बनारस:
वैसे भारत में “ठगों” का अब कोई सीमा निर्धारण नहीं रहा, कलकत्ता में एस्प्लेनेड पर भी मिलेंगे, पटना के सर्पेंटाईन रोड पर भी मिलेंगे और दिल्ली के राजपथ पर तो भरे-परे हैं। लेकिन “बनारस के ठगों” की “बात ही कुछ और” है उसमें भी अगर “ठग” “आयातित” हो तो क्या बात है।
बनारस में कौन ठग है और कौन रईस, यह बात ज़रा मुश्किल से समझ में आती है। ‘ठग ही जाने ठग की भाषा’ कहावत के अनुसार जहाँ भाषा में इतना अन्तर है तब उनकी वेश-भूषा और हथकंडों में कितना अन्तर होगा, यह समझने की बात है। सच पूछिए तो बनारसी ठगों की कोई खास पहचान नहीं है। वह आपके पास सरकारी अधिकारी बनकर आ सकता है, आपका पुरोहित बनकर आ सकता है, नेता बनकर आ सकता है, सफाई कर्मचारी बनकर आ सकता है, नाविक बनकर आ सकता है, दुकानदार बनकर आ सकता है, व्यापारी बनकर आ सकता है, उद्यमी बनकर आ सकता है, उद्योगपति बनकर आ सकता है, पत्रकार बनकर आ सकता है, लेखक बनकर आ सकता है, गेस्ट हॉउस का मालिक बनकर आ सकता है, आपके ससुराल के सम्बन्धी बनकर आ सकता है, यहां तक की साला-साली बनकर भी आ सकता है और आप उनकी बातों से मंत्रमुग्ध होकर दिन-दहाड़े, बीच चौराहे पर “लूट” सकते हैं। बहरहाल, “हाल-फिलहाल का अनुभव तो होगा ही आप सबों को” !!!!!
आप अस्सी घाट पर बैठकर “चाय पर बहसबाजी” करते रहेंगे, उधर आपके नाम पर गदौलिया चौक पर कोई “हाथ साफ़ कर” निकल जायेगा। गजब का शहर है बनारस। पिछले कुछ वर्षों से “ठगी के किस्से” तो बनारस ही नहीं, राष्ट्रीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी गुल खिला रहा है। प्राचीन काल में इस विद्या की उत्पत्ति चाहे जहाँ हुई हो, पर आधुनिक युग में इस कला के सर्वश्रेष्ठ आचार्य काशी में हो चुके हैं, ऐसा माना जाता है।
वैसे तो अब कश्मीर से कन्याकुमारी तक ठग हो गए हैं, इस व्यवसाय का न केवल राजनीतिकरण बल्कि कॉर्पोरेटाइजेशन भी हो गया है, बस “पेटेंट” लेना शेष है क्योंकि ठगों के माई-बाप नहीं होते। वक्त जरूरत पर वे अपने बाप को भी ठग लेते हैं।
बना रहे बनारस के सम्मानित श्री विश्वनाथ मुखर्जी साहेब कहते हैं एक बार एक सुनार परिवार में उन्हीं के घर की लड़की ससुराल से कुछ सोना लेकर अपने पिता के घर जेवर बनवाने के लिए आयी। बेटा आग में तपाकर जेवर बनाने लगा तभी पिता ‘राम-राम’ कह उठे। बेटे को इशारा समझते देर नहीं लगी। उसने कहा, ‘‘क्या राम-राम बकते हो। सोने की लंका मिट्टी में मिल गयी है।’’ पिता ने सोचा था कि बेटा कहीं बहन के प्रति रियायत न बरते। इधर बेटा पिता से भी होशियार निकला। पिता के इशारा करने के पहले ही उसने बहन के जेवर से सोना कपटकर राख में मिला दिया था। यह है ठगों की भाषा का नमूना।
