‘आर्यभट्ट’ पर फक्र है, लेकिन वशिष्ठ नारायण सिंह के पार्थिव शरीर को ‘लावारिस’ फेंकते हैं, कहते हैं बिहार का अतीत गौरवमय रहा है 

बिहार विधान सभा 
बिहार विधान सभा 

# प्राक – इतिहास में आर्यभट्ट मगध से हैं गौरवान्वित होएं और आधुनिक आर्यभट्ट डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह के पार्थिव शरीर को मगध की राजधानी में सड़क पर ‘लावारिश’  छोड़ दें, इसका जिक्र भी नहीं कीजिये।  # प्राक-इतिहास में राजा जनक मिथिला के थे, उनकी बेटी सीता मिथिला की बेटी थी, गौरवान्वित हों और प्रदेश के वेबसाईट पर हुमचकर लिखें। उसी मगध में नन्ही-नन्ही बच्चियों के साथ प्रदेश के ‘युग-पुरुष’ बलात्कार करें, महिलायें असुरक्षित महसूस करें, इसकी चर्चा तक वेबसाईट पर न  दें। 
# प्राक-इतिहास में कौटिल्य मगध से थे, गौरवान्वित महसूस करें, आधिकारिक वेबसाईट पर जमकर प्रचार करें। आधुनिक आपराधिक-चाणक्यों को राजनीति में संरक्षण मिले, चर्चा तक न करें क्योंकि अदालत उन्हें “दोषी” करार नहीं किया है। 
# प्राक-इतिहास में नालन्दा विश्वविद्यालय​ को ​एक महत्वपूर्ण शैक्षिणिक संस्था के रूप में खूब प्रचार करें, विश्व को बताएं “बिहार विश्व का शैक्षिक मार्गदर्शक था।​”​ आज सम्पूर्ण प्रदेश में सरकारी शैक्षणिक संस्थाएं जमीन के अन्दर दफ़न हो गयी, राजनेताओं-अधिकारियों के संरक्षण में निजी संस्थाओं के कारण, ​पढने के लिए बच्चे दूसरे  राज्यों में भागें. ​इस बात का जिक्र भी नहीं होने दें वेबसाइटों पर। 

डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह, जिनके पार्थिव शरीर को मगध की सड़क पर “फेंक” दिया गया – न सरकार थी, न नेतागण थे, न अधिकारी थे क्योंकि ‘वर्तमान राजनीतिक बाजार में वशिष्ठ बाबू का कोई मोल नहीं था,” इसलिए आज भी “आर्यभट्ट के नाम पर इतराते हैं। 

एक नहीं, सौ नहीं, हज़ार नहीं – लाखों “सकारात्मक” बातें हैं प्राक-इतिहास में जो मगध को विश्वपटल पर अब्बल रखता है। आज भी लाखों “नकारात्मक” बातें हैं जो आधुनिक बिहार को हिन्दमहासागर की गहराई से भी अधिक गहरी खाई में ढ़केल दिया है। आखिर “प्राक-इतिहास” से कब तक बिहार की वर्तमान छवि को बचाएंगे। कभी सोचे ?

आपका आधिकारिक वेबसाईट देखा। अच्छा लगा ‘ऐतिहासिक’ दृष्टि से। परन्तु एक बात गले के अंदर नहीं उतरा “कब तक इतिहास के सहारे जीवित रहेंगे। वर्तमान को बिहार के लोगों ने, राजनेताओं ने, अधिकारियों ने इतना नेश्तोनाबूद कर दिए, की वह एक अलग इतिहास बन गया जिसे “गौरवपूर्ण गाथाओं” में उद्धृत नहीं करते हैं – न लोग और न ही सरकार, और न ही व्यवस्था। 
एक उदाहरण से यह बहुत स्पष्ट हो जायेगा: “बिहार के लोग, सरकार, शासन, व्यवस्था ‘आर्यभट्ट’ पर तो नाज करते हैं – यह हज़ारो साल पहले के बात है – लेकिन आधुनिक आर्यभट्ट डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह के पार्थिव शरीर को मगध की राजधानी स्थित सरकारी अस्पताल की सड़कों पर लावारिश छोड़ देते हैं। यह भी एक गौरवमय इतिहास है, इसे आधिकारिक वेबसाईट पर नहीं डालते !! 

