आज जो यह कहते नहीं थकते की सोसल मीडिया पर लिखने, वीडियो चिपकाने से कोई आन्दोलन नहीं होता, कोई नेता नहीं बन जाता; कल कहेंगे ‘ऐसा भी हो सकता है – इतिहास गवाह है 

सुश्री पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार के एक बुजुर्ग के घर में  
सुश्री पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार के एक बुजुर्ग के घर में  - तस्वीर: सुश्री चौधरी के ट्वीटर वाल से 

​ * गुजरात के मुख्य मंत्री स्वयंभू-प्रधान मन्त्री बनकर लोक-सभा का चुनाब लड़ सकते हैं। अपने पार्टी के कुछेक सदस्यों को छोड़कर, पार्टी के शेष वुजुर्ग सदस्यों को, जिसमें पार्टी के संस्थापक भी सम्मिलित हो सकते हैं, दरकिनार कर प्रधान मन्त्री बन सकते हैं। कोई चूं नहीं, कोई नकारात्मक आलोचना नहीं।  

* मुख्य-मंत्री बनने की क्षमता नहीं रखने वाले बिहार के एक नेता जीवन-पर्यन्त बिहार के पिछलग्गू उप-मुख्य मन्त्री बने रहने के लिए आगामी विधान सभा चुनाब और परिणाम के पूर्व ही वर्तमान मुख्य मन्त्री को पुनः मुख्य मन्त्री की कुर्सी पर आसीन करा सकते हैं। प्रदेश में कोई चूं नहीं, कोई आलोचना नहीं। 

फिर लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स एंड पॉलिटिकल साइन्स से मास्टर इन पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन (एमपीए) और ससेक्स विश्वविद्यालय से डेवलपमेंट स्ट्डीज में स्नातकोत्तर की उपाधि से अलंकृत सुश्री पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार के स्वयं-भू भावी-मुख्यमंत्री बनकर प्रदेश की गली-कूची, खेत-खलिहान, सरकारी-गैर-सरकारी मृत-उद्योग परिसरों, सरकारी रुग्ण अस्पतालों, ढ़हती सरकारी शैक्षणिक संस्थानों या फिर प्रदेश के लोगों के जीवन से जुड़े रुग्ण-पहलुओं वाले स्थानों का “सफ़ेद-काले-वस्त्र पहनकर” क्यों नहीं जायज़ा ले सकती हैं? वे भी तो प्रदेश की एक मतदाता हैं।  वे भी तो मुख्य मंत्री बन सकती हैं। उन्हें भी तो वर्तमान व्यवस्था और सरकार की आलोचना करने का संवैधानिक अधिकार है। 

फिर वहां उपस्थित लोगों के साथ, वहां की दशाओं के साथ तस्वीरों को देश के सोसल मीडिया पर क्यों नहीं पोस्ट कर सकती हैं? ट्वीटर पर अपनी तस्वीरों के साथ बिहार के लोगों को ही नहीं, भारत के लोगों को ही नहीं, विश्व के लोगों को अपने प्रदेश के गावों की दशा, पंचायतों की दशा, प्रमण्डलों की दशा, यहाँ के वर्तमान नेताओं का प्रदेश के प्रति लगाव की दशा, अधिकारियों का प्रदेश के प्रति प्रतिबद्धता के दशा, जिलों और प्रदेश की वर्तमान आर्थिक-मानसिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक-आध्यात्मिक रुग्णताओं को क्यों नहीं बता सकती हैं, दिखा सकती हैं ? यह कोई अपराध तो है नहीं ? 

