बिहार में महिलाएं जब लिखेंगी, बोलेंगी तो दरीचों को खोलने जैसा होगा, परन्तु चाहती ही नहीं हैं कि वे अपने प्रदेश में अपनी आवाज ख़ुद बनें 

यह कलम बिहार की महिलाओं को समर्पित है जिनकी प्रदेश की पत्रकारिता में भागीदारी
यह कलम बिहार की महिलाओं को समर्पित है जिनकी प्रदेश की पत्रकारिता में भागीदारी "नगण्य" है। अतः अगर आपकी योग्यता आपकी पहचान है, यह आप मानती हैं तो अपनी-अपनी आवाज से, लेखनी से उस पहचान को आगाज़ दें  - बिहार की पत्रकारिता जगत में अपना-अपना पैर जमाएं और हुमच कर लिखें, सच लिखें, निर्भीक होकर लिखें नहीं तो आज नितीश कुमार प्रदेश की महिलाओं की अशिक्षा का मज़ाक उड़ाए - महिलाओं की साक्षरता- दर पुरुषों की तुलना में 20 फीसदी कम है - कल कोई और आएंगे . इसलिए इतना लिखें की बिहार के सभी 38 जिलाओं, 101 अनुमंडलों और 534 ब्लॉकों के पुरुष तिलमिला उठें। 

“जब भी मैं सुवह वाली शिफ्ट के लिए 4:30 बजे निकलती हूँ या शाम वाली शिफ्ट के बाद रात 12:00 तक घर पहुँचती हूँ, तो घर के अगल – बगल के लोग शंका की नजर से देखते हैं”  –  हम अगले महीने आज़ादी का 73 वां वर्षगाँठ मनाने जा रहे हैं और देश के प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं: “सोच बदलो – देश बदलेगा” ।

आप माने अथवा नहीं, आज भी हम बिहार के लोग पाषाण-युग में जी रहे हैं, जहाँ तक महिलाओं के प्रति मानसिक का सवाल है और शायद यही कारण है कि आज 51+ फ़ीसदी साक्षरता होने पर भी महिलाएं अपनी ही आवाज नहीं बन पायीं । अगर आपकी योग्यता आपकी पहचान है तो अपनी-अपनी आवाज से, लेखनी से उस पहचान को आगाज़ दें  – प्रदेश की पत्रकारिता जगत में अपना-अपना पैर जमाएं – हुमच के लिखें।  

बिडंबना यह है कि बिहार प्रदेश में महिलाओं की संख्या कोई  49,821,295+ है और तक़रीबन  20,896,530 महिलाएं “शिक्षित” हैं – लेकिन प्रदेश की पत्रकारिता में, अपनी और महिला-समाज की आवाज़ के रूप में शायद 50 “शिक्षित महिलाएं भी नहीं होंगी जो प्रदेश की पत्रकारिता को जीवन का लक्ष्य बनायीं होंगी” – विचार जरूर कीजिये।  

बहरहाल, आप उँगलियों के नाख़ून को खूब बढ़ाएं, उस पर विभिन्न रंगों के पालिस भी लगाएं, वस्त्र के रगों के अनुरूप-समरूप नेल-पॉलिसों का रंग भी चढ़ाएं, बहुत बेहतरीन दिखें, आकर्षक भी दिखें –  परन्तु समाज में अपनी योनि, यानि महिलाओं की बात, उनकी समस्यों के बारे में, मुसीबतों के बारे में, शिक्षा के बारे में, शोषण के बारे में, समाज में उनके प्रति प्रचलित अमानुषिक व्यवहार और दर्दनाक दस्तानों के बारे में लिखने के लिए अपनी उँगलियों में रोशनाई भी लगाएं – क्योंकि आप भी महिला ही हैं और फिर कोई यह कहे की “महिला ही महिला का दुश्मन है।”