सवाल यह है कि क्या आज के परिप्रेक्ष में विधान सभा के माननीय सदस्यगण स्वयं  “विधान सभा के उस गौरवमय गाथा से वाकिफ़ हैं? क्या वे उस गौरव को बरकरार रखने हेतु अपने समयकाल में कोई सकारात्मक कार्य किये? क्या सच में प्रदेश का सर्वांगीण विकास हो, शिक्षा का विकास हो, स्वास्थ सेवाएं बेहतर ही नहीं बेहतरीन हो, प्रदेश में नियोजन के इतने अवसर हों की कोई भी मतदाता उनके विधान-सभा क्षेत्र से पलायित होकर दूसरे राज्यों में न जाय, प्रदेश की संस्कृति विश्व के आकर्षण का केंद्र हो ? बहुत सारे सवाल हैं “जो आधुनिक बिहार की गौरवगाथाओं” में लिखा जा सकता था – चाहिए तो यह था की विगत सात-दसकों में बिहार विधान सभा के सम्मानित सदस्यगण प्रदेश के विकास के लिए, जनमानस के कल्याण के लिए जो “ऐतिहासिक” कार्य किये हों, उसे वेबसाईट पर बहुत ही प्रमुखता से प्रकाशित किया जाय। लेकिन क्या ऐसा कोई कार्य है क्या?

23 – मुण्डी के मुख्यमंत्रीगण, 25,921 दिनों का कार्यकाल और बिहार का विकास – गर्व कीजिये आप बिहार के मतदाता हैं और ऐसे महान व्यक्तियों को चुनते हैं। आखिर “गणराज्य”  स्थापना तो बिहार में ही हुयी थी – गर्व कीजिये 

बिहार में अब तक 23 मुण्डी के लोग मुख्य मन्त्री पद पर आसीन हुए हैं और सचिवालय में कुर्सी को कोई 25921 दिनों तक तोड़े हैं। अपने-अपने कार्यकालों के दौरान अगर उनकी कुर्सियों में तनिक भी “खोंच” आयी तो आसमान-जमीन एक कर उसे बरकारर रखने की कोशिश भी किये। किन्हीं को सफलता हाथ लगी, तो कोई असफलता के हथ्थे चढ़ गए। परन्तु, इन पच्चीस हज़ार नौ सौ इक्कीस दिनों में अगर वे कुछ नहीं किये, कुछ नहीं सोचे, अपना बहुमूल्य समय व्यर्थ किये तो वह था बिहार के लोगों के लिए, मतदाताओं के लिए, प्रदेश के लिए “विकास” से सम्बन्धित कोई काम। एक अपवाद छोड़कर और वह थे डॉ श्रीकृष्ण सिंह। 

सच पूछिए तो ये सभी 23 मुण्डी वाले महापुरुष (श्रीकृष्ण सिंह को छोड़ दें) अपने-अपने कार्यकाल में जितनी अपनी-अपनी कुर्सियों के लिए चिन्तित रहे, बिहार के मतदातागणों की स्थिति की चिन्ता को गंगा, सोन, गंडक, कोशी आदि नदियों में प्रत्येक वर्ष आने वाली बाढ़ में पानी के प्रवाह के साथ बहाते चले गए। 

बिहार में वैसे “आया राम – गया राम” का ही साम्राज्य रहा था 1990 से पूर्व तक, लेकिन कोई भी, मौका को क्षण-भर के लिए भी नहीं चुकना चाहते थे, नहीं चुके। अगर ऐसा नहीं तो आजादी के 73 -साल बाद भी करोडो-करोड़ लोग, युवक-युवतियां रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, व्यापार या अन्य सभी वैश्विक मापदंड जिससे “विकास के स्तर को मापा जाता है”, की प्राप्ति के लिए अपने क़स्बा, गाँव, पंचायत, प्रखण्ड, जिला और प्रदेश से पलायित होकर क्यों जाते ? क्या इसकी चिंता बिहार विधान सभा या बिहार विधान परिषद् के माननीय सदस्यगण कभी किये  ? शायद नहीं। 