आवेश तिवारी जी का कहना है कि बनारस के ठग ही थे जिन्होंने १७ अगस्त १७८१ को वारेन हस्टिंग और उनकी फ़ौज को भगा दिया। हुआ ये की वारेन हास्टिंग काशीराम चेतसिंह से पचास लाख रुपया बतौर जुरमाना वसूल करना चाहता था। राजा चेत सिंह के हर अनुरोध को उसने ठुकरा दिया और बनारस आकर कबीर चौरा स्थित एक मकान में जो माधोदास के नाम से जाना जाता है, आकर ठहर गया। शहर में राजा साहेब के गिरफ्तार होने की बात फैली। किसी बनारसी ने तुकबंदी गढ़कर प्रचारित किया तो हर आदमी के जुबान पर एक ही बात सुनाई पड़ने लगी –
“घोड़े पे हौदा और हाथी पे जीन डर कर भाग वारेन हेस्टिंग”
“घोड़े पे हौदा और हाथी पे जीन” की बात अंग्रेजों को रहस्यमय प्रतीत हुयी। वे इसका अर्थ नहीं समझ सके और यह सोचकर की भागने में ही कल्याण है, रातो रात वारेन हास्टिंग साढ़े चार सौ फौजियों लेकर, अपने दलाल बेनीराम की सहायत से भगा और चुनार की किला में शरण ली।
मुखर्जी साहेब कहते है कि गले में सिकड़ी, आँखों पर चश्मा, पैरों में नागरा जूता, कान में इत्र का फाहा, तन पर तंजेब का कुर्ता, सर पर दोपल्लिया टोपी पहने और हाथ में चाँदी की मूठ की छड़ी लिये बाजार में टहलनेवाला व्यक्ति शहर का नामी रईस हो सकता है और नम्बरी ठग भी। वह व्यक्ति आवारा या शोहदा भी हो सकता है और एक पक्का जासूस भी। इसलिए बनारस में कौन व्यक्ति क्या है, जब तक अच्छी तरह जान न लिया जाए, उसके बारे में राय देना उचित नहीं।
आज तो हालत यह है कि बेटा बाप को ठगता है तो बाप बेटे को। पति पत्नी को ठग समझता है तो पत्नी पति को। अधिक दूर क्यों रेल, बस और रिक्शे पर सवार होते समय लोग अपने सहयात्री को इस प्रकार घूरते हैं मानो किसी ‘चाइयाँ’ या गिरहकट के पास बैठ रहे हों। सिर्फ यही नहीं, बल्कि तुरन्त अपनी अगल-बगल की जेबों को उठाकर सामने की ओर कर लेते हैं ताकि उनका सहयात्री उसका नाजायजज फायदा न उठा ले।
अगर आप यह सोचते हों कि खास बनारस के व्यक्ति ठगों के चंगुल में नहीं फँसते तो आपका यह खयाल गलत है। यह ठीक है कि बनारसी लोग ठगों के अनेक हथकंडों से परिचित हो गये हैं। इधर “ठगों का दल भी प्रगतिशील” हो गया है। वे नित्य नये हथकंडों का आविष्कार करते रहते हैं।
एक जमाना था, जब नकली मृत बच्चा बनाकर औरतें आने-जानेवाले मुसाफिरों को ठगा करती थीं। परेदशी यात्री बनकर ‘हमारा सब सामान चोरी चला गया’ कहकर लोग लोटा बेचते हुए दिखाई देते थे। कुछ बाबा दो-एक चमत्कार दिखाकर लोगों को ठगा करते थे। कुछ लोग दूसरों की कमजोरी का और औरतों के प्रेमपत्रों को कब्जे में कर ठगने का कौशल रचते हैं। नयी कम्पनी, नयी फर्म और नयी संस्था बनाकर लोगों को ठगना साधारण बात हो गयी है।
सिर्फ पुरुष ठग ही इस कार्य में लिप्त नहीं रहते। पुरुषों से कहीं अधिक महिलाएँ इस दिशा में अधिक सक्रिय भाग लेती हैं। एक बार एक दुकानदार के यहाँ चालीस रुपया का कपड़ा लेकर अपने सोते हुए बच्चे को उसके यहाँ रख महिला ठग अपना सौ रुपये का नोट भुनाने के लिए आगे बढ़ गयी। जब काफी देर तक नहीं लौटी तब दुकानदार ने सोचा कि आखिर लड़का रो क्यों नहीं रहा है? कपड़ा हटाकर जब देखा तब वहाँ लड़के के स्थान पर रबड़ का पुतला था। उस समय तक हजरत चालीस रुपये का कपड़ा खो चुके थे।
