बिहार का सत्यानाश (भाग-3) विशेष कहानी : ‘चारा’ गिरा रे-‘चुनाव’ के बाजार में : बिहार में भ्रष्टाचार से सबसे अधिक लाभान्वित हुए लालू यादव और नीतीश कुमार एंड कंपनी, ‘नए नारों की खरीद-बिक्री’ जारी

का हो लालू जी !!! का हो नीतीश

रायसीना पहाड़ (नई दिल्ली) :​ उन दिनों हाजीपुर नरेश ‘दलित’ नेता रामविलास पासवान जीवित थे। पासवान जी के साथ सन चौहत्तर के जमाने से बेहतर संबंध था। लुटियंस दिल्ली के जनपथ (भले उस पथ पर जनता के लिए कोई झोपड़ी भी न हो) पर संख्या-12 की कोठी भारत सरकार का शहरी विकास मंत्रालय राम विलास पासवान के नाम आवंटित किया था। पासवान जी की मित्रसूची में समाज के सभी वर्गों के लोगों की संख्या अनंत थी। बिना किसी सुरक्षा जांच के, पैंट-पतलून में हाथ दिए, जेब-झोला में झांके अंदर प्रवेश था। यह व्यवहार बिहार से दिल्ली में बने नेताओं के घरों में (अपवाद छोड़कर) नहीं था। पचहत्तर सवाल पहले संत्री पूछता था। बिहार के कई नेता उन दिनों भी ऐसे थे और आज भी वैसे हैं, जो भाड़े पर पटना के ‘अंतर्राष्ट्रीय’ हवाई अड्डे पर बुलाते हैं ताली बजबाने के लिए, जयजयकार करबाने के लिए। दुर्भाग्य यह है कि उन्हें राजनीतिक ठेकेदार’ बाद में पैसा भी नहीं देते और नेताजी से मिले प्रसाद को स्वयं गटक जाते हैं बिना डकार लिए। खैर।

पासवान जी मुझे भी अपना एक मित्र ही मानते थे, लेकिन बोलचाल में कभी मित्र नहीं, अपितु ‘दुन्नु भाई’ से सम्बोधित करते थे जब हम दोनों साथ होते थे। उस दिन भी हम दोनों कोई 45 मिनट तक बात कर रहे थे विभिन्न मुद्दों पर। अख़बार में कहानी लिखनी थी। वे दफ्तर से घर आ गए थे। वजह था नीतीश कुमार का घर पर पधारना। नीतीश कुमार की आने की सूचना मिलते ही मैं नमस्कार कर विदा लेने का यत्न किया। पासवान जी कहते हैं ‘रुक जाइए, नीतीश जी आ रहे हैं, मिलकर जाइएगा।’ उनकी बात में स्नेह था और मैं ना नहीं कह सका। लेकिन अगले शब्द में कह दिया : नीतीश जी मुझे देखकर बमक जायेंगे !!”

वे पूछे क्यों? मैंने कहा कि चारा घोटाला के बारे में उनकी एक कहानी अखबार में लिख दिए हैं तब से बमके हुए हैं। पासवान जी तक्षण कहते हैं : “एक करोड़”? तभी नितीश कुमार का काफिला 12 जनपथ में प्रवेश किया। पासवान जी और मैं दरवाजे पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। स्वागत होने के बाद नीतीश कुमार मुझे देखकर मुंह लटकाये थे। शारीरिक भाषा कुछ इस प्रकार थी कि मुझे निकल जाना चाहिए। कमरा में प्रवेश लेते पासवान जी मुस्कुराते कहते हैं: “नीतीश जी, अपने पुराने मित्र झाजी। कितनी कहानी लिखे हैं इंडियन नेशन से इंडियन एक्सप्रेस तक।” तभी नितीश जी कहते हैं: “स्टेट्समैन को क्यों छोड़ दिए नाम लेना। मेरे बारे में कहानी किये की मैं एक करोड़ रूपया लिया हूँ चारा घोटाला में।” साल 2001 था।

