हुई थी और उन्हें अवसरवादी कहा गया था.

खैर, राजनीति में सत्ता पाने के हथकंडों में ये सब होता रहता है लेकिन, यही वह साल था जबसे बिहार में अपराध का ग्राफ़ बहुत तेजी से बढ़ने लगा और 2016 में बिहार में घटे कुल संज्ञेय अपराधों का जो आंकड़ा 189681 था वह 2017 में तेजी से ऊपर उठकर 236037 हो गया. साल 2018 में कुल संज्ञेय अपराधों की संख्या 262802 रही और 2019 में सितम्बर तक के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में साल 2019 के सितम्बर महीने तक कुल 205652 संज्ञेय अपराध हुए.

अब अगर हम 2019 के सितम्बर महीने तक हुए अपराधों का औसत निकालकर अगर पूरे साल की गणना का अनुमानित आकलन करें तो यह आंकड़ा करीब 274256 जा पहुंचेगा. सनद रहे कि ये सभी आंकड़े बिहार पुलिस द्वारा आधिकारिक रूप से जारी किये गए हैं.

इन आंकड़ों से स्पष्ट जाहिर होता है कि बिहार में न केवल संज्ञेय अपराध बड़ी तेजी से बढे हैं बल्कि इनके अलावा अन्य तरह के अपराधों में भी क्रमश: तेजी आई है. यही कारण है कि विगत तीन वर्षों (2017- सितम्बर 2019 तक) में बिहार में आपराधिक ग्राफ अप्रत्याशित रूप से तेजी के साथ बढ़ने के कारण यहाँ की विधि-व्यवस्था बुरी तरह नाकाम साबित हो रही है. अपराधियों के हौसले बुलंद होते जा रहे हैं और पुलिस पूरी कोशिश के बाद भी अपराधों पर लगाम नहीं कस पा रही है। सूबे के अन्य शहरों, कस्बों, गावों को छोड़िए, अकेले राजधानी पटना का ही यह आलम है कि यहां तीसरे दिन एक हत्या की घटना दर्ज हो रही है। सोचिए, राज्य के बाकी हिस्सों का क्या हाल होगा !

समझना होगा कि इसमें सरकार की नीति, पुलिस की कार्यशैली और उसकी कमजोरियां क्या दिखाती हैं! बिहार में नीतीश कुमार ने 01 अप्रैल 2016 को पूर्ण शराबबंदी की घोषणा की थी जो अपनेआप में सामाजिक सुधार का एक बड़ा निर्णय तो था लेकिन दुर्भाग्य से इसका नकारात्मक परिणाम यह निकला कि बिहार के बेरोजगार युवा दूसरे राज्यों से शराब की तस्करी करके उसे लोगों तक पहुँचाने लगे. हालत इतनी बुरी हो गयी कि बिहार के हर हिस्से से पुलिसकर्मियों की शराब तस्करी में संलिप्तता की खबरें सामने आने लगीं. यह मुहिम फेल होती देख राज्य सरकार ने पुलिस के हर वर्ग के अधिकारी को शराब तस्करों को पकड़ने का न्यूनतम लक्ष्य दे दिया जो उन्हें हर हाल में पूरा करना पड़ रहा है.

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इसका नतीजा यह हुआ कि पुलिस सूबे की विधि-व्यवस्था सम्हालने की अपनी मूल जिम्मेदारी से भटककर अब शराबबंदी को सफल दर्शाने के लिए शराब तस्करों, देसी भट्ठियों के विरुद्ध अपने न्यूनतम लक्ष्य को पूरा करने में ज्यादा व्यस्त हो गयी. पुलिस के ही सूत्रों का कहना है कि इसका एक और नुकसान यह हुआ कि पुलिस का अपना नेटवर्क भी इससे बहुत ज्यादा प्रभावित हुआ. जो मुखबिर पुलिस को अपराधों और अपराधियों की जानकारी दिया करते थे, उनमें से अधिकांश शराब तस्करी में लिप्त हो गए. नतीजतन अब अगर पुलिस का कोई जांच-अधिकारी उनसे संपर्क रखता है और उसके किसी सहकर्मी के माध्यम से यह खबर उसके ऊपर के अधिकारी तक पहुंचती है तो उक्त पुलिसकर्मी को शराब तस्करों का सहयोगी मानकर उनके ही विरुद्ध कार्रवाई हो जाने की आशंका ने पुलिस का मनोबल कमज़ोर कर दिया है. इसका सीधा असर किसी अपराध के होने के बाद पुलिस द्वारा अपने इन सूत्रों की मदद से अब जानकारियां न मिल पाने के कारण असफलता के रूप में सामने आने लगा है.

