आगामी ३१ जुलाई को धनपत राय श्रीवास्तव यानि मुंशी प्रेमचंद का जन्म दिन है। कोई 140 साल पहले 31 जुलाई, 1880 को बनारस जिले के लमही गाँव में जन्म लिए। जन्म तो कायस्थ परिवार में हुआ, लेकिन हो गए वे हिन्दी साहित्य के। मुंशी प्रेमचंद के बहाने यह जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर सबसे बड़ा बुद्धिमान अथवा बेवकूफ कौन है ? गधा स्वयं, बैल या फिर मनुष्य।
वजह यह है कि “हल-बैल” की प्रथा तो भारत भूमि से लुप्तप्राय हो ही गई है, और जिस तरह कोरोना वायरस का देश में अधिपत्य हो रहा है – विस्वास करना भी तर्कसंगत नहीं होगा की आने वाले दिनों में भारतीय मनुष्य अपनी बेवकूफी अथवा बुद्धिमानी के कारण इस भूमण्डल पर दिखेगा या वह भी लुप्त प्राणियों की सूची में दर्ज हो जायेगा। वजह यह है की मनुष्य को ‘चाहे किसी भी विधि से जन्म लें’, ‘कोई वैज्ञानिक तरीका अपनाया जाय, 9-महीने तो चाहिए ही चाहिए कोख में। लेकिन पृथ्वी से कूच करने के लिए तो 9-सांस रुकना ही काफी है। विचार जरूर कीजिये क्योंकि वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र कुमार लिख दिए की “मनुष्य जाहिल है। हम डरते हैं, लेकिन संभलते नहीं।”
बहरहाल, धनपत राय श्रीवास्तव जी की कहानी कुछ इस प्रकार है। हमें विस्वास है आज की पीढ़ी को अगर उनके पाठ्यक्रम (सिलेबस) में सी बी एस ई उद्दृत नहीं किया होगा तो शायद धनपत राय श्रीवास्तव जी भी नहीं सुने होंगे और विगत चार महीनों से अधिक “लॉक डाउन अवधि में अभिभावकों के पास समय तो होगा ही नहीं की उन्हें बता भी दें।”
जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुद्धिमान समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पहले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता। गायें सींग मारती हैं, ब्याही हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है, किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहो गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सड़ी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी नहीं दिखाई देगी।
सुख-दुःख, हानि-लाभ किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ऋषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर! कदाचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है। और वह है ‘बैल’. जिस अर्थ में हम ‘गधा’ का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में ‘बछिया के ताऊ’ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफी में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं हहैं। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अड़ियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएवं उसका स्थान गधे से नीचा है।
झूरी के पास दो बैल थे – हीरा और मोती। देखने में सुंदर, काम में चौकस, डील में ऊँचे।बहुत दिनों साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आस-पास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय किया करते ठये। एक-दूसरे के मन की बात को कैसे समझा जाता है, हम कह नहीं सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है। दोनों एक-दूसरे को चाटकर सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे, विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोनों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है।
जिस वक्त ये दोनों बैल ‘हल’ या ‘गाड़ी’ में जोत दिए जाते और गरदन हिला-हिलाकर चलते, उस समय हर एक की चेष्टा होती कि ज्यादा-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिन-भर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते तो एक-दूसरे को चाट-चूट कर अपनी थकान मिटा लिया करते, नांद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नांद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।