यह सुनते ही पासवान जी और हम दोनों हंसने लगे यह कहते कि ‘कहानी तो सीबीआई के फाइल से थी। हम तो सिर्फ लिखे थे। आपका नाम था उस कागज़ में लिखा और यह भी लिखा था किस होटल में लक्ष्मी जी घर का बदला बदली की। अब उस बात को लेकर जीवन भर तो गुस्सा में नहीं रहेंगे।” खैर, दोनों को नमस्कार करते विदा लिया। आज 2025 बीत गया और नीतीश कुमार आज तक हमसे बात नहीं किए हैं। सुनते हैं आवास पर प्रत्येक फ़ोन को वे स्वयं जायज़ा लेते हैं लेकिन अनेकों बार टेलीफोन कक्ष में संवाद पटके हैं, शायद अभी तक गुस्सा जारी है। मुझे न तो विधान परिषद में जाना नहीं है और ना ही राज्य सरकार से सम्मानित होना है, न जीवन के साठ वसंत बाद लाभ प्राप्त करना है। अब मुंह फुलाए हैं तो रहें। कल जब उनकी सरकार गिर जाएगी, मुख्यमंत्री कार्यालय में कुर्सी पर कोई और बैठेगा, तो फिर एक कहानी लिखेंगे। खैर।

चलिए, भारतीय संसद – रफ़ी मार्ग – राजेंद्र प्रसाद रोड – रायसिना रॉड के नुक्कड़ पर स्थित रेल भवन चलते हैं। हाजीपुर के सांसद रामविलास पासवान (अब दिवंगत) के कालखंड (1997) के बाद बाढ़ के सांसद नीतीश कुमार सन 1998 में भारत के रेलमंत्री बने। ऐतिहासिक चारा घोटाला काण्ड का जन्म हो गया था जिसमें तत्कालीन दक्षिण बिहार के रांची, चाईबासा, दुमका, गुमला और जमशेदपुर और बांका के जिला कोषागार शामिल थे। चारा घोटाला 950+ करोड़ रुपये का गबन होने की बात थी। कथित धोखाधड़ी कई वर्षों तक चली, जिसमें कागज पर पशुओं के विशाल झुंडों का निर्माण शामिल था, जिसके लिए चारा, दवाइयाँ और पशुपालन उपकरण कथित रूप से प्राप्त किए गए थे। उस कार्य में बिहार सरकार के कई प्रशासनिक और निर्वाचित नेताओं ने अंजाम दिया था। कई नेता इसमें दोषी पाए गए थे जिन्हे विधान सभा से लेकर संसद से इस्तीफा देने पड़ा था। घोटाले में अन्य के अलावे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र भी थे।

तत्कालीन भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक टी.एन. चतुर्वेदी ने फरवरी 1985 में बिहार राज्य के खजाने और विभागों द्वारा मासिक लेखा प्रस्तुत करने में देरी का संज्ञान लिया और तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि यह अस्थायी गबन का संकेत हो सकता है। उन्होंने कई मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल में प्रधान महालेखाकार (पीएजी) और सीएजी द्वारा बिहार सरकार की गहन जांच का एक सतत सिलसिला शुरू कर दिया। परन्तु शक्तिशाली लोगों द्वारा उन चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया।

यह बिहार विधानमंडल द्वारा सुशील कुमार मोदी (अब दिवंगत) की अगुआई में प्रकाशित किताब का मुख्यपृष्ठ है

बिहार सरकार के प्रमुख राजनीतिक और प्रशासनिक अधिकारी, राज्य की भ्रष्टाचार निरोधक सतर्कता इकाई के एक पुलिस निरीक्षक बिधु भूषण द्विवेदी ने 1992 में उसी सतर्कता प्रभाग के महानिदेशक जी नारायण को एक रिपोर्ट दायर की, जिसमें चारा घोटाले और मुख्यमंत्री स्तर पर संदिग्ध संलिप्तता का वर्णन किया गया था। पशुपालन विभाग के डिप्टी कमिश्नर अमित खरे ने आखिरकार 1996 में छापेमारी की अनुमति दी। बरामद किए गए कागजात के अनुसार, भोजन की आपूर्ति के बहाने पैसे की हेराफेरी की गई थी। इसकी शुरुआत निचले स्तर के सरकारी अधिकारियों द्वारा किए गए छोटे पैमाने के धोखाधड़ी से हुई इनमें से एक का नेतृत्व राज्य विकास आयुक्त फूलचंद सिंह कर रहे थे, जो बाद में घोटाले में शामिल थे।

