इट सिम्स ‘शराब इज नॉट इंजूरियस फॉर इकोनॉमिक एंड सोसल हेल्थ ऑफ़ दि नेशन, इन्क्लुडिंग बिहार’, नितीश बाबू

मुख्य मंत्री नितीश कुमार 
मुख्य मंत्री नितीश कुमार 

विस्वस्त सूत्रों के अनुसार बिहार वाले मुख्य मंत्री नितीश कुमार को चतुर्दिक विचारवान लोग यह “सलाह” दे रहे हैं कि प्रदेश के आर्थिक-सामाजिक-बौद्धिक-राजनीतिक-शैक्षिक विकास के लिए “अर्थ जुटाने” के लिए प्रदेश को “शराब-मुक्त प्रदेश के बंधन से मुक्त कर दिया जाय। 

एक सूत्र के अनुसार: ​”शराब इज ​नॉट ​इंजूरियस फॉर इकोनॉमिक एंड सोसल हेल्थ ऑफ़ बिहार”​  ​नितीश जी, यह तो पूरे भारत के लिए पोस्ट-कोरोना टॉनिक समझा जाय क्योंकि सरकार, चाहे बिहार की हो या अन्य प्रदेशों की – अब तो  बेड़ा पार कर सकता है।  ​​ 

उनका कहना है कि इससे न केवल मतदातागण और प्रदेश के संचालकों का “इम्मयूनिटी” बढ़ेगा और विश्वव्यापी कोरोना वायरस से लड़ने में, उबरने में सहयोगी होगा और प्रदेश को “विकास के ट्रेक” पर लाया जा सकेगा । 

चार साल पहले कुछ ऐसे ही सलाह पर मुख्य मंत्री नितीश कुमार अपना पैर बचाते हुए, शराब के माध्यम से प्रदेश को मिलने वाली कोई 4000 करोड़ की आमदनी पर “कुल्हाड़ी” मार दिए थे। उस समय, यानि 2016-17 ​के बजट में यह स्पष्ट हो गया था की नितीश बाबू के निर्णय से बिहार के ख़जाने में प्रति-वर्ष 4000 करोड़ की हानि होगी क्योंकि नितीश बाबू “शराब बंद” करने की घोषणा कर दिए। इसमें वैट था, टैक्स था और अन्य कमाई के रास्ते थे।

​मगध सम्राट अपनी छवि को गोलघर की ऊंचाई ​तक बनाये रखने के लिए ताली बजवाते गए की “उन्हें सरकार की आमदनी के नाम पर प्रदेश के लोगों को, विशेषकर महिलाओं को,बच्चों को, मानसिक-आर्थिक शोषण नहीं होने देंगे। उनका प्रदेश, यानि बिहार “शराब-मुक्त प्रदेश होगा” – उन्हें शराब से प्रदेश को मिलने वाली राशि नहीं चाहिए।​ यानि, “शराब इज इंजूरियस फॉर इकोनॉमिक एंड सोसल हेल्थ ऑफ़ बिहार”​ बन गया। 

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​अब उन्हें कौन समझाए की शराब को शराब नहीं कहें हुकुम। यह सभी मादक वस्तुएं महादेव का प्रसाद है हुज़ूर और महादेव को भी आप राजनेताओं ने बंटवारा का शिकार बना दिए नहीं तो “देवघर” कभी “झारखण्ड” प्रदेश का जिला होता हुज़ूर। 

​लेकिन विगत 1460 दिनों में जिन महिलाओं-बच्चों और वोट के ख़ातिर नितीश कुमार ऐसा कठोर निर्णय लिए, लगता है प्रदेश की सम्मानित महिलाओं की दुआएं ​काम नहीं किया। 

​क्योंकि उनके ही सरकार का दस्तावेज इस बात का गवाह है कि शराब तो “दुधारू गाय” है और अगर ऐसा नहीं होता तो विगत दस वर्षों में,​ ​”लिबरल लिकर पालिसी” के तहत देशी-विदेशी यानि देशी ठर्रा से लेकर विदेशी नाम वाले 6000 से अधिक “ठेका” “ठेकेदारों” को कैसे मिलता​ ​?

​यह अलग बात है “इन 6000 ठेकों में 70-80 फीसदी ठेकों का मालिक ‘अप्रत्यक्ष’ रूप से प्रदेश के नेतागण ही थे​, जो कोरोना वायरस के आड़ तले आर्थिक रूप से इतने कमजोर हो गए हैं की प्रदेश की सरकार पर दवाव डाल रहे हैं – शराब-मुक्त बिहार नहीं – शराब से बाढ़ जैसा बिहार – बने तभी प्रदेश का विकास संभव है। 

​उनके बातों में दम भी है। ​प्रदेश का सरकारी आंकड़ा​ कहता है कि “जैसे ही लिबरल लिकर पालिसी” के तहत देशी-विदेशी 6000+ ठेका खोला गया, प्रदेश सरकार की ​”आधिकारिक ​कमाई​” ​2014 – 15 में जहाँ 319 करोड़ रुपये ​थी, जबरदस्त छलांग लगाकर 2015 – 2016 में 3605 करोड़ रूपया हो गया ।​ इतिहास गवाह है सम्राट चन्द्रगुप्त के शासन काल में भी “विकास का यह दर नहीं रहा होगा” ।

​परन्तु, दुःख इस बात का है कि प्रदेश के एक भी राजनेता पुरे प्रदेश में कहीं भी ​किताब-कॉपी-पेन्सिल-कलम की दूकान ​नहीं खोले अथवा मालिक हैं जिससे प्रदेश के 18-साल के बच्चों को शैक्षिक विकास के लिए जरुरत का सामान उपलब्ध होता हो। ध्यान रखियेगा – दूकान की बात कर रहा हूँ, विद्यालय-महाविद्यालय-विश्वविद्यालय चलाने वालों का नहीं क्योंकि वह तो अलग श्रेणी है – शिक्षा माफिया का ।

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​सूत्रों के अनुसार पोस्ट-कोरोना से उबरने के लिए तथा प्रदेश के जबरदस्त आर्थिक विकास की शुरुआत ​के लिए, सरकारी खजाना में लक्ष्मी के आगमन के लिए ताकि भविष्य में बिहार के लोगबाग कहीं दूसरे प्रदेश में फिर नहीं जायँ चाहे नौकरी के लिए, चाहे श्रमिक के रूप में, चाहे छात्र-छात्राओं के रूप में – अपने प्रदेश ​में शराब के ठेकों को पुनः ठेकेदारों को देने का सोच रहे हैं। 

सूत्रों का कहना है कि इस दिशा में “लगभग निर्णय हो चूका है” और देशज-विदेशज ठेकों की संख्या, जो पूर्व में (बंद होने के समय जितना था) 6000 था, को बढाकर अधिक भी किया जा सकता हैं। 

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