अमृतसर/नई दिल्ली : पिछले दिनों ब्रिटेन की प्रधान मंत्री थेरेसा मे ने सौ वर्ष पूर्व अमृतसर शहर के बीचोबीच जलियाँवाला बाग़ में हुए हत्याकांड को ब्रिटिश भारतीय इतिहास पर ‘शर्मसार करने वाला धब्बा’ बताया लेकिन उन्होंने इस मामले में औपचारिक माफी नहीं मांगी।
उन्होंने इस घटना पर ‘खेद’ जताया जो ब्रिटिश सरकार पहले ही जता चुकी है। उन्होंने एक बयान में कहा, ‘‘1919 के जलियांवाला बाग नरसंहार की घटना ब्रिटिश भारतीय इतिहास पर शर्मसार करने वाला धब्बा है। जैसा कि महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने 1997 में जलियांवाला बाग जाने से पहले कहा था कि यह भारत के साथ हमारे अतीत के इतिहास का दुखद उदाहरण है।’’
2010 से 2016 तक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन ने भी 2013 में भारत दौरे पर इसे इतिहास की बेहद शर्मनाक घटना बताया था। हालांकि, उन्होंने भी माफी नहीं मांगी थी।
माफ़ी मंगवाने की राजनीति
इस साल फरवरी में इस नरसंहार की जिम्मेदार ब्रिटिश सरकार से माफी मंगवाने के लिए पंजाब सरकार ने विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। इस प्रस्ताव के जरिए केंद्र सरकार से कहा गया था कि वह ब्रिटिश सरकार पर माफी मांगने का दबाव बनाए। अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियांवाला बाग कांड में ब्रिटिश सैनिकों ने खुलेआम शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोलियां चला दी थीं। आंकड़ों के अनुसार, इस हत्याकांड में 400 से ज्यादा प्रदर्शनकारियों की मौत हुई थी। हालांकि, दावा है कि इसमें 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे। मरने वालों में औरतें और बच्चे भी शामिल थे।
एक सवाल
अब सवाल यह है कि सन १९१९ में अविभाजित भारत की आवादी 250737,0 थी। आज सौ साल बाद विभाजित भारत की वर्तमान आवादी 1304263,0 है। अगर ब्रिटेन की प्रधान मन्त्री जालियांवाल बाग हत्याकांड पर सिर्फ अफसोस जाहिर किया और इसे तत्कालीन ब्रिटिश शासन के लिए शर्मनाक धब्बा करार दिया है और किसी प्रकार की कोई माफी नहीं मांगी तो इसमें अचरज़ क्या है और राजनीति क्यों?
आज भारत के कितने लोग जल्लियाँवाला बाग़ से परिचित हैं ? उस हत्याकाण्ड से अवगत है? कितने दादा-दादी, नाना-नानी, माता-पिता अपने-अपने संतानों को जलियाँवाला बाग़ के बारे में बताये हैं ? कितने लोग उधम सिंह के बारे में बताये हैं ? कितने लोग उधम सिंह या उस हत्याकाण्ड में मारे गए आज के उनके वंशजों की पड़ताल किये हैं ? उनके वंशज भी भूखे नहीं सोएं, उनके बच्चे भी शिक्षित हों, अब्बल हो, उन्हें भी सुलभ स्वास्थ की सुविधाएँ मिलें, उन्हें भी समाज में सम्मानित जीवन जीने का सम्पूर्ण अवसर मिले, उन्हें भी राष्ट्रीय त्योहारों में न केवल अमृतसर बल्कि सम्पूर्ण भारत में ससम्मान आमंत्रण मिले, उन्हें भी भारत का ऐतिहासिक परिवार मन जाय -कितने लोग उन तक पहुंचे हैं?
कोई नहीं।
इतनी बड़ी आवादी वाले देश में उधम सिंह जैसा क्रान्तिकारी या अन्य क्रान्तिकारियों, जिन क्रान्तिकारियों ने मातृभूमि की स्वतन्त्रता के लिए शहीद हो गए, उनके आज के परिवार या उनके वंशजों को देखने वाला है क्या कोई?
कोई नहीं।
इतना ही नहीं, जल्लिआंवाला मेमोरियल ट्रस्ट को देखने वाले सुकुमार मुखर्जी, जो इस हत्याकांड के बाद और मेमोरियल ट्रस्ट बनने के बाद अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी है, उन्हें भी पदच्युत करने की चतुर्दिक प्रयास जारी है।
माफ़ी तो हरेक भारतीय को माँगना चाहिए उधम सिंह से, उनके परिवार-परिजनों से, उस हत्याकांड में मारे गए प्रत्येक निर्दोष लोगों के जीवित परिवारों को ढूंढकर उन परिवारों से, उनके परिजनों से जो इसी देश में, उसी राज्य में, उसी शहर में साँस ले रहे हैं – लेकिन हमने ऐसा किया क्या?