बिहार के वर्तमान मुख्य मन्त्री नितीश कुमार हों या पूर्व मुख्य मंत्री लालू प्रसाद हों, या उनकी पत्नी श्रीमती राबड़ी देवी हों, या पूर्व मुख्य मंत्री जीतनराम मांझी हों, या लालू यादव के पुत्र तेजस्वी यादव हो, या उपेंद्र कुशवाहा हों, या राम विलास पासवान हो, या फिर उनका पुत्र चिराग पासवान हों – कौन कैसे नेता बने, मुख्य मंत्री बने, मुख्य मंत्री बनने के लिए कौन-कौन सा दण्ड-बैठकी कर रहे हैं – यह तो पटना के गाँधी मैदान में टहलने वाले, पटना के अशोकराज पथ पर विचरण करने वाले, पटना के डाकबंगला चौराहे और सरपेंटाइन रोड चौराहे पर मुंह में पान दबाये, सिक्की से दाँत खोदने वाले से लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में भोंपू बजाने वाले और दिल्ली के राजपथ पर लम्बा-लम्बा छोड़ने-पकड़ने वाले “बिहारी बंधू-बांधव” अधिक जानते हैं। 

अगर श्रीकृष्ण सिंह, दीप नारायण सिंह, बिनोदानंद झा और कृष्णबल्लभ सहाय (पहला-दूसरा और तीसरा विधान सभा : पार्टी: कांग्रेस : साल – 2 अप्रैल 1946 से 5  मार्च 1967 तक) छोड़ दिया जाय; तो महामाया प्रसाद का आगमन तो पूर्ववर्ती मुख्य मन्त्रियों के कार्यों की तीब्र और कटु-आलोचना के बाद ही हुआ था। चौथे विधान सभा में, यानि 5  मार्च 1967  से 29  जून 1968  में महामाया प्रसाद सिंह, सतीश प्रसाद सिंह, बी पी मंडल और भोला पासवान शास्त्री जन क्रांति दाल, संयुक्त सोसलिस्ट पार्टी और इण्डियन नॅशनल कांग्रेस पार्टी के लोग मुख्य मंत्री बने। फिर राष्ट्रपति शाशन लागु हुआ और प्रदेश पांचवे विधान सभा के गठन के लिए चुनाब में झोक दिया गया। उस समय तो बिहार के लोगबाग कुछ नहीं बोले सिवाय मौके की तलास के लिए “खुद को तरासते” रहे – परन्तु वे भाग्यशाली रहे जो  सत्ता में समा गए, कुछ “तरसते” रह गए।  

पांचवां  विधान सभा 26  फरबरी 1969  से 2  जून 1971  तक रहा और इन दो वर्षों में हरिहर प्रसाद सिंह, भोला पासवान शास्त्री (दो – बार), दारोगा प्रसाद राय, कर्पूरी ठाकुर मुख्य मंत्री बने; साथ ही, राष्ट्रपति शाशन भी लागु हुआ। फिर छठा विधान सभा (19 मार्च 1972  – 11 अप्रैल 1975) में तीन लोग मुख्य मंत्री बने –  केदार पाण्डे, अब्दुल गफूर और डॉ जगन्नाथ मिश्रा। इसी तरह, सातवें विधान सभा (24 जून 1977  से 17 फरबरी 1980) दो मुख्य मंत्री आये – कर्पूरी ठाकुर और राम सुन्दर दास और फिर आठवें विधान सभा के गठन के पूर्व वाला राष्ट्रपति शासन। 

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आठवां और नौवां विधान सभा (8 जून 1980  से 10 मार्च 1990) कांग्रेस पार्टी की रही और इन दस  वर्षों में जगन्नाथ मिश्रा, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी दूबे , भगवत झा आज़ाद, सत्येंद्र नारायण सिंह और फिर जगन्नाथ मिश्रा मुख्य मंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए। 