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इस बीच, राज्य सरकार के निर्देश पर, बिहार पुलिस ने कई एफआईआर दर्ज कीं। बाद में, पटना उच्च न्यायालय में कई जनहित याचिकाएँ (पीआईएल) भी दायर की गई, जिसमें मामले को सीबीआई को सौंपने की मांग की गई। 11 मार्च, 1996 को दिए गए आदेश में, पटना उच्च न्यायालय ने याचिकाओं के जवाब में घोषित किया कि “विभाग में अतिरिक्त निकासी 1977-78 से ही हो रही है।” नतीजतन, सुझाई गई जांच और पूछताछ में 1977-1978 से लेकर 1995-1996 तक के वर्ष शामिल होने चाहिए।” इसके अलावा, अदालत ने सीबीआई को आदेश दिया कि वह 1977-78 से 1995-96 तक बिहार राज्य में पशुपालन विभाग में अत्यधिक निकासी और व्यय के सभी मामलों की जांच और छानबीन करे, और जहां निकासी धोखाधड़ी की प्रकृति की पाई जाए, वहां मामला दर्ज करे और उन मामलों में जल्द से जल्द जांच पूरी करे।

जब सीबीआई ने अपनी जांच शुरू की, तो उसने लालू यादव, जगन्नाथ मिश्र (अब दिवंगत) और वरिष्ठ अधिकारियों से उनकी भागीदारी के बारे में पूछताछ की। पटना उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद, एजेंसी ने राज्य पुलिस द्वारा पहले से दर्ज 41 मामलों की जांच शुरू की, और खुफिया रिपोर्टों और शिकायतों के आधार पर 23 मामले दर्ज किए गए। कुल मिलाकर, सीबीआई ने चारा घोटाले की चौंसठ घटनाओं की जांच की। सीबीआई ने 27 मार्च, 1996 को चाईबासा कोषागार मामले में पहली प्राथमिकी दर्ज की। जून 1997 में, सीबीआई ने बिहार के राज्यपाल से लालू यादव के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी, जो उस समय मुख्यमंत्री थे, और उनके और 55 अन्य के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 420 (जालसाजी) और 120 (बी) (आपराधिक साजिश की सजा) के साथ-साथ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (बी) (एक सरकारी कर्मचारी द्वारा आपराधिक कदाचार) के तहत आरोप पत्र दायर किया।

सीबीआई आरोप पत्र में लालू यादव का नाम आने के बाद राजनीतिक विवाद शुरू हो गया। वे जनता दल के सदस्य थे, जिसने घोटाले की जांच के दौरान उनके मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का विरोध किया था। जनता दल के बढ़ते दबाव के जवाब में उन्होंने जुलाई 1997 में राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया और मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन अपनी पत्नी राबड़ी देवी को अपनी जगह नियुक्त किया। चारा घोटाला का पहला मुकदमा फरवरी 2002 में शुरू हुआ था। शुरू में कुल 170 लोगों पर आरोप लगाए गए थे, जिनमें से 55 की मौत हो गई, सात सरकारी गवाह, छह भाग गए और दो ने आरोपों को स्वीकार कर लिया।

मार्च 2012 में, लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र पर बांका और भागलपुर जिलों से धोखाधड़ी से पैसे निकालने का आरोप लगाया गया था। सितंबर 2013 में लालू यादव को चाईबासा कोषागार से 37.7 करोड़ रुपये चोरी करने के इस मामले में पहली बार दोषी पाया गया था। उन्हें पांच साल जेल की सजा सुनाई गई थी, लेकिन दिसंबर 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें जमानत दे दी थी। दूसरा चारा मामला 2017 में फिर से सामने आईं जब सीबीआई की विशेष अदालत ने उन्हें दूसरे घोटाले के मामले में दोषी पाया, जिसमें दिसंबर 2017 में देवघर कोषागार से 89.27 लाख रुपये की अवैध निकासी शामिल थी। इस मामले में यादव दोषी पाया गया और एक अन्य मामले में साढ़े तीन साल की जेल और 10 लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई। 3.5 साल की सजा का आधा हिस्सा काटने के बाद उन्हें जुलाई 2021 में जमानत मिल गई। दूसरी ओर जगन्नाथ मिश्र को दोषी नहीं पाया गया।