आप ख़ुद अपनी आवाज़ बनें – प्रदेश की पत्रकारिता में सेंघ मारें, जगह बनायें । अपनी लेखनी से बिहार की नींव को – चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो, राजनितिक हो, सांस्कृतिक हो, आध्यात्मिक हो – जो भी महिलाओं के विरुद्ध हैं, उसके शोषण का मार्ग प्रसस्त करती है – हिलाएं, जो समाज में अपना अधिपत्य जमा लिया है। नहीं तो “51 + फ़ीसदी साक्षरता” और “आपकी चुप्पी” पर स्थानीय सरकार “सांत्वना की रोटियां” फेंकती रहेगी, ठग – राजनेतागण “निर्जीव सरकार” बनाते रहेंगे और आप चिचियाती रहेंगी। शायद आपको पता नहीं हो “वर्तमान मुख्य मन्त्री महिलाओं की निरक्षरता का नब्ज पकड़ लिए हैं” – प्रदेश की सांख्यिकी के अनुसार साक्षरता में पुरुषों की तुलना में महिलाएं 20 फ़ीसदी “नीचे” हैं, यानि  “निरक्षर” हैं – स्वाभाविक है इस निरक्षरता का फ़ायदा तो उठाएंगे ही समाज के पढ़े-लिखे सम्भ्रान्त पुरुषवर्ग, राजनेतागण !! 

आपको अपनी आवाज दिल्ली के जन्तर-मन्तर से नहीं करनी है, राजपथ से भी नहीं करनी है, बोट क्लब से भी नहीं करनी है ।  दिल्ली में आपकी आवाज का विपरण हो जायेगा।  यहाँ बड़े-बड़े मगरमच्छ पत्रकारिता में बैठे हैं, अजगर जैसा और आपकी आवाज निगलते उन्हें वक्त भी नहीं लगेगा और आप वहीँ-की-वहीँ रह जाएँगी। यहाँ पत्रकारों का जबरदस्त सांठ-गाँठ है सफेदपोश शुतुरमुर्गों से, नौकरशाहों से । आप लिखती रहेंगी, चिंचियाती रहेंगी, आपको मालूम भी नहीं होगा कब दिल्ली की चौराहों पर आपकी आवाज का राजनीतिकरण हो गया, कब बिक गया, कब बेचने वाले “बिचौलिए” प्रदेश के विधान सभा में, विधान परिषद् में, राज्य सभा में,  लोक सभा में पहुँच गए और आप वहीँ रह जाएँगी, जहाँ थी। इसलिए अगर आपकी योग्यता आपकी पहचान है तो अपनी-अपनी आवाज से, लेखनी से उस पहचान को आगाज़ दें  – पत्रकारिता जगत में अपना-अपना पैर जमाएं। 

आप अपने प्रदेश के सभी 38 जिलाओं –  अररिया, अरवल, औरंगाबाद, बांका, बेगुसराई, भागलपुर, भोजपुर, बक्सर, दरभंगा, पूर्वी चम्पारण, गया, गोपालगंज, जमुई, जहानाबाद, खगरिया, किशनगंज, कैमूर, कटिहार, लखीसराय, मधुबनी, मुंगेर, मधेपुरा, मुजफ्फरपुर, नालंदा, नवादा, पटना,  पूर्णिया, रोहतास, सहरसा, समस्तीपुर, शिवहर, शेखपुरा, समस्तीपुर, सरन, सीतामढ़ी, सुपौल, सिवान, वैशाली और पश्चिम चम्पारण  –  सभी 101 अनुमंडलों में और सभी 534 ब्लॉकों की आवाज हो सकती हैं। आज पत्रकारिता एक ”व्यवसाय” हो गया है, जिस व्यवसाय के तहत आपकी आवाज ‘बहरी’ सरकार तक, व्यवस्था तक, अधिकारीयों तक लोग पहुँचने नहीं देते। इसलिए आज के इस वैज्ञानिक युग में, जहाँ समाचार पत्र/पत्रिका के प्रकाशन में पहले की तुलना में अर्थ नगण्य है, आप आगाज़ दें, अपने-अपने जिला, प्रखण्ड और ब्लॉकों की आवाज बनें । 

