तिहाड़ जेल-2 ✍ तिहाड़ जेल की ‘काल’ कोठरियां, ‘लीवर’ खींचने के लिए ‘जल्लाद’ को जेल अधीक्षक का ‘अंतिम’ आदेश और अंतिम ‘सांस’ के लिए ‘बाहरी’ ताकत का प्रयोग

​तत्कालीन तिहाड़ जेल के अधीक्षक एबी शुक्ला जिन्होंने लाल रुमाल लहराकर जल्लादों को लीवर खींचने का संकेत दिया, उस रुमाल को दोस्तों को दिखाते थे

जेल रोड (तिहाड़ जेल), नई दिल्ली : रघुराज सिंह, रोहित ऋषभ, सिंगावरापु महालक्ष्मुडु, भावना वेंकडू, कंचारगुंटा सुब्बैया, कालीदिंडी वेंकट, नरसिम्हा राजू, चेंचू चाइना, रामी रेड्डी, जमुला लक्ष्मी, रेड्डी पोरेड्डीपेड्डा, हनमंत भीमप्पा भास्करी, नाथूराम गोडसे, नारायण दत्तात्रय आप्टे, हमाम सिंह, भगवान सिंह, राम सिंह, सोहन सिंह गाडगी, रोशन लाल, रतन बाई जैन, बीरेन्द्र नाथ दत्ता,  पांडुरंग तात्यासाहेब शिंदे, गोपाल चंद्र घोष, प्यारे लाल, राम गोपाल, नारायण सिंह, बिल्ला, रंगा, मोहम्मद शरीफ,श्रीचंद, मंज़ूर अहमद, जय चंद, हुकुम चंद, उजागर सिंह उर्फ संता सिंह, करतार सिंह, मकबूल भट्ट, सतवंत सिंह, केहर सिंह, अजमल कसाब, अफजल गुरु, याकूब मेनन, मुकेश सिंह, विनय शर्मा – ये सभी नाम लगभग 539 अपराधियों की सूची में अंकित हैं जिन्हें भारत के विभिन्न कारावासों में फांसी पर तब तक लटकाये रखा गया जब तक वह अंतिम सांस नहीं ले लिया, मृत्यु को प्राप्त नहीं कर लिया ।लेकिन 31 जनवरी, 1982 को फांसी पर लटकाने के बाद भी एक अपराधी की मौत नहीं हुयी थी – उसके अंतिम सांस के लिए बाहरी ताकत का इस्तेमाल किया गया था

साल 2015 में, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली ने 1947 से भारत में फांसी दिए गए व्यक्तियों की एक सूची तैयार की और पाया कि 1 जनवरी से 15 अगस्त 1947 की अवधि सहित कम से कम 752 अपराधियों को फांसी दी गई थी। आजादी के बाद भारत में पहली फांसी नाथूराम गोडसे को दी गई थी और मेमन से पहले आखिरी बार फांसी की सजा संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरु को दी गई थी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 1947 के बाद से देश में अब तक कुल 56 लोगों को फांसी दी गई है और याकूब मेमन भारत में फांसी की सजा पाने वाला 57वां अपराधी है। ब्रिटिश हुकूमत में किसी को दी गई पहली फांसी महाराजा नंदकुमार का नाम आता है जिन्हें 5 अगस्त 1775 में उन्हें कलकत्ता में फांसी पर लटका दिया।  

@अखबारवाला001 (233) ✍ दिल्ली के तिहाड़ कारावास में वह सब कुछ होता है जो कारावास में नहीं होनी चाहिए 😢

बहरहाल, भारत के विधि आयोग की 187 वीं रिपोर्ट में कहा गया है कि फांसी दिए जाने से एक दिन पहले कैदी को वजन, माप-तौल, गर्दन की नाश टूटना सुनिश्चित करने के लिए फंदे का आकार, गले का आकार और शरीर की अन्य आवशयक माप-तौल की भयावह प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। जैसे ही तख्ता हटना है, कैदी का शरीर उसके नीचे बने कुएं में झूल जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि गर्दन की नस टूटे बिना भी कैदी की मृत्यु हो जाती है। उसकी आँखें लगभग उसके सिर से बाहर निकल आती है। उसकी जीभ मुंह से बाहर निकलकर ऐंठ जाती है। उसकी गर्दन टूट भी सकती है और कई बार फंदे की रस्सी अपने साथ गर्दन की एक और की त्वचा और मांस भी खींच लेती है। कैदी का पेशाब निकल जाता है। वह मल त्याग कर देता है, जिसे देखकर वहां बैठे साक्षी लगभग सभी फांसियों को देखकर मूर्छित हो जाते हैं या उन्हें किसी के सहायता से साक्षी कक्ष से बाहर निकला जाता है। डाक्टर द्वारा एक छोटी से सीधी पर चढ़कर स्टेथोस्कोप से उसकी ह्रदय गति सुनंने और उसकी मृत्यु की घोषणा से पूर्व कैदी का शव लगभग 8 से 14 मिनट तक रस्सी से लटकता रहता है। जेल का एक गार्ड फांसी पर लटकाये गए व्यक्ति के पैरों के पास खड़ा होकर उसके शरीर को मजबूती से पकड़े रहता है, क्योंकि फांसी के कुछ मिनटों के दौरान कैदी सांस लेने के लिए काफी संघर्ष करता हैं। 