लालू यादव को जनवरी 2018 में चाईबासा कोषागार से 33.13 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी से निकासी के लिए तीसरे चारा मामले में दोषी ठहराया गया था। इस मामले में उन्हें पांच साल जेल की सजा सुनाई गई थी। लालू प्रसाद को दुमका कोषागार मामले में चौथी बार दोषी ठहराया गया। सीबीआई की विशेष अदालत ने यादव को मार्च 2018 में चौथे चारा मामले में दिसंबर 1995 और जनवरी 1996 के बीच दुमका कोषागार से 3.76 करोड़ रुपये अवैध रूप से निकालने के लिए दोषी ठहराया था। उन्हें दुमका कोषागार से 3.76 करोड़ रुपये की धोखाधड़ी से निकासी के लिए 14 साल की जेल और 60 लाख रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई थी। पिछले साल अप्रैल में उन्हें इस मामले में झारखंड उच्च न्यायालय से जमानत मिली थी।

यह बिहार विधानमंडल द्वारा सुशील कुमार मोदी (अब दिवंगत) की अगुआई में प्रकाशित किताब का पृष्ठ है

डोरंडा कोषागार (रांची) से 139.35 करोड़ रुपये का गबन लालू यादव की पांचवीं सजा थी। डोरंडा कोषागार गबन मामले में उन्हें पांच साल की सजा और 60 लाख रुपये का जुर्माना लगाया गया था। चाईबासा कोषागार के दो अलग-अलग मामलों में लालू यादव को सात साल की सजा, दुमका कोषागार से अवैध निकासी के लिए पांच साल की सजा और देवघर कोषागार से अवैध निकासी के लिए चार साल की सजा सुनाई गई थी। लालू यादव ने चारों मामलों में अपनी आधी सजा काट ली है।

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जिस कालखंड में चारा घोटाला सार्वजनिक हुआ था, उसी कालखंड में, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो निदेशक की कुर्सी पर जुलाई 31, 1996 को विराजमान हुए जोगिन्दर सिंह। सिंह 11 माह ब्यूरो के निदेशक रहे, लेकिन उसी 11-महीने में उन्होंने जो किया, वह भी एक इतिहास बना, अगर माने तो। ब्यूरो के लोग आज भी कहते हैं कि कार्यालय के अंदर की जानकारी को उन्होंने जिस प्रकार सार्वजनिक किया किताब के माध्यम से, ऐसा क्यों किया वे बेहतर जानते थे। भगवान् उनकी आत्मा को शांति दें। उस दौराम जो राजनितिक घटनाएँ हुई, उसके तहत केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशक जोगिंदर सिंह को हटना पड़ा। ब्यूरो में विशेष निदेशक आर सी शर्मा विवादास्पद सीबीआई प्रमुख का स्थान लिए। शर्मा को सेवा में एक साल का विस्तार दिया गया था। वे बोफोर्स, चंद्रा स्वामी, सेंट किट्स, प्रतिभूति घोटाले के मामलों की जांच के प्रभारी थे।

