16 जुलाई: 160-साल पहले आज के ही दिन ‘ऊंची जाति की विधवाओं’ को ‘पुनर्विवाह’ करने की अनुमति मिली थी

गर्भपात एक अपराध है। लेकिन भारत में छः करोड़ विधवाओं के रक्षार्थ कोई कानून नहीं है। इस दिशा में सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक ने अनेकानेक प्रयास किये, प्रधान मन्त्री श्री नरेंद्र मोदी से भी प्रार्थना किये - लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। 
गर्भपात एक अपराध है। लेकिन भारत में छः करोड़ विधवाओं के रक्षार्थ कोई कानून नहीं है। इस दिशा में सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक ने अनेकानेक प्रयास किये, प्रधान मन्त्री श्री नरेंद्र मोदी से भी प्रार्थना किये - लेकिन अब तक कुछ नहीं हुआ। 
  • क्या आप जानते हैं कि भारत में न्यूनतम ढ़ाई-लाख दस-वर्ष से उन्नीस-वर्ष की आयु वाली महिलाएं “विधवा” हैं। वैसे देश में बाल-विवाह प्रथा पर प्रतिबन्ध  है। कानून की धज्जियाँ ऐसे ही उड़ती हैं। खैर !!
  • क्या आप जानते हैं कि पूरे भारतवर्ष में तक़रीबन छः करोड़ महिलाएं (विभिन्न आयु की, मसलन 20 वर्ष से ऊपर) “विधवा” हैं और देश में “पति की मृत्यु बाद, यानि विधवा के सम्मानार्थ/रक्षार्थ कोई कानून नहीं है।” तभी तो “एक महिला के पति के मृत्योपरान्त समाज के लोग ही नहीं, उसके बाल-बच्चे भी पूछते हैं अब कहाँ रहेगी? कहीं मेरे गले न पड़ जाय !! – बसर्ते, उक्त महिला के पास लाखों-करोड़ों-अरबों-खरबों की सम्पत्ति नहीं हो। 

आज 16 जुलाई है। आज के ही दिन समाज सुधार आंदोलनों के दौर में करीब 160 साल पहले एक महत्वपूर्ण घटना ने आज की तारीख को भारतीय इतिहास में सुनहरे अक्षरों में दर्ज करा दिया। 16 जुलाई, 1856 को समाज सुधारकों के महती प्रयास के बाद देश में ऊंची जाति की विधवाओं को पुनर्विवाह करने की अनुमति मिली। इससे पहले हिन्दुओं में ऊंची जाति की विधवाएं दोबारा विवाह नहीं कर सकती थीं।

कभी मौका मिले तो समाज की किसी गली में, नुक्कड़ पर, चौराहे पर किसी “पति-विहीन” महिला, यानि एक विधवा से पूछिए की वह कैसे जी रही है? कुछ बताये अथवा नहीं – उसकी आंसू कई ग्रन्थ लिख देंगे भारत में। बहुत चिंताजनक स्थिति है। पति चाहे कैसा भी हो,  स्वयं को जितना सुरक्षित मानती है, उसकी मृत्यु के बाद उसका ब्राह्मण समाप्त हो जाता है – वित्तीय और आर्थिक समस्याएं तो कई बार इतनी बड़ी हो जाती हैं कि उनका समाधान बहुत मुश्किल नजर आता है। लेकिन समाज को क्या? व्यवस्था और सरकार  को क्या? जब तक जीवित है – ऊँगली में स्याही लगाते रहें, मतदान करवाते रहें। 

 ईश्वरचन्द्र विद्यासागर 

मृत्युंजय दीक्षित​ के अनुसार:  भारत में नारी उत्थान के प्रबल समर्थक व सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत ईश्वरचंद्र विद्यासागर का जन्म 16 सितम्बर 1820 को पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर के ग्राम वीरसिंह में हुआ था। विद्यासागर का परिवार धार्मिक प्रवृत्ति का था जिसके कारण उनको भी अच्छे संस्कार मिले। उन्होंने नौ वर्ष की अवस्था से लेकर 13 वर्ष की आयु तक संस्कृत विद्यालय में ही रहकर अध्ययन किया। घर की आर्थिक स्थिति को ठीक करने के लिए दूसरों के घरों में भोजन बनाया और बर्तन साफ किये। ईश्वरचंद्र अपनी मां के बड़े आज्ञाकारी थे तथा किसी भी हालत में वह उनका कहा नहीं टालते थे। उन्होंने काफी कठिन साधना की। रात में सड़क पर जलने वाले लैम्प के नीचे बैठकर पढ़ाई की। कठिन साधना के बल पर संस्कृत की प्रतिष्ठित उपाधि विद्यासागर प्राप्त हुई। 