तिहाड़ जेल

भारत के विभिन्न कारावासों में अब तक फांसी पर लटका कर मौत दिए गए अपराधियों की अपनी-अपनी कहानियां अवश्य होंगी । वहां उपस्थित जेल के अधिकारियों सहित, चिकित्सक या जल्लाद, या जिनकी देखरेख में कैदियों को फांसी पर लटकाया गया होगा, प्रथम द्रष्टा के रूप में अलग-अलग स्थितियों से सामना किये होंगे । लेकिन महात्मा गांधी को जिस तारीख को गोली मारकर हत्या की गयी थी, कैलेण्डर के मुताबिक उस तारीख के अगले दिन, परन्तु साल 1948 के स्थान पर 1982 को सुबह-सवेरे दिल्ली के तिहाड़ जेल में जो घटना हुई, शायद कहीं नहीं हुई होगी।

अगर हुई भी होगी तो वहां उपस्थित जेल अधिकारी उस घटना को सार्वजनिक करने या दबाने में कितनी भूमिका निभाए होंगे, यह भी एक गहन शोध का विषय है। आम तौर पर जेल अधिकारी या जिन पर फांसी देने का अंतिम दायित्व सौंपा जाता है, किसी भी अप्रिय अथवा अनहोनी घटना को सार्वजनिक नहीं करते, आखिर नौकरी का सवाल है। लेकिन विगत दिनों जब दिल्ली स्थित केंद्रीय करावास तिहाड़ के पूर्व जेलर सुनील कुमार गुप्ता से बात कर रहे थे तो वे सेवा सन्हिता के साथ-साथ अपनी कर्तव्यनिष्ठा को मद्दे नजर रखते ऐसी बहुत सी बातें उजागर किये जिसे राष्ट्र के लोग नहीं जानते। यह अलग बात है कि गुप्ता जी को अपने 35-साल के सेवावधि के अंतिम दौर वह सब सहना पड़ा, जिसकी वे अपेक्षा नहीं किया थे। वे राजनितिक के साथ-साथ प्रशासनिक कार्रवाइयों का सामना भी किये।

यह अलग बात है कि भारत के सभी जेलों में कमोवेश स्थिति एक जैसी ही है, कहीं अधिक त्रासदी है तो कहीं कम। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि उन स्थियों को लाने में राजनीतिक लोगों से लेकर समाज के दबंगों, अधिकारियों, और जेल के अंदर सजा भुगत रहे कैदियों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। 31 जनवरी, 1982 को तिहाड़ में हुए उस विचित्र घटना का परिणाम यह हुआ कि उस घटना के तीन दशक बाद यह निर्णय लिया गया कि किसी भी फांसी के लिए पोस्टमार्टम अनिवार्य है। क्योंकि रंगा-बिल्ला को फांसी देने के बाद बिल्ला की मृत्यु तो तत्काल हो गयी थी, परन्तु रंगा की नाड़ियां चल रही थी। जेल के एक कर्मचारी को कुएं में उतरकर उसके शरीर को नीचे की ओर खींचा ताकि उसकी शेष सांस बाहर निकल जाय। यह मानवता के विरुद्ध है।