सिंह को हटाए जाने के तुरंत बाद सरकार ने स्पष्ट किया कि सीबीआई के शीर्ष पर बदलाव से बिहार में चारा घोटाले की चल रही जांच पर कोई असर नहीं पड़ेगा। लालू यादव से जुड़े मामले की एजेंसी की जांच की निगरानी सीबीआई के संयुक्त निदेशक (पूर्व) यू एन बिस्वास कर रहे थे। सिंह के 11 महीने का कार्यकाल उथल-पुथल भरा रहा और वे राजनेताओं, न्यायपालिका, कार्यपालिका और मीडिया के निरंतर हमले का शिकार रहे। उस समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने विभिन्न मामलों में शामिल राजनेताओं के साथ सिंह की सांठगांठ पर कड़ी आपत्ति जताई। सिंह के कार्यकाल का सबसे महत्वपूर्ण क्षण 21 जनवरी को आया, जब उन्हें 650 मिलियन रुपए के बोफोर्स भुगतान से संबंधित गुप्त स्विस बैंक दस्तावेज प्राप्त हुए। अप्रैल में, सिंह ने वादा किया था कि हवाला और बोफोर्स जांच सहित सभी प्रमुख मामले अक्टूबर तक समाप्त कर दिए जाएंगे।

उधर, चारा घोटाले में लालू यादव के खिलाफ आरोप पत्र दायर होने से बहुत पहले ही आरोप पत्र दायर करने के अपने फैसले की एजेंसी की घोषणा से राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया। मांग की गई कि सीबीआई निदेशक पर कार्रवाई की जाए। सीबीआई की कार्यप्रणाली की भी कड़ी आलोचना हुई । हवाला मामले में सीबीआई द्वारा फंसाए गए कई राजनेताओं को अदालतों ने बरी कर दिया है, जिन्हें जैन डायरियों में कोई कानूनी योग्यता नहीं मिली, जिस पर ब्यूरो ने अपना पूरा मामला आधारित किया था। सेंट किट्स मामले में – जिसमें पी वी नरसिम्हा राव को सीबीआई द्वारा आरोप पत्र दायर किया गया था – अदालत ने पूर्व प्रधान मंत्री के खिलाफ एजेंसी के मामले को अपर्याप्त पाया और उन्हें पूर्व केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री के के तिवारी के साथ बरी कर दिया। सिंह के निर्देशन में सीबीआई ने जिन अन्य संवेदनशील मामलों की जांच की उनमें झामुमो सांसदों के रिश्वत मामले, 1.33 अरब रुपये का यूरिया घोटाला, पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखराम द्वारा विभिन्न दूरसंचार सौदे और 100,000 डॉलर के लखुभाई पाठक धोखाधड़ी मामले शामिल थे।

INSIDE CBI किताब जो लालू यादव ही नहीं, नीतीश कुमार सहित दर्जनों नेताओं को बिहार की राजनीति में आधार दिया

जोगिन्दर सिंह एक तरफ जहाँ दिल्ली और देश के अख़बारों में नित्य प्रकाशित हो रहे थे, उसी कालखंड में, यानी 1999 में उनके द्वारा लिखित किताब INSIDE CBI प्रकाशित हुआ। करीब 277-पृष्ठ के उस किताब को चन्द्रिका पब्लिकेशसन्स ने प्रकाशित किया था। सिंह की पत्नी श्रीमती सुरेंदर कौर, भारतीय सूचना सेवा की अधिकारी थी और भारत सरकार के प्रकाशन विभाग में निदेशक थी। दिल्ली के अख़बार विक्रेताओं का कहना था कि भारत सरकार के प्रकाश विभाग द्वारा प्रकाशित इंप्लॉयमेंट न्यूज, रोजगार समाचार और अन्य प्रकाशनों का जिम्मा एक ऐसे व्यक्ति के पास था जो सबों से बहुत नजदीक थे। एवंक्रमेण तत्कालीन परिस्थिति के मद्दे नजर कथित तौर पर किताब नीतीश कुमार को कथित तौर पर प्रदेश की राजनीति का ध्रुव बनाया। लोग कहते हैं कि आज वे सज्जन नीतीश कुमार के दाहिना हाथ हैं। वजह भी था। उस कालखंड में बिहार की राजनीति में दूसरी पंक्ति नहीं थी जो मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर देख सके। नेपथ्य से लालू यादव कुछ वर्षों तक सरकार चलाये, परन्तु उनकी पकड़ उत्तरोत्तर कमजोर होती गयी और इसका फायदा हुआ नीतीश कुमार और कंपनी को। लालू यादव भी प्रदेश की राजनीति को अपनी पत्नी, पुत्री और दोनों पुत्रों के माध्यम से जकड़े रहे।

