क्या भारत का टीवी चैनल, अख़बार रायसीना हिल पर बैठे मठाधीशों को “प्रवासी राजनेता” कह सकते हैं, फिर “प्रवासी मजदूर” क्यों?

भारत का  संसद।  फोटो: संडेकहानी   
भारत का  संसद।  फोटो: संडेकहानी   

क्या भारत के प्रिन्ट-टीवी के पत्रकार बंधू-वांधवगण भारतीय संसद के माननीय 788 सांसदों को, देश के 4123 विधायकों को या जिला-परिषदों, पंचायतों के नेताओं को “सार्वजनिक रूप से प्रवासी राजनेता” शब्द से अलंकृत करने का सामर्थ रखते हैं?  

यानि, क्या वे सार्वजनिक मंच (टीवी स्क्रीन / अख़बार के पन्ने) पर यह बोल सकते हैं, लिख सकते हैं की “भारत के प्रवासी राजनेता माननीय प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदीजी या भारत के प्रवासी राजनेता माननीय गृह मंत्री श्री अमित शाह जी? 

यदि नहीं तो “प्रवासी मजदूर” क्यों भाई? 

“मजदूरी” उसकी “पेशा” है, उसे अपने गाँव में, अपने जिले में, अपने राज्य में रोजगार नहीं मिला तभी वह पलायन किया; उसी तरह जैसे जिलों में, प्रदेशों में अपेक्षित “राजनीतिक अवसर” नहीं होने के कारण ये सभी राजनेता दिल्ली प्रवास किये !!  राजनीति इनकी पेशा है। 

एक घटना का जिक्र करता हूँ। आज से 27-वर्ष पहले यानि मार्च 26, 1993 दी न्यूयॉर्क टाईम्स में एक तस्वीर छपी थी और उस तस्वीर का कैप्शन था- “मेटाफॉर फॉर अफ्रीकाज डेस्पेयर” और तस्वीर के फ़ोटोग्राफ़र थे केविन कार्टर। 

कार्टर दक्षिण सूडान की यात्रा पर निकले थे तस्वीरों के लिए। वहां उन्हें अयोड गाँव के आसपास एक वीरान जगह में, एक गिद्ध एक छोटी बच्ची से कुछ कदम पीछे बच्ची की ओर टकटकी निगाह से देख रहा था। बच्ची शरीर से इतनी लाचार थी की वह उठ नहीं सकती थी। शरीर के लगभग सभी 270 हड्डियां भी बच्ची के शरीर में शेष बचे नाम मात्र त्वचा से अपना सम्बन्ध बिच्छेद कर रहा था। बच्ची पूर्णरूपेण महज हार-मांस का एक प्रतिक बनकर अपने जीवन की कुछ बची साँसे ले रही थी। 

उस क्षेत्र में भीषण भुखमरी आया था। एक-एक दाना अन्न-पानी-जीवन के लिए लोगबाग सहायता की प्रतीक्षा कर रहे थे। युनाइटेड नेशन्स द्वारा कुछ ही दूरी पर अन्न वितरित किया जा रहा था जिसे लाने के लिए बच्ची के अभिभावक गए थे। बच्ची वहां अकेली थी। 

कार्टर कुछ पल वहां प्रतीक्षा किये, इसलिए नहीं की बच्ची के पिता वापस आ जाएँ, बल्कि इसलिए की “अगर गिद्ध अपना पंख फैलाता है तो बच्ची को फोकस कर बैकग्राउंड में पंख फैलाये गिद्ध की तस्वीर उनके लिए बहुत बेहतरीन होगी।”

परन्तु गिद्ध पंख नहीं फैलाया और टकटकी निगाह से बच्ची की ओर देखता रहा शायद इस प्रतीक्षा में की कब वह अंतिम सांस ले और गिद्ध और उसके परिवार के लिए भोजन उपलब्ध हो जाय। परन्तु ऐसा नहीं हुआ। अंततः  कार्टर को उपलब्ध स्थिति में ही तस्वीर लेनी पड़ी। 

