“गाल पर तिरंगा का स्टीकर, घोड़ों के साथ सेल्फी और ​सीमा -पार देश के खिलाफ नारा लगाना” – शायद वाघा बॉर्डर का इतना ही अर्थ समझते हैं लोग

* वाघा बॉर्डर पर अपने दोनों गाल पर प्लास्टिक वाला राष्ट्रध्वज का स्टिकर चिपकायी एक आधुनिक वेशभूषा से लैश नवयुवती से जब पूछा “क्या आप बता सकती हैं कि भारत के राष्ट्रध्वज का आकार-प्रकार क्या है? युवती का जबाब “नकारात्मक” था। 

* कुछ कदम बाद एक दसवीं कक्षा के छात्र से पूछा: “आप यहाँ क्या देखने आये हैं ?” बच्चा का जबाब था: “पापा कहते हैं यहाँ बैठकर पाकिस्तान के खिलाफ नारा लगाने में मजा आता है ।” 

* कुछ कदम और आगे बढ़ने पर सैन्य-घोड़े पर सज्ज एक जवान को चारो तरफ से घेरे युवक-युवतियों की भीड़ घोड़े के मुँह के साथ अपना-अपना चोंच (होठ) आगे किये सेल्फी ले रहे थे। मुझसे रहा नहीं गया और एक से पूछ बैठा: “बेटा आप इस तस्वीर का क्या करेंगे ? जबाब था : फेसबुक पर पोस्ट करेंगे। 

औसतन लोगों की मानसिक दशा इससे बेहतर नहीं है क्योंकि वाघा बॉर्डर पर एकत्रित भीड़ महज एक पर्यटक हैं जो पैरेड की समाप्ति के बाद अपने-अपने पानी के बोतल को वहीँ छोड़ आते हैं, बी एस एफ या अन्य लोगों द्वारा वितरित/बेचे गए राष्ट्रध्वज को चलते-फिरते रास्ते में छोड़ आते हैं, जवानों के साथ, उनके घोड़ों के साथ, प्रवेश-द्वार पर तस्वीर / सेल्फी लेकर खुश होते हैं, सोसल मिडिया पर चिपकाते हैं। अगर उन्हें सम्पूर्ण राष्ट्रगान या राष्ट्रगीत गाने को कहा जाय तो उस एकत्रित भीड़ में शायद दस लोग भी नहीं होंगे जो गर्व और फक्र से गा पाएंगे।

इससे भी बड़ी बिडंबना यह है कि पैरेड देखने के लिए एकत्रित भीड़ से बी एस एफ के अधिकारी गेट के दूसरे तरफ एकत्रित लोगों के देश को मुर्दाबाद – मुर्दाबाद उद्घोषित कराने में तनिक भी कसर नहीं छोड़ते। बॉर्डर सेक्युरिटी फ़ोर्स के जवान को दर्शकदीर्घा में बैठे लोगों से पाकिस्तान के खिलाफ नारे लगाने को कहते हैं । इतना ही नहीं, संध्या काल में दो-राष्ट्रों की सीमा-रेखा पर बॉलीवुड के फ़िल्मी गाने इस कदर बजाते हैं, वह भी इको-सिस्टम पर, जैसे उन गीतों के लिए गीतकार, संगीतकार, गायक या अभिनेता-अभिनेत्री जिन पर वह गीत फिल्माया गया था, स्पॉन्सर किये हों।

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भारत सरकार का रक्षा मंत्रालय और बी एस एफ के आला अधिकारियों को इस दिशा में पहल करनी चाहिए। इसका वजह यह है कि अगर यही क्रिया-प्रणाली बरकरार रहा तो आने वाले दिनों में सीमा पर देश की सुरक्षा के लिए मौत को गले लगाने वाले वीर-योद्धाओं, सेनाओं, अधिकारीयों, शहीदों का नाम देश के लोग कम जान पाएंगे और लोगों को याद रहेगा तो उन वीर-योद्धाओं, सेनाओं, अधिकारीयों, शहीदों के नाम को बेचकर बनी फिल्म के अभिनेता और अभिनेत्रियों का नाम जो आने वाले दिनों के लिए “कुशल संकेत” नहीं हैं।

हाँ, बी एस एफ़ जवानों द्वारा राष्ट्रध्वज उतारने के दौरान जो पैरेड किये जाते हैं, वह भले ही दोनों देशों के बीच खून खौलती हो, देखने में मनोरम लगता है – हमारा देश इन जवानो के हाथों सुरक्षित है। यह अलग बात है आये दिन भारत के समाज में, सड़कों पर सैन्य-जवानों को बेइज्जत करने की अनेकानेक घटनाएं आती रहती हैं।