अगर 1990 आते आते बिहार में कांग्रेस का नेतृत्व “बूढ़ा” हो सकता है और लालू प्रसाद यादव की “टिकरीम राजनीति” प्रदेश के शाशन-व्यवस्था पर कब्ज़ा कर सकती है; तो 2020 में भारतीय जनता पार्टी, जनता दल या राष्ट्रीय जनता दल या लोक जन – शक्ति पार्टी या राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, या अन्य बच्चा-बुतरू पार्टी और उसके नेतागण, जिन्होंने पिछले सात दसकों में प्रदेश को गर्त में गिरा दिया, भी तो उनके “बूढ़े” होने का ही एक संकेत हो सकता है न।  राज्य के विकास के प्रति जो प्रतिबद्धता होनी चाहिए, वह नहीं हुयी; उनकी राजनीतिक सोच जो इन  विगत दसकों में “परिपक्क” होना चाहिए, वह परिपक्क होने के वजाय “रुग्ण” भी तो हो सकता है न ? निर्णय आप करें। 

बिहार में 1990 यानि दसवीं विधान सभा से, यानि लालू प्रसाद यादव के आगमन के साथ बिहार का राजनीतिक माहौल बदल गया। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि “लालू प्रसाद ने मूक-वधिर समाज के पिछड़े जनमानसों को आवाज दिया” जो सन 1990 के पहले दफ़न था, समाज की मुख्या धारा में जोड़ने का प्रयास किया”, लेकिन, इस बात से भी लोगबाग, मतदातागण मुंह नहीं चुरा सकते हैं कि “लालू यादव ने प्रदेश की राजनीति को पारिवारिक राजनीति बना दिया, प्रदेश के सभी क्षत्रों को जी-भर शोषण किया, अपने और अपने परिवार के के विकास के आगे, प्रदेश के विकास को महत्वहीन बना दिया। 

आज की युवा-पीढ़ी भले स्वीकार करे अथवा नहीं, लेकिन इस बात से वे सभी इंकार नहीं करेंगे जिन्होंने जयप्रकाश नारायण का आंदोलन देखा है। उस आंदोलन में बिहार के सभी विश्वविद्यालयों से शिक्षा और शैक्षणिक वातावरण की मृत्यु सय्या पर उभरते नेताओं को देखा है। जयप्रकाश नारायण अपने आंदोलन में सफल रहे – सत्ता में परिवर्तन – लेकिन उस आंदोलन का भुगतान किसे करना पड़ा, यह आज की पीढ़ी नहीं समझेंगे क्योंकि जो उस आंदोलन के प्रथम-द्रष्टा थे, बताये नहीं। 

प्रदेश में विशेषज्ञों की किल्लत नहीं है, और यदि वास्तविक राजनीतिक विश्लेषण किया जाय तो श्रीकृष्ण सिंह के बाद आज तक बिहार के जितने भी मुख्य मंत्री बने वे प्रदेश के विकास को नजर-अंदाज करते सभी चीजों पर ध्यान दिया।  इसमें सिर्फ सरकार, शाशन और व्यवस्था को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। बिहार की वर्तमान “रुग्णता” चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो, शैक्षिक हो, वैज्ञानिक हो, स्वास्थ के क्षेत्र में हो,में  ,सांस्कृतिक हो – जिन-जिन स्तम्भों को “विकास का पैमाना” माना जा सकता है – यहाँ के लोग उतने ही उत्तरदायी रहे हैं। 

दसवीं विधान सभा से सोलहवीं विधान सभा तक प्रदेश में लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी, नितीश कुमार, जीतनराम मांझी मुख्य मंन्त्री बने।  यानि विगत तीन-दसक में ये चार लोग प्रदेश का कमान संभाले। लेकिन बिहार के लोग, बिहार के मतदाता तो कभी “चूं” तक नहीं किये जब “राबड़ी देवी और जीतनराम मांझी” को प्रदेश का कमान हाथ में दे दिया गया। क्या यह राजनीतिक “निपोटिज्म” नहीं था। 