उसी महीने में 26 मार्च, 1993 को ‘दी न्यूयॉर्क टाईम्स’ में यह तस्वीर पहली बार छपी। इस तस्वीर को फोटोग्राफर कार्टर बेच दिए थे। अखबार में  “मेटाफॉर फॉर अफ्रीकाज डेस्पेयर” कैप्शन के साथ इस तस्वीर का प्रकाशन हुआ। 

प्रकाशन के साथ ही  दी न्यूयॉर्क टाईम्स के दफ्तर में सैकड़ों-हज़ारों फोन की घंटियां बजने लगी, चिठ्ठियाँ आने लगी, कंप्यूटर पर ईमेल में आने लगे – सबों का एक ही प्रश्न था “क्या बच्ची बची या नहीं?” 

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समाचार पत्र के सम्पादक एक विशेष नोट अख़बार में  प्रकाशित किये: “वैसे बच्ची में इतनी शक्ति थी की वह गिद्ध से अपनी जान बचा लेती, लेकिन क्या हुआ यह पता नहीं !!!” 

लेकिन फोटोग्राफर कार्टर पुरे विश्व से आलोचना के गिरफ़्त में फंस गए। लोगों ने यहाँ तक लिखा की “वहां उपस्थित व्यक्ति उपलब्ध विषय की अच्छी तस्वीर लेने के लिए अपना लेंस समायोजित करता रहा, बिना उस मरती बच्ची को मदद किये, यह वैसे ही था जैसे वहां वह भी एक गिद्ध जैसा ही उपस्थित हो।”

इस तस्वीर के लिए कार्टर को ”पुलित्ज़र पुरस्कार” से अलंकृत किया गया। परन्तु वे उस सम्मान का आनन्द नहीं उठा सके। वे अपनी मानवीय गलती के कारण स्वयं को माफ़ नहीं कर सके। वे बार-बार कहते रहे “मुझे माफ़ कर दें, मैं बच्चीं को नहीं उठाया, बचाया।” इसके अतिरिक्त अनेकानेक प्रश्न उनके मानस-पटल और ह्रदय को तार-तार करता रहा। वे स्वयं को माफ़ नहीं कर सके और तीन माह बाद वे आत्म-हत्या कर लिए। 

आज 27-साल बाद यह कोरोना वायरस के कारण भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में नेता, अधिकारी और पत्रकार कुछ ऐसे ही चौराहे पर खड़े है (जहाँ “कार्टर खड़े थे एक अच्छी तस्वीर के लिए) जहाँ लाखों-करोड़ों मानवों का सैलाव अपने-अपने घरों की ओर उन्मुख तो है, परन्तु “कोई हाथ थामने वाला नहीं है।” 

नेता, नेतागिरी कर रहे हैं। अधिकारी, नेताओं और मंत्रियों-संत्रियों का तेल-मालिस कर रहे हैं ताकि नौकरी बची रहे, कुर्सी बची रहे; पत्रकार कहानी कर रहे हैं, अधिकारीयों को – प्रशासन को – व्यवस्था को – सरकार को गालिया रहे हैं –  ब्रेकिंग न्यूज बना रहे हैं, शब्दों को छलनी से छान-छानकर, ताकि टीवी चैनल के मालिकों को प्रदेश और देश की सरकारें “दण्डबैठकी” न करा दें; और टीवी चैनलों का टीआरपी भी टनाटन रहे। 

टीवी स्क्रीन पर वक्तागण इस कदर चिचिया रहे हैं, सर पटक-पटक कर, हाथ उठा-उठाकर अपनी बात थोपने की अनवरत कोशिशें कर रहे हैं – जैसे देश के उन लाखों-करोड़ों मानवों का, उनके परिवारों का, परिजनों का बहुत बड़े शुभचिंतक वही हों; मानवता के संरक्षक वही हों – लेकिन “सत्य क्या है इसे वे तो जानते ही हैं, वहां एंकरिंग करते मोहतरमा और मोहतरम तो जानते ही हैं।”  