पिछले दिनों वाघा बॉर्डर गया था। अमृतसर शहर से कोई ३० किलोमीटर दूर जहाँ रैडक्लिफ लाईन अंग्रेजों ने खिंचा और भारत-पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बाँट दिया। जैसे-जैसे वाघा बॉर्डर की ओर बढ़ रहा था, सड़क के दोनों ओर वीरानगी दिख रही थी। फसल का मौसम होने के बाबजूद खेतों में हरियाली नहीं दिख रही थी। हां, कभी-कभार माथे पर घासों की गठरी लिए कुछ महिलाएं दिख जाती थी। पंजाब जैसे प्रदेश में खेतों में ऐसी वीरानगी अच्छा नहीं लग रहा था ।

वाघा बॉर्डर न केवल भारत, बल्कि विश्व के पर्यटकों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है। हो भी क्यों नहीं। विश्व में ९० से अधिक फीसदी लोग अपने देश की सीमा-रेखा नहीं देखे होंगे। अटारी रेलवे स्टेशन से कुछ दूर स्थित वाघा बॉर्डर ​की सुरक्षा-व्यवस्था बॉर्डर सेक्युरिटी फ़ोर्स के पास है। यह गर्व की बात है।

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जब देश का बंटवारा हुआ तो भारत का एक भूभाग पाकिस्तान के रूप में अलग हो गया और ​खींच गई ​एक ​लकीर। अटारी गांव भारत का और उससे सटा गांव वाघा पाकिस्तान का हिस्सा हो ​गया । यहां से गुजरने वाली ​ग्रैंड ट्रंक रोड पर शानदेही कर दी ​गयी। यह अमृतसर और लौहौर को ही अलग नहीं करता, बल्कि भारत-पाकिस्तान की सीमा रेखा भी है।

सन ​1958 में यहां पर एक छोटी-सी पुलिस चौकी स्थापित की गई ​थी । यहां पर पुलिस हर आने-जाने वाले से पूछताछ करती थी। 1965 में बीएसएफ के स्थापना के साथ ही यहां की जिम्मेदारी इनको सौंपी गई और रिट्रीट का सिलसिला शुरू किया गया। 1990 के दशक में गेट को और बड़ा किया गया और 1998 में पंजाब में आतंकवाद के फैलने के बाद पूरी बॉर्डर ​को लोहे की कंटीली तार से गोंद दिया गया । 2001 में यहां पर दर्शक गैलरी बनाई गई जहां पर 15 से 20 हजार लोग रिट्रीट देखते हैं। ​फिर 2015 में इस गैलरी का दोबारा विस्तार किया जा रहा है।

वाघा बॉर्डर पर शाम के वक्त होने वाले परेड को देखने के लिए स्थानीय लोग और पर्यटक बड़ी संख्या में आते हैं। साथ ही परेड से पहले होने वाला रंगारंग समारोह ​भी होता है। यह समारोह 1959 में शुरू हुआ था और दोनों देशों के सरकार ने इसकी सहमति व्यक्त की थी। तब से, समारोह बहुत धूमधाम के साथ आयोजित किया जाता है इस समारोह ने दशकों से चली आ रही दुशमनी के बीच दोनों देशों के बीच अच्छाई का संकेत दिया। हालांकि, कुछ वर्षों के बाद समारोह ने एक आक्रामक मोड़ लिया है।

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​कहते हैं भीड़ की कोई जाति नहीं होती और वह भी अगर “स्मार्ट-फोन” धारक हो। मैं नहीं जानता की वाघा बॉर्डर पर नित्य दर्शकदीर्घा में बैठने वाले लोग राष्ट्र के प्रति कितने समर्पित हैं, या राष्ट्र की एकता-अखंडता को अक्षुण रखने के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले जवानों का कितना सम्मान और क़द्र करते होंगे; लेकिन एक बात तय है कि रोज उपस्थित होने ​वाले दर्शकों में शायद कुछ ही लोग ऐसे होंगे​, शायद ही कुछ लोग देश के रक्षा मंत्री का नाम जानते होंगे, शायद ही कुछ लोग थल-सेना, जल-सेना या वायु-सेना के प्रमुख का नाम जानते होंगे, उस पैरेड की शुरुआत करने वाली दो बी एस एफ महिला अधिकारी के सीने पर लिखा नाम को पढ़ते होंगे जो देश में शांति बनाये रखने के लिए देश की सीमा पर प्रत्येक क्षण गोली खाने के लिए सज्ज रहती हैं।

 

 

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