अगर चिंता किये होते तो आज बिहार विधान सभा के माननीय अध्यक्ष श्री विजय कुमार चौधरी अपनी तस्वीर के साथ विगत सात-दसकों में “प्रदेश में उपलब्ध विश्व-स्तरीय शैक्षणिक स्थिति के बारे में, यहाँ की विश्वस्तरीय स्वास्थ सुविधाओं के बारे, यहाँ की सभ्यता के बारे में, यहाँ की सांस्कृतिक बदलाव के बारे में, यहाँ के किसानों की समृद्धि के बारे में, यहाँ उपलब्ध विश्व-स्तरीय कल-कारखानों के बारे में, यहाँ के आधुनिक वैज्ञानिक शोध-दक्षता के बारे में, प्रदेश को विश्व का नंबर – एक राज्य बनाने में विधान सभा और विधान परिषद्  सदस्यों का सम्पूर्ण भूमिका के बारे में लिखते, अपनी तस्वीर लगाते  – परन्तु पांच सौ साल पहले हमने क्या किया, इसके बारे में चर्चा है, जिसकी जरुरत न तो आज के युवकों को है, न ही युवतियों को, न मतदाताओं को और न ही बिहार के लोगों को। उन्हें जरुरत है “रोटी” की (नहीं मिलती है), उन्हें जरुरत है “शिक्षा” की (सरकारी विद्यालयों की दशा सर्कार खुद जानती है), उन्हें जरुरत है अच्छी चिकित्सा की, इसे भी सरकार जानती है; उन्हें जरुरत है ‘नियोजन’ की, सरकार हाथ खड़ी कर देती है। यह सब बातें वेबसाईट पर नहीं है।  

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बिहार विधान सभा के आधिकारिक वेबसाईट पर लिखा देख मन तो गौरवान्वित हुआ, परन्तु वर्तमान काल को देख मन ग्लानि से भर गया आखिर विगत 73 वर्षों में क्यों कुछ ऐसा नहीं हुआ जिसके शब्द विधान सभा के आधुनिक इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्तम्भ के रूप में लिखा होता। साईट पर लिखा मिला “बिहार यानी सभ्यता,ज्ञान और शक्ति का केन्द्र जिसने अपनी समृद्धि से, राजनैतिक, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परम्परा से पूरे विश्व को आलोकित किया है।” यह सच है। परन्तु विगत 73-वर्षों में सभ्यता का जो हाल हुआ, ज्ञान का जो व्यापारीकरण हुआ, शक्ति का जो दुरूपयोग हुआ, समृद्धि का नामों-निशान मिटा गया, राजनीति में नैतिकता समाप्त हो गया – फिर किस बात से हम गौरवान्वित हों, यह आधुनिक-विचार नहीं लिखा मिला वेबसाईट पर। 

वेबसाईट पर लिखा है: “विश्व में गणतंत्र की जन्मस्थली रही है वैशाली। यहाँ वज्जीसंघ के नेतृत्व में प्रथम गणराज्य की स्थापना हुई थी।” यह सौ ही नहीं हज़ार फ़ीसदी सत्य है, परन्तु इस बात को भी उद्धृत करना चाहिए था की “गणतन्त्र का नेश्तोनाबूत बिहार की धरती पर ही हुआ जब आज़ाद भारत में अब तक प्रदेश के 23 मुख्य मंत्रियों ने कोई ऐसा ‘जनतांत्रिक’ कार्य नहीं किये जो यहाँ के लोगों का मस्तष्क ऊँचा उठा सके।”

श्री विजय कुमार चौधरी, स्पीकर, बिहार विधान सभा और श्री नितीश कुमार, मुख्य मंत्री, बिहार  तस्वीर: ट्वीटर से

