भारत में हर-हाथ में ‘मोबाईल फोन’ तो है, लेकिन हर-घर में ‘शौचालय’ नहीं है – गजबे है न ‘स्मार्ट शहर के स्मार्ट लोग’

​१९ नबम्बर - विश्व शौचालय दिवस
​१९ नबम्बर - विश्व शौचालय दिवस

नई दिल्ली : आगामी १९ नबम्बर को लौह-महिला इन्दिरा गांधी का जन्म-दिन है। अगर श्रीमती इन्दिरा गाँधी जीवित होतीं, तो न केवल भारत, बल्कि सम्पूर्ण विश्व उस दिन उनका १०१ वां जन्म-दिन मनाता। खैर, श्रीमती गाँधी नहीं हैं, लेकिन संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व शौचालय दिवस तो है न – उस दिन विश्व शौचालय दिवस मनाएंगे।

अगर ​श्रीमती अनीता ​विवाहोपरान्त अपनी ससुराल से भाग नहीं जाती तो शायद अक्षय कुमार “टॉयलेट: एक प्रेम कथा” सिनेमा नहीं बनाते। अनीता अपने ससुराल से इसलिए नहीं भागी की वह मशहूर होना चाहती थी, ​किन्तु इसलिए भागी की उसके ससुराल में शौचालय नहीं था और शौचालय उसकी आवश्यकता थी। उसके मायके के घर में सदा ही शौचालय रहा​, जिसे वह सात भाई-बहनों के साथ प्रयोग करती रही । उसके पिता श्री अम्मूलाल कुमरे, जो प्राथमिक विद्यालय में एक शिक्षक थे, द्वारा उसे स्वतन्त्रता एवं स्वच्छता के विषय में सदा ही जानकारी दी जाती रही ​थी ।

एक ऐसे घर में ब्याह कर आने के बाद – जहाँ पर शौचालय की उपलब्धता न हो – भी पिता-द्वारा दी गई शिक्षा को भुला नहीं पाई। अनीता का ससुराल से भागना एक राष्ट्रीय खबर बनी और सिद्धार्थ-गरिमा ने टॉयलेट एक प्रेम कथा कहानी लिख डाले । श्री नारायण सिंह ने इस फिल्म का निर्देशन किया। अक्षय कुमार, भूमि पेडनेकर, अनुपम खेर और सना खान अभिनेता-अभिनेत्री और अन्य कलाकार बने।

११ अगस्त २०१७ को यह फिल्म सम्पूर्ण भारत में प्रदर्शित हुई। इस फिल्म ने पहले दिन भारत में 13.10 करोड़ कमाया । यह फिल्म अक्षय कुमार की 9 वीं सबसे बड़ी फिल्म बनी और अक्षय कुमार की उच्चतम कमाई वाली फिल्म के रूप में उभरा कुल १३२ करोड़ रूपये कमाकर। अनीता, एक आदिवासी लड़की, ने अपने कार्य से शान्त जल में एक छोटा कंकड़ फेंका है, जिसने एक लहर का रूप ले लिया है। अनीता के इस उदाहरण में ‘जान आॅफ आर्क’ का किरदार अदा किया गया, जिसने 15वीं सदी में फ्रांस के चार्ल्स-8 से ईश्वरीय आदेश प्राप्त किया था।

आगामी १९ नबम्बर को विश्व के सभी देश विश्व शौचालय संगठन द्वारा दुनिया भर में स्वच्छता और शौचालय की स्थिति में सुधार के लिए विश्व शौचालय दिवस मनाया जाता है। दिल्ली में यह उत्सव सुलभ इंटरनेशनल सोसल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन द्वारा स्थानीय मावलंकर ऑडिटोरियम में मनाया जा रहा है। इस अवसर पर उन तमाम वैज्ञानिक-मानवीय-नैतिक-क़ानूनी पहलुओं पर चर्चा किये जायेंगे और रोक-थाम के उपाय भी निकाले जायेंगे जिसके कारण देश में सीवर-लाईनों में कार्य करने वाले श्रमिकों की मौत होती है।