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आइये ऐतिहासिक तिहाड़ जेल चलते हैं। 31 जनवरी, 1982 को अत्यंत सवेरे रंगा और बिल्ला की गर्दनों में फंदे डाले गए। उसके चेहरों को काले कपड़ों से ढँक दिया गया ताकि वह यह नहीं देख पाय की उसके आसपास क्या हो रहा है। बिल्ला सुबकते हुए आंसू बहा रहा था, जबकि रंगा किसी विजेता की तरह अंतिम समय तक यही नारा लगता रहा ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल।’ जैसे ही वह अपने मौत के कुएं में लटका, उसके चेहरों का रंग बदल गया था। वह कुछ वैसा ही था, जैसे भय की स्थिति में चमड़ी अपना रंग बदलकर काली हो जाती है। यह ऐसा भय था, जो उसकी आँखों में साफ़ दिखाई दिया था। काली ने फकीरा के सहयोग से खटका (लीवर) खींच दिया और गड्ढे में जाकर बिल्ला और रंगा की जीवन लीला समाप्त हो गई। 

​पूर्व जेलर सुनील कुमार गुप्ता

बिल्ला और रंगा को सुबह सोकर उठने के बाद एक कप चाय दी गयी थी, जिसे देखकर लगता था कि जेल में कैदियों को उनके अंतिम समय में सर्वोत्तम उपलब्ध सेवाएं प्रदान की जाती थी। यह सुनिश्चित किया जाता था कि उन्हें प्राप्त अधिकारों का दृढ़ता से पालन हो। उन दोनों से अंतिम बार पूछा गया कि क्या वे अपनी-अपनी वसीयत लिखवाने के लिए किसी मजिस्ट्रेट को बुलाना चाहते हैं? बिल्ला और रंगा दोनों इंकार कर दिया था। इसके बाद कैदियों को स्नान करने के लिए प्रोत्साहित किया गया और उन्हें काले कपडे पहना दिए गए। उनके हाथों और पाओं को हथकड़ियों से जकड दिया गया और ब्लैक वारंट में निर्धारित समय से मात्र 10 मिनट पूर्व उन्हें फांसी के तख्ते पर लाया गया। जहाँ तक नियमों की बात है, महाराष्ट्र में यदि कैदी के परिवार वाले उसकी फांसी देखने के इच्छुक होते हैं तो उन्हें उसकी अनुमति दी जाती है। परन्तु दिल्ली राज्य में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए फांसी के समय केवल जेल के अधिकारी ही उपस्थित थे। 

अगली सुबह जनवरी का अंतिम दिन था। तिहाड़ अपने आखिरी काम के लिए तैयार थी। समूचे जेल रोड को बंद कर दिया गया था। मीडिया वाले कुछ न कुछ समाचार पाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे। सच्चाई यह थी कि उन्हें कुछ भी दिखाई देने वाला नहीं था, यहाँ तक की उन्हें उनसे मिलने आने वाले पारिवारिक सदस्यों की भी एक झलक नहीं मिली, क्योंकि फांसी कोठी अत्यंत वीरान क्षेत्र में थी और आम लोगों की दृष्टि से ओझल थी। इस फांसी घर के बारे में कोई उल्लेखनीय बात नहीं थी, सिवाय इसके की फांसी के तख्ते के नीचे 15 फीट गहरा एक कुआं था। वह कुआं लकड़ी के दो तख्तों से ढंका हुआ था, जो आपसे में एक लोहे के सरिये से जुड़े थे। उस कुएं के ऊपर लोहे के एक पाइप से  फांसी के फंदे लटके हुए थे। तख्ते के एक ओर एक लीवर (खटका) बना हुआ था। जब उस लीवर को खींचा जाता था तो दोनों तख्ते अलग होकर खुल जाते थे तथा तख्तों पर पड़े हुए व्यक्ति का शरीर गड्ढे में झूल जाता था और अचानक उसकी मृत्यु हो जाती थी। सैद्धांतिक रूप से लीवर खींचने के तुरंत बाद मृत्यु हो जानी चाहिए, परन्तु उस सुबह जांच के दौरान सिद्धांत और व्यवहार में अंतर था।

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बिल्ला और रंगा के अपराध के विषय में कोई संदेह नहीं था। उन्हें ब्लैक वारंट में निर्दिष्ट तिथि से एक सप्ताह पूर्व जेल नंबर – 3 स्थित फांसी कोठी में ले आया गया। तिहाड़ के इस विशेष भाग में 16 काल कोठरियां हैं और उनमें मृत्यु दंड प्राप्त कैदियों को फांसी के अंतिम सप्ताह में रखा जाता है। फांसी का तख़्त इसी ईमारत में बना हुआ है, जिसे अन्य कैदियों कमी दृष्टि से पूर्णतया अलग रखा जाता है ताकि वे फांसी की तैयारी को नहीं देख सकें। 