कहते हैं कि सिंह अपने जीवन काल में करीब 25 किताबों लिखे। वे एक बेहतरीन वक्ता थे। लेकिन, 4 मई, 2012 को, यानी उनके मृत्यु के पांच साल पहले भारत का सर्वोच्च न्यायालय जोगिंदर सिंह अपने ही ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी में वित्तीय अनियमितताओं के आरोपों में घेर लिया। सिंह दिल्ली के द्वारका इलाके में हाई प्रोफाइल नव संसद विहार कोऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी के अध्यक्ष थे, जब तक कि उन्हें रजिस्ट्रार सहकारी समितियों के एक आदेश द्वारा अनौपचारिक रूप से हटा नहीं दिया गया। यह आदेश निवासियों, जिनमें से कुछ शीर्ष राजनेता और नौकरशाह हैं, द्वारा जोगिन्दर सिंह द्वारा कथित वित्तीय गड़बड़ी के बारे में शिकायत करने के बाद आया था। हालांकि सिंह ने सभी आरोपों को खारिज कर दिया था।

उन पर वार्षिक आम बैठक (एजीएम) में बिना मंजूरी के रखरखाव शुल्क बढ़ाने का भी आरोप है। उनके खिलाफ एक और आरोप यह है कि उन्होंने तीन साल तक ऑडिट की सुविधा नहीं दी। हालांकि, उनके खिलाफ सभी आरोपों में सबसे गंभीर आरोप मौजूदा बाजार दर पर दो खाली फ्लैटों की बिक्री है। निवासियों का दावा है कि प्रत्येक फ्लैट की कीमत 1 करोड़ रुपये नहीं बल्कि 44 लाख रुपये होनी चाहिए थी। प्रत्येक फ्लैट की कीमत के लिए दिल्ली सहकारी समितियों की मंजूरी भी नहीं ली गई थी। बहरहाल, श्रीमती कौर का देहावसान 13 जून, 2000 को हुआ था, जबकि उनके पति जोगिन्दर सिंह 77 वर्ष की आयु में, लम्बी बीमारी के बाद 3 फरवरी, 2017 को मृत्यु को प्राप्त किये थे।

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लालू यादव और उनकी अर्धांगिनी पूर्व मुख्यमंत्री बिहार श्रीमती राबड़ी देवी

चलिए पटना चलते हैं। वाजपेयी के कालखंड में नीतीश कुमार 20 मार्च 2001 – 22 मई, 2004 तक रेल मंत्री थे। रेल मंत्री बनने से पूर्व 2000 में वे अटल बिहारी वाजपेयी के तरह 16 दिन पर प्रधानमंत्री) मार्च 2000 में, केंद्र में वाजपेयी सरकार के कहने पर नीतीश पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री चुने गए। उस कालखंड में इस कार्य के लिए नेपथ्य से घन्यवाद के पात्र थे जॉर्ज फर्नांडिस। चारा घोटाला कांड का 2000 के बिहार चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ा। राष्ट्रीय जनता दल ने आराम से चुनाव जीत लिया। अप्रैल 2000 में विशेष सीबीआई अदालत के समक्ष आरोप तय किए गए। राबड़ी देवी को सह-आरोपी बनाया गया और उन्हें जमानत दे दी गई। लालू प्रसाद की जमानत याचिका खारिज कर दी गई और उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। अक्टूबर 2001 में बिहार के विभाजन और झारखंड नए राज्य के गठन के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने घोटाले के मामलों को झारखंड स्थानांतरित कर दिया।

30 सितंबर, 2013 को लालू यादव और मिश्र के साथ-साथ 45 अन्य को विशेष सीबीआई न्यायाधीश प्रवास कुमार सिंह ने दोषी पाया। फैसले के परिणामस्वरूप प्रसाद अब लोकसभा में सेवा करने के योग्य नहीं थे। जेल से रिहा होने के बाद दोनों को छह साल तक विधानसभा/परिषद सहित किसी भी चुनाव में भाग लेने से रोक दिया गया था। इसी तरह, नवंबर 2014 को सीबीआई ने झारखंड उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी जिसमें लालू यादव के खिलाफ चार लंबित चारा घोटाले के मामलों को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि एक मामले में दोषी ठहराए गए व्यक्ति पर समान गवाहों और सबूतों के आधार पर तुलनीय मामलों में मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। न्यायालय ने लालू यादव के खिलाफ निचली अदालत में कार्यवाही जारी रखने के सीबीआई के अनुरोध को बरकरार रखा।