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डॉ निलाद्री बनर्जी, महान  समाज-सुधारक ​ईश्वरचंद्र विद्यासागर की चौथी पीढ़ी और डॉ बिन्देश्वर पाठक, जिन्होंने भारत के विभिन्न राज्यों, धार्मिक स्थलों और विधवा-आश्रमों में जीवन की साँसे गिन रहीं हज़ारों-हज़ार  विधवाओं को अपनाया है भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुरोध पर।  

1841 में वह कोलकाता के फोर्ट विलियम कालेज में पढ़ाई करने लग गये। 1847 में संस्कृत महाविद्यालय में सहायक सचिव और फिर प्राचार्य बने। वे शिक्षा में विद्या के सागर और स्वभाव में दया के सागर थे। एक बार उन्होंने देखा कि एक महिला असहाय पड़ी है। उसके शरीर पर से दुर्गंध आ रही थी। लोग उसे देखकर मुंह फेर रहे थे पर वे उसे उठाकर घर ले गये। उसकी सेवा की और उसके भावी जीवन का प्रबंध किया।

जिन दिनों महर्षि दयानंद सरस्वती बंगाल के प्रवास पर थे तब ईश्वरचंद्र जी ने उनके विचारों को सुना। वे उनसे प्रभावित हो गये। उन दिनों बंगाल में विधवा नारियों की हालत बहुत दयनीय थी। बाल विवाह और बीमारी के कारण उनका जीवन बहुत कष्ट में बीतता था। ऐसे में उन्होंने नारी उत्थान के लिए प्रयास करने का संकल्प लिया।

उन्होंने धर्मग्रंथों द्वारा विधवा विवाह को शास्त्र सम्मत सिद्ध किया। वे पूछते थे कि यदि विधुर पुनर्विवाह कर सकता है तो विधवा क्यों नहीं। उनके प्रयास से 26 जुलाई 1856 को विधवा विवाह को बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल ने स्वीकृति दे दी। उनकी उपस्थिति में 7 दिसम्बर 1856 को उनके मित्र राजकृष्ण बनर्जी के घर में पहला विधवा विवाह सम्पन्न हुआ।

अपनी ही छवि निहारते हुए विधवाएं 

इससे बंगाल के परम्परावादी लोगों में हड़कम्प मच गया। ईश्वरचंद का सामाजिक बहिष्कार होने लगा। उन पर तरह-तरह के आरोप लगाये गये। लेकिन इसी बीच उन्हें बंगाल की एक अन्य महान विभूति श्रीरामकृष्ण परमहंस का समर्थन भी मिल गया। उन्होंने नारी शिक्षा का प्रबल समर्थन किया। उन दिनों बंगाल में राजा राममोहन राय सती प्रथा के विरोध में काम कर रहे थे। ईश्वरचंद्र जी ने उनका भी साथ दिया और फिर इसके निषेध को भी शासकीय स्वीकृति प्राप्त हुई। नारी शिक्षा और उत्थान के प्रबल समर्थक ईश्वर चंद्र विद्यासागर का 29 जुलाई 1891 को हृदयरोग से निधन हो गया।बहरहाल, आज 160-साल बाद भी, ज्यादातर समाज में महिलाओं के मुकाबले सभी प्रकार के धन और संपत्तियों पर गैर अनुपातिक ढंग से मालिकाना हक पुरुषों का होता है। लैंगिक स्तर पर यह विषमता सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि आमदनी और कमाई में भी होती है। खानदानी जमीन-जायदाद में मालिकाना हक जैसे मामलों में महिलाओं की स्थिति हमेशा कमतर होती है। विधवा होने की स्थिति में इसका प्रभाव बहुत बड़ा होता है, जो असहनीय स्तर तक पहुंच जाता है। विधुर पुरुष की तुलना में विधवा महिला के हालात इतने खराब हो जाते हैं कि कई बार तो जीवन यापन तक मुश्किल हो जाता है। 