अगर विधान सभा की शुरूआती दिनों से लें तो प्रदेश के प्रथम मुख्य मंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह कुल 5419 दिनों तक कार्यालय में रहे। इनके बाद आये श्री दीप नारायण सिंह जो कुल 18 दिन कुर्सी पर बैठे। प्रदेश के तीसरे मुख्य मंत्री बने  बिनोदानंद झा जो 956 दिनों तक प्रदेश के मुख्य मंत्री के रूप में अपना नेमप्लेट देखे। कार्य कितना किये लोगों की भलाई के लिए, यह बिहार के लोग अधिक जानते हैं। झाजी के बाद पदार्पित हुए श्री महामाया प्रसाद सिन्हा जो 330 दिनों तक।  
महामाया प्रसाद सिंह के बाद पांच दिन के लिए आये सतीश प्रसाद सिंह और फिर 31 दिन के लिए बी पी मंडल। आज बी पी मंडल भले दलितों के लिए भगवान् हों, परन्तु उस दिन बिहार में नहीं टिक सके, या टिकने नहीं दिया गया । मंडल साहेब के बाद पदार्पित हुए 335 दिन के लिए भोला पासवान शास्त्री (ये तीन बार कुर्सी पर विराजमान हुए क्रमशः 100 दिन के लिए + 13 दिन के लिए + 222 दिन के लिए); फिर इनके समय-काल का ठीक आधा, यानि 117 दिन के लिए हरिहर सिंह बने बिहार के मुख्य मंत्री। सभी मुख्य मंत्री विधान सभा में अपने-अपने पार्टी के नेता ही थे। हरिहर सिंह के बाद आये दारोगा प्रसाद राय जो 310 दिनों तक कार्यालय में रहे। 

फिर आये कर्पूरी ठाकुर, जो 831 दिन तक मुख्य मंत्री की कुर्सी पर आसीन रहे। कर्पूरी ठाकुर दो बार मुख्य मंत्री बने क्रमशः 163 दिनों के लिए और फिर ६६८ दिनों के लिए। बिहार में माध्यमिक परीक्षा में “कर्पूरी डिवीजन” यानि “पास विदाउट इंग्लिश” इन्ही की देन थी। कर्पूरी ठाकुर के बाद मुख्य मंत्री की कुर्सी पर बैठे केदार पाण्डे 471 दिनों के लिए और फिर 649 दिनों के लिए अब्दुल गफ़ूर – एक मात्र मुस्लिम मुख्य मंत्री अब तक। गफूर साहेब के जाते ही डॉ जगन्नाथ मिश्र कुर्सी पर आसीन हुए और 1878 दिनों तक विराजमान रहे। जगन्नाथ मिश्रा भी तीन बार मुख्य मंत्री रहे क्रमशः 750 दिनों के लिए + 1133  दिनों के लिए + 95  दिनों के लिए। लोगों का कहना है कि दीप नारायण सिंह के साथ ही, बिहार में विकासबाबू कभी नहीं आये।  हाँ, एक-आध को छोड़कर, शायद ही कोई विधायक या मुख्य मंत्री होंगे जो “प्रदेश के नाम पर खुद विकसित नहीं हुए”, हां, “प्रदेश और प्रदेश के लोगबाग बद से बत्तर होते चले गए।”

डॉ मिश्रा के बाद बने राम सुन्दर दास (303 दिन), फिर बने चंद्रशेखर सिंह (577  दिन) फिर बिंदेश्वरी दुबे – 1068  दिनों के लिए। दुबे जी को छिटकी मारे भागवत झा ‘आज़ाद’ और 391 दिनों के लिए मुख्य मंत्री का नेमप्लेट लिखवाये। अब आये सत्येंद्रनारायण सिंह जो 271  दिनों तक मुख्य मंत्री बने रहे। अब तक बिहार की राजनीति कुछ और हो गयी थी। अब मुख्य मंत्री की गद्दी पर आसीन हुए लालू प्रसाद यादव (उस ज़माने में जब अखबार वाले इनके नाम के आगे ‘यादव’ लगाते थे तो हथ्थे से कबड़ जाते थे। इसलिए अखबार के दफ्तरों में लालू प्रसाद प्रचलित हो गया। ये कुल 2689 दिनों तक मुख्य मंत्री बने रहे। दो बार कुर्सी पर बैठे क्रमशः 1845  दिनों के लिए और 844  दिनों के लिए। जैसे ही गड़बड़ी देखे, अपनी अर्धांगिनी श्रीमती राबड़ी देवीजी को मुख्य मंत्री बना दिए जो दो बार (359  दिन + 1821  दिन) मुख्य मंत्री बानी और 2180  दिनों तक कुर्सी पर विराजमान रहीं। फिर जीतन राम मांझी 278  दिन के लिए और नितीश कुमार।  नितीश कुमार अब तक कुल 5064  दिन मुख्य मंत्री कार्यालय में बने हैं और उम्मीद कर रहे हैं कि अगले पांच वर्ष तक चुनबोपरांत बने रहेंगे – लेकिन समय क्या चाहता है यह तो कोई नहीं जानता क्योंकि वे ही मतदाता भी हैं और वे ही आलाकमान। 