मुखर्जी साहेब फिर कहते हैं
नेपाल के राजपरिवार से सम्बद्ध एक राणा साहब परिवार सहित काशी दर्शन के निमित्त पधारे थे। गंगास्नान करनेवाली औरतों को कलात्मक ढंग से गायब करके उनके शरीर पर के आभूषणों पर हाथ साफ़ कर देने की घटनाएँ पर्याप्त सुख्याति प्राप्त कर चुकी थीं। होता यह था कि गंगा के अन्दर, घाट से दूर खूँटे गाड़ दिये गये थे। घाट से डुबकी लगाकर औरतों को घसीटकर उन्हीं खूँटों में बाँध दिया जाता था। घटना-स्थल से काफी दूर होने के कारण किसी माई के लाल को रहस्य का भास भी नहीं होता था। आभूषण तो जाते ही थे, लाश तक का कोई पता नहीं चलता था।
उक्त राणा साहब अपने को जरा होशियार समझते थे। उन्होंने सोचा, ऐसी घटनाएँ औरतों के शरीर के आभूषणों के कारण ही घटित होती हैं। सो उन्होंने परिवार की औरतों से स्नान के पूर्व शरीर के आभूषणों को उतार देने को कहा। सारे आभूषणों को एक मजबूत टोकरी के नीचे दबा, उसके ऊपर हाथ में नंगी खुखरी लेकर हजरत जम गये। मन में ठगों को एक बढ़िया-सी गाली देकर निश्चिन्त हो गये। बनारसी ठगों की नजर आभूषणों पर पहले ही पड़ चुकी थी और इसका मतलब था, जैसे भी हो, उन पर अधिकार जमाना। औरतों का शरीर निराभूषण था, सो वे व्यर्थ थीं। आकर्षण का केन्द्र राणा साहब ही थे।
थोड़ी ही देर बाद राणा साहब ने देखा, साठ-सत्तर वर्ष का एक वृद्ध स्नानोपरान्त भीगे ही वस्त्रों में सीढ़ी पर चढ़ रहा है। भीड़-भाड़ बहुत थी। अचानक उस वृद्ध की गीली धोती से एक गिन्नी झन्न-से राणा साहब के पास ही गिरी। परन्तु वृद्ध राम-राम कहता हुआ आगे ही बढ़ता गया। राणा साहब ने चौंककर देखा, दस कदम बाद फिर एक गिन्नी, दस कदम बाद एक और—ऐसे ही हर दस कदम बाद बीसों गिन्नियाँ पड़ी थीं, पर लगता था उनकी ओर वृद्ध का ध्यान ही न गया हो। गिन्नियों की चमक ने राणा को विचलित-सा कर दिया। धीरे से उठे और उन गिन्नियों को समेट ले आये। वृद्ध अदृश्य हो चुका था। गिन्नियों को जेब के हवाले कर वे फिर टोकरी पर जा बैठे। खेल समाप्त हो चुका था। औरतें जब स्नान करके वापस आयीं तब टोकरी के नीचे आभूषणों के स्थान पर बड़ा-सा ‘जीरो’ रखा था।
आवेश तिवारी जी के अनुसार बनारस में ठगी सिर्फ दूसरों की धन हड़पने के लिए नहीं की जाती, मौज मस्ती के लिए भी ठगी की जाती है। यानि एक तरह से यह लोक व्यवहार का हिस्सा है। अगर आप बनारस भ्रमण के लिए आ रहे हैं और नए हैं तो घाटों, गलियों, मंदिरों, साँढ़ों के अलावे ठगों से सामना होना निश्चित है। बनारस की ठगी शेष दुनिया की ढगी से विलक्षण है। यहाँ की ठगी बहुत हद तक धार्मिक ठगी रह गयी है, जो मंदिरों, घाटों और पुरानी गलियों में पराकाष्ठा पर है। यहाँ की ठगी के पीछे आपराधिक अवधारणा काम है, लिप्सा अधिक है। कशी के साथ ठगी का नाता सिर्फ इसलिए जुड़ा है क्योंकि यहीं से मुक्ति का भी नाता जुड़ा है। यहाँ की ठगी में हास्य भी है और रस भी।
