‘भौकाली’ से भरा न्यूज बुलेटिन और  15-साल से कोरोना ग्रसित भारतीय पत्रकारिता  – कोई शक ?

जईसन लिखेंगे - वईसने न बिकेगा। 
जईसन लिखेंगे - वईसने न बिकेगा। 

टीवी बंद है। दो महीने बीत गए। रिचार्ज नहीं कराया। पैसे की फिलहाल किल्लत नहीं, बल्कि यह सुकून की तलाश है। एक तो, स्क्रीन पर कोरोना की तबाही देखी नहीं जाती। और न ही देखा जाता, भौकाली से भरा न्यूज बुलेटिनों का रंगीन तमाशा। शाम तो नाक में ही दम कर देते हैं ये चैनल वाले।

भौकाल टाइट के नाम पर सारे तमाशे एक ही लकीर को पीटे चले जाते थे। इधर अगर कुछ बदला हो, तो जरुर बताईएगा। टीवी शो की खबर पूरी तरह से विविधता शून्य है। सबने कसम एक सी खा ली है। तमाशबीनों को बस मूर्ख बनाना है। अनेकता के मूलभूत सिद्धांत वाली पत्रकारिता का लेशमात्र अहसास नहीं होने देना। बुलेटिनों में पत्रकारिता नजर नहीं आती। बस दिमाग भोथरा हुआ चला जाता है।

सब भौकालियों का एक ही गुरुमंत्र है। “जनता वांट्स टू नो”। एक सा भाव है। गनीमत है। उनका शो है। वरना देश बचता ही नहीं। राष्ट्र मुश्किल में फंस जाता अगर उनका शो नहीं होता। उनका शो ही भारत का आधार है। वही वीर हैं। सीना ताने खड़े है। खुद नहीं राष्ट्र के खातिर केस-मुकदमे झेल रहे हैं। जरुरत पड़ी तो गोली भी खाने को तैयार हैं।

इसकी उलट दूसरी धारा है। वह भी समान प्रखर है। दावा है कि वो भौकालियों से बचाने की ताबीज बांट रहे है। ये ताबीज न बांटे, तो देश पर फासीवादियों का कब्जा हो जाए। जनता को उन्होंने ही दिमाग दिया है, जिससे तबाही रुकी है। समाज में समरता बची है। ये वाले भी उतने ही फर्जी है, जितने भौकाली। क्योंकि पत्रकारिता का सम्यक भाव दोनों जगह से गायब है।

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लद्दाख के लोग चीख चीखकर भौकालियों की पोल खोल रहे हैं। सोशल मीडिया पर फैले वीडियो क्लिपिंग्स हैं। कोई भी मीडिया अस्काई चीन नहीं गई। लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के बॉर्डर तक नहीं पहुंची। बस वहां होने के नाम पर दर्शकों के आंखों में धूल झोंक रहे हैं। इतनी खुली बेइमानी मीडिया की बची खुची साख पर बट्टा है। रिपोर्ट्स लद्दाख झील के किनारे से पीस टू कैम कर रहे हैं और खुद को वार जोन में होने का ढोल पीट रहे हैं।

चैनलों की रिपोर्टिंग और बुलेटिन दोनों में कंटेंट्स का नितांत अभाव है। मीडिया फर्जी दंभ भरने वाले मदारी भरी पड़ी है। यह बताने नहीं थक रहे कि विपक्ष भ्रष्टाचारी-चोर उच्चकों से अटी पड़ी है। सरकारी पक्ष को बिना विश्लेषण से पेश करना आम है। सत्तापक्ष को महान और विपक्ष की खिल्ली उड़ाने का काम धूम धड़ाके से चल रहा है।