जब लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी पाए गए तो, उन्होंने ​मुख्य मन्त्री के पद से इस्तीफा ​तो ​दे दिया​, परन्तु “घर की सत्ता घर में ही रहे” इसलिए 25 जुलाई 1997 को ​अपनी पत्नी श्रीमती ​राबड़ी देवी ​को प्रदेश की मुख्यमंत्री ​बना दिए। इतना ही नहीं, मोहतरमा राबड़ी देवी तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर आसीन ​रहीं। तब तो बिहार के विद्वान, पढ़े-लिखे लोग, राजनीति में दिलचश्पी रखने वाले लोग कुछ नहीं बोले। सं 1995 राजनीति में प्रवेश करने से पहले, वह पूरी तरह से गृहिणी थी।  

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बिहार के अब तक के कोई भी मुख्य मन्त्री  लन्दन स्कूल ऑफ़ इकॉनोमिक्स एंड पॉलिटिकल साइन्स तथा ससेक्स विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त नहीं किये हैं। हाँ, जो बिहार के जिन-जिन महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों से शिक्षा प्राप्त किये, उपाधियों से अलंकृत हुए – उन महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों का वर्तमान शैक्षिक वातावरण, शैक्षिक स्तर की जांच-पड़ताल आप  स्वयं करें। अगर प्रदेश का सरकारी क्षेत्रों के शैक्षिक वातावरण ठीक होते तो कुकुरमुत्तों तरह ‘उन्ही सरकारी नेताओं द्वारा संरक्षित और पोषित निजी-क्षेत्रों में विद्यालय,  विश्वविद्यालयों का विकास नहीं हुआ होता – विचार जरूर करें। 

​एक रिपोर्ट के अनुसार सुश्री चौधरी का कहना है कि अगर वह बिहार की सीएम बन जाती हैं तो वर्ष 2025 तक बिहार को देश का सबसे विकसित राज्‍य बना देंगी। यही नहीं वर्ष 2030 तक बिहार विकास के मामले में यूरोपीय देशों जैसा हो जाएगा।​ सुश्री चौधरी जेडीयू के पूर्व एमएलसी विनोद चौधरी की बेटी हैं। ​

शिक्षा के लिए प्रदेश से पलायित युवक-युवतियों में सुश्री चौधरी भी एक हैं। अगर प्रदेश के अन्य पलायित शिक्षित लोग-बाग़ शिक्षा की समाप्ति, अथवा ऊँचे-ऊँचे पदों को त्यागकर अपने प्रदेश में विकास करने हेतु वापस आ रहे हैं, काम करना प्रारम्भ किये है; तो फिर सुश्री चौधरी ने अगर एक शुरुआत की – आगामी मुख्यमंत्री बनने के तमन्ना लेकर, तो इसमें बुरा क्या है।

सुश्री चौधरी ‘प्लूरल्स’ नाम से राजनीतिक दल बनाया है​ और ये स्वयं इस पार्टी की अध्यक्ष हैं। ​कोई गलत नहीं है – नीतीश कुमार जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष है, पासवान लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष है, ​जीतन राम मांझी हिंदुस्तान आवाम मोर्चा के अध्यक्ष हैं, उपेंद्र कुशवाहा का राष्ट्रीय लोक समता पार्टी है। “लोक” और “जनता” शब्द सबों के पार्टियों में हैं लेकिन लोक और जनता से उतनी ही दूरी भी है। विस्वास नहीं हो तो जब आप मतदाता “बांस के खम्बे के उसपार खड़े होंगे आने वाले चुनाब के समय तो इस कहानी को याद करेंगे। 

