​दरभंगा के ​महाराजा कामेश्वर सिंह के ​आकस्मिक मृत्यु के बाद दरभंगा राज का पतन क्यों हुआ​?​

​रामबाग, दरभंगा ​का प्रवेश द्वार - तब और अब
​रामबाग, दरभंगा ​का प्रवेश द्वार - तब और अब

दरभंगा​ : मिथिलाञ्चल का कोई भी व्यक्ति जब दरभंगा स्थित राज पैलेस, नरगौना पैलेस या मधुबनी स्थित राजनगर पैलेस को आज देखता होगा, स्वयं को भी कोसता होगा (अगर सम्वेदना होगी) और महाराजा परिवार के लोगों को, उनके आपसी कलह को, संपत्ति के लिए (जो उनका अर्जा हुआ नहीं है) टूटते रिश्तों को, महलों की गिरती दीवारों को, अराजकता को भी दबे-खुले स्वरों में कोसता होगा। क्या था और पांच-दसक में क्या हो गया।

कहते हैं संपत्ति तीन-अधिक नहीं जाती है, अगर पीढ़ियां उस संपत्ति का कद्रदान नहीं हो। उन सम्पत्तियों में अपनी मेहनत, कोशिश और पसीनों से सींचकर उसकी नींव को और अधिक सबल नहीं बनाये हों । दरभंगा राज के साथ भी कुछ ऐसा ही देखने को मिलता है

कल्याणी ट्रस्ट के कर्ताधर्ता श्री तेजकर झा, जो अनेकानेक ऐतिहासिक कार्य कर रहे हैं और दरभंगा राज का भारतीय शैक्षणिक व्यवस्था के उत्थान में योगदान पर कार्य कर रहे हैं, समाज-व्यवस्था और सरकार क्यों राज दरभंगा और महाराजा के योगदान को उपेक्षित कर दिया, उसपर कार्य कर रहे हैं; कहते हैं कि दरभंगा राज का पतन होने का अनेकानेक कारण हैं परन्तु मूल रूप से महाराजा की असामयिक और अचानक मृत्यु, महाराजा के सभी विश्वस्त और अच्छे लोग यथा महाप्रबंधक डैन्बी, निवेश प्रबंधक बैद्यनाथ झा, शिक्षा सलाहकार अमरनाथ झा, छोटे भाई विश्वेश्वर सिंह इत्यादि का भी देहांत होना, दोनो महारानियां का राज के क्रिया-कलापों से अनभिज्ञता, विल के प्रोबेट कर्ता लक्ष्मीकान्त झा के हाथों राज का कार्य आते ही वे बहुत अधिक महत्वकांछी होना, भतीजे या तो कोई समझदार नहीं होना या उनका छोटा होना, सरकार की नकारात्मक रुचि का होना, राज के प्रबंधक और सगे सम्बंधी स्वयं को धनाढ्य बनाने में लग जाना और उत्तराधिकारी के अभाव में दरभंगा राज का बृहत् लूट खसोट का केंद्र बन जाना प्रमुख रहा।

महाराजा कामेश्वर सिंह के बाद दरभंगा राज का पतन क्यों हुआ इसपर महाराजा परिवार के करीबी श्री रमन दत्त झा अपने ब्लॉग में लिखते कहते हैं कि महाराजा डा. सर कामेश्वर सिंह,सांसद (राज्यसभा) दुर्गा पूजा के अवसर पर अपने निवास दरभंगा हाउस, मिड्लटन स्ट्रीट, कोल्कता से अपने रेलवे सैलून से नरगोना स्थित अपने रेलवे टर्मिनल पर कुछ दिन पूर्व उतरे थे। पहली अक्टूबर, १९६२ को नरगोना पैलेस के अपने सूट के बाथरूम के नहाने के टब में मृत पाये गए ।

आनन फानन में माधवेश्वर में इनका दाह संस्कार दोनों महारानी की उपस्थिति में कर दिया गया। बड़ी महारानी को देहांत की सूचना मिलने पर अंतिम दर्शन के लिए सीधे शमशान पहुंचना पड़ा था। महाराजा कामेश्वर सिंह को संतान नहीं था। इनके उतराधिकार को लेकर उनके कुछ प्रिय व्यक्तियों के मन में आशा थी उनमे छोटी महारानी जो महाराजा के साथ रहती थी और महाराजा के भगिना श्री कन्हैया जी झा, जो इंडियन नेशन प्रेस के मैनेजिंग डायरेक्टर थे, प्रमुख थे।