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“सोच बदलो – देश बदलेगा”, इस चार शब्दों के ‘नारे’ को प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी भारतीय मानसिकता बाज़ार में विपरण कर दिए क्योंकि वे जानते हैं देश में लोगों की सोच कभी नहीं बदलेगी, समाज उठना ही नहीं चाहता – इसलिए उसी की बात, उसकी ही चाल-चलन को बेचकर नाम कमा लो और  “सोच बदलो – देश बदलेगा” मोदी जी का नारा हो गया। आप उसी पाषाण युग में जियें, उन्हें क्या फर्क। शायद बिहार की सौ में सौ फीसदी महिलाएं नहीं जानती होंगी की उनके प्रदेश का पहला समाचार पत्र “बिहार बंधु”, जिसका संपादन महाराष्ट्र के श्री केशवराम भट्ट कोई 146-वर्ष पूर्व, यानि 1874 में, प्रारम्भ किये थे, उस समाचार पत्र में शब्दों के चयन से लेकर समाचार पत्र के प्रकाशन और वितरण का कार्य बिहार की महिलाएं करती थीं। और आज ?

क्योंकि सबसे बड़ा सवाल है : अगर महिलाओं की ‘मेंशुरेशन’ की बात, महिलाओं पर हो रहे ‘अत्याचारों’ की बात, महिलाओं की ‘शोषण’ की बात, महिलाओं ‘शिक्षा’ की बात, महिलाओं के ‘पहनावे’ की बात, महिलाओं की ‘उठने-बैठने’ की बात, महिलाओं की ‘बलात्कार’ की बात, महिलाओं के ‘प्रसव-कक्ष’ की बात और न जाने कितने सैकड़ों-हज़ारों बातें हैं जो महिलाओं से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं, उन बातों को “पुरुष” समुदाय ‘उपसर्ग’ और ‘प्रत्यय’ लगाकर अखबार और पत्रिकाओं में लिखें / छापें – तर्क संगत नहीं लगता है बिहार के मामले में जहाँ 2011 जनगणना अनुसार महिलाओं की साक्षरता 51.50 हो।

यदि  2011 जनगणना की सांख्यिकी को आधार मान लें तो बिहार में महिला:पुरुष अनुपात 918 : 1000 का अनुपात है।  जब पिछले चुनाव में नीतीश कुमार और उनके लोग जीत कर विधान सभा पहुंचे तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया की “उनकी जीत में महिलाओं का भरपूर योगदान है।” परिणाम स्वरुप उन्होंने 2016 में बिहार के सभी सरकारी नियोजनों में, जहाँ सीधा-नियोजन होता है,  महिलाओं के लिए 35 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा किये। यह आरक्षण पुलिस सेवा अतिरिक्त सभी सेवाओं के लिए मान्य किया गया।  

अब यदि सरकारी सांख्यिकी को देखें तो नीतीश कुमार प्रदेश की महिलाओं की अशिक्षा का मज़ाक उड़ाए। बिहार में उसी जनगणना की सांख्यिकी के अनुसार “महिलाओं की साक्षरता- दर पुरुषों की तुलना में 20 फीसदी कम है।” 2011  जनगणना के अनुसार बिहार में 54,278,157 पुरुष और 49,821,295  महिलाएं हैं। जबकि कुल साक्षरता को 61.80 % कहा गया है, इसमें 71.20 % पुरुष साक्षरता है जबकि 51.50 % महिला साक्षरता। उसी आंकड़ें में कहा गया है कि बिहार में 31,608,023 पुरुष शिक्षित हैं जबकि 20,896,530 महिलाएं शिक्षित हैं।

नेशनल सेम्पल सर्वे ऑफिस जो भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम मंत्रालय का एक हिस्सा है के अनुसार बिहार में महिलाओं का नियोजन सभी क्षेत्रों को मिलकर, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों के विभिन्न कार्यक्रम भी सम्मिलीत हैं, 16 फीसदी भी नहीं है।

