कितने विनम्र थे राजेन्द्र प्रसाद जब महाराजाधिराज दरभंगा और प्लेन के पायलट को धन्यवाद दिए 

महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह और प्रथम राष्ट्रपति डॉ  राजेन्द्र प्रसाद
महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह और प्रथम राष्ट्रपति डॉ  राजेन्द्र प्रसाद

अविभाजित भारत की बात अगर रहने भी दें, तो आज़ाद भारतवर्ष में शायद ही कोई होंगे जिन्हे देश का राष्ट्रपति अवकाशोपरांत पत्र लिखकर आभार व्यक्त किये हों। इतना नहीं, उस कार्य विशेष को संपन्न करने में संलग्न “कर्मियों” के प्रति भी उतना ही मानवीय हों, और कृतज्ञ हों। 

शायद नहीं मिल पाएंगे ऐसे व्यक्ति। वजह  भी है – आज टेंटुए में “दो पैसे” हुए अथवा नहीं, सम्पूर्ण शरीर बैंकों के कर्ज में डुबा हो; लेकिन महाशय और मोहतरमाओं का “अहंकार”  और “तेवर” देखना हो तो दिल्ली के इण्डिया गेट देखिये, मुंबई के गेटवे ऑफ़ इण्डिया देखिये।  कुछ कम दिखें तो मुंबई के चौपाटी पर विचरण कर लें।  दिल्ली के राजपथ-रायसीना रोड पर ऊपर नीचे कर लें।

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद की महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह के नाम लिखी अनेकों चिट्ठियों में एक चिट्ठी शब्दों पर घ्यान दें। यह चिठ्ठी हवाई जहाज से सम्बन्धित है। 

“श्रद्धेय महाराजा साहेब। 

“आपने बड़ी कृपा करके प्लेन पटना भेज दिया  जिससे मैं बहुत आराम साथ कल यहाँ डेढ़ बजे दिन में पहुँच गया। प्लेन  में हर तरह से आराम रहा और समय भी बहुत कम लगा। इसके लिए मेरा  धन्यवाद स्वीकार करें और मेरी ओर से पायलेट और जहाज के दूसरे कार्यकर्ताओं को धन्यवाद पहुंचा दिया जाय………. “

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद अपने कार्यालय में 26 जनबरी 1950 से 13 मई, 1962 तक रहे। इससे पहले वे 9 दिसंबर, 1946 से 26 जनबरी, 1950 तक  भारत के संविधान सभा के अध्यक्ष थे। 

डॉ प्रसाद अवकाशोपरान्त (13 मई, 1962) महज साढ़े-आठ महीने जीवित रहे। स्वयं और पत्नी अक्सर बीमार रहने लगे थे। मृत्यु से आठ महीने पहले, यानि 4 जुलाई, 1962 को महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह को एक पत्र लिखते हैं।  इस पत्र का एक-एक शब्द दोनों महामानवों के स्नेह, प्रेम, एक-दूसरे के प्रति आत्मीय-सम्मान को दर्शाता है। 

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इस पत्र के प्राप्ति के महज तीन-माह बाद महाराजाधिराज सर कामेश्वर सिंह पृथ्वी को छोड़कर अपनी अनंत यात्रा पर निकल गए। जबकि डॉ राजेन्द्र प्रसाद महाराजाधिराज की मृत्यु के चार माह बाद 28 फरबरी, 1963 को ईश्वर के पास प्रस्थान किये। 

58-वर्ष पूर्व का ऐतिहासिक पत्र। प्रथम राष्ट्रपति (अवकशॉपरान्त)  राजेन्द्र प्रसाद का महाराजाधिराज दरभंगा सर कामेश्वर सिंह के नाम आभार व्यक्त करते

डॉ प्रसाद लिखते हैं:

सदाकत आश्रम, पटना प्रवास : लेक व्यू गेस्ट हॉउस हैदराबाद, आंध्र प्रदेश 
4 जुलाई 1962 

श्रद्धेय महाराजा साहेब। 
आपने बड़ी कृपा करके प्लेन पटना भेज दिया  जिससे मैं बहुत आराम साथ कल यहाँ डेढ़ बजे दिन में पहुँच गया। प्लेन  में हर तरह से आराम रहा और समय भी बहुत कम लगा। इसके लिए मेरा  धन्यवाद स्वीकार करें और मेरी ओर से पायलेट और जहाज के दूसरे कार्यकर्ताओं को धन्यवाद पहुंचा दिया जाय।”
मेरी तबियत सुस्त है और पटना की आबो हवा कारण खाँसी बगैरह बढ़ गयी थी। मैं उम्मीद करता हूँ कि यहाँ जल्द स्वस्थ हो जाऊंगा। मेरी पत्नी की तबियत ज्यादा खराब है। वे बहुत दिनों से बीमार रही हैं और उठना बैठना, चलना फिरना उनके लिए असम्भव हो गया है। किसी तरह से उनको गोदी में उठाकर कुर्सी पर रख दिया जाता है और पहिया लगी हुई कुर्सी इधर उधर एक कमरे से दूसरे कमरे उनको ले जाती है। उनको मैंने इस लिए अपने साथ लाना उचित समझा कि मेरी गैरहाज़िरी में वे चिंतित दुःखी रहती और  मैं भी जहाँ रहता चिन्तित रहता। यहाँ की आबो हवा भी अच्छी है इस लिए उनकी तबियत भी कुछ सुधर सकती है। और  कृपा से यहाँ आनन्द है। 
मेरे बड़े लड़के मृत्युंजय पटना में ही हैं मगर छोटा लड़का धनञ्जय और स्त्री अपनी माता की सेवा के लिए यहाँ आयी हैं। 
आशा है कि आप स्वस्थ होंगे। 
आपका राजेंद्र प्रसाद 
दस्तावेजों  अनुसार कहा जाता है कि अफ़ग़ानिस्तान से आने वाले व्यापारी पहले इसी जगह रुकते थे और फिर यहाँ से बंगाल में प्रवेश करते थे। इसी कारण इस जगह का नाम उन्होंने दर-ए-बंगाल (बंगाल का दरवाज़ा) रख दिया जो धीरे-धीरे दरभंगा बन गया। एक दस्तावेज के अनुसार बादशाह अकबर ने दरभंगा को तिरहुत राज्य के महामहोपाध्याय महेश ठाकुर को 16वीं शताब्दी में सौंपा था जो दरभंगा सीमा से फैलकर नेपाल की सीमा तक फैल गया था। यह शहर यहाँ की ब्राह्मण जाति में पाई जाने वाली उच्च शिक्षा, संस्कृति, रिवाज, बोलचाल, स्नेह, प्रेम इत्यादि के लिए भी प्रसिद्ध रहा है। यहाँ एक तरफ मिथिला के लोगों की उच्च शिक्षा का लोहा सभी ने माना है तो दूसरी तरफ मिथिला की महिलाओं की अदभुत कला मधुबनी पेंटिंग के नाम से प्रसिद्ध है। राज दरभंगा की ओर से महाराजाधिराज के समय से आज तक मिथिला की शिक्षा-संस्कृति हमेशा संरक्षण मिला है। 

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