राजकुमार शुभेश्वर सिंह और राजकुमार यजनेश्वर सिंह वसीयत लिखे जाने के समय नाबालिक थे और उनकी शादी नहीं हुई थी सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह की दूसरी शादी नहीं हुई थी। शायद महाराजा को अपनी मृत्यु की अंदेशा था । मृत्यु से पूर्व ५ जुलाई १९६१ को कोलकाता में उन्होंने ​अपनी अंतिम वसीयत की थी, जिसके एक गवाह पं. द्वारिकानाथ झा थे, जो महाराज के ममेरा भाई थे और दरभंगा एविएशन, कोलकाता में मैनेजर थे ।

मृत्यु का समाचार मिलने पर वे कोलकाता से दरभंगा पहुंचे और वसीयत के प्रोबेट कराने की प्रक्रिया शरू करवा दी । कोलकाता उच्च न्यायालय द्वारा वसीयत सितम्बर १९६३ को प्रोबेट हुई और पं. लक्ष्मी कान्त झा , अधिवक्ता, माननीय उच्चतम न्यायालय, पूर्व मुख्यन्यायाधीश पटना हाई कोर्ट ग्राम – बलिया ,थाना – मधुबनी पिता पंडित अजीब झा वसीयत के एकमात्र एक्सकुटर बने और एक्सेकुटर के सचिव बने पंडित द्वारिकानाथ झा । वसियत के अनुसार दोनों महारानी के जिन्दा रहने तक संपत्ति का देखभाल ट्रस्ट के अधीन रहेगा और दोनों महारानी के स्वर्गवाशी होने के बाद संपत्ति को तीन हिस्सा में बाँटने जिसमे एक हिस्सा दरभंगा के जनता के कल्याणार्थ देने और शेष हिस्सा महाराज के छोटे भाई राजबहादुर विशेश्वर सिंह जो स्वर्गवाशी हो चुके थे के पुत्र राजकुमार जीवेश्वर सिंह ,राजकुमार यजनेश्वर सिंह और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के अपने ब्राह्मण पत्नी से उत्पन्न संतानों के बीच वितरित किया जाने का प्रावधान था ।

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दोनों महारानी को रहने के लिए एक – एक महल, जेवर, कार और कुछ संपत्ति मात्र उपभोग के लिए और दरभंगा राज से प्रति माह कुछ हजार रूपये माहवारी खर्च देने का प्रावधान था। पंडित लक्ष्मीकांत झा वसीयत के एक मात्र एक्सेक्यू​र बहाल हुए; ओझा मुकुंद झा जो महाराज के बहिनोय (बहन के पति ) थे, ट्रस्टी और तीसरे ट्रस्टी पंडित गिरीन्द्र मोहन मिश्र हुए, जो महाराज के सलाहकार थे और पक्के कांग्रेसी थे, हुए । गौरतलब है कि एक श्रोत्रिय, एक जैवार और एक शाकलदीपी मैथिल ब्राह्मण ट्रस्टी थे । ये तीनो ट्रस्टी महाराजा से उम्र में बड़े थे तो क्या महाराजा को अपने मौत का आभास था ?

दरभंगा राज के जनरल मेनेजर मि. डेनवी के समय रहे असिस्टेंट मेनेजर पं. दुर्गानन्द झा के जिम्मे दरभंगा राज का प्रबंध था । वे राजमाता साहेब के फूलतोड़ा के पुत्र थे और महाराज के बचपन के मित्र थे वे उस ज़माने के स्नातक थे और पंडित द्वारिका नाथ झा, महाराज के ममेरे भाई एक्सेक्यूटर के सचिव मनोनीत हो गये और कोलकाता से आकर गिरीन्द्र मोहन रोड के बंगला नंबर ५ में अपने मामा पं.यदु दत्त झा, जो दरभंगा राज के अनुभवी और दझ पदाधिकारी थे, जिन्हें मिस्टर देनबी ने अपने बाद जनरल मेनेजर के लिए अनुशंसा की थी जिनका उल्लेख १९३४ के भूकंप में राहत कार्यक्रम में कुमार गंगानंद सिंह ने की है, के बगल के बंगला में रहने लगे ।

