अपने 16वें जन्मदिन के अवसर पर मैं नहीं जानता था कि आठवें दिन पाटलिपुत्र नरेश महादेव मेरी जीवन रेखा की शुरुआत पटना के मजहरुल हक़ पथ से लिखने जा रहे हैं। मैं इस धरती पर 10 जनवरी 1959 को अवतरित हुआ था । उस दिन 10 जनवरी था और साल था 1975 । तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी विश्व में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए, विश्व की अन्य भाषाओँ के साथ तनकर खड़े होने के लिए महाराष्ट्र के नागपुर में पहला विश्व हिंदी सम्मेलन का उद्घाटन कर रही थी। उस सम्मलेन का आयोजन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने किया था। स्वतंत्र भारत ही नहीं, विश्व में हिंदी को बढ़ावा देने के लिए वह पहला विश्व हिंदी सम्मेलन था।
उन दिनों हम पटना कॉलेज के सामने वाले किराये के मकान में रहते थे, जहाँ बिजली की कोई व्यवस्था नहीं थी। लालटेन से घर में भी सांझ दिया जाता था, और उसी की रोशनी से पढ़कर जीवन को भी प्रकाशमय बनाने का प्रयास होता था। लेकिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण के घर से कोई पौने किलोमीटर दूर कदमकुआं स्थित विश्व हिंदी सम्मेलन के सम्मानार्थ ऐतिहासिक पीले रंग वाले हिंदी साहित्य सम्मलेन भवन को बिजली की झालड़ से चकमका दिया गया था। मैं इसलिए स्वयं को और अपने जन्मदिन को हिंदी को मजबूत बनाने के लिए समर्पित कर दिया उस दिन से – भले विगत पांच दशकों से जीवन यापन के लिए अंग्रेजी अखबारों, पत्रिकाओं में कार्य करना पड़ा हो। खैर।
पिछले दिनों हिन्दी के एक लेखक एक जलेबी की दूकान पर गए। लेखक ने दुकानदार से कहा कि “पाँच जलेवी देना भैय्या।” दुकानदार बोला: पन्द्रह रुपये देना।
लेखक बहुत ही मायूसी के साथ दूकानदार को कहते हैं कि ‘मैं तो सिर्फ चार शब्द में याचना किया और इन चार शब्दों को जब मैं लिखकर किसी पत्र-पत्रिका या कारपोरेट घरानों में हिंदी नहीं जानने वाले पैजामा का नारा पकडे अधिकारी को दूंगा, तो वे मुझे 30 पैसे प्रति शब्द के हिसाब से (वह भी बहुत याचना के बाद) भुगतान करेंगे। यानी मुझे एक रूपया बीस पैसा मिलेगा । मैं इन पांच जलेबी के लिए पन्द्रह रुपये कहाँ से लाऊंगा ?
दुकानदार लेखक की स्थिति को समझते हुए लेखक के हाथ में “एक पाव जलेवी” रखते कहता है: “तभी तो हिन्दी साहित्य की माँ – बहन हो रही है। इतना ही नहीं, मर्दों के लिए ‘भाई-साहब-भाई साहब’ और ‘जनानियों’ के लिए ‘मैडम’ का सम्बोधन तो आय गले का कांटा हो गया है हिंदी के आँगन में।”
वह तो धन्यवाद दीजिये जिस समय रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, मधुशाला, अलंकार, आनन्द मठ, एक गधे की वापसी, गबन, गोदान, गोरा, निर्मला, कबुलीबाला, जीना तो पड़ेगा, अंधायुग, मुद्रा राक्षस, उखड़े खम्बे आदि कहानियों, कविताओं की रचना की गई। उन दिनों भारतीय भाषाओँ में लेखक, लेखनी और शब्दों की कीमत थी।
लेकिन आज आज़ादी के इतने वर्ष बाद, जबकि देश में अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है, भारतीय मुद्राओं का मोल अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लुढ़क रहा है, बल्कि हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ के शब्दों की कीमत तो लुढ़की ही नहीं; लोगों ने तो उसे “चरित्रहीन” भी बना दिया। नहीं तो आज अपने ही देश में, अपनी ही भाषा 20 पैसे से 30 पैसे प्रतिशब्द कैसे बिकती। वैसी स्थिति में “मेरे प्यारे देश! देह या मन को नमन करूँ मैं ? किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं?”