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यदि इन सात-दसकों को ऊँगली पर गिने विधान सभा के ओफिसिअल वेबसाईट को देखते हुए जिसमे लिखा है: ”प्राचीन काल में कभी मगध, अंग, विदेह, वज्जीसंघ, अंगुत्तराप, कौशकी एवं समूहोत्तर के रूप में चिन्हित भौगोलिक क्षेत्र को ही आज बिहार के रूप में जाना जाता है। गंगा और सोन नदी के तट पर अवस्थित पाटलिपुत्र मगध सामाज्य का केन्द्र बिन्दु बना। काल खण्ड बदलता गया, परन्तु बिहार की अस्मिता अक्षुण्ण रही,”  इस विषय के बारे में तो बिहार के राजनेता सहित अन्य गणमान्य व्यक्ति अधिक कहेंगे की “क्या सच में आज भी बिहार की वही अस्मिता है तो उन दिनों थी?”

विधान सभा के इतिहास देखकर ऐसा लगता है कि अलग होने, अलग रहने का इतिहास हमारा पुराना है। परन्तु दुःख इस बात की है की हम से “फक्र” से देखते है।   “18वीं शताब्दी के मध्य में अंग्रेजी शासन के दौरान बिहार का भू-भाग बंगाल प्रसिडेंसी का अंग बना। परंतु बिहारवासी अपनी सक्रियता एवं कर्मठता के बल पर अगल पहचान बनाए रखने में सफल रहे और बिहार को बंगाल से अलग करने की माँग लगातार उठती रही। इस ससम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण दिन 12 दिसम्बर, 1911 था जब ब्रिटिश सम्राट जाॅर्ज पंचम ने दिल्ली दरबार में बिहार एवं उड़ीसा को मिलाकर बंगाल से पृथक एक राज्य बनाने की घोषणा की एवं इसका मुख्यालय पटना निर्धरित किया। 22 मार्च, 1912 को बंगाल से अगल होकर ‘बिहार एवं उड़ीसा’ राज्य अस्तित्व मे आया और सर चाल्र्स स्टुअर्ट बेली इस राज्य के पहले उप राज्यपाल बने। इस नये राज्य के विधयी प्राधिकार के रूप में 43सदस्यी विधयी परिषद् का गठन किया गया। इसमें 24 सदस्य निर्वाचित थे एवं 19 सदस्य उप राज्यपाल द्वारा मनोनीत थे। यही परिषद्, सदस्यों के संख्या बल में अनेक परिवर्तनों के बाद आज बिहार विधन सभा के रूप में विद्यमान है।” 

इस विधायी  परिषद् की पहली बैठक 20 जनवरी, 1913 को पटना में हुई। भारत सरकार अधिनियम, 1919 के द्वारा भारत में नये शासनपति की शुरूआत हुई। इसके अनुसार केन्द्रीय स्तर पर द्विसदनीय विधयिका का प्रावधन किया गया जिसे संघीय विधान सभा एवं राज्य परिषद् नाम दिया गया जो कालांतर में भारतीय संविधन लागू होने के बाद लोक सभा एवं राज्य सभा का रूप लिया। इसी अधिनियम के द्वारा प्रान्तों  में द्वितंत्राीयशासन व्यवस्था की शुरूआत की गई, जिसके तहत प्रशासनिक विषयो को दो श्रेणियो में क्रमशः आरक्षित एवं हस्तांतरित में बाँटा गया। 

आरक्षित विषयो का प्रशासन राज्यपाल अपने कार्यकारी पार्षदो की सहायता से करते थे जबकि अंतरित विषयो का प्रशासन राज्यपाल द्वारा प्रांतीय विधयीपरिषद् के सदस्यो में से नियुक्त मंत्रियो की सहायता से किया जाता था।बिहार एवं उड़ीसा को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करते हुए उप राज्यपाल की जगह राज्यपाल की नियुक्ति की गई।

एक दृश्य यह भी। गर्व कीजिये आप बिहार के  मतदाता हैं और आपको सरकार उचित स्वास्थ सुविधा दे अथवा नहीं – विगत दिनों जिस व्यक्ति के नाम पर पूरा देश “डॉक्टर दिवस” मनाया है, वे मगध की राजधानी पटना के खजान्ची रोड स्थित “शिशु सदन” में जन्म लिए और पश्चिम बंगाल में प्रथम मुख्य मंत्री बने – तस्वीर​ ET के सौजन्य से ​