सुश्री चौधरी ​की पार्टी का नारा है : ‘जन गण सबका शासन’ , पूर्व के सभी नेताओं ने प्रदेश के मतदाताओं को बरगलाया है। अगर आप समझते हैं, ये भी वही कर रहीं हैं “तो अगर उनलोगों पर आपको विस्वास हुआ, तो इस युवती पर भी विस्वास करना चाहिए। बिहार के घर-घर से भले शिक्षित लोग-बाग़ नहीं निकलें, पढाई नहीं करें (पढ़ने का अवसर हो तब तो), काम-काज नहीं करें (रोजगार का अवसर हो तब तो), बिमारी से स्वस्थ नहीं हो (अस्पतालों में साधन हो तब तो) – घर-धार से “नेता”, वह भी “पुरुष” जरूर निकलता है। “सुश्री चौधरी तो महिला हैं और बिहार के लोगों को फक्र होनी चाहिए, कोई युवती तो आगे आयी, व्यवस्था को ललकारी: “मैं बिहार के अक्षम नेताओं को चुनौती दे रही हूं। मैं यह जंग जीतूंगी लेकिन आप इसे ऐतिहासिक बना सकते हैं। उनकी पार्टी राज्‍य में सकारात्‍मक राजनीति करेगी।”

बहरहाल, कल फेसबुक पर मित्रों से अपना-अपना विचार माँगा था (पोस्ट टिपण्णी पेटी में है):

रमेश झा लिखते हैं: “आज तक जितने भी नेता बिहार से निकले हैं उनको अभी तक बिहार का ‘बी’ तक का अर्थ नहीं पता है तो बिहार का विकास कैसे होगा? बिहार के लोगों की सोच में ही वायरस भड़ा हुआ है।कोई भी नेता या अभिनेता हों, बिहार के लिए, खासकर मिथिला की तो किसी ने कुछ  नहीं किया। सब के सब नीचे से ऊपर तक सब कुरुमचोर लोग हैं।  बिहार की दुर्दसा देख कर जो तकलीफ जनता को होती है उसका क्या वर्णन करूँ ? यहाँ की जनता के भी सोच को दाद देना पड़ेगा सब के सब अपना उल्लू सीधा करने के फेर में लगा रहता है। भ्रष्टाचार अतिक्रमण की तो हद के भी पार हो गया है।”  

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अविनाश कुमार लिखते हैं:  “मैं तो दरभंगा से ही हूँ। देखा है कि श्री विनोद चौधरी अपने बूते तो कोई चुनाव जीत नहीं पाये और न ही अपने पिताजी को जीता पाये। हाँ पिछले दरवाजे से यानी MLC का चुनाव जरूर जीते। आपको क्या लगता है अपने बल पर क्या सरकार बना पायेंगी? मैंने जब उनके पेज पे कुछ सवाल किया तो ब्लॉक कर कमेन्ट ऑप्शन ही बंद कर दिया। मेरे हिसाब से वे बस दूसरी केजरीवाल बन सकती हैं और कुछ नहीं।” 

प्रियदर्शन शर्मा का कहना है कि: “इनके पिताजी का बिहार के विकास में क्या योगदान रहा, इस मापदंड पर PPC का आकलन तो हो नहीं सकता। हाँ, यह जरूर है कि पिता के बनाये राजनीतिक और आर्थिक प्लेटफॉर्म का PPC को खुद को प्रोजेक्ट करने में सहूलियत हो या हो रही है। PPC को बिहारवासी एक विकल्प के तौर पर देख सकते हैं। अगर इनके पास कुछ करने का जज्बा, जोश और जुनून है तो उसे अपने प्रचार अभियान में पेश करें। जनता के पास बहुविध विकल्प होना ही चाहिए।”

सुधाकर झा लिखते हैं: मुख्य मंत्री एक अभियन्ता हैं और सभी विकास कार्य मुख्य रूप में पंचायत से प्रारम्भ होनी चाहिए।   

आशुतोष शर्मा लिखते हैं: “अब नियत क्या है, राजनीति में आने की, यह विचारणीय विषय है। पढ़े लिखे लोगो को आना ही चाहिए। लेकिन कुछ ईमानदारी के जज्बे के साथ।” जबकि पुण्यनाथ झा ने लिखा है: “चीफ़ मिनिस्टर का वेकेंसी निकला है क्या?”