यह एक बड़ी वजह है जिसके फलस्वरूप आप देखेंगे कि शराबबंदी के साल यानि 2016 में कुल संज्ञेय अपराधों का जो मामला 189681 था, वह शराबबंदी के एक साल बाद 2017 में 236037 जा पहुंचा. ऊपर हर जगह वर्णित कुल संज्ञेय अपराधों की संख्या के अलावा प्रदेश में हुए हत्या, डकैती, लूट, सेंधमारी, छिनतई, चोरी, अपहरण, बैंक डकैती और लूट जैसे अपराधों की संख्या का आंकड़ा इसके अतिरिक्त है. शराब तस्करी के अलावा बिहार में अब ड्रग्स और स्मैकिंग भी बड़ी बीमारी के तौर पर चुनौती बनकर सामने आ रहे हैं. स्कूल जाने वाले बच्चों समेत बड़ी संख्या में युवा पीढ़ी स्मैक की शिकार हो रही है. निम्न वर्ग और निम्न मध्यम वर्ग के युवाओं में ये लत ज्यादा तेजी से फ़ैल चुकी है. इसका नतीजा यह है कि स्मैक की कम से कम एक पुड़िया के लिए इन्हें करीब 250-300 रुपयों की रोजाना जरुरत पड़ती है, जिसके लिए ये युवा वर्ग चोरी, लूट, छिनतई जैसे काम कर रहा है.

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कई मामलों में तो इनके द्वारा हत्या की बात भी सामने आई है. सरकार की तरफ से स्मैक पर लगाम लगाने को लेकर कोई कठोर कदम अब तक नहीं उठाया गया है. यही वह वर्ग है जो क्रिकेट में आईपीएल और टी-20 जैसी प्रतियोगिता शुरू होने के बाद और जिओ के माध्यम से इंटरनेट न्यूनतम दर पर ला देने के बाद स्थानीय स्तर पर सट्टेबाजी में भी लिप्त है और आर्थिक रूप से अक्षम परिवारों से आने वाले ये अधिकांश युवा पैसों के लालच में सट्टेबाजी कर रहे हैं और सट्टा हारने के बाद तमाम किस्म में आपराधिक कृत्य करते हुए पैसे कमाने के लिए गलत रास्तों को चुन रहे हैं. इस मोर्चे पर भी पुलिस-प्रशासन और राज्य सरकार की नाकामी खुलकर सामने आ चुकी है.

इसके अलावा पुलिस बलों की कमी और अत्यधिक कार्यभार पुलिस को ही भोथरा बना रहा है। अपने दौर के तेज-तर्रार अफ़सर माने जाने वाले डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय मीडिया के मार्फ़त पूरे सूबे की जनता के लिए किसी अपराध की सूचना पर उनको खबर करने के लिए अपना नंबर तक सार्वजनिक कर चुके हैं लेकिन उनके कार्यालय के अधिकारी भी महज खानापूर्ति करते ही दिखाई देते हैं। सीएम नीतीश कुमार डीजीपी के मीडिया प्रेम को लेकर उन्हें सांकेतिक रूप से चेतावनी भी दे चुके हैं।

ऊपर लिखे ये तमाम कारण यह साबित करते हैं कि आखिर क्यों बिहार की कानून व्यवस्था विगत तीन वर्षों में इतनी बदहाल हो गयी है कि अब इसे सुशासन कहने की जगह जगह कुशासन कहना ज्यादा मुफ़ीद लगने लगा है. विपक्षी दल तो एक कदम और आगे बढ़कर इसे जंगलराज कहने लगे हैं. बिहार सरकार और सूबे की पुलिस अगर अब भी न जागी तो आने वाले समय में बिहार की स्थिति भयावह हो सकती है.

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