कभी नहीं।
नौ साल पहले की बात है। साल 2010 और महीना जून। अपने प्रयास के तहत अब तक 18 वंशजों को ढूंढा था । पैसे की जरुरत वैसे सबों को होती है, लेकिन जीत सिंह के झुर्री वाले चमड़े से छोड़ती हड्डियों को देखकर अपना सम्पूर्ण फैसला जीत सिंह के लिए लिया और यह भी निर्णय लिया की इस किताब से जीत सिंह और उनके परिवार को एक नया जीवन, दो वक्त की रोटी, तन पर अच्छा कपडा और चेहरे पर खुशियां जरूर लाऊंगा।
यह स्थिति सिर्फ उधम सिंह जैसे शहीदों आय उनके वंशजों की नहीं है; यह स्थिति भारत के उन हज़ारों गुमनाम क्रांतिकारियों, शहीदों और उनके वंशजों के साथ है। जीवित तो सिर्फ वह शहीद या उनके वंशज हैं जिनका राजनितिक बाज़ार में आज भी मोल है।
उस समय और आज भी मैं 125 करोड़ भारत के लोगों में महज एक कीड़े-मकोड़े की तरह था। मेरी औकात भिखारियों से भी बदतर था, आज भी है अपने प्रयास के लिए। सुनते हैं यहाँ राष्ट्रभक्तों की बाढ़ है। चार की संख्या वाले प्रत्येक घरों में न्यूनतम दो व्यक्ति नेताजी अवश्य हैं। राष्ट्रभक्तों की तो बात ही नहीं करें – यत्र-तत्र-सर्वत्र।
धुरी, लहरागागा, मालकोटला, मूनक, अहमदगढ़, भवानीगढ़, संगरूर और सुनाम शहरों वाला पंजाब का संगरूर जिला। दिल्ली से कोई 260 किलोमीटर दूर। यहाँ नेतालोग पांच साल पर ही आते हैं वह भी जरुरत पड़ने पर; नहीं तो चंडीगढ़ में बैठे-बैठे अपने सम्पोषित नेताओं के माध्यम से अपनी-अपनी राजनीतिक करते हैं। हाँ प्रत्येक चुनाब के समय चाहे पंचायत का हो या संसद का – इस भूमि को राजनितिक बाज़ार में बेचने में तनिक भी लज्जा नहीं दिखाते। सम्पूर्ण निर्लज्जता के साथ इस भूमि को जिसने उधम सिंह जैसे वीर योद्धा को जन्म दिया, बेचते थकते नहीं – भले ही शेर सिंह @ उधम सिंह का वंशज मरने के लिए जीते जी स्वतंत्र भारत में एक-एक सांस गिनता हो।
जीत सिंह महज एक आदमी नहीं बल्कि उस योद्धा के परिवार का वंशज है जिसके पूर्वज हज़ारों लोगों की निर्दोष हत्या का बदला अकेले लिए थे। 26 दिसम्बर 1899 को इसी गाँव में कम्बोज परिवार में जन्मे शेर सिंह @ उधम सिंह के पिता 1901 में और माता 1907 ईश्वर के पास चले गए थे। फिर आम बच्चों की तरह वह बच्चा भी अनाथालय का शरण लिए वह भी वाहे गुरु के शहर अमृतसर में। सन 1917 में उनके बड़े भाई का भी देहांत हो गया। वह पूरी तरह अनाथ हो गए। 1919 में उन्होंने अनाथालय छोड़ दिया और क्रांतिकारियों के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में शमिल हो गए।
उधमसिंह 13 अप्रैल 1919 को घटित जल्लियांवाला बाग़ हत्याकांड के प्रत्यक्षदर्शी थे। इस घटना से उधमसिंह तिलमिला गए और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ डायर को सबक सिखाने की प्रतिज्ञा ले ली। माईकल ओ’ डायर (सर माईकल फ्राँसिस ओ’ डायर) उस हत्याकांड के समय पंजाब के गर्वनर जनरल थे।
उधम सिंह को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका 1940 में मिला। जलियांवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद 13 मार्च 1940 को रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के काक्सटन हाल में बैठक थी जहां माइकल ओ’ डायर भी वक्ताओं में से एक थे। उधम सिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां दाग दीं। दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई। उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी। उन पर मुकदमा चला। 4 जून 1940 को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।
इन विगत वर्षों में जल्लिआंवाला बाग़ का, उधम सिंह के नाम का भारतीय राजनीतिक बाज़ार में भरपूर विपरण किया गया लेकिन न कोई उधम सिंह के परिजनों के पास पहुंचे और न कोई इस हत्याकांड में मारे गए गुमनाम मृतकों के आज के जीवित परिवारों को ढूंढा। तो बात तो वहीँ आकर रुकी न – माफ़ी तो आखिर हम भारतियों को भी उधम सिंह से या उन मृतकों से, उनके आज के परिवार-परिजनों से मांगनी चाहिए न ?