अब सवाल यह है कि 73-वर्ष आज़ादी के बाद भी अगर बिहार में महिला शैक्षिक दर पुरुषों की तुलना में 20 फ़ीसदी आज भी पीछे है, महिलाएं अपनी बात कहने के लिए भी अपनी आवाज नहीं बन सकीं, मेंशुरेशन की बात कहने का हक़ पुरुषों को दे दीं, बलात्कार की बातों को कहने/लिखने का दायित्व पुरुषों पर छोड़ दिन – तो ऐसी शिक्षा तो “तथाकथित” ही है न – नहीं तो प्रदेश की पत्रकारिता में पिछले पचास वर्षों में जितनी संख्या अख़बारों की बढ़ी, जितनी पत्र/पत्रिकाओं से प्रदेश जुड़ा, बिहार ही नहीं, देश ही नहीं, विदेशों तक महिलाओं की बात पहुँचाने, उजागर करने के जितने अवसर मिले – बिहार की महिलाओं का योगदान महिलाओं नहीं के बराबर रहा।

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”टाईम्स ऑफ़ इण्डिया” और ”बिहारबंधु” (बिहार का पहला समाचार पत्र) समाचार पत्रों में एक समानता है। जहाँ टाईम्स ऑफ़ इंडिया महाराष्ट्र के बम्बई से सन 1838 में प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, वहीँ ”बिहारबंधु” एक मराठी सं 1872 में प्रारम्भ किये। आज 182-वर्ष बाद टाईम्स ऑफ़ इण्डिया मुंबई ही नहीं, भारतवर्ष में ही नहीं, बिहार की गली-कूचियों में अपनी तूती बोलबाती है और ”बिहारबंधु” का नामोंनिशान तक नहीं है।आज 136- साल बाद बिहार में ‘टाईम्स ऑफ़ इण्डिया’, ‘हिन्दुस्तान टाईम्स’, ‘दैनिक हिन्दुस्तान’, ‘कौमी तंजीम’, ‘आज’, ‘तासीर’, ‘आई-नेक्स्ट’, ‘दैनिक जागरण’, ‘स्वराज खब’र, ‘पटना डेली’, ‘स्वतंत्र आवाज’, ‘प्रभात खबर’, ‘रांची एक्सप्रेस’, ‘बिहार भास्कर’, ‘बिहार टाइम्स’, ‘राष्ट्रीय सहारा’ और न जाने कितने समाचार पत्र/पत्रिकाएं और इंटरनेट वाला वेब-अखबार नित्य प्रकाशित होता है।  

सत्तर के दसक में तत्कालीन ‘सर्चलाईट’ अखबार में एक महिला थीं श्रीमती श्रुति शुक्ला जी। काफी लिखती थीं। पटना के पत्रकारिता जगत में शायद वे पहली महिला थीं जो विभिन्न विषयों पर, लिखती थीं। उस ज़माने में पटना से पांच-छः अखबार निकलते थे – सर्चलाईट, प्रदीप, जनशक्ति, आर्यावर्त और इण्डियन नेशन – शेष किसी भी अखबार में महिलाएं नहीं थीं। लिखने वाली महिलाओं की भी किल्लत थीं, जबकि प्रदेश में महिलाओं की शैक्षिक-स्थिति पुरुषों की  तुलना में काफी तबदाबा था। 

फिर “आज” अखबार का आगमन हुआ। यहाँ भी महिलायें नहीं थीं। अस्सी के दसक में जब पटना से टाईम्स ऑफ़ इण्डिया- नवभारत टाईम्स का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तब पटना की सड़कों पर रिपोर्टर बनकर आयीं ‘सुश्री शर्मीला चन्द्रा’ जी। शर्मीला चन्द्रा अन्य कहानियों  अतिरिक्त “शिक्षा और शैक्षणिक संस्थाएं कवर करतीं थीं। उनकी एक कहानी आज भी पटना  बिहार के शैक्षणिक-जगत में लोगों को याद होगा जब उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ केदार नाथ प्रसाद के मुख से यह कहलवा ली थीं की “उन्होंने अपने पुत्र को शोध-कार्य में प्राथमिकता दिया है, फेवर किया है।” शैक्षणिक संस्थाओं में “निपोटिज्म” की शुरुआत थी बिहार में। 

लेकिन क्या वजह है बिहार की महिलाएँ जो समाज को बदलने की ताकत रखती हैं, पत्रकारिता में नहीं आयी? बिहार में बिहार की महिलाएँ अपनी भी आवाज नहीं बनी? उनकी बातों को भी अख़बारों में पुरुष ही परोसते गए चाहे शिक्षा की बात तो या बलात्कार की बात हो !!!!  