परन्तु, नोवल कोरोना वायरस ने इंसान की जिंदगी में बड़े बदलाव लाये हैं और आगे भी लायेगा। इस वैश्विक आपदा ने भौतिकवाद और आधुनिकता की अंधी दौड़ में भाग रहे इंसान को रोककर यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि क्या जिस विकास की राहत उसने पकड़ी है वह सही है । यही बात खेती किसानी पर भी लागू होती है । इस समय हमें यह सोचना होगा कि हमारे पूर्वजों के बनाये हल-बैल के संबंध को जिस तरह से हरित क्रांति के साथ समाप्त कर खेती में आधुनिकता की राह पकड़ी गयी उससे हमें क्या मिला। क्या इस सबंध को खत्म कर हम अपनी समस्याओं का स्थायी हल निकाल पाये ।
बैल का भारत की कृषि और पशुपालन से चोली दामन का साथ था। लेकिन आधुनिकता के दौर में लोग हल-बैल की जगह ट्रैक्टर से जुताई करने लगे। धीरे-धीरे खेत और बैलों का रिश्ता खत्म होने लगा। गाँवों में पहले खेती में बैलों का उपयोग बहुतायत में होता था। किसानों के दरवाजों पर एक से बढ़कर एक बैलों की जोड़ियां बंधी होती थीं। जब गाँव का कोई व्यक्ति नए बैलों की जोड़ी लाता था, तो उन बैलों को देखने के लिए गाँव वालों का तातां लग जाता था, लेकिन अब गाँवों में बैलों का उपयोग बहुत कम हो गया है। किसानों ने गोवंश से दूरी बना ली।
सत्तर-अस्सी के दशक में मवेशियों की संख्या अधिक हुआ करती थी। पारंपरिक खेती का प्रचलन भी चरम पर था। परंतु अब पशुओं खासकर बैल की संख्या में भारी गिरावट आई है। इससे पारंपरिक खेती करने में किसानों को भारी परेशानी हो रही है। खेती किसानी में तकनीक का प्रयोग बढ़ गया है। फिर भी किसान वर्ग आज भी पारंपरिक खेती को तरजीह देते हैं। हालांकि अब एक किसान के पास कुछ जोड़ी ही बैल बचे हैं। जिसके कारण कभी पशुओं के गले में बंधी घंटी की मधुर ध्वनि अब बहुत कम सुनाई पड़ती है।
”हल-बैल” से खेती करने का आनंद ही अलग है। हल-बैल से जमीन की जुताई भी अच्छी होती है। तकनीक में उतरोत्तर विकास से किसान भी आलसी हो गए हैं। समय की बचत व कम मेहनत के जरिये किसान अधिक ऊपज चाहता है। खेती और पशुपालन एक-दूसरे के पूरक हैं। लेकिन अब पशुपालन धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। हालांकि कृषि यंत्रों के इस युग में भी बहुत से किसान ट्रैक्टर के बजाए पारंपरिक हल-बैल के माध्यम से ही खेतों की जुताई करना बेहतर समझते हैं। उन्हें हल-बैल के साथ खेतों में उतरना खुशी का अहसास दिलाता है। खेत भी बना रहता है। खेत में जुताई करते वक्त किसान आंचलिक गीत भी गाते थे। अब ये गीत तो सुनाई नहीं देते पर किसान और बैल के सामंजस्य का गीत खेत जरूर गा रहा होता है। हम उस सुन नहीं सकते, पर महसूस जरूर कर सकते हैं। किसान और हल-बैल की जोड़ी सृष्टि की सबसे खूबसूरत जोड़ी है।
परंपरागत खेती में बैलों से जुताई, मोट और रहट से सिंचाई और बैलगाड़ी के जरिये फसलों व अनाज की ढुलाई भी की जाती थी। खेत से खलिहान तक, खलिहान से घर तक और घर से बाजार तक किसान बैलगाड़ियों से अनाज ढोते थे। आज बैलगाड़ियां लुप्तप्राय हो गई हैं। खेत और बैल का रिश्ता भी धीरे-धीरे टूट रहा है। गाय-बैल और मनुष्य के आपसी स्नेह और प्रेम के बंधन खुलते जा रहे हैं। हालांकि इस रिश्ते की तमाम कहानियां अब भी सुनी सुनाई जाती हैं। प्रेमचंद की बेहद चर्चित कहानी ‘दो बैलों की कथा’ कौन भूल सकता है भला! बैल के प्रति किसान के मन में और किसान के प्रति बैल के मन की जो संवेदनशीलता इस कहानी में चित्रित है, अन्यत्र दुर्लभ है। पर अफसोस! खूंटे अब यादों में ही गड़े रह गए हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षाविद् दिनेश कुमार उपाध्याय कहते हैं परंपरागत खेती और हल के महत्व तथा कोरोना काल में एकबार फिर से हल को अपनाने की जरूरत पर बल देते हुए कहा कि आदिमानव से सभ्य मनुष्य के रूप में उद्विकास के क्रम में इंसान के हाथ में प्रकृति की ओर से लकड़ी दी गयी और मनुष्य ने इसी लकड़ी से हल बनाया और अपनी समस्याओं का हल निकालने का काम शुरू किया। लकड़ी से बने हल ने समाज का ताना बाना तैयार करने में मुख्य भूमिका निभायी। हल ने गाय को जोड़ा ,गाय ने बैल को जोडा, और इनसे जुड़े पहिये ने विकास का रास्ता खोला। हल ने बढ़ई को और लोहार को जोड़ा और इसी तरह लगभग 17 प्रकार के कार्यों को करने वाले परिवारों को एक समाज के रूपमें जोड़ा । इस तरह हल ने गांव बसाया और समाज बनाया।