वैसे, उच्चतम न्यायलय के अनेक ऐसे निर्णय आये हैं जिनमें कहा गया है कि एकांत कारावास एक प्रकार से उत्पीड़न है, जिसे किसी पर भी लागु नहीं किया जा सकता। परन्तु लाल कोठरियों को पूर्णतया आवश्यक माना गया है। यही कारण है की उस क्षेत्र को तमिल नाडु स्पेशल पुलिस के विशेष प्रहरियों की सघन निगरानी में रखा जाता है। उन प्रहरियों को वहां दो-दो घंटों की पालियों में तैनात किया जाता है और उन्हें इस बात का विशेष निर्देश होता है कि वे पल भर के लिए भी कैदी के ऊपर से नजरें न हटाएँ.इसे बुनियादी तौर पर्व ‘आत्महत्या निगरानी’ कहा जाता है और इसी कारण से कैदियों की सभी निजी वस्तुओं, जिसमें पैजामे का नाड़ा भी शामिल है, को उनसे दूर रखा जाता है, क्योंकि उस नाड़े के जरिये कैदी अपनी जिंदगी खुद ही समाप्त कर सकता है। 

परिवार के सदस्यों और मित्रों के साथ एक आखिरी मुलाक़ात को छोड़कर किसी को उससे मिलने की अनुमति नहीं दी जाती है। संयोगवश यह निर्णय करना कैदी पर निर्भर होता है कि वह आखिरी मुलाकात चाहता है अथवा नहीं। कुछ कैदी किसी से भी मिलने के इक्षुक नहीं होते हैं। उन्हें अपनी अंतिम वसीयत लिखने का भी अवसर दिया जाता है और उसके साक्ष्य के रूप में जिला मजिस्ट्रेट को बुलाया जाता है। चौबीस घंटे के एक चक्र में कैदी को आधे घंटे के लिए आसपास घूमने की अनुमति दी जाती है। शेष समय का उपयोग कैदी द्वारा अपनी मृत्यु के लिए मानसिक रूप से तैयार होने के लिए किया जाता है। 

बिल्ला और रंगा के लिए ब्लैक वारंट  जारी होने की सुचना अख़बारों तक पहुँच गयी थी। गुप्ता के अनुसार, “मुझे इस बात की कोई जानकारी नहीं थी की इस खबर के लिक होने का स्रोत क्या था, क्योंकि हिंदुस्तान टाइम्स के पत्रकार  प्रभा दत्त ने जेल अधीक्षक के पास रंगा और बिल्ला का साक्षात्कार लेने की याचिका दी थी। जब जेल अधिकारियों ने उन्हें अनुमति देने से इंकार कर दिया तो वह उच्चतम न्यायालय पहुँच गयी और उसके पीछे पीछे समाचार एजेंसी के कुछ पत्रकार न्यायालय पहुँच गए। अपनी याचियका में प्रभा दत्त ने कहा था की कैदी का पक्ष सुनना महत्वपूर्ण है और अपने ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने कहा की वे मिल सकते हैं, बशर्ते कि दोनों स्वयं उनसे मिलने के इक्छुक हों।”

तिहाड़ जेल

30 जनवरी, 1982 को एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में पांच पत्रकारों के एक समूह को बिल्ला और रंगा से अंतिम बार बातचीत करने के लिए तिहाड़ जेल के अंदर ले जाया गया। बहरहाल, रंगा प्रभा दत्त या अन्य पत्रकारों से मिलने वार्ता के लिए राजी नहीं हुआ। जिस सिमित अवधि के लिए पत्रकारों को बिल्ला से बातचीत करने की इजाजत दी गयी थी, उसने अंतिम बार खुद को निर्दोष होने की दलील पेश की। 

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गुप्ता कहते हैं: “फांसी पर लटकाये जाने के पूर्व मैं रात में तीन अन्य अधिकारियों के साथ लाल कोठरी के बाहर ड्यूटी पर तैनात था। वहां हमें सुनिश्चित करना था कि निगरानी पर रखे गए प्रहरी अपना काम ठीक से करें। अतः हमने अधीक्षक के कमरे में बैठकर प्रतीक्षा की। उस दिन मेरी मनोदशा का वर्णन करने के लिए मेरे पास उचित शब्दों का अभाव था। मैंने उस रात रात का भोजन नहीं किया, क्योंकि बेचैनी के कारण मैं स्वयं को दोषी जैसा महसूस कर रहा था। लगभग हर घंटे या उससे कुछ काम समय में मैं उनकी कोठरियों में जाकर देखता था कि वे क्या कर रहे हैं।  मेरे विपरीत, रंगा ने शांतिपूर्ण अपना खाना खाया और अन्य रातों की तरह करवट बदलकर सोने लगा।”