यकीन मानिये, आज नहीं तो कल भारतीय शोध विषयों की सूची में वर्तमान टीवी चैनलों में एंकरों के साथ आगंतुकों का चिचियाना या फिर टीवी सम्वाददाताओं द्वारा जेब में हाथ घुसाकर, बाल को सवांरते हुए, क्षण-क्षण माईक के डंडे को एक हाथ से दूसरे हाथ में रखकर, कभी बैठकर तो कभी खड़े होकर, जिस तरह से संवादों का मंचन और मंथन किया जाता है शब्दों के साथ – यह कल की पीढ़ी देखेगी तो हँसेगी ही नहीं, शायद थूके भी – अगर थूकना भारतीय दंड संहिता में अपराध घोषित नहीं करा लिए हों टीवी  मालिकगण देश के सत्ताधारी – विपक्षी राजनेताओं के मिलीभगत से। 

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सच्चाई तो यह है कि आज के पत्रकार बंधू-बांधवगण शायद  केविन कार्टर का नाम नहीं सुने होंगे। वजह भी है वह भी, एक नहीं अनेक।  

एक तो कार्टर साहेब की मृत्यु 27-साल पहले हो चुकी है और आज भारतीय टीवी चैनलों में 27-साल के कर्ता-धर्ता अधिक हैं जिनपर मालिकों का,  सम्पादकों का इतना कार्य – दवाव है कि वे कार्टर किस जंतु का नाम है, जानने का अवसर नहीं मिला होगा, अवसर निकाल भी नहीं पाए होंगे। और दूसरा – आज के युग में 13 वीं के बाद तो लोगबाग अपने-अपने माता-पिता को भूल जाते हैं (वसर्ते वे धनाढ्यों की श्रेणी में नहीं आते हों) ये कोरोना क्या चीज है ? मजदूरों के नाम पर जितनी ही दूकानदारी हो जाय। 

पिछले 61-दिनों से आप सभी भारतीय टीवी चैनलों को देखते होंगे – कोई विकल्प भी नहीं है –  पूरा देश लॉक डाउन के गिरफ्त में है। कई बातें बार-बार कान के परदे को टीवी के एंकर फाड़ रहे हैं, और वह है “प्रवासी” शब्द जिसे ”मजदूरों” के साथ जोड़कर “प्रवासी मजदूर” के नाम से चिचियाते हैं। 

भारत की सम्पूर्ण आवादी, यानि 130 करोड़ में “कौन प्रवासी नहीं है? यह भी एक शोध का विषय है। अपने गाँव, प्रखंड, अंचल, जिला, राज्य से रोजी-रोटी के लिए – चाहे राजनीतिक हो या चोरी-चमारी का या फिर मेहनत करने का – जैसे ही अपनी सीमा हम पार करते हैं “प्रवासी” के श्रेणी में आ जाते हैं। 

लेकिन बार-बार, लगातार “प्रवासी मजदूर” शब्दों का अलंकरण तो किया गया, सभी कहानी तो किये, कर रहे हैं – लेकिन हाथ कितने के आगे आये “वास्तविक मदद के लिए”, यह कोई नहीं जान सका !!  यानि, उनकी स्थिति भी ” केविन कार्टर” जैसा ही है। समाचार को बेचना “मानवता और मानवीयता को दर-किनार कर।”

देश में कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है जहाँ “प्रवासी राजनेता” सिंघासन पर नहीं बैठे हैं – अब अगर प्रधान मंत्री, मुख्य मंत्री, केबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री बनने का अवसर उनके पुस्तैनी गाँव में होता तो वे भारत के 28 राज्यों और 8 केंद्र प्रशासित क्षेत्रों में नहीं आये होते !!  