पटना की श्रीमती ज्योति राठौड़ लिखती  हैं : “औद्योगिक पूंजीवादी विकास का अव्यवस्था जिसमें धर्म सत्ता पितृसत्ता नारीवादी सत्ता इन तीनों ने मिलकर जमकर दोहन किया हैं स्त्रीत्व का, ऐसी हर विजय, जो गैरजरूरी है या प्रगति का कोई नया आयाम नहीं खोलती, अपने आप में एक पराजय भी है। स्त्री-पुरुष संबंधों का ज्ञात इतिहास ऐसी विजयों और पराजयों का एक चकित और उदास कर देने वाला सिलसिला है।”

“आधी दुनिया की पूरी पत्रकारिता” की लेखिका डॉ. मंगला अनुजा का कहना है: “महिलाओं के लिए लेखन उन दरीचों को खोलने के समान होता है, जो या ढकेदबे होते हैं या उन पर पर्दा डाला गया होता है। देश की महिलाओं को जब अक्षर ज्ञान हुआ, तब उन्होंने ऐसे ही दरीबों को खोलने का काम किया। उनकी यही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पत्रकारिता के माध्यम से मुखर हुई। भले ही एक समय महिलाएं अपने नाम के साथ न लिखकर छद्म नामों से लेखन कार्य कर रही थीं। आज पत्रकारिता में महिलाओं की जो भी स्थिति है, वह इसी प्रकार की छिटपुट अज्ञात महिला लेखन के नाम किया जा सकता है।

भारतीय महिला पत्रकारिता की शुरुआत ही बांग्ला से हुई। सबसे पहले बांग्ला भाषा की मोक्षदायिनी देवी की जानकारी मिलती है जिन्होंने 1848 में ‘बांग्ला महिला’ नामक पत्र निकाला था। बाद में बंगाल सहित सभी क्षेत्रीय भाषाओं में महिलाओं ने पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित और संपादित कीं। 1867 में कन्नड़ की चेनम्मा तुमरि का नाम मिलता है जिन्होंने ‘शालामठ’ पत्रिका निकाली। इसी तरह राजस्थान में ‘राजपूताना गजट’ में मोती बेगम महिला पत्रकार के रूप में सामने आती हैं।  

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श्रीमती राठौड़ स्नातकोत्तर हैं और बी.एड. की उपाधि से भी अलंकृत हैं, कहती हैं: “ऐसा लगता है कि पुरुष प्रकृति के साथ जिस विजेता भाव से पेश आता रहा है उसी विजेता भाव से उसने स्त्री को भी देखा है। स्त्री पुरुष का एक ऐसा उपनिवेश रही है, जिस पर उसने अपना कब्जा जारी रखने के लिए, उसे शायद ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी है। अतः किसी को विकल्प हीन करना हो तो इसका सर्वश्रेष्ठ तरीका यही है कि भौतिक संसार पर उसका कोई नियंत्रण नहीं रहने दीजिए। पहले दासों के साथ, फिर स्त्रियों के साथ यही किया गया। दुनिया के दो तिहाई हिस्सों में स्त्री अब भी अंकुश में है। पृथ्वी के संपूर्ण संपत्ति और संसाधन में 94 % पुरूषों के पास और 6% महिलाओं के पास, मतलब लगभग पुरुषों का ही वर्चस्व है पृथ्वी के संपूर्ण संसाधन पर जिसमें स्त्री संसाधन भी आती हैं। अब वो चाहे सौंदर्य आतंरिक-वस्त्र, सेनेटरी नैपकिन मैगज़ीन या सेविंग क्रीम का विज्ञापन ही क्यों ना हो। और यह सत्ताधारी औधौगिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए क्षेत्रवाद जातिवाद धर्म वाद संप्रदाय वाद स्त्रीवाद पुरुष वाद जैसे विषयों पर नागरिकों का ध्यान भटकाया जाता रहा है। यह सब अनायास ही नहीं हो रहे बल्कि बहुत ही सोची समझी साजिश हैं। जिसका विरोध उत्तर-भारत और उत्तर-भारत में भी सबसे अधिक बिहार और उत्तर प्रदेश के राज्य उनके इस रवैए का विरोध करता रहा हैं जिसके कारण सबसे अधिक बिहार और बिहारी महिलाएं बहुत ही निम्न स्तर का छुआछूत वाला अलगाववाद का दंश झेलते आ रही हैं।”