बहरहाल, उसके हाव भाव से कटाई नहीं लगा कि वह उसकी आखिरी रात थी। दूसरी ओर बिल्ला ने न तो खाना खाया और न सोया ही। वह अपनी कोठरी के अंदर सारी रात चहलकदमी करते खुद को  निर्दोष और रंगा को दोषी बताता रहा। परन्तु उसके सारे दावे पत्थर की दीवारों से टकराकर चूर चूर हो गए थे। उसकी दया याचिकाएं निरस्त हो चुकी थी और यद्यपि तिहाड़ के इतिहास में  कुछ ऐसी उदहारण थे की फांसी के ग्यारहवें घंटे में रोक लगा दी गयी थी। परन्तु उनके मामले में किसी को अंतिम मिनट में किये जाने वाले हस्तक्षेप की आशा नहीं थी।

ऐसे ही एक मामले में फांसी स्थगित कर दी गयी थी। फांसी पर लटकाई जाने वाली महिला कैदी की जब अंतिम चिकित्सा जांच की गयी तो उसे गर्भवती पाया गया था। लेकिन खूंखार से खूंखार अपराधी के साथ भी लोग अपना सम्बन्ध बना लेते है और आज भी आप जब किसी को मौत के भय से रट बिलखते देखते हैं तो आप स्वयं हिल जाते हैं। रंगा ने बिल्ला के आंसुओं को देखकर उसका मजाक उड़ाते हुए कहा था, देखो मर्द होकर रो रहा है। 

वैसे जेल नियमावलियां बताती है कि ऐसे मामलों में मृत्यु तत्काल हो जाती है। तख्ते के अचानक खुलने और शरीर के हवा में झूलने के कारण गर्दन की नस टूट जाती है और व्यक्ति की मौत हो जाती है। यही वह आदर्श स्थिति होती है, जिसे सुनिश्चित करने के लिए जल्लाद काम करते हैं।

गुप्ता जी कहते हैं: “लेकिन मेरे पहली ही फांसी के दौरान बहुत विचित्र हुआ था। स्थापित नियमों के अंतर्गत जब डाक्टर ने दोनों की नाड़ी की जांच की तो ऐसा लगा कि बिल्ला की मृत्यु तो तत्काल हो गयी थी, परन्तु रंगा की नाड़ियां अभी भी चल रही थी। हमें बताया गया कि कि चूँकि वह काफी लम्बा था, इसलिए उसने अपनी सांस रोक ली थी और फांसी से बच गया था। इसलिए जेल के एक कर्मचारी को कुएं में उतरकर उसके शरीर को नीचे की और खींचने का काम सौंपा गया, ताकि उसकी बची खुश सांस भी बाहर निकल जाय। गार्ड ने खुद को सौंपी गयी जिम्मेदारी निभाई और इस प्रकार उसकी अंतिम सांस निकल गयी।”

उस घटना के 32 वर्षों बाद शत्रुघ्न चौहान का निर्णय जारी किया गया जिसमें कहा गया की जेल में दी जाने वाली किसी भी फांसी के लिए पोस्टमार्टम अनिवार्य है। वरना यह सच्चाई बाहर आ जाती कि रंगा की फांसी में बाहरी सहायता की जरुरत पड़ी थी। बिल्ला और रंगा के परिवारों की और से उनके शवों को लेने भी कोई नहीं आया था, इसलिए दोनों के शवों को दफ़नाने की जिम्मेदारी हमारे ऊपर छोड़ दी गयी थी। जेल अधीक्षक ने उस दायित्व पत्र पर हस्ताक्षर किये जिसमें यह कहा गया था कि उन्होंने फांसियों को कार्यान्वित किया था।

जेल नियमावली के प्रावधानों के अनुसार, जल्लादों को उसके तख्ते का लीवर खींचने का निर्देश देना जेल अधीक्षक का दायित्व है, जिसपर फांसी दिए जाने वाले कैदी खड़े होते हैं। तत्कालीन अधीक्षक एबी शुक्ला ने लाल रंग का रुमाल हवा में लहराया और जल्लादों को लिवर खींचने का संकेत दिया। उन्होंने उस लाल रुमाल को संभाल कर अपने पास रख लिया था और अपने दोस्तों को दिखाते थे की रंगा और बिल्ला को फांसी देने के लिए उसी रुमाल का प्रयोग हुआ था। 

✍ क्रमशः ……

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