भारत का कोई भी राज्य, केंद्र प्रशासित क्षेत्र, यहाँ तक की भारत सरकार में बैठे मन्त्री से संत्री तक जो “प्रवासी राजनेता” नहीं है। देश में लोक सभा के 543 सांसद हैं और राज्य सभा में 245 संसाधें। इसके अतिरिक्त देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित क्षत्रों में 4123 विधायकगण हैं (आंध्रा प्रदेश – 175, अरुणाचल प्रदेश – 60, असम-126, बिहार-243, छत्तीसगढ़ – 90, गोवा – 40, गुजरात – 182, हरियाणा – 90, हिमाचल प्रदेश – 68, जेके – 90, झारखण्ड – 81, कर्णाटक – 224, केरल – 140, मध्य प्रदेश – 230 , महाराष्ट्र – 288 मणिपूर – 60, मेघालय – 60, मिजोरम – 40, नागालैंड – 60, उड़ीसा – 147, पवनजब – 117 राजस्थान – 200, सिक्किम – 32, तमिल नाडु – 234, तेलंगाना – 119, त्रिपुरा – 60, उत्तर प्रदेश – 403, उत्तराखंड – 70, पश्चिम बंगाल – 294, दिल्ली – 70 और पुंडुचेरी – 30)

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“राजनीति करना, राजनेता बनना उनकी पेशा है, उसी तरह जैसे दिल्ली के एक ओवर-ब्रिज बनाने के लिए बिहार का एक राज-मिस्त्री का काम करना उसकी पेशा है। या दरभंगा के गाँव से बाहर निकलकर नोएडा के एक टीवी चॅनेल के दफ्तर में एंकरिंग करना उनकी एक पेशा है – पत्रकारिता का। 

चुकी केंद्रीय मंत्रिमंडल अथवा राज्य-सरकार के मंत्रिमंडल, अथवा भारत का संसद या फिर प्रदेश का विधान सभा या परिषद् उनके घरों के आँगन में उपलब्ध नहीं है – इसलिए वे राजनेता गाँव से पलायित होते हैं। यह सिद्धांत देश के संसद से देश के पंचायत तक है। शेष स्थानों पर विभिन्न क्षेत्रों के उद्यम हैं, निजी व्यवसाय हैं, छोटे-मंझले उद्योग हैं जहाँ भारत के लोग कार्य करते हैं, अपनी मजदूरी बेचते हैं अर्थोपार्जन के लिए। । परन्तु क्या कभी किसी भी नेता को चाहे पंचायत में हो या प्रधान मंत्री की कुर्सी पर बैठे हों – कोई भी पत्रकार या संपादक उन्हें “राजनीतिक प्रवासी” शब्द से अलंकृत करने की क्षमता रखते हैं ? 

मैं कहता हूँ “नहीं” और वह इसलिए की भारत के किसी भी टीवी चैनलों के मालिकों को, उसके सम्पादकों को इतनी ताकत नहीं है की वे दिल्ली के रायसीना हिल पर बैठे मठाधीशों को “प्रवासी राजनेता” के अलंकरण से सम्बोधित करें। 

अब चुकि ये सभी इतने उत्कर्ष पर बैठे हैं, देश के नागरिकों ने इन्हे मतदान किये है, वह गरीब-गुरबा है – उसके पेट में भोजन नहीं है, तन ढंकने के लिए वस्त्र नहीं है, पैर में चप्पल नहीं है, हाथ में समय देखने के लिए धड़ी नहीं है, बच्चों को उठाने-खेलाने के लिए नौकर-नौकरानी नहीं है…..  इत्यादि-इत्यदि इसलिए वे “प्रवासी मजदुर” हो गए (दुर्दशा को बेचना एक अभिशाप है उसी तरह जिस तरह केविन कार्टर ने उस बच्ची के साथ किया था) 

अंतर सिर्फ इतना है कि केविन कार्टर को अपनी मानवीय गलती का एहसास तीन महीने के अन्दर हो गया और वह ख़ुदकुशी कर लिए; आज कोरोना वायरस के लॉक डाउन के दो महीने से अधिक दिवस होने पर भी भारतीय टीवी एंकरों को, टीवी सेटों पर बैठे महामानवों के नजर में “मानवता” का कोई मोल नहीं है। 

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