हिंदी के पत्रकार इस बात को मानते हैं कि हिन्दी में लिखने की संभावना बहुत कम है और लिखने के पैसे तो नहीं के बराबर हैं। इसलिए कई लोग जो ‘बाममार्गी’ थे, वे दक्षिणपंथी’ हो गए, कई ‘मध्यमार्ग’ अपना लिए।
लिखने में एक बड़ा झंझट यह है कि आपके नाम से छपेगा। पाठक वही होंगे। इसलिए कोई भी बहुत ज्यादा नहीं छापेगा। जब अच्छे पैसे मिलते थे तो सम्पादकीय पृष्ठ के एक लेख के 1000 रुपए मिलते थे। महीने के चार-छह हजार में क्या होता है। और जो इतने पैसे देता था वो इतना बिकता था कि आप कहीं और नहीं लिख सकते थे।
उन दिनों बैंक में खाता खोलना आसान था। किसी भी नाम से खाता खुल सकता था। हम लोग दो-चार नाम से लिखते थे। रेडियो से भी पैसे मिलते थे और अनुवाद भी करता था। सब मिलाकर चल जाता था। अब काम लगातार कम हुआ है। दूसरे नाम से खाता ही नहीं खुलेगी। आयकर और जीएसटी के नियमों का उल्लंघन है। इसलिए संभावना लगातार कम हुई है जबकि काम करने वाले बढ़े हैं। नौकरियां भी कम हुई हैं। जहां पहले 50 लोग होते थे वहां 10 हैं वो भी सस्ते वाले। पुराने अनुभवी लोग बेरोजगार हैं। सस्ते या मुफ्त में काम करने के लिए तैयार। इसलिए यह हाल हुई है।
यदि देखा जाय तो हिंदी का गला घोटने का प्रयास आज़ादी के बाद से लगातार किया जाता रहा है। जिम्मेदार लोगों द्वारा, अंग्रेजी अनिवार्यता कई परीक्षाओं से लेकर योग्यता का एक अनुचित मापदंड आज भी बनी हुई है। भारतीय समाज में, ऐसे में हिंदी भाषा का जो भी उत्कर्ष हो सका हैं, वो इसके अपने विशाल पाठक वर्ग व बड़ी आबादी की बोलचाल की भाषा होने से हो सका हैं, जिसके मूल में कहीं न कहीं बाज़ारवादी मजबूरी भी हैं जिसमें ग्राहक की रुचि,भाषा आदि सर्वोपरी हैं!
लेकिन बड़ा प्रश्न ये हैं कि हिन्दी लेखन को प्रोत्साहन देना आवश्यक हैं – आर्थिक व जनजागरण दोनों स्तर पर क्योंकि हिंदी पत्र पत्रिकाओं में लेखन पर जो पारिश्रमिक दिया जा रहा हैं, वो बेहद कम हैं। इससे न तो हिंदी बचेगी और ना ही लेखक। इतना ही नहीं, हिंदी भाषा प्रेमियों और मर्मज्ञों की उदासीनता के चलते भाषा की मूल आत्मा अपने स्वरूप को खो देगी, वैसे भी देवनागरी लिपि को आज हिंगलिश लिपि सोशल मीडिया के दौर में अतिक्रमण कर रही है।
हिंदी के प्रबुद्धों का कहना है कि हिंदी वालों का सबसे ज्यादा शोषण किया हैं। हिंदी गुटबाजी से निकले तो कुछ हो, नए लोगों को कोई प्रोत्साहित करे तो कुछ हो। आजकल तो एक गुट नयी हिंदी का भी नारा लगाने लगी है, यहाँ भी बंटवारा! सबको मुफ्त में लिखने वाले चाहिए। हिंदी वाले केवल उसी को पैसा देते हैं जो पहले से ही समर्थ और समृद्ध या लोकप्रिय है। बेड़ा गर्क कर रखा है! लेकिन, उम्मीद है कि ये हालत बदलेंगे! हम तो प्रार्थना ही कर सकते हैं।