विश्व शौचालय संगठन की शुरुआत 2001 में 15 सदस्यों के साथ हुई थी। आज इसकी संख्या 53 देशों से बढ़कर 151 हो गई है। संगठन के सभी सदस्य शौचालय की समस्या को खत्म करने और दुनिया भर में स्वच्छता के समाधान के लिए काम करते हैं। यह संगठन सिंगापुर में 19 नवंबर 2001 को जैक सिम द्वारा स्थापित किया गया था। यह संयुक्त राष्ट्र की एजेंसियों, अकादमियों, शौचालय संघों, शौचालय हितधारकों और सरकार के लिए एक सेवा मंच और एक वैश्विक नेटवर्क के रूप में कार्य करता है। एक अनुमान के मुताबिक अब तक लगभग 2.4 अरब से अधिक लोगों की पहुँच स्वच्छता की सुविधा तक ना होने के कारण खुले में शौच करते हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है।

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एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में शौचालयों के लिए सबसे लंबी कतारें हैं। अगर देश के सभी लोग, जो शौचालयों के बाहर इंतजार में खड़े हैं, एक लाइन में खड़े हो जाए तो इस कतार को खत्म होने में 5892 वर्ष लगेगी और यह चन्द्रमा से धरती तक लंबी लाइन बन जाएगी। हमारे देश में भी अधिकतम संख्या में लोग खुले तौर पर शौच करते हैं। हाल के जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक 1.2 बिलियन लोगों सहित देश के लगभग आधा हिस्से के पास घर में शौचालय सुविधा नहीं है लेकिन इन सभी लोगों के पास मोबाइल फोन है। हालांकि इस दिशा में बहुत कुछ किया गया है परन्तु विशेषकर महिलाएं शौचालयों तक पहुंच की कमी के कारण बहुत सी समस्याओं का सामना कर रही हैं।

प्रधान​ मंत्री नरेन्द्र मोदी और डॉ बिंदेश्वर पाठक
प्रधान​ मंत्री नरेन्द्र मोदी और डॉ बिंदेश्वर पाठक

भारत में एक सामाजिक सेवा संगठन सुलभ इंटरनेशनल शौचालय के मुद्दे पर जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए कई कार्यक्रम आयोजित ​किया है । 2014 में दुनिया में पहली बार दिल्ली में 18 से 20 नवंबर तक अंतरराष्ट्रीय टॉयलेट महोत्सव के रूप में एक लंबा और अद्वितीय तीन दिन का जश्न मनाया गया था। शौचालय के महत्व पर जागरूकता बढ़ाने के लिए त्योहार आयोजित किया गया था। उद्घाटन समारोह में छह देशों के करीब 1000 छात्रों ने एक श्रृंखला बनाई जिसमें उन्होंने सिर पर टॉयलेट पॉट्स रखे थे।

आपको जानकार आश्चर्य होगा की सुलभ इंटरनेशनल ने शौचालयों का एक ऐसा संग्रहालय बनाया है जिसमें शौचालयों और मानव सभ्यता संस्कृति के गहरे रिश्तों को दिखाया गया है। यहाँ फ़्रांस के सम्राट लुई तेरहवें के राजगद्दीनुमा शौचालय से लेकर महारानी विक्टोरिया के शौचालय की अनुकृति मौजूद है, जिसमें हीरे-जवाहरात लगे हैं। संग्रहालय में दिखाई गई जानकारी के अनुसार शौचालयों का इतिहास हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की सभ्यता जितना ही पुराना है। मोहनजोदजड़ो में शौचालय के अवशेष मिले हैं। मुग़लकाल में अकबर के राजभवन के अलावा राजस्थान के गोलकुंडा सहित कई किलों पर शौचालय बने मिले जो अब भी देखे जा सकते हैं। इस संग्रहालय को बनाने का विचार संस्था के संस्थापक डॉ बिंदेश्वर पाठक को लन्दन में मैडम तुसॉद का वैक्स म्यूज़ियम देखने के बाद आया।

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​बहरहाल, आज भारत सरकार और देश की विभिन्न राज्य सरकारें “स्वच्छ भारत अभियान” के नाम का “ताल” चाहे जितना “ठोक” ले, लेकिन सच तो यही है कि आज से पचास साल पूर्व अगर “सुलभ शौचालय” दसकों से चली आ रही एक घृणित और अमानवीय कार्य के प्रति देशव्यापी आन्दोलन नहीं चलाया होता, अपनी सोच को जमीन पर क्रियान्वित नहीं किया होता, तो आज भी समाज का एक विशाल समुदाय, एक विशाल मतदादातों का समूह, जो राजनीतिक बाज़ार में सरकार बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, वह, उसकी पत्नियाँ, उसके बेटे-बेटियाँ, बहुएँ अपने-अपने सर पर भारतीय सम्भ्रान्तों का “मल-मूत्र-टट्टी-पैखाना उठाते रहता।