दरभंगा राज का क्रियाकलाप महाराजा के मृत्यु के बाद मुख्यतः लक्ष्मीकांत झा, दुर्गानन्द झा और पंडित द्वारिका नाथ झा के इर्द -गिर्द था । सबसे पहले तीनो राजकुमार (महाराजा के भतीजा) ने बेला पैलेस सहित ८० एकड़ का १९६८ में सौदा किया और दरभंगा में बिना आवास के हो गए। बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी ने सबसे छोटे राजकुमार शुभेश्वर सिंह को अपने रामबाग में रखा। वसियत के अनुसार बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी के मृत्यु के बाद उनके महल पर राजकुमार शुभेश्वर सिंह का स्वामित्व होगा। बड़े कुमार जीवेश्वर सिंह घर का नाम बेबी राजनगर रहने लगे और उनकी बड़ी पत्नी राजकिशोरी जी अपनी दोनों बेटी के साथ और मझले राजकुमार यजनेश्वर सिंह अपने परिवार के साथ यूरोपियन गेस्ट हाउस ऊपरी मंजिल पर उत्तर और दझिण भाग में आ गए।

बेला पैलेस के सौदा होने के कालखंड में मार्च १९६७ में ९२ लाख रूपये में राज ट्रेज़री का गहने और जवाहरात की नीलामी डेथ ड्यूटी चुकाने के लिए हुई जिसमे मशहुर Marie Antoinettee हार, धोलपुर क्राउन, नेपाली हार, और हीरे – जवाहरात थे। जिसे बॉम्बे के नानुभाई जौहरी ने खरीदा । बाम्बे के गोरेगांव में नानूभाई की नीरलोन नाम की कंपनी भी है। उसके बाद ४५ लाख में रामेश्वर जूट मील, मुक्तापुर बिडला के हाथ, फिर वाल्फोर्ड ट्रांसपोर्ट कंपनी, कोलकाता डेविड के हाथ, दरभंगा हवाई अड्डा केंद्र सरकार ने ले ली। सुगर फैक्ट्री लोहट और सकरी, अशोक पेपर मील, हायाघाट, दरभंगा – लहेरियासराय इलेक्ट्रिक सप्लाई बिहार सरकार ने । विश्राम कोठी, दरभंगा और बॉम्बे का पेद्दर रोड, इनकम टैक्स के हाथ, दरभंगा हाउस शिमला, दरभंगा हाउस दिल्ली सेंट्रल गवर्नमेंट को, रांची का दरभंगा हाउस सेंट्रल कोल् फील्ड लिमिटेड को, फिर नरगोना पैलेस, राज हेड ​ऑफिस, यूरोपियन गेस्ट हाउस, मोतीमहल, राज फील्ड, राज प्रेस, देनवी कोठी, लालबाग गेस्ट हाउस, बंगलो नो. ६ और ११, राज अस्तबल, श्रोत्रि लाइन, सहित सैकड़ों एकड़ जमीन मिथिला विश्वविद्यालय को, रेल ट्रैक और सलून, वाटर बोट, बग्घी, फर्नीचर, कार रोल्स रायस- बेंटली – बियुक –पेकार्ड –शेवेर्लेट – प्लायमौथ – ५० एच् . पी जॉर्ज V बॉडी आदि ।

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बड़ी महारानी के १९७६ में देहांत होने और १९७८ में पंडित लक्ष्मी कान्त झा के देहांत के बाद दरभंगा राज का कार्य ट्रस्ट के अधीन हो गया। श्री मदनमोहन मिश्र ( गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बड़े पुत्र), श्री द्वारिका नाथ झा और श्री दुर्गानंद झा तीनो ट्रस्टी के अधीन। फिर श्री दुर्गानंद झा के देहांत के बाद १९८३ के आसपास श्री गोविन्द मोहन मिश्र ट्रस्टी बने और फिर उनके स्थान पर श्री कामनाथ झा ट्रस्टी बने । राजकुमार शुभेश्वर सिंह १९६५ के आसपास दरभंगा राज के मामले में सक्रिय हो गये थे उन्हें रामेश्वर जूट मिल, फिर सुगर कंपनी और न्यूज़ पेपर & पब्लिकेशन लिमिटेड का जिम्मेवारी मिली।