लाॅर्ड एस पी  सिन्हा इस प्रांत के पहले गवर्नर नियुक्त किये गये। बिहार एवं उड़ीसा प्रांतीय परिषद् में निर्वाचित एवं मनोनीत सदस्यो की संख्या बढ़ाकर क्रमशः 76 एवं 27 कर दी गई। इस समय तक इस विधयी परिषद् के लिये एक स्वतंत्रा भवन एवं सचिवालय की आवश्यकता महसूस की जाने लगी। फलस्वरूप वर्ष 1920 में एक नये भवन का निर्माण कराया गया एवं परिषद् का काम इसी भवन में होने लगा। यही परिषद् भवन आज बिहार विधन सभा का मुख्य भवन है। इसी भवन में ‘‘बिहार एवं उड़ीसा प्रांतीय परिषद्’’ की पहली बैठक 7 फरवरी, 1921 को सर वाल्टर मोरे की अध्यक्षता में  सम्पन्न हुई एवं इसे बिहार के प्रथम राज्यपाल श्री लाॅर्ड सत्येन्द्र प्रसन्न सिन्हा ने संबोध्ति किया। प्रान्तो में नई शासन व्यवस्था लागू होने के कुछ ही दिनो के पश्चात् प्रांतीय विधयी परिषद् को अधिक अधिकार  दिये जाने की माँग उठने लगी। 

इधर महात्मा गाँधी के नेत्त्व मे स्वतंत्राता आंदोलन भी जोर पकड़ रहा था। भारत में चल रहे आंदोलन के दबाव में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारत में उत्तरदायी शासन व्यवस्था कायम करने की घोषणा की गयी। 1930 से 1932 के बीच में तीन गोलमेज सम्मेलनों एवं पूना पैक्ट के परिप्रेक्ष में ब्रिटिश संसद द्वारा ‘भारत सरकार अधिनियम 1935  पारित किया गया। इस अधिनियम के तहत बिहार एवं उडी़सा अलग-अलग स्वतंत्र प्रदेश के रूप में अस्तित्व में आए। प्रांतीय स्वायतता की भी शुरूआत इसी अधिनियम से हुई। इस अधिनियम के सबसे महत्वपूर्ण प्रावधन के रूप में प्रांतों में द्विसदनीय विधयिका की शुरूआत हुई। 

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इसके अनुसार बिहार मे पूर्व से कार्यरत परिषद् का नामाकरण बिहार विधन सभा के रूप में किया गया एवं एक अलग उच्च एवं समीक्षात्मक सदन के रूप में बिहार विधान परिषद् का गठन किया गया। इस प्रकार बिहार विधान परिषद् अस्तित्व में आया। 30 सदस्यों वाली नई बिहार विधान परिषद् की पहली बैठक श्री राजीव रंजन प्रसाद की अध्यक्षता में 22 जुलाई, 1936 को बिहार विधान सभा कक्ष के उत्तर उसी भवन में निर्मित नये सदन-कक्ष में सम्पन्न हुई, और आज भी विधान परिषद् की बैठकें उसी कक्ष में होती आ रही हैं। इस द्विसदनीय व्यवस्था में बिहार विधन सभा के सदस्यों की संख्या 152 कर दी गई। इस आधार पर जनवरी, 1937 में बिहार विधान सभा के गठन हेतु चुनाव सम्पन्न हुए एवं 20 जुलाई, 1937 को डॉ श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में विधिवत प्रथम सरकार गठित हुई। 22 जुलाई, 1937 को बिहार विधान मंडल के दोनों सदनों का प्रथम संयुक्त अधिवेशन हुआ और 25 जुलाई, 1937 को श्री रामदयालु सिंह बिहार विधान सभा के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। 

सन् 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के प्रारंभ के पश्चात् ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रांतीय उत्तरदायी सरकारों की सहमति लिये बगैर ही भारतीयों को इस युद्ध में झोंक दिया गया। इसके विरोध-स्वरुप 31 अक्टूबर, 1939 को प्रधनमंत्राी डाॅ श्रीकृष्ण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और बिहार विधन सभा भंग कर दी गई। 1945 में द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात् बिहार में एक बार फिर विधान सभा चुनाव कराए गए और इसके बाद डाॅ श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में एक बार पुनः सरकार बनी। 25 अप्रील, 1946 को श्री बिन्ध्येश्वरी प्रसाद वर्मा विधान सभा के अध्यक्ष हुए। 