विविध भारती, पटना की उद्घोषिका सुश्री प्रिया गौतम कहती हैं: “पत्रकारिता जगत में महिलाओं  भागीदारी वर्तमान परिपेक्ष में काफी बढ़ी है, लेकिन उन्हें  अभी भी कई तरह की चुनौतियों सामना  है। अगर मैं अपनी बात करूँ तो परिवार के तरफ से मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई क्योंकि मेरे पति हर बात पर, हर समय मेरे साथ रहे।  लेकिन कहीं न कहीं मेरा यह अनुभव रहा है कि जब भी मैं आकाशवाणी पटना से मॉर्निंग शिफ्ट लिए घर से सुवह 4 : 30 बजे निकलती या इविनिंग शिफ्ट के बाद 12 :00 बजे रात तक घर पहुँचती तो अगल-बगल के लोगों को शंका रहती है,  वे  शंका  देखते हैं। उन्हें लगता है की इतनी रात या इतने सुवह वाला कौन सा जॉब है ? लेकिन मैं भी हार नहीं मानी और लोगों को समझना पड़ा।”  

बहरहाल, दो दिन पूर्व फेसबुक पर बिहार महिला पत्रकार विषय पर लोगों से विचार माँगा था। कोई सत्ताईस लोगों ने ‘लाईक’ बटन दबाये जिसमें 23 पुरुष थे। चार लोगों ने टिपण्णी किये, तीन पुरुष थे। नीतेश मिश्रा लिखते हैं: “कैसे होगा? दिक्कत ये है कि सबको शॉर्टकट चाहिए, नारी सशक्तिकरण का नारा ही नारी को पीछे कर जाता है। जब तक किसी वर्ग को समाज सशक्त करने का प्रयास करता रहेगा, ऐसा होता रहेगा, चाहे वो पत्रकारिता हो शिक्षा हो या कोई और चीज, हो सकता है मै गलत हूं पर मेरी ऐसी सोच है।”  

वरिष्ठ पत्रकार अमरेन्द्र किशोर लिखते हैं: “1987 से 1995 तक टाइम्स ऑफ इंडिया के पटना संस्करण में ढेरों महिला सम्पादिका (रेजिडेंट के नीचे) थीं। हिन्दुस्तान टाईम्स में श्रुति शुक्ला थीं और हजारीबाग जैसे शहर से नमिता तिवारी थीं।  सुधीर सिंह के अनुसार: “हाल के वर्षों में स्थिति कुछ सुधरी है। भास्कर, जागरण, प्रभात खबर में डेस्क इंचार्ज के रूप में महिलाएं काम कर रही हैं। रिपोर्टिंग में अभी एक दर्जन से अधिक सक्रिय हैं। हालांकि संख्या संतोषजनक नहीं है।”  जबकि अलोक वर्मा लिखते हैं: “आज नारी पीड़ित है कुंठित है मजबूर है शासन-प्रशासन कोर्ट सब बिकाऊ है मैं तो चाहता हूं सारे न्याय के अधिकार महिलाओं को दे दिए जाए।”

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