मुखर्जी साहेब के अनुसार कहा जाता है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी का बनारसी ठगों से खूब पाला पड़ा था। आधुनिक युग की सबसे बड़ी ठगी ‘रेशमी रूमाल ठगी’ को माना जाता है (कहा जाता है मध्यप्रदेश में ‘रूमाल ठगों’ का एक गिरोह था। ये लोग रेशमी रूमाल की सहायता से ठगी करते थे। जब इन्हें यह मालूम हो जाता था कि अमुक यात्री या व्यक्ति के पास रकम है तब ये राह चलते यात्री के पीछे से रेशमी रूमाल का फन्दा फेंककर पीछे खींच लेते थे। रेशमी रूमाल में पैसा रखकर दो गाँठ बाँध दी जाती थीं। जब यह दोनों गाँठ आपस में मिलकर कस जाते थे तब श्वासनलिका दब जाती थी और इस प्रकार दम घुट जाने की वजह से यात्री का प्राणान्त हो जाता था।) यह ठगी मध्य भारत में होती थी। उस ठगी का संचालन और रेशमी रूमाल का निर्माण बनारस में ही होता था। शायद इसीलिए लार्ड विलियम वेंटिंक को इसे दबाने के लिए फौज भेजनी पड़ी थी।
बनारस में ठगी का पुराना है बनारस। यह अपने आप में ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। धार्मिक नगरी होने के कारण लोग यहाँ धर्म के नाम पर पुण्य लूटने की गरज से और मठ-मन्दिर बनवाने के लिए अपने साथ काफी रकम लाते थे। उस रकम को यहाँ के ठग नकली तीर्थ-पुरोहित बनकर उड़ाते थे। स्वर्ग में अपनी सीट रिजर्व कराने के कांक्षी को पूजा-अर्चना में उलझाकर बेचारे की गर्दन इस सफाई से उतार ली जाती थी कि क्या मजाल जो आँख भी झपक सके।
बाँझ औरतों को बच्चा होने की दवा देनेवाले, अबारे पति को वश में करने के लिए पूजा-पाठ करनेवाले, मुकदमे जितानेवाले और कीमिया (नकली सोना) बनानेवालों की कमी यहाँ नहीं है।
तिवारी जी के अनुसार औरंगजेब के समय बनारस में ठगों की संख्या सर्वाधिक थी। उस समय एक ठगी विद्या जिसे काशी करवट कहा जाता था, काफी प्रचलन में थी। दरअसल कशी करवट एक कुएं का नाम है जो आज भी कशी-विश्वनाथ परिसर में है मगर बंद कर दिया गया है। बताया जाता है की बनारस में आकर बहुत से मुर्ख यात्री, बहुत से पैसे देकर कशी करवट लिया करते थे, यानि आरे से काटकर या तलवार पर कूदकर मुक्ति के लिए अपनी जान दे देते थे। बाद में आपराधिक मनोवृति के पंडों ने बोले-भले यात्रियों को मारकर उनकी लाश कुएं में फेंकना शुरू कर दिया।
काशी करवट के बारे में मुहम्मद जायसी के पद्मावत में लिखा है:
“करवट तापा होंहि जिमि चुरू”
अलेक्जेंडर हेमिल्टन (१७४४) लिखे हैं कि काशी में पण्डे भरी रकम लेकर वेवकूफ लोगों को पकड़कर उन्हें बुर्ज पर चढ़कर नीचे तलवार और खंजर लगे कुएं में यह कहकर कूदा देते थे की यहाँ मरने वाला सीधे स्वर्ग जाता है।
अब तो बनारस के लोग काफी होशियार हो गये हैं। नकली साले-रिश्तेदारों पर भी विश्वास नहीं करते। बहरहाल, देखिये क्या होता है ?