हमारे पूर्वजों ने कृषि के इस यंत्र के महत्व को समझते हुए इसे नाम ही दिया हल जिसका अर्थ होता है समाधान अर्थात इसे इंसान की सभी समस्याओं का हल माना गया। धर्म में भी हल को बड़ा महत्व दिया गया। भगवान कृष्ण के बडे भाई बलदाऊ का शस्त्र ही हलथा अर्थात हमारी संस्कृति में समाज की भोजन की व्यवस्था करने वाले हल को शस्त्र के रूप में भी मान्यता दी गयी। हल हरीश को साक्षी मानकर विवाह संस्कार किया जाता था क्योंकि गृहस्थ जीवन की सभी समस्याओं का समाधान हल को करना होता था। हल से उत्पादन कर परिवार और समाज का पालन पोषण करना होता था।पहले तो हल लकड़ी का ही बनता था लेकिन विकास के क्रम में हमने इसमें काफी बदलाव किये। समस्या तब तक नहीं थी लेकिन हरित क्रांति के साथ हल की जगह ट्रैक्टर ने ले ली और यहीं से समाज का पूरा ताना बाना बिखर गया।
किसान और सामाजिक कार्यकर्ता राजा भैया वर्मा ने कहा कि हरित क्रांति के निस्संदेह उत्पादन वृद्धि में बड़ा योगदान दिया लेकिन दीर्घकाल में उत्पादन बढ़ाने के लिए अपनाये गये उपायों ने मिट्टी की गुणवत्ता और उसके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाला। अब तो देश के कई हिस्सों में उत्पादन में भी स्थिरता आ गयी है। उत्पादन बढाने के तरीकों ने पर्यावरण पर घातक प्रभाव डाला है और नोवल कोरोना वायरस ने इंसान को प्रकृति के अति दोहन से बाज आते हुए दूसरे जैव अजैव के साथ सामंजस्य से रहने का पाठ पठाया है। इसी स्थिति ने परंपरागत उद्योगों को फिर से खड़ा करने और परंपरागत तरीके से की जाने वाली खेती को पुनर्जीवित किये जाने की जरूरत पैदा कर दी है और खेती में हल की प्रासंगिकता की बात फिर उठने लगी है।
बहरहाल, वरिष्ठ पत्रकार धीरेन्द्र कुमार कहते हैं: मनुष्य का स्वभाव है अपनी गलती को छोड़ दूसरे की गलती पर प्रश्न करना…कोरोना ने प्रश्नकर्ताओं की फौज बड़ी कर दी है…कल एक मित्र फोन कर सरकार की गलती का हिसाब मुझसे मांग रहे थे… मैंने कहा कि अदृश्य दुश्मन के समाने कौन सी नीति सही है और कौन सी गलत ये कैसे कहा जा सकता है? अधकचरी जानकारी के अभाव में दवा बताने वालों की भी कमी नहीं है… हां एक बात पर हम सब सहमत हैं कि जीवन की पुरानी पद्धति पर ही लौटना होगा… इस विषय पर हम सभी सहमत इसलिए हैं कि जीवन की पुरानी पद्धति को हम सबने छोड़ दिया है..लिहाजा हर कोई दूसरे के सामने यह कहने में लज्जित नहीं हो रहा कि मैंने पुरानी पद्धति को छोड़ मृत्यु को निमंत्रण दिया है।
धीरेन्द्र कुमार फिर कहते हैं: “मनुष्य जाहिल है।” वजह: लोगों का कहना है कि अंधाधुंध विज्ञान का विकास ही महामारी का जनक है…अगर ऐसा है तो क्या महामारियां भी विकास के सौ साल के सफर का इंतजार करती है? या, विज्ञान आधारित विकास के अंतिम पायदान पर मनुष्य है? या, हम इतने जाहिल हैं कि प्रकृति की चेतावनी की अनदेखी कर प्रकृति को कहर बरपाने के लिए प्रेरित करते रहते हैं… और प्रकृति हिट एंड रन का खेल खेल रही है जिसमें हिट एंड रन की औसत गति अभी तक सौ साल की है….शायद तीसरा तर्क ज्यादा मजबूत है…. हां, हम जाहिल हैं…जाहिल का ही दूसरा नाम मनुष्य है… हम गलती पर रोते हैं…गिड़गिड़ाते हैं…डरते हैं लेकिन, संभलते नहीं…हम सच को जानते हैं लेकिन मानते नहीं हैं… जन्म के बाद मृत्यु ही अटल सत्य है.. कोरोना रुपी आपदा भी कुछ और नहीं खुद के लिए खुद में भुलाए मनुष्य के सामने सच (मृत्यु) की मुनादी है… इस मुनादी को हम सुन भी रहे हैं और समझ भी रहे हैं लेकिन इसकी चेतावनी को क्या हम मानेंगे?
(साभार: मुंशी प्रेमचन्द की “दो बैलों की कथा”/वार्ता/आजतक/गाँव कनेक्शन/धीरेन्द्र कुमार)