पिछली बार माननीय श्री नरेन्द्र मोदीजी दिल्ली के रायसीना हिल पर जब भारतीय जनता पार्टी और अन्य सहयोगी पार्टियों के साथ संसद की सीढ़ियों का चरण-स्पर्श करते संसद में प्रवेश लिए थे, तब दूसरे महीने में ही, “विकलांग” शब्द को “दिव्यांग” शब्द के साथ अदला-बदली करने का सलाह दिए।
अब जैसे ही मोदीजी के मुख से “दिव्यांग” शब्द निकलना “ब्रह्म-वाक्य” बन गया। भाजपा के साथ-साथ अन्य सहयोगी पार्टियों के नेताओं, खासकर जिन्हे मंत्रिमण्डल में शामिल किया गया था, तक्षण “लपक” लिए और “दिव्यांग-दिव्यांग” चिचियाने लगे।
लेकिन सच तो यह है कि जिस प्रकार दिल्ली के “औरंगजेब रोड” का नामकरण “एपीजे अब्दुल कलाम रोड” होने के वावजूद, आज भी लोग-बाग़ औरंगजेब रोड ही जानते हैं और कई भवनों के प्रवेश द्वार पर आज भी “औरंगजेब रोड” ही लिखा है, “भारत में विकलांगों” की स्थिति “दिव्यांग” होने के बाद भी वही है, जो कल था।
सवाल यह है कि “शारीरिक दिव्यांगता” से बहुत बड़ी बीमारी है “मानसिक दिव्यांगता” और मानसिक दिव्यांगता तो भरे पड़े हैं भारतीय समाज में।
उसका एक नमूना देखिये: आज-कल देश के, खासकर उत्तर भारत के मण्डियों में “दिव्यांग आम” प्रचूर मात्रा में “लुढ़क” रहे हैं और नए-नए दूकानदारों की बात अगर नहीं करें तो “मूंछों की लकीर” जैसा कमाने के निम्मित्त उभरते हैं और समय-समाप्ति के साथ ही, जलकुम्भी में छिप जाते हैं; बड़े-बुजुर्ग और अनुभवी दूकानदार प्रधान मंत्री की कोई पांच साल पहले की बात को आज भी मानस-पटल पर गोदना के तरह गोदवाये हुए हैं।
इसलिए वे “लंगड़ा आम को भी “दिव्यांग आम” कहते हैं। इतना ही नहीं, जो “दिव्यांग आम बनारस में जन्म लिया, उसे विशेष अहमियत भी बाज़ार में । बहुत अदब के साथ, सोसल-डिस्टेंसिंग के नियमों का पालन करते, ताकि किसी “को” “रोना” नहीं पड़े,मंडी में दिख रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे “समाज के सामाजिक-राजनितिक-आर्थिक-सांस्कृतिक ठेकेदार गरीब-गुरबा से दूरी बनाकर मिलते हैं।
एक और बात : यह दिव्यांग आम प्रधान मन्त्री के संसदीय क्षेत्र का है और उनका कहना है कि किसी राजनीतिक कारणवश इनके बागानों का विकास नहीं हो सका, इसलिए ये “दिव्यांग” होकर ही जन्म लिए।
बहरहाल, यूं तो उत्तर भारत खासकर उत्तर प्रदेश में दशहरी आम के स्वाद का कोई जोड़ नहीं है लेकिन बड़े आकार के गदराये लंगड़ा आम की मिठास के भी दीवानों की यहां कोई कमी नहीं है। बाबा विश्वनाथ की नगरी वाराणसी में लंगड़ा आम की पैदावार बहुतयात में होती है जिसका निर्यात खाड़ी देशों तक में प्रचुर मात्रा में होता है। धर्मनगरी काशी के लंगड़ा आम के बारे में किवदंती है कि सैकड़ों वर्ष पहले आम की इस किस्म का नामकरण एक पुजारी की शारीरिक बनावट को देखकर पड़ा था।
किंवदंतियों के अनुसार सैकड़ों वर्ष पूर्व बनारस के एक छोटे से शिव-मंदिर में एक साधु आये और मंदिर के पुजारी से वहां कुछ दिन ठहरने की आज्ञा मांगी। पुजारी ने कहा कि मंदिर परिसर में कई कक्ष हैं, किसी में भी ठहर जाएँ। यह सुन कर साधु बाबा ने एक कमरे में धूनी रमा दी।