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सामाजिक स्तर पर नकारात्मक दृष्टिकोण की वजह से विधवाओं को कई कठिनाइयों और अभावों का सामना करना पड़ता है। समाज द्वारा उन पर और उनके क्रियाकलापों पर कई प्रकार की पाबंदियां लगा दी जाती है।पितृसत्तात्मक रीति-रिवाजों, धार्मिक मान्यताओं और विरासती अधिकारों का भेदभाव पूर्ण असर होता है. कई विधवा महिलाओं को परिजनों द्वारा उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। संपत्ति विवादों में अक्सर मामले विधवाओं से ही जुड़े होते है। विधुर पुरुषों के मुकाबले विधवाओं के पुनर्विवाह के मामले बहुत कम सामने आते हैं।  तमाम सांस्कृतिक बंधनों में दबी ऐसी औरतों को अक्सर समाज और स्थानीय समुदाय नजरअंदाज कर देता है। वैवाहिक संपत्ति के बंटवारे में और बच्चों पर अधिकार में महिलाओं को वंचित कर दिया जाता है। कम संपत्ति और आय वाले परिवारों में विधवाओं को पूर्ण रूप से दरकिनार कर देने, यहां तक विधवा आश्रमों में भेज देने का भी चलन है। विधवा औरत की यह स्थिति बिल्कुल शरणार्थियों जैसी होती है. देश के कई शहरों में विधवाओं का आश्रम है, जहां निराश्रित महिलाओं शेष जीवन गुजार रही है। 

बजट घोषणा वर्ष 2007 -08 की अनुपालना में विधवा महिलाओं की वैधव्‍य अवस्‍था को समाप्‍त करने की दृष्टि से इस योजना को प्रारम्‍भ किया गया है। योजनान्‍तर्गत, वर्तमान पेन्‍शन नियमों में हकदार विधवा महिला यदि शादी करती है तो उसे शादी के मौके पर राज्‍य सरकार की ओर से उपहार स्‍वरूप 15,00० रुपये की राशि प्रदान की जाती है। इस हेतु आवेदिका को निर्धारित प्रार्थना पत्र भरकर विवाह के एक माह बाद तक सम्‍बन्धित ज़िले के ज़िला अधिकारी, सामाजिक न्‍याय एवं अधिकारिता विभाग को प्रस्‍तुत करना होगा।  

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सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन के संस्थापक डॉ बिन्देश्वर पाठक वृन्दावन की विधवाओं  अंतिम संस्कार करने का भी उत्तरदाईत्व उठाया। पहले विधवाओं की मृत्यु होने पर शरीर को काट कर   ,बोरी में भरकर यमुना में प्रवाहित कर दिया जाता था – जानते क्यों? सरकार के पास इस कार्य के लिए पैसे नहीं थे 

बहरहाल, उत्तर में वरुणा नदी और दक्षिण में अस्सी नदी के बीच बसा बनारस और बनारस की सैकड़ों गालियां न जाने कितनी विधवाओं के इतिहास को समेटे हुए हैं – निःशब्द। आज भी बनारस की गलियों में, विधवा आश्रमों में कई हज़ार विधवाएं अपने जीवन की अंतिम बसन्त को समाप्त होते देख रहीं हैं। गंगा की ओर जाती बनारस की पुरानी गलियों में जैसे दो घरों की दीवारें बांस-बल्लों के सहारे एक-दूसरे को संभाले हुए हैं, इस विस्वास के साथ की दोनों एक-साथ गिरेंगे; भारत के गाओं, शहरों से बनारस के घाटों पर, बनारस की तंग गलियों में अपने ही परिवारों, परिजनों, सन्तानो द्वारा फेकीं गयी, पटकी गयी विधवाओं को अब सिर्फ महादेव का सहारा है उनका शरणागत होने के लिए।  

गौरतलब है कि सुलभ फाउण्डेशन वर्ष 2012 से उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर वृन्दावन, वाराणसी तथा उत्तराखण्ड आदि में रहकर भजन-कीर्तन और भिक्षावृत्ति के सहारे अपना बाकी जीवन जैसे-तैसे काट रहीं विधवा एवं परित्यक्त महिलाओं को सम्मानजनक जीवन देने का प्रयास कर रहा है। अब तक कई हज़ार विधवाओं को सुलभ ने गोद लिया है। प्रतिमाह 3000 रुपये के अतिरिक्त इन महिलाओं को रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया कराने के अलावा सामाजिक सम्मान दिलाने के लिए होली, दिवाली, रक्षाबंधन तथा दुर्गापूजा आदि त्यौहारों के अवसर पर समाज के अन्य वर्गों के समान ही खुशी मनाने तथा खुशियां बांटने का मौका देने की शुरुआत की गई।  

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