सबसे बड़े राजकुमार जीवेश्वर सिंह राजनगर ट्रस्ट के एकमात्र ट्रस्टी रहे दरभंगा राज के मामले में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं था। राजनगर से वे गिरीन्द्र मोहन मिश्र के बाद बंगला नंबर १, गिरीन्द्र मोहन रोड में अपने दूसरी पत्नी और ५ पुत्री के साथ रहने लगे।

स्व . महाराजाधिराज के तथाकथित परिवार के सदस्यों ने माननीय उच्चतम न्यायालय में एक फॅमिली सेटलमेंट नो . १७४०६ -०७ ऑफ़ १९८७ में फॅमिली सेटलमेंट हुआ। जिसमे महाराजा के वसीयत के विपरीत छोटी महारानी के जिन्दा रहते कुल संपत्ति का एक चौथै हिस्सा पब्लिक चैरिटी को मिला और १/४ छोटी महारानी, १/४ राजकुमार शुभेश्वर सिंह और उनके दोनों पुत्र को और १/४ में मंझले राजकुमार के पुत्रों और बड़े राजकुमार के ७ पुत्रियों को मिला।

इंडियन नेशन प्रेस (न्यूज़ पेपर & पब्लिकेशन लि,) ४२ चौरंगी (कलकत्ता ) अब रामबाग की अधिकांश जमीन भी बिक गयी है। सबसे पहले दिलखुश बाग का एरिया बिका फिर सिंह द्वार के समीप और सुनने में है कि मधुबनी स्थित भौरा गढ़ी का भी डील हो गया है और तालाब भरने का कार्य जारी है।

राजकुमार जीवेश्वर सिंह की प्रथम पत्नी लहेरियासराय में और दूसरी यानि छोटी पत्नी बंगला नो. १, गिरीन्द्र मोहन रोड में रहती है। जीवेश्वर सिंह स्वर्ग्वाशी हो चुके हैं मंझले राजकुमार अभी बंगला नो.९ गिरीन्द्र मोहन रोड में पत्नी के साथ रहते है और बीमार हैं। राजकुमार यजनेश्वर सिंह को तीन पुत्र जिसमे मंझले का दिल्ली में देहांत हो गया शेष दोनों पुत्र से संतान अभी नहीं हैं व अपनी पत्नी के साथ बंगला न. ९ ,गिरीन्द्र मोहन रोड में रहते हैं।

राजकुमार शुभेश्वर सिंह को दो पुत्र हैं बड़ा अमेरिका में रहते है और छोटा दिल्ली में रहते हैं और दरभंगा प्रवास में रामबाग में । श्री शुभेश्वर सिंह का देहांत उनके पत्नी के देहवसान के कुछ वर्षों बाद दिल्ली में अपने आवास पर हो गया।

गिरीन्द मोहन रोड के बंगला नंबर २ और ५ तथा न्यूज़ पेपर पब्लिकेशन लि. में ५ लाख का शेयर और १८ लाख २५ हजार रूपये कैश पब्लिक चैरिटी का था। अब पब्लिक चैरिटी का महाराजा कामेश्वर सिंह मेमोरियल हॉस्पिटल की करीब १० बीघा जमीन और मकान शेष बचे हैं जिसके एक छोटे हिस्सा में अस्पताल चलता है।

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राजनगर के मंदिरों में पूजा –पाठ, भोग के लिए १९२९ में महारजा कामेश्वर सिंह ने एक ट्रस्ट और भवनों के देख रेख के लिए एक ट्रस्ट बनाया जिसके निमित दर्शाए गये सम्पति के आय से इसकी देखरेख का प्रावधान है जिसे बेचने का अधिकार किसी को नहीं दी गयी। इसी तरह, १०८ मंदिरों के लिए ट्रस्ट और सीताराम ट्रस्ट है।