मान्यता है कि साधु के पास आम के दो छोटे-छोटे पौधे थे, जो उसने मंदिर के पीछे अपने हाथों से रोप दिये। सुबह उठते ही वह सर्वप्रथम उनको पानी दिया करते थे। साधु ने बड़े मनोयोग के साथ उन पौधों की देखरेख की और वह उस मंदिर में चार साल तक वहां ठहरे। इन चार बरसों में पेड़ काफी बड़े हो गये। चौथे वर्ष आम की मंजरियाँ भी निकल आयीं, जिन्हें तोड़कर साधु ने भगवान शंकर पर चढ़ायीं। फिर वह पुजारी से बोले,मेरा काम पूरा हो गया। मैं तो रमता जोगी हूं। कल सुबह ही बनारस छोड़ दूंगा और तुम इन पौधों की देखरेख करना और इनमें फल लगें, तो उन्हें कई भागों में काटकर भगवान शंकर पर चढ़ा देना, फिर प्रसाद के रूप में भक्तों में बांट देना, लेकिन भूलकर भी समूचा आम किसी को मत देना।
साधू ने मंदिर के पुजारी को हिदायत दिया था कि किसी को न तो वृक्ष की कलम लगाने देना और न ही गुठली देना। गुठलियों को जला डालना, वरना लोग उसे रोपकर पौधे बना लेंगे और वह साधु बनारस से चला गया। मंदिर के पुजारी ने बड़े चाव से उन पौधों की देखरेख की। कुछ समय पश्चात पौधे पूरे वृक्ष बन गये। हर साल उनमें काफी फल लगने लगे। पुजारी ने वैसा ही किया, जैसा कि साधु ने कहा था। जिन लोगों ने उस आम को प्रसाद के रूप में खाया, वे लोग उस आम के स्वाद के दीवाने हो गये। लोगों ने बार-बार पुजारी से पूरा आम देने की याचना की, ताकि उसकी गुठली लाकर वे उसका पौधा बना सकें, पर पुजारी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया।
इस आम की चर्चा उस समय के काशी नरेश के कानों तक पहुँची और वह एक दिन स्वयं वृक्षों को देखने राम-नगर से मंदिर में आ पहुंचे। उन्होंने श्रद्धापूर्वक भगवान शिव की पूजा की और वृक्षों का निरीक्षण किया। फिर पुजारी के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि इनकी कलमें लगाने की अनुमति प्रधान-माली को दे दें।
पुजारी ने कहा, आपकी आज्ञा को मैं भला कैसे टाल सकता हूं। मैं आज ही सांध्य-पूजा के समय शंकरजी से प्रार्थना करूंगा और उनका संकेत पाकर स्वयं कल महल में आकर सरकार का दर्शन करूंगा और मंदिर का प्रसाद भी लेता आऊँगा।
बताया जाता है कि इसी रात भगवान शंकर ने मंदिर के पुजारी को स्वप्न दिया और स्वप्न में पुजारी से कहें कि काशी नरेश के अनुरोध को मेरी आज्ञा मानकर वृक्षों में कलम लगवाने दें। जितनी भी कलमें वह चाहें, लगवा लें। तुम इसमें रुकावट मत डालना। वे काशीराज हैं और एक प्रकार से इस नगर में हमारे प्रतिनिधि स्वरूप हैं। प्रात:काल पूजा समाप्त कर प्रसाद रूप में आम के टोकरे लेकर पुजारी काशी नरेश के पास पहुंचे। राजा ने प्रसाद को तत्काल ग्रहण किया और उसमें एक अलौकिक स्वाद पाया।
काशी नरेश के प्रधान-माली ने जाकर आम के वृक्षों में कई कलमें लगायीं, जिनमें वर्षाकाल के बाद काफी जड़ें निकली हुई पायी गयीं। कलमों को काटकर महाराज के पास लाया गया और उनके आदेश पर उन्हें महल के परिसर में रोप दिया गया। कुछ ही वर्षों में वे वृक्ष बनकर फल देने लगें। कलम द्वारा अनेक वृक्ष पैदा किये गये। महल के बाहर उनका एक छोटा-सा बाग बनवा दिया गया।
कालांतर में इनसे अन्य वृक्ष उत्पन्न हुए और इस तरह रामनगर में लंगड़े आम के अनेकानेक बड़े-बड़े बाग बन गये। आज भी जिन्हें बनारस के आसपास या शहर के खुले स्थानों में जाने का मौका मिला होगा, उन्हें लंगड़े आम के वृक्षों और बागों की भरमार नजर आयी होगी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विस्तृत विशाल प्रांगण में लंगड़े आम के सैकड़ों पेड़ हैं।
किवदंतियों के अनुसार साधु द्वारा लगाये हुए पौधों की समुचित देखरेख जिस पुजारी ने की थी, वह लंगड़े थे और इसीलिए इन वृक्षों से पैदा हुए आम का नाम लंगड़ा पड़ गया और आज यह आम अपने स्वाद के कारण भारत में ही नहीं विदेशों में भी प्रसिद्ध हैं। (वार्ता के श्री प्रदीप जी के सौजन्य से)