भौकाली की शोर में अपनी कमजोरी को छिपाने का नायाब तरीका अपनाया है। वो बता रहे हैं कि शाम की बुलेटिन लेकर अगर वो नहीं आए, तो न जाने क्या से क्या हो जाए। उनके शो के बिना भूटान-नेपाल-बांग्लादेश-पाकिस्तान जैसे छोटे देश ही भारत का वजूद मिटा देंगे। हर शाम की बुलेटिन में ये सब बारी बारी से तो कभी साथ मिलकर हम पर चढे रहे हैं। खैर चीन तो बड़ा देश है, वहां से उनके स्टूडियो का प्लाज्मा आता है। छोटे बड़े तमाम टूल्स आते हैं। इसे वह चुपचाप से छिपा जाते हैं।

पत्रकारिता की दशा पढकर कोरोना का इलाज ढूंढा सकता है। कोरोना संक्रमण में इंसान से फासला बना लेने की सबक है, तो पत्रकारिता वाली महामारी में बॉस से निकटता गांठ लेना ही परम सबक है। पत्रकारिता का बॉस बिजनेस के नाम पर मालिक के इशारे पर नाचता है। ठुमके लगाता-लगवाता है।

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बॉस होने की पात्रता में पत्रकारिता के लक्षण शून्य और मैनेजरियल स्कील ही सर्वोपरि है। बॉस में पत्रकारिता के प्रति मोह जितना ही खत्म होगा, वह उतना ही अव्वल दर्जे का संपादक होगा। पत्रकारिता की नौकरी में पत्रकार नहीं इंप्लॉई बचे हैं। जो इंप्लॉई बॉस के जितने करीब उसकी जिंदगी उतनी ही सुरक्षित। उसकी प्रोन्नति की उतनी ही ज्यादा गारंटी।

टीवी पत्रकारिता में बॉस के तलवे चाटने से इंकार करने, भाई भतीजावाद और चाटुकारिता में फिट नहीं बैठने वाले को झटके में निकालने की प्रथा है। जिनका झटके से कत्ल नहीं होता, उनको निर्ममता से हलाली का शिकार बनाया जाता है। संस्थानों के अंदर के संक्रमण से हालत विकट कर हॉस्पीटल पहुंचा देना आम बात है। सांस फूलने की हालत पहुंचा देना। ऑक्सीजन की जरुरत बढे, तो वेंटिलेटर हटा लेना। यह खेल पत्रकारिता में बीते डेढ दशक से चल रहा है। शायद ही कोई नामी संस्थान इससे बचा पड़ा है।

मीडिया की हालत पतली है। दुनिया कोरोना काल में आज फंसी हैं। पत्रकारिता पंद्रह सालों से कोरोना जैसी ही किसी लाइलाज महामारी से धंसी है। पत्रकारिता में इस लाइलाज संक्रमण से हुई मौत की कहीं कोई रिपोर्ट नहीं। कहीं सुनवाई नहीं। कोई आयोग नहीं। कोई खबर नहीं। संक्रमण की चपेट में आने वाले, नौकरी गंवाने, मर खप जाने वालों का जिक्र बस परिजनों के बीच दबकर रह जाता है। यही कारण है कि लाइलाज संक्रमण ने पत्रकारिता को डसकर लगभग मरणासन्न कर दिया है।

मरणासन्न टीवी पत्रकारिता में आज जो नजर आ रहा है। उसकी दो धाराएं हैं। एक, भौकाली है। दूजा, भौकालों से बचाने की ताबीज बांटने वालों की छोटी जमात है। दोनों विविधता और अनेकता की राह से मुंह मोड़कर अपनी धुन में मस्त हैं। एक ही राग गाए जा रहे हैं। ढोल बजाए जा रहे हैं।

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तमाशबीनों को बुलाने के लिए भौकाली चीखता है, तो भौकाली से बचाने के लिए दूसरी जमात ताबीज बांटने वालों का है। यह उसी रफ्तार से शब्दों को चबा चबाकर बोलते हैं, विपक्ष के साथ खड़े नजर आते हैं। अक्सर अधूरे सच की पोटली खोल खुद को बेचते नजर आते हैं।

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