“साहित्य संगीत कला विहीन: । साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन: ।।”
पिछले दिनों इंटरनेट पर रीना जी लिखित कला और जीवन में इसका महत्व विषय पर कुछ पढ़ रहे थे। रीना जी हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान बाबू गुलाबराय को उद्धृत करते बहुत ही बेहतरीन तरीके से लिखीं हैं: “कला का उदय जीवन से है, उसका उद्देश्य जीवन की व्याख्या ही नहीं वरन् उसे दिशा देना भी है । वह जीवन में जीवन डालती है । वह स्वयं साधन न बनकर एक वृहत्तर उद्देश्य की साधिका होकर अपने को सार्थक बनाती है । वह जीवन को जीने योग्य बनाकर उसे ऊँचा उठाती है । बह जीवन में नए आदर्शों की स्थापना कर उसका प्रचार करती है और हमारे जीवन की समस्याओं पर नया प्रकाश डालती है ।”
यानि, कला केवल उल्लास, हर्ष और आनन्द को प्रकट करने का माध्यम ही नहीं है, बल्कि समाज को परिवर्तन की ओर भी उन्मुख करती है और उसमें एक नवीन चेतना जागृत करती है ।कहते हैं संसार के सभी जीवों में मनुष्य श्रेष्ठ है । उसके पास बुद्धि और विवेक के रूप में दो ऐसी नैसर्गिक शक्तियाँ हैं, जिनके कारण वह अन्य जीवों से ऊँचा उठ पाया है ।
आत्मरक्षा की प्रवृत्ति और प्रजनन क्षमता लगभग सभी जीवों में पाई जाती है और वे इनसे सन्तुष्ट हो जाते हैं, परन्तु मनुष्य केवल इससे ही सन्तुष्ट होकर नहीं रह जाता । सम्भवत: यही विचार कला के जन्म का मूल है । वास्तव में, ‘कला’ क्या है इसका सटीक उत्तर दे पाना सरल नहीं है । राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कला के सन्दर्भ में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है- ”अभिव्यक्ति की कुशल शक्ति ही कला है ।”

अभिव्यक्ति की पूर्णता ही कला है… अभिव्यक्ति ही उसका सौन्दर्य है । यानि, ”कला, कलाकार के आनन्द के श्रेय और प्रेम तथा आदर्श और यथार्थ को समन्वित करने वाली प्रभावोत्पादक अभिव्यक्ति है ।” वास्तव में, कला सुन्दरता की अभिव्यक्ति है और समृद्धि की परिचायक है । कहा जाता है कि जिस जाति की कला जितनी समृद्ध और सुन्दर होगी, वह जाति उतनी ही गौरवशाली और प्राचीन होगी । इसीलिए कला को किसी भी राष्ट्र की संस्कृति का मापदण्ड भी कहा जाता है ।
जब व्यक्ति भौतिक रूप से सुरक्षित होता है और उसे किसी बात का भय नहीं होता, तब वह मानसिक और आत्मिक सन्तुष्टि को प्राप्त करने की दिशा में प्रयासरत होता है ।इस क्रम में जब उसकी अतिरिक्त ऊर्जा सौंदर्न्यानुभूति के रूप में प्रकट होती है, तो कला कहलाती है । कला निरन्तर ऊँचा उठने के प्रगतिशील विचार की परिचायक है । इसी के माध्यम से नवीन विचारों, आचार और मूल्यों का सृजन होता है ।
ये हैं श्री जसप्रीत मोहन सिंह जी। पेशे से शिक्षाविद रहे हैं। और प्राचार्य के तौर पर गवर्मेंट सीनियर सेकेंडरी स्कूल, धनानसु (लुधियाना) से अवकाश प्राप्त किये हैं। सन 1960 में जन्म लिए पंजाब का यह योद्धा, शिक्षण के माध्यम से अपने बाद की पीढ़ियों को तो ससक्त किये ही हैं जीवन-पर्यन्त; शिक्षा से थोड़ा अलग हटकर भी इन्होने कला के माध्यम से नयी पीढ़ियों में सामाजिक संवेदना जागृत करने, उसे धरोहर के रूप में रखने के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिए हैं। जीवन में अनुशाशन बनी रहे, इसलिए राष्ट्रीय कैडेट कॉर्प्स के भी सदस्य रहे।
कला के क्षत्र में अभिरूच होने के कारण विभिन्न संस्थाओं से जुड़े रहे और पिछले चार दसकों में सैकड़ों अवार्ड और प्रशस्तिपत्र प्राप्त किये। कला का सर्वांगीण विकास हो, इसलिए इन्होने अनेक संस्थाओं का गठन भी किया जिससे नए उभरते कलाकारों को ब्रश-अप कर उसे स्टेट-लेवल के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं के लिए सवाल बनाया जा सके। ईश्वर इन्हें और इनकी कला को जीवंत रखे।