सन् 1950 में भारतीय संविधान  के लागू हो जाने के पश्चात् इसके प्रावधानों के अनुरूप सन् 1952 एवं 1957 में क्रमशः पहले एवं दूसरे आम चुनाव सम्पन्न हुये। 1952 के चुनाव में 330 सदस्यों का प्रत्यक्ष निर्वाचन हुआ तथा एक सदस्य अलग से मनोनीत किये गये। ‘राज्य पुनर्गठन आयोग 1956’ की अनुशंसाओं के आधर पर बिहार की सीमा में पुनः परिवर्तन हुआ। परिणामस्वरूप बिहार विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या 330 से घटकर 318 हो गई एवं एक सदस्य मनोनीत बच गये। अर्थात् कुल सदस्यों की संख्या 319 रही जो सन् 1962, 1967,1969 की मध्यावधि चुनाब एवं 1972 में हुए बिहार विधान सभा के विभिन्न चुनाबों में इसके सदस्यों की संख्या 319 ही रही। 

 श्री नितीश कुमार, मुख्य मंत्री, बिहार  

सन् 1977 में जनसंख्या वृद्धि के अनुपात में बिहार विधान सभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या 318 से बढ़कर 324 हो गई तथा एक मनोनीत सदस्य पूर्ववत् रहे। इस प्रकार बिहार विधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या 325 हो गई। नवम्बर, 2000 में भारतीय संसद द्वारा ‘बिहार पुनर्गठन विधेयक’ पारित होने के पश्चात् बिहार से अलग होकर झारखण्ड एक पृथक राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। इसके फलस्वरूप बिहार विधान सभा के लिये निर्वाचित कुल 324 सदस्यों में से 81 सदस्य एवं एक मनोनीत सदस्य अर्थात् कुल 82 सदस्य दिनांक 15 नवम्बर, 2000 के बाद झारखण्ड विधान सभा के सदस्य हो गये। 

इस प्रकार बिहार विधान सभा में कुल 243 सदस्य ही शेष रहे गये जो अब तक इसी स्वरूप में है। ठीक उसी तरह 1937 में बिहार विधान परिषद् में सदस्यों की संख्या 30 थी। संविधान लागू होने के बाद यह 72 कर दी गई। वर्ष 1958 में यह संख्या बढ़कर 96 हो गई और वर्ष 2000 में झारखण्ड राज्य के गठन के बाद बिहार विधान परिषद् की संख्या घटकर 75 हो गई, जो अभी भी इसी स्वरूप में है।

अंततः, बिहार की जनता को भले मुख्य मंत्रियों के द्वारा प्रदेश का विकास परिलक्षित न हो चाहे नितीश बाबू बने या पासवान जी बने या लालू प्रसाद के पुत्रद्वय बने या कुशवाहा जी प्रदेश के मुख्य मंत्रियों की अगली सूची में अपना नाम दर्ज करें; प्रदेश में सरकारी स्तर पर बेहतरीन शिक्षा न मिले जिससे प्रदेश के छात्र-छात्राएं “कोटा” जाते रहें, प्रदेश में उच्चस्तरीय चिकित्सा न मिले और लोगबाग राजनेताओं द्वारा संरक्षित निजी अस्पतालों में भर्ती होते रहे, मरते हैं;  लेकिन एक बात तो माननीय विधान सभा के अध्यक्ष अपने सदन में जरूर “मैंडेटरी” कर सकते हैं कि विधान सभा के सभी 324 सदस्यों को विधान सभा के गौरवमय इतिहास को कण्ठस्त रखना होगा और उन्हें प्रत्येक बजट-सत्र के दौरान एक परीक्षा उत्तीर्ण होना होगा ! क्या कहते हैं माननीय अध्यक्ष महोदय ?

1 COMMENT

  1. बिहार के बारे में बेहतरीन व ऐतिहासिक महत्व की जानकारी, जिससे युवा पीढ़ी के ज्यादातर लोग अवगत नहीं है..? तथ्यों के साथ ज्ञानवर्धन के लिए आपका आभार..🙏

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