छोटी महारानी महाराजा के बाद अधिकांस समय दरभंगा हाउस केंद्र सरकार द्वारा लेने के बाद उससे सटे आउट हाउस में दिल्ली में रहने लगी और दरभंगा आने पर नरगोना पैलेस में। १९८० के आसपास से नरगोना कैंपस में बेला पैलेस के सामने नवनिर्मित कल्याणी हाउस में आने पर रहती हैं। १९९० से अधिक समय दरभंगा में रहने लगीं है और दरभंगा रिलीजियस ट्रस्ट जिसके अधीन १०८ मंदिर है और सीताराम ट्रस्ट जिसके अधीन वनारस के बांस फाटक, गोदोलिया चौक के नजदीक राममंदिर आता है के एकमात्र ट्रस्टी हैं, उक्त मंदिर के गेट के समीप कुछ अंश जमीन की बिक्री कर दी गयी है।

इनसे पूर्व बड़ी महारानी राजलक्ष्मी जी इसके ट्रस्टी थीं। राजलक्ष्मी जी ने महाराज कामेश्वर सिंह के चिता पर माधवेश्वर में मंदिर का निर्माण करवायी थी। छोटी महारानी कामसुन्दरी जी महाराज कामेश्वर सिंह कल्याणी ट्रस्ट बनवायी जिसके तहत किताबों का प्रकाशन ,महाराजा कामेश्वर सिंह जयंती आदि कराती हैं। पंडित दुर्गानंद झा, मेनेजर के ट्रस्टी बनने के बाद श्री केशव मोहन ठाकुर, पूर्व IAS की नियुक्ति हुई और उनके बाद दरभंगा राज के एक पदाधिकारी श्री मित्रा और फिर श्री बुधिकर झा मेनेजर रहे।

अभी महाराजा कामेश्वर सिंह चैरिटेबल ट्रस्ट के तीन ट्रस्टी श्री उदयनाथ झा (महारानी के बड़ी बहन का लड़का) जो महारानी के प्रतिनिधि हैं और राजकुमार शुभेश्वर सिंह के दोनों पुत्र हैं । दरअसल पब्लिक चैरिटेबल ट्रस्ट में ६ और ट्रस्टी बनाने का प्रावधान है।

ओझा मुकुंद झा के एकमात्र पुत्र कन्हया जी झा का देहांत उनके समय हीं हो गया था। कन्हया जी इंडियन नेशन प्रेस के मैनेजिंग डायरेक्टर थे उनके बाद राजकुमार शुभेश्वर सिंह मैनेजिंग डायरेक्टर बने। ओझा मुकुंद झा अपना दरभंगा स्थित सारामोहनपुर हाउस मिथिला विश्वविद्यालय के स्थापना के समय दिए थे वे खुद कन्ह्याजी कोठी जो लक्ष्मीश्वर विलास के पीछे है में रहते थे , उन्होंने जनकल्याण ट्रस्ट बनाये और अपना अधिकांश सम्पति दान कर दी।

पंडित द्वारिका नाथ झा गिरीन्द्र मोहन रोड के बंगला नंबर ५ में और पंडित दुर्गानंद झा बंगला नंबर ८ में , श्री मदनमोहन मिश्र बंगला नंबर २ में उक्त तीनो बंगला पब्लिक चैरिटी के हिस्से में था , बंगला नंबर ३ महारानी के और बंगला नंबर ४ राजकुमार शुभेश्वर सिंह के संतान के हिस्से में आया। जिसमे सभी बिक गये है मात्र बंगला नंबर ४ का मुख्य मकान बचा है। दरभंगा राज का पतन महाराजा के देहांत के ४-५ साल के बाद शरू हुआ जो ७५-७६ तक अधोगति को प्राप्त हो गया। १९ ८९-९० में इंडियन नेशन और आर्यावर्त समाचार के प्रकाशन बंद होना दरभंगा राज के ताबूत में अंतिम कील माना जायेगा हालाँकि १९९५ में किसी तरह इसका प्रकाशन प्रारम्भ भी की गयी लेकिन वह टिक नहीं पाया।

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