इनके अलावा जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है वह यह कि इनके द्वारा लेखकों को कितना भुगतान किया जा रहा है । आजकल जैसा कि देखने में आ रहा है, पाठकों की तुलना में लेखकों की संख्या में अपार वृद्धि हुई है। और यही कारण है कि पत्र पत्रिकायें ज्यादा शब्द समृद्ध लोगों से लिखवाने से बच रहे हैं और जिनसे लिखवाया जा रहा है, उनको बीस से तीस पैसे प्रति शब्द दिये जा रहे हैं। यही वो कड़ी है जिसके कारण हिन्दी की दुर्दशा हुई है, क्योंकि ज्यादा शब्द संपन्न लेखक इस काम से हाथ खींच रहे हैं। इससे हाथ खींचना इसलिये उनकी मजबूरी बन चुकी है क्योंकि यह किसी भी तरह उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में सक्षम नहीं है, और बेहतर लोगों के लेखन के क्षेत्र में ना रहने से हिन्दी को जो नुकसान हुआ है वह दयनीय है।
बहरहाल, पचौरी साहब, हिंदी साहित्यकार हैं, लिखते हैं: साहित्य क्या राजनीति से कम है? वहां जाति है, तो यहाँ भी जाती है। वहाँ धर्म है, तो यहाँ भी है। वहां विचारहीनता है, तो यहाॅ॑ भी है। वहां परिवारवाद है, तो यहाँ भी है। वहाॅ॑ ललित और दलित विमर्श है, तो यहाँ भी है। वहां स्त्री विमर्श है, तो यहाँ भी है। वहां सबका साथ, सबका विकास है, तो यहाँ भी है। वहां झूठ-सच है, तो यहां सचमुच का “झूठा-सच” है।
इतना ही नहीं, अब तो अखिल भारतीय साहित्यकार मोर्चा भी बन गया है और नारा भी है ‘हर पुस्तक एक मशाल’ है। लेकिन उन्होंने यह भी लिखा कि “जब एक काव्यात्मक पंक्ति राजनीति को बदलने का दावा कर सकती है, तब साहित्य राजनीति को बदलने का दावा क्यों नहीं कर सकता?” इसलिए उन्होंने हरेक छोटे-बडे़, अच्छे-बुरे साहित्यकारों से अपील कर दिए, ‘आवहु मिलकर सब रोवहु भारत आई। हा हा! साहित्य की दुर्दशा न देखी जाई।’ आओ, सब मिलकर चुनाव लड़ो, जीतो और अपनी साहित्यिक सरकार बनाकर दिखा दो कि अब साहित्य ही है, जो समाज, जनतंत्र और आप सबकी रक्षा कर सकता है। यही सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा व स्वास्थ्य दे सकता है। राजनीति की बनाई सड़क टूट सकती है, घर फूट सकता है, लेकिन साहित्य में बनी सड़क न कभी टूटती है, न ही घर फूटता है।”
वे आगे लिखते हैं: “बहुत हो लिया इस-उसके दस्तखत के नीचे अपने दस्तखत करना। माँ सरस्वती के वरद पुत्र-पुत्रियों, किस-किस के पिछलग्गू बने रहोगे और कब तक? ये एक्शन के दिन हैं। हे मेरे लेखक, अपने को देख। सब नेता भ्रष्ट और कलंकी। अकेला तू अभ्रष्ट और निष्कलंकी। तू होता भी कैसे? तुझे मौका ही नहीं मिला। एक मौका तो लेकर देख। तेरी सात पुश्तें तर जाएंगी। इसलिए अपनी पार्टी बना। चुनावों में कूद। टिकट दे। टिकट ले। सोच तो। न जाने कितने बजर बट्टू तेरी कविताओं की एक एक दो-दो लाइनें गलत-सलत सुना-सुनाकर गद्दीनशी हो गए। जब कबीर, सूर, तुलसी, रहीम, निराला, दिनकर, गालिब, फैज, दुष्यंत, राहत इंदौरी और नजीर बनारसी की दो-चार लाइनें जपकर मामूली नेता सत्ता तक पहुॅ॑च सकते हैं, तो तू क्यों नहीं पहुॅ॑च सकता?
बहुत रो चुका कि कविता नहीं छपती। कहानी नहीं छपती। राॅयल्टी नहीं मिलती। एक बार कमान हाथ में ले, फिर देख बड़े से बड़ा प्रकाशक तेरी ग्रंथावली छापने के लिए एक लाइन लगाएगा। नोबेल वाले हाथ जोड़े खड़े होंगे। साहित्य का नया युग आएगा। तभी वह राजनीति का चमचा बनने की जगह उसके आगे जलने व चलने वाली मशाल बन सकेगा। इसीलिए मैं ‘जाली नोट’ के गाने की तर्ज पर चेताता हूॅ॑ कि हे कलम के धनी प्रतिभा पुंज, तू लुंज-पुंज मत बन। ‘छुरी बन कांटा बन ओ माई सन, सब कुछ बन किसी का चमचा नहीं बन!’