राजीव रंजन कुशवाहा कहते हैं: “मुझे नहीं लगता पुष्पम प्रिया से कुछ होगा । खूब पढ़ लेना बिहार की राजनीति की योग्यता नहीं है । वैसे ये मैडम लॉक डाउन में एक मास्क तक नहीं बांटने निकली वो राजनीति करने चली हैं।” जबकि समस्तीपुर से जितेन्द्र नारायण लिखते हैं: “अब तक इनका या इनके पिता जी का क्या योगदान है बिहार के लिए…? विकास की इनकी नीतियां क्या है…? कहीं मोदी की तरह घनबल और पीआर एजेंसियों के बदौलत बिहारियों को ठगने तो नहीं आईं हैं…?” 

नरोत्तम भास्कर का कहना है: “नेगेटिव जदयू बीजेपी समर्थकों को राजद की तरफ वोट करने से रोकना।” इसी तरह, राजेश ठाकुर मानना है कि : “क्या एक उच्च डिग्री ही मुख्यमंत्री पद की योग्यता है। इन्होंने अपनी योग्यता अभी सिद्ध कहाँ को है। समाज सेवा करे । सिर्फ फेसबुक पर वीडियो डालने से कोई मुख्यमंत्री नही बन जाता।” अविनाश पाण्डे “स्वागत” करते हैं। 

सुश्री सोमा राजहंस लिखती हैं: “राजनीति के लिए कैसी भी शैक्षिक योग्यता की दरकार कहां है ।राजनीति के लिए या तो सेवाभाव हो या चतुर सुजान वाला व्यक्तित्व ही उपयुक्त होता है। ये मुझे कहीं नहीं दिख रही। इस माहामारी में बदहाल बिहारियो के लिए इनका क्या योगदान रहा।” जबकि सत्येन्द्र पीएस ने लिखा है: “है राम। पहले तो लगा कि रामदेव की फोटो है! इनको बहुत शुभकामनाएं। पहले यह बताएं कि राज्य के भूमिहार भाजपा छोड़कर इनके साथ आएंगे क्या? बिहार में भूमिहार ही सबसे योग्य और पढ़े लिखे हैं। कम से कम भूमिहारों को अपनी पढ़ी लिखी बेटी का सम्मान करना चाहिए। 

अनुराग आनन्द लिखते हैं: “जी, प्लूरल्स हैव दी पोटेन्शियल टू गिव समथिंग टू बिहार। देयर इज सम होप।” बहरहाल, जो आज यह कहते नहीं थकते की सोसल मीडिया पर लिखने, वीडियो चिपकाने से कोई आन्दोलन नहीं होता, कोई नेता नहीं बन जाता; कल स्वीकार भी करेंगे, यक़ीन कीजिए क्योंकि बिहार के अब तक के 22 मुख्य मन्त्रियों ने बिहार में यही किया। उन दिनों सोसल मीडिया नहीं थी, परन्तु मीडिया वालों ने साथ दिया – कुछ संस्थागत लाभवश, तो कुछ व्यक्तिगत “भयवश” – विचारवानों की किल्लत उन दिनों भी थी, आज भी है।     

1 COMMENT

  1. मैडम अपने सबसे पढ़ा-लिखा समझती है। इनके पास बंद फैक्ट्रियों का भ्रमण और ब्लू प्रिंट निकालने के अलावा कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है।विकास के रोडमैप पर ना ये कुछ बोलती हैं और ना ही इनके कार्यकर्ता और ना ही सोशल मीडिया पर इनके एडमिन। ज्यादा सवाल पूछने पर यह लोग ब्लॉक कर देते हैं। यह जाति धर्म से ऊपर उठकर बिहार का विकास की बात करती है जबकि इनके पिता LNMU के दलित कर्मचारी को थप्पड़ मारा था और अपशब्द भी कहा था। क्या यह कभी अपने पिता को अपने एमएलसी क्षेत्र का विकास के लिए प्रेरित की जो आज बिहार को प्रेरणा देने चली है।

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