लालू यादव, जगन्नाथ मिश्र और सुशील कुमार मोदी एक बेहतरीन पल में। आज मिश्र और मोदी नहीं हैं, ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें

2000 के बाद 2005 विधानसभा चुनाव में में भारतीय जनता पार्टी के सुशील मोदी (अब दिवंगत) और नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) ने चारा घोटाले को मुख्य मुद्दा बनाया और 2005 का चुनाव जीत लिया। सुशील मोदी तो चारा चोर और घोटाला नाम से विधान मण्डल से एक-एक घटना का ब्योरा देते किताब भी प्रकाशित किए। 2005 के बिहार विधानसभा चुनावों में जीत के बाद, कुमार ने एक बार फिर बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लिए । 2000 से 2005 तक बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल के दौरान ‘सामाजिक न्याय और विकास’ को राजनीतिक विषय बनाया /लोगबाग भी उन्हें ‘तथाकथित विकास पुरुष’ अलंकरण से अलंकृत किये।मतदाताओं को लुभाने के लिए प्रदेश में सरकारी कोष से साइकिल बांटे और भूखे विद्यालयीय बच्चों को पानी जैसे खिचड़ी और पानी खिलने का कार्य शुरू किया। इस प्रयास को ‘मिड डे मिल’ का नाम दिया गया। वैसे इस कार्यक्रम में लगे लोग, अधिकारी भी जानते हैं कि उस प्रयास से किसका-किसका ‘पेट भरा ‘ । उधर सुशील मोदी नीतीश का अप-मुख्यमंत्री बने रहे, बाद में, उन्हें राज्यसभा आये और यहाँ से अनंत यात्रा पर निकल गये। उधर बिहार की स्थिति, जहां तक भाष्टाचार का सवाल है, अपराध और अपराधियों का सवाल है – क्या स्थिति है, मतदाता से बेहतर कौन जानते हैं।

ख़ैर। 2010 में, नीतीश कुमार एक बार फिर तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। आरजेडी और कांग्रेस के साथ 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद, उन्होंने प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। लेकिन तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण ‘महागठबंधन’ के टूटने के बाद, उन्होंने 26 जुलाई, 2017 को महागठबंधन को समाप्त करते हुए इस्तीफा दे दिया।एक संक्षिप्त कार्यकाल के बाद, कुमार ने पद से इस्तीफा दे दिया और एक बार फिर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से हाथ मिला लिया। कुमार ने 2020 में सातवीं बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। यानी वे कभी नहीं चाहे कि उनको छोड़कर, उनके पार्टी के लोग, यह अन्य राजनीतिक पार्टी के लोग मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे।

ये थे लालू यादव

क्या समझे? साल 2000 से 2025 चुनाव तक जिस वित्तीय अराजकता को लेकर विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने पटना के गोलघर से लेकर दिल्ली के कुतब मीनार के ऊपर बैठकर, खड़े होकर, लाउडस्पीकर से चोर-चोरे चिल्लाए, आज उस दौर के सभी लोग (जो जीवित हैं) बिहार के राजनीतिक गलियारे में, संविधानिक कुर्सियों से लेकर दिल्ली के संसद तक बैठे हैं – सत्ता का आंनद ले रहे हैं। लेकिन इन ढ़ाई दशकों में आज प्रदेश की साक्षरता दर 61.7 फीसदी है। महिला साक्षरता 53.57 फीसदी। रोजी-रोजगार के लिए एक तरफ जहाँ प्रदेश से लोग पलायित हो रहे हैं, वहीं नेतागिरी करने, राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने मंत्री-संत्री बनने लोगबाग देश दुनिया से बिहार पहुँचते हैं।

क्रमशः

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