यदि देखा जाय तो ​आज गाँधी के विचार और उनके सपने राजनीतिक बाजार में बिक रहे हैं, खुलेआम। जबकि सच तो यह है कि कोई भी शाशन, व्यवस्था या सरकार कभी भी भंगी-समाज का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक उत्थान चाहती ही नहीं थी। वैसे सरकार और व्यवस्था के अनुसार भारतीय संविधान के मद्दे नजर अस्पृश्यता, दहेज, बाल विवाह, जाति व्यवस्था और अन्य अनेक सामाजिक बुराइयों को खत्म कर दिया गया है। लेकिन धरातल पर ये सभी कुप्रथाएं आज भी समाज में विद्यमान है। इतना ही नहीं, मानव मल-मूत्र की सफाई की प्रथा को खत्म करने के लिए भी कानून बना है, लेकिन व्यवहार में सरकारी और सामाजिक उदासीनता के कारण वह प्रभावी नहीं हो पाया कोई पचास के दसक और उसके बाद भी जब तक ”सुलभ” ने सामाजिक आंदोलन नहीं चलाया, शौचालय की उपयोगिता को नहीं बताया, इन भंगी-परिवारों को समाज की मुख्यधारा में लाने का प्रयास नहीं किया ।

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कल तक जो लोग, विशेषकर समाज व्यवस्था के संभ्रांत लोग, अधिकारी, सामाजिक कार्यकर्त्ता, कॉर्पोरेट, मंत्री, अधिकारी और न जाने कौन-कौन, अपने “खाने के मेज पर शौच की बात करना मानवीयता और मनुष्यता के खिलाफ समझते थे; आज शहरों और महानगरों, यहाँ तक की कारपोरेट घरानों, सरकारी कार्यालयों में “भोजनावकाश” के समय “भोजन करते लोग मल-मूत्र के बारे में बात करते हैं, शौचालय की बात करते हैं। और इसका मुख्य कारण है कि सुलभ ने अपने पांच-दसक के प्रयास से न केवल गाँधी का सपना साकार किया जमीन पर, बल्कि “भारत से मैला ढोने की कुप्रथा को भी समाप्त किया।”

अब तो जो हो रहा है विभिन्न अभियानों के तहत, वह तो महज “शौचालयों का राजनीतिकरण” है और अगर ऐसा नहीं है तो १२० करोड़ की आवादी वाले देश में, ऐसा अनुमान है कि प्रत्येक १४०० व्यक्तियों पर एक शौचालय है। वैसे केंद्र सरकार के लोग बाग़ यह कहते नहीं थक रहे हैं कि आगामी २०१९ तक प्रत्येक घरों में शौचालय हो जायेगा। इसके लिए तो ब्रह्माण्ड से विश्वकर्मा को ही धरती पर अवतरित होना होगा।

बहरहाल, डॉ पाठक ने लगभग ​​अपना सारा जीवन स्वच्छता के क्षेत्र में और हाथ से मानव-मल-मूत्र उठाने की समस्या को खत्म करने की कोशिश में लगाया । उन्होंने इसी विषय पर अपनी पीएचडी की और अन्य शिक्षा संबंधी कार्य उस वक्त शुरू किए, जब उन्होंने 1970 में सुलभ शौचालय संस्थान की स्थापना की जो बाद में सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाईजेशन बन गया।

जब संडेपोस्ट उनसे पूछा: “अगर सुलभ, जिसने स्वच्छता अभियान की नीव ५० वर्ष पहले डाली थी, नहीं होता तो “भारत में स्वच्छता का हश्र क्या होता?” इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा: “इस बात का उत्तर मैं नहीं दे सकता, लेकिन इतना जरूर कहूंगा की अगर सुलभ नहीं होता तो देश में भंगी-मुक्ति नहीं हो पाता और आज भी उस समुदाय के लोग अपने सर